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| '''श्लेष''' | | '''श्लेष''' | ||
| '''एक शब्द में एक से अधिक अर्थ (जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त | | '''एक [[शब्द (व्याकरण)|शब्द]] में एक से अधिक अर्थ (जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त हो किंतु प्रसंग भेद में उसके अर्थ अलग-अलग हों)''' | ||
| '''रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून॥ ([[रहीम]])<br />मोती→चमक, मानुष→प्रतिष्ठा, चून→जल''' | | '''रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून॥ ([[रहीम]])<br />मोती→चमक, मानुष→प्रतिष्ठा, चून→जल''' | ||
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| श्लेषमूला वक्रोक्ति | | श्लेषमूला वक्रोक्ति | ||
| श्लेष के द्वारा वक्रोक्ति | | श्लेष के द्वारा वक्रोक्ति | ||
| एक कबूतर देख हाथ में पूछा कहाँ अपर है? उसने कहा अपर कैसा? वह उड़ गया सपर है॥ (गुरुभक्त सिंह) <br />यहाँ पूर्वार्द्ध में [[जहाँगीर]] ने दूसरे कबूतर के बारे में पूछने के लिए 'अपर' (दूसरा) शब्द का प्रयोग किया है जबकि उत्तरार्द्ध में नूरजहाँ ने 'अपर' का 'बिना (पंख) वाला' अर्थ कर दिया है। | | एक कबूतर देख हाथ में पूछा कहाँ अपर है? उसने कहा अपर कैसा? वह उड़ गया सपर है॥ (गुरुभक्त सिंह) <br />यहाँ पूर्वार्द्ध में [[जहाँगीर]] ने दूसरे कबूतर के बारे में पूछने के लिए 'अपर' (दूसरा) शब्द का प्रयोग किया है जबकि उत्तरार्द्ध में [[नूरजहाँ]] ने 'अपर' का 'बिना (पंख) वाला' अर्थ कर दिया है। | ||
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| काकुमूला वक्रोक्ति | | काकुमूला वक्रोक्ति | ||
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| दृष्टांत | | दृष्टांत | ||
|उपमेय- उपमान में बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव ( भाव- साम्य- एक ही आशय की दो भिन्न अभिव्यक्ति) | |उपमेय- उपमान में बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव ( भाव- साम्य- एक ही आशय की दो भिन्न अभिव्यक्ति) | ||
| उसका मुख निसर्ग सुन्दर (प्राकृतिक रूप से सुन्दर) है; चन्द्रमा को प्रसाधन की क्या आवश्यकता?<br /> मूल आशय- सुन्दर वस्तु का स्वाभाविक (प्राकृतिक) रूप से सुन्दर लगना | | उसका मुख निसर्ग सुन्दर (प्राकृतिक रूप से सुन्दर) है; [[चन्द्रमा]] को प्रसाधन की क्या आवश्यकता?<br /> मूल आशय- सुन्दर वस्तु का स्वाभाविक (प्राकृतिक) रूप से सुन्दर लगना | ||
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| व्यतिरेक | | व्यतिरेक | ||
| उपमान की अपेक्षा उपमेय का | | उपमान की अपेक्षा उपमेय का व्यतिरेक यानी उत्कर्ष वर्णन | ||
|चन्द्र सकलंक, मुख निष्कलंक; दोनों में समता कैसी? | |चन्द्र सकलंक, मुख निष्कलंक; दोनों में समता कैसी? | ||
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| अन्योक्ति\ अप्रस्तुत प्रशंसा | | अन्योक्ति\ अप्रस्तुत प्रशंसा | ||
|समासोक्ति का उल्टा यानी अप्रस्तुत (प्रतीकों) के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन | |समासोक्ति का उल्टा यानी अप्रस्तुत (प्रतीकों) के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन | ||
|नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल। <br />अली कली ही सौं विध्यौं, आगे कौन हवाल॥ ([[बिहारीलाल]]) <br />यहाँ भ्रमर और काली का प्रसंग अप्रस्तुत विधान के रूप में है, जिसके माध्यम से राजा | |नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल। <br />अली कली ही सौं विध्यौं, आगे कौन हवाल॥ ([[बिहारीलाल]]) <br />यहाँ भ्रमर और काली का प्रसंग अप्रस्तुत विधान के रूप में है, जिसके माध्यम से राजा [[जयसिंह]] को सचेत किया गया है। | ||
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| पर्यायोक्ति | | पर्यायोक्ति | ||
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| विशेषोक्ति | | विशेषोक्ति | ||
| कारण के रहते हुए भी कार्य | | कारण के रहते हुए भी कार्य | ||
| नैनौं से सदैव जल की वर्षा होती रहती है, तब का न होना भी प्यास नहीं बुझती। | | नैनौं से सदैव [[जल]] की वर्षा होती रहती है, तब का न होना भी प्यास नहीं बुझती। | ||
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| असंगति | | असंगति | ||
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| विषम | | विषम | ||
| दो बेमेल पदार्थों का संबंध बताना | | दो बेमेल पदार्थों का संबंध बताना | ||
| को कहि सके बड़ेन की, लखे बड़ी हू भूल।<br /> दीन्हें दई गुलाब के, इन डारन ये फूल॥ ([[बिहारीलाल]]) कहाँ तो गुलाब की कँटीली डार और कहाँ ऐसे सुकुमार फूल। इन दो बेमेल वस्तुओं का एकत्रीकरण विधाता की भूल का ही तो परिणाम है। | | को कहि सके बड़ेन की, लखे बड़ी हू भूल।<br /> दीन्हें दई गुलाब के, इन डारन ये फूल॥ ([[बिहारीलाल]]) कहाँ तो [[गुलाब]] की कँटीली डार और कहाँ ऐसे सुकुमार फूल। इन दो बेमेल वस्तुओं का एकत्रीकरण विधाता की भूल का ही तो परिणाम है। | ||
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| कारणमाला | | कारणमाला | ||
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| एकावली | | एकावली | ||
| पूर्व- पूर्व वस्तु के प्रति पर-पर वस्तु का विशेषण रूप से स्थानपन या निषेध | | पूर्व- पूर्व वस्तु के प्रति पर-पर वस्तु का [[विशेषण]] रूप से स्थानपन या निषेध | ||
| मानुष वही जो हो गुनी, गुनी जो कोबिद रूप।<br /> कोबिद जो कविपद लहै, कवि जो उक्ति अनूप॥ <br />यहाँ 'मानुष' विशेष्य और 'गुनी' उसका विशेषण है, आगे चलकर यह 'गुनी' ही विशेष्य हो जाता है और 'कोबिद' उसका विशेषण । | | मानुष वही जो हो गुनी, गुनी जो कोबिद रूप।<br /> कोबिद जो कविपद लहै, कवि जो उक्ति अनूप॥ <br />यहाँ 'मानुष' विशेष्य और 'गुनी' उसका विशेषण है, आगे चलकर यह 'गुनी' ही विशेष्य हो जाता है और 'कोबिद' उसका विशेषण । | ||
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| काव्यलिंग (लिंग- कारण) | | काव्यलिंग (लिंग- कारण) | ||
| किसी कथन का कारण देना (पहचान चिह्न- जिसमें क्योंकि इसलिए, चूँकि आदि की सहायता | | किसी कथन का कारण देना (पहचान चिह्न- जिसमें क्योंकि इसलिए, चूँकि आदि की सहायता से अर्थ किया जा सके) | ||
| कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। उहि खाये बौरात नर, इहि पाये बौराय॥ ([[बिहारीलाल]])<br /> सोना धतूरे की अपेक्षा सौ गुना अधिक मादक होता है 'क्योंकि' धतूरे को खाने पर नशा होता है, पर सोना हाथ में आते ही। | | कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। उहि खाये बौरात नर, इहि पाये बौराय॥ ([[बिहारीलाल]])<br /> सोना धतूरे की अपेक्षा सौ गुना अधिक मादक होता है 'क्योंकि' धतूरे को खाने पर नशा होता है, पर सोना हाथ में आते ही। | ||
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| अनुमान | | अनुमान | ||
|साधन (प्रत्यक्ष) के द्वारा साध्य (अप्रत्यक्ष) का चमत्कारपूर्ण वर्णन | |साधन (प्रत्यक्ष) के द्वारा साध्य (अप्रत्यक्ष) का चमत्कारपूर्ण वर्णन | ||
| मोहि करत कत बावरी, किये दूराव दुरै न। <br /> कहे देत रंग राति के, रँग निचुरत से नैन॥ [[बिहारीलाल]]<br />यहाँ लाल आँखें देखकर रात की रति-केलि का अनुमान हो रहा है। 'रंग निचुरत से नैन' साधन है जिसके द्वारा 'रति के रंग' साध्य का अनुमान होता है। | | मोहि करत कत बावरी, किये दूराव दुरै न। <br /> कहे देत रंग राति के, रँग निचुरत से नैन॥ [[बिहारीलाल]]<br />यहाँ [[लाल रंग|लाल]] आँखें देखकर रात की रति-केलि का अनुमान हो रहा है। 'रंग निचुरत से नैन' साधन है जिसके द्वारा 'रति के रंग' साध्य का अनुमान होता है। | ||
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| यथासंख्य\क्रम | | यथासंख्य\क्रम | ||
| कुछ पदार्थों का उल्लेख करके उसी क्रम (सिलसिले) से उनसे संबद्ध अन्य पदार्थों, कार्यों या गुणों का वर्णन करना | | कुछ [[पदार्थ|पदार्थों]] का उल्लेख करके उसी क्रम (सिलसिले) से उनसे संबद्ध अन्य पदार्थों, कार्यों या गुणों का वर्णन करना | ||
| | | मनि मानिक मुकता छबि जैसी।<br /> अहि गिरि गजसिर सोह न तैसी॥<br /> यहाँ प्रथम चरण में मणि, माणिक्य और मुक्ता का जिस क्रम से कथन है द्वितीय चरण में उसी क्रम से उनको जोड़ना पड़ता है। मणि सर्प के सिर पर माणिक्य पर्वत पर और मुक्ता हाथी के मस्तक पर उत्पन्न होती है। | ||
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| अर्थापत्ति | | अर्थापत्ति | ||
| एक बात से दूसरी बात का स्वतः सिद्ध हो जाना | | एक बात से दूसरी बात का स्वतः सिद्ध हो जाना | ||
| अथवा एक परस में ही जब, तरस रही मैं इतनी होगी विकल न जाने तब वह, सदा-संगिनी कितनी कुब्जा की उक्ति है- कृष्ण के एक ही स्पर्श के बाद उनसे वियुक्त होकर जब मुझे इतनी बेकली (व्याकुलता\बेचैनी) है तो उनसे बिछुड़कर सदा साथ रहने वाली बेचारी राधा की कैसी दशा होगी।([[मैथिलीशरण गुप्त]]) | | अथवा एक परस में ही जब, तरस रही मैं इतनी होगी विकल न जाने तब वह, सदा-संगिनी कितनी कुब्जा की उक्ति है- [[कृष्ण]] के एक ही स्पर्श के बाद उनसे वियुक्त होकर जब मुझे इतनी बेकली (व्याकुलता\बेचैनी) है तो उनसे बिछुड़कर सदा साथ रहने वाली बेचारी [[राधा]] की कैसी दशा होगी।([[मैथिलीशरण गुप्त]]) | ||
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| परिसंख्या | | परिसंख्या | ||
| एक ही वस्तु की अनेक स्थानों में स्थिति संभव होने पर भी अन्यत्र निषेध कर उसका एक स्थान में वर्णन करना। | | एक ही वस्तु की अनेक स्थानों में स्थिति संभव होने पर भी अन्यत्र निषेध कर उसका एक स्थान में वर्णन करना। | ||
| राम के राज्य में वक्रता केवल सुन्दरियों के कटाक्ष में थी। | | [[राम]] के राज्य में वक्रता केवल सुन्दरियों के कटाक्ष में थी। | ||
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| सम | | सम | ||
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| तद्गुण | | तद्गुण | ||
| अपने गुण को छोड़कर उत्कृष्ट गुण वाली दूसरी वस्तु के गुण को ग्रहण करना। | | अपने गुण को छोड़कर उत्कृष्ट गुण वाली दूसरी वस्तु के गुण को ग्रहण करना। | ||
| अरुण किरण-माला से रवि की, <br />निर्झर का चंचल उज्ज्वल जल, <br />बन सुवर्ण, पिघले सुवर्ण की, <br />धारा-सा बहता है, अविरल।<br />यहाँ सूर्य की लाल किरणों के संपर्क में आने से निर्झर का जल अपनी उज्ज्वलता को छोड़कर सूर्य की लालिमा ग्रहण कर सुन्दर वर्ण वाला बन गया है। | | अरुण किरण-माला से रवि की, <br />निर्झर का चंचल उज्ज्वल जल, <br />बन सुवर्ण, पिघले सुवर्ण की, <br />धारा-सा बहता है, अविरल।<br />यहाँ [[सूर्य देव|सूर्य]] की लाल किरणों के संपर्क में आने से निर्झर का जल अपनी उज्ज्वलता को छोड़कर सूर्य की लालिमा ग्रहण कर सुन्दर वर्ण वाला बन गया है। | ||
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| अतद्गुण | | अतद्गुण | ||
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| मीलित (मिल-जाना) | | मीलित (मिल-जाना) | ||
| अनुरूप वस्तु के द्वारा किसी वस्तु का छिप जाना | | अनुरूप वस्तु के द्वारा किसी वस्तु का छिप जाना | ||
| बरन बास सुकुमारता, सब बिध रही समाय। <br />पंखुरी लगी गुलाब की, गाल न जानी जाय॥ ([[बिहारीलाल]]) गुलाब की पंखड़ी नायिका के गाल पर रंग, गंध और कोमलता के अतिशय सादृश्य के कारण उस गुलाब की पंखड़ी का अलग से ज्ञात नहीं होता। | | बरन बास सुकुमारता, सब बिध रही समाय। <br />पंखुरी लगी गुलाब की, गाल न जानी जाय॥ ([[बिहारीलाल]]) गुलाब की पंखड़ी नायिका के गाल पर [[रंग]], गंध और कोमलता के अतिशय सादृश्य के कारण उस गुलाब की पंखड़ी का अलग से ज्ञात नहीं होता। | ||
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| उन्मीलित | | उन्मीलित | ||
| मीलित का उल्टा | | मीलित का उल्टा | ||
| दीठि न परत समान दुति, कनक- कनक से गात।<br /> भूषण कर करकस लगत, परस पिछाने जात॥ ([[बिहारीलाल]]) <br />यहाँ सुनहले शरीर और सोने के आभूषणों का अंतर नहीं दीखता पर स्पर्श में कठोरता के अनुभव से आभूषणों और अंगों का पार्थक्य मालूम पड़ता है। | | दीठि न परत समान दुति, कनक- कनक से गात।<br /> [[भूषण]] कर करकस लगत, परस पिछाने जात॥ ([[बिहारीलाल]]) <br />यहाँ सुनहले शरीर और सोने के आभूषणों का अंतर नहीं दीखता पर स्पर्श में कठोरता के अनुभव से आभूषणों और अंगों का पार्थक्य मालूम पड़ता है। | ||
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| सामान्य | | सामान्य | ||
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| स्वभावोक्ति | | स्वभावोक्ति | ||
| वस्तु का यथावत\स्वाभाविक वर्णन | | वस्तु का यथावत\स्वाभाविक वर्णन | ||
| सोभित कर नवनीत लिए, घुटरुन चलत रेनु | | सोभित कर नवनीत लिए, घुटरुन चलत रेनु तनु मंडित मुख दधि लेप किए। ([[सूरदास]]) यहाँ कृष्ण की बाल- चेष्टा का स्वाभाविक वर्णन है। | ||
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| व्याजोक्ति (व्याज- छल\बहाना) | | व्याजोक्ति (व्याज- छल\बहाना) |
11:47, 28 दिसम्बर 2010 का अवतरण
अलंकार | लक्षण\पहचान चिह्न | उदाहरण\ टिप्पणी |
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अनुप्रास | व्यंजन वर्णों की आवृत्ति | बँदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुराग। प द स र की आवृत्ति |
छेकानुप्रास | अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपत व क्रमतः आवृति | बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास, सरस अनुरागा॥ (तुलसीदास) पद पदुम में पद एवं सुरुचि सरस में सर - स्वरूप की आवृत्ति। पद में प के बाद द, पदुम, में प के बाद द, सुरुचि में स के बाद र सरस में स के बाद र। क्रम की आवृत्ति। |
वृत्त्यनुप्रास | अनेक व्यजनों की अनेक बार स्वरूपत व क्रमतः आवृत्ति | कलावती केलिवती कलिन्दजा कल की 2 बार आवृत्ति - स्वरूपतः आवृत्ति, क ल की 2 बार आवृत्ति - क्रमतः आवृत्ति |
लाटानुप्रास | तात्पर्य मात्र के भेद से शब्द व अर्थ दोनों की पुनरुक्ति | लड़का तो लड़का ही है - शब्द की पुनरुक्ति सामान्य लड़का रूप बुद्धि शीलादि गुण संपन्न लड़का - अर्थ की पुनरुक्ति। |
यमक | शब्दों की आवृत्ति (जहाँ एक शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त हो और उसके अर्थ अलग- अलग हों) | कनक-कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय वा खाए बौराय जग, या पाए बौराय। (बिहारीलाल) कनक शब्द की एक बार आवृत्ति 1 सोना, 2 धतूरा। |
श्लेष | एक शब्द में एक से अधिक अर्थ (जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त हो किंतु प्रसंग भेद में उसके अर्थ अलग-अलग हों) | रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून॥ (रहीम) मोती→चमक, मानुष→प्रतिष्ठा, चून→जल |
वक्रोक्ति | प्रत्यक्ष अर्थ के अतिरिक्त भिन्न अर्थ | - |
श्लेषमूला वक्रोक्ति | श्लेष के द्वारा वक्रोक्ति | एक कबूतर देख हाथ में पूछा कहाँ अपर है? उसने कहा अपर कैसा? वह उड़ गया सपर है॥ (गुरुभक्त सिंह) यहाँ पूर्वार्द्ध में जहाँगीर ने दूसरे कबूतर के बारे में पूछने के लिए 'अपर' (दूसरा) शब्द का प्रयोग किया है जबकि उत्तरार्द्ध में नूरजहाँ ने 'अपर' का 'बिना (पंख) वाला' अर्थ कर दिया है। |
काकुमूला वक्रोक्ति | काकु (ध्वनि- विकार\ आवाज में परिवर्तन) के द्वारा वक्रोक्ति | आप जाइए तो। - आप जाइए। आप जाइए तो? - आप नहीं जाइए। |
वीप्सा | मनोभावों को प्रकट करने के लिए शब्द दुहराना (वीप्सा- दुहराना) | छिः, छिः, राम, राम, चुप, चुप, देखों, देखों। |
अलंकार | लक्षण\पहचान चिह्न | उदाहरण\ टिप्पणी |
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उपमा | भिन्न पदार्थों का सादृश्य प्रतिपादन उपमा के चार अंग- | |
पूर्णोपमा | जिसमें उपमा के चारों अंग मौजूद हों | मुख चन्द्र-सा सुन्दर है। मुख - उपमेय, चन्द्र-उपमान, समान धर्म- सुन्दरता, सादृश्य वाचक, शब्द - सा |
लुप्तोपमा | जिसमें उपमा के एक, दो, या तीन अंग लुप्त (गायब) हो | मुख चन्द्र- सा है। समान धर्म 'सुन्दरता' का लोप। |
प्रतीप | उपमा का उल्टा (प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बना देना) | मुख- सा चन्द्र है। मुख→ उपमान, चन्द्र→ उपमेय |
उपमेयोपमा | प्रतीप + उपमा | मुख-सा चन्द्र और चन्द्र- सा मुख है। |
अनंवय (न अंवय) | एक ही वस्तु को उपमेय व उपमान दोनों कहना (जब उपमेय की समता देने के लिए कोई उपमान नहीं होता और कहा जाता है उसके समान वही है। | (1) मुख मुख ही सा है। (2) राम से राम, सिया सी सिया |
संदेह | उपमेय में उपमान का संदेह | यह मुख है या चन्द्र है। |
उत्प्रेक्षा | उपमेय में उपमान की संभावना (बोधक शब्द- मानो, मनु, मनहु, जानो, जनु, जनहु) | मुख मानो चन्द्र है। (मानो बोधक शब्द) |
रूपक | उपमेय में उपमान का आरोप (निषेधरहित) | मुख चन्द्र है। |
अपह्नुति | उपमेय में उपमान का आरोप (निषेधसहित) | यह मुख नहीं, चन्द्र है। |
अतिशयोक्ति | उपमेय को निगलकर उपमान के साथ अभिन्नता प्रदर्शित करना (जहाँ बहुत बढ़ा-चढ़ाकर लोक सीमा से बाहर की बात कही जाय) | यह चन्द्र है। |
उल्लेख | विषय भेद से एक वस्तु का अनेक प्रकार से वर्णन (उल्लेख)। | (1) उसके मुख को कोई कमल, कोई चन्द्र कहता है। (2) जाकी रही भावना जैसी, प्रभू -मूरति देखी तिन तैसी। |
स्मरण | सदृश या विसदृश वस्तु के प्रत्यक्ष से पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण | चन्द्र 'को देखकर मुख याद आता है। |
भ्रांतिमान\भ्रम | सादृश्य के कारण एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लेना। नोट- भ्रांतिमान अलंकार में उपमेय व उपमान के सादृश्य का आभास, सत्य लिया जाता है, परंतु संदेह अलंकार में दुविधा (संदेह) बनी रहती है 'ये हैं' या 'वो है। |
फिरत घरन नूतन पथिक चले चकित चित भागि। फूल्यो देखि पलास वन, समुहें समुझि दवागि॥ (बिहारीलाल) यहाँ विदेश गमन करने वाले नये पथिक पुष्पित पलाश वन को देखकर (पलाश के फूल बहुत लाल होते हैं) उसे दावाग्नि (जंगल की आग) समझ डर से फिर घर लौट आते हैं। |
तुल्ययोगिता | अनेक प्रस्तुतों या अप्रस्तुतों का एक धर्म में संबंध बताना | अपने तन के जानि कै, जोबन नृपति प्रबीन। स्तन, मन, नैन, नितंब को बड़ो इजाफा कीन॥ (बिहारीलाल) |
दीपक | प्रस्तुत व अप्रस्तुत दोनों का एक धर्म में संबंध बताना। | मुख और चन्द्र शोभते हैं। |
प्रतिवस्तूपमा | उपमेय व उपमान वाक्यों में एक ही साधारण धर्म को विभिन्न शब्दों से कहना | मुख को देखकर नेत्र तृप्त हो जाते हैं (उपमेय वाक्य) चन्द्र दर्शन से किसकी आँखे नहीं जुड़ाती? (उपमान वाक्य)। |
दृष्टांत | उपमेय- उपमान में बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव ( भाव- साम्य- एक ही आशय की दो भिन्न अभिव्यक्ति) | उसका मुख निसर्ग सुन्दर (प्राकृतिक रूप से सुन्दर) है; चन्द्रमा को प्रसाधन की क्या आवश्यकता? मूल आशय- सुन्दर वस्तु का स्वाभाविक (प्राकृतिक) रूप से सुन्दर लगना |
निदर्शना | उपमेय का गुण उपमान में अथवा उपमान का गुण उपमेय मे आरोपित होना | रवि ससि नखत दिपहिं ओही जोति। रतन पदारथ मानिक मोती॥ (जायसी) यहाँ पद्मावती की दंत ज्योति (उपमेय) से रवि, शशि, नक्षत्र, रत्न, माणिक्य, और मोती (सभी उपमान) का ज्योतित होना कहा गया है। अतः उपमेय का गुण (दीप्त होना- चमकना) उपमान में आरोपित होने से निदर्शना अलंकार है। |
व्यतिरेक | उपमान की अपेक्षा उपमेय का व्यतिरेक यानी उत्कर्ष वर्णन | चन्द्र सकलंक, मुख निष्कलंक; दोनों में समता कैसी? |
सहोक्ति | सहार्थक शब्द के बल से जहाँ एक शब्द से अनेक अर्थ निकले (सहार्थक शब्द सह, संग, साथ, आदि) | भौंहनि संग चढाइयै, कर गहि चाप मनोज। नाह- नेह संग ही बढ्यौ, लोचन लाज, उरोज॥ |
विनोक्ति | यदि कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु के बिना अशोभन या शोभन बतायी जाय | बिना पुत्र सूना सदन, गत गुन सूनी देह। वित्त, बिना सब शून्य है, प्रियतम बिना सनेह॥ यहाँ पुत्र के बिना घर, गुण के बिना शरीर, धन के बिना सब कुछ और प्रियतम बिना स्नेह की अशोभानता बतायी गई है। |
समासोक्ति | प्रस्तुत के माध्यम से अप्रस्तुत का वर्णन | चंप लता सुकुमार तू, धन तुव भाग्य बिसाल। तेरे ढिग सोहत सुखद, सुन्दर स्याम तमाल॥ यहाँ कहा जा रहा है प्रस्तुत चम्पक लता से जो तमाल वृक्ष से लिपटी है - अरी चम्पक लता। तू बड़ी कोमल है, तू धन्य और बड़ी भाग्यशालिनी है जो तेरे समीप सुखद, सुन्दर श्याम तमाल शोभ रहे हैं। लेकिन 'चम्पक लता' व 'तमाल' के माध्यम से अप्रस्तुत 'राधा' व 'कृष्ण' का वर्णन किया गया है। |
अन्योक्ति\ अप्रस्तुत प्रशंसा | समासोक्ति का उल्टा यानी अप्रस्तुत (प्रतीकों) के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन | नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल। अली कली ही सौं विध्यौं, आगे कौन हवाल॥ (बिहारीलाल) यहाँ भ्रमर और काली का प्रसंग अप्रस्तुत विधान के रूप में है, जिसके माध्यम से राजा जयसिंह को सचेत किया गया है। |
पर्यायोक्ति | सीधे न कहकर घुमा-फिराकर कहना | आपने कैसे कृपा की। इसका अर्थ है आप किस काम के लिए आये। |
व्याजस्तुति (व्याज- निन्दा) | निन्दा से स्तुति या स्तुति से निन्दा की प्रतीति | उधो तुम अति चतुर सुजान जे पहिले रंग रंगी स्याम रंग तिन्ह न चढै रंग आन। (सूरदास) यहाँ उद्धव की प्रशंसा में निन्दा छिपी है। |
परिकर | यदि विशेषण साभिप्राय हो | जानो न नेक व्यथा पर की, बलिहारी तऊ पै सुजान कहावत। |
परिकराकुँर | यदि विशेष्य साभिप्राय हो | प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत विदेस॥ (बिहारीलाल) |
आक्षेप | किसी विवाक्षित वस्तु को बिना किये बीच में ही छोड़ देना। | आपसे कहना तो बहुत कुछ था, पर उससे लाभ क्या होगा। |
विरोधाभास | विरोध न होने पर भी विरोध का आभास | मीठी लगे अँखियान लुनाई। |
विभावना | कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति का वर्णन | बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना। कर बिनु करम करै विधि नाना॥ (तुलसीदास) |
विशेषोक्ति | कारण के रहते हुए भी कार्य | नैनौं से सदैव जल की वर्षा होती रहती है, तब का न होना भी प्यास नहीं बुझती। |
असंगति | कारण और कार्य में संगति का अभाव (कारण कहीं और, कार्य कहीं और) | दृग उरझत टूटत कुटुम (बिहारीलाल) यहाँ उलझती है, आँखें अतः टूटना भी उन्हें ही चाहिए पर टूटता है कुटुम्ब से संबंध। |
विषम | दो बेमेल पदार्थों का संबंध बताना | को कहि सके बड़ेन की, लखे बड़ी हू भूल। दीन्हें दई गुलाब के, इन डारन ये फूल॥ (बिहारीलाल) कहाँ तो गुलाब की कँटीली डार और कहाँ ऐसे सुकुमार फूल। इन दो बेमेल वस्तुओं का एकत्रीकरण विधाता की भूल का ही तो परिणाम है। |
कारणमाला | एक का दूसरा कारण, दूसरे का तीसरा कारण बताते जाना | होत लोभ ते मोह, मोहहिं ते उपजे गरब। गरब बढावे कोह, कोह कलह कलहहु व्यथा। लोभ→ मोह→ गर्व→ क्रोध→ कलह→ व्यथा। |
एकावली | पूर्व- पूर्व वस्तु के प्रति पर-पर वस्तु का विशेषण रूप से स्थानपन या निषेध | मानुष वही जो हो गुनी, गुनी जो कोबिद रूप। कोबिद जो कविपद लहै, कवि जो उक्ति अनूप॥ यहाँ 'मानुष' विशेष्य और 'गुनी' उसका विशेषण है, आगे चलकर यह 'गुनी' ही विशेष्य हो जाता है और 'कोबिद' उसका विशेषण । |
काव्यलिंग (लिंग- कारण) | किसी कथन का कारण देना (पहचान चिह्न- जिसमें क्योंकि इसलिए, चूँकि आदि की सहायता से अर्थ किया जा सके) | कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। उहि खाये बौरात नर, इहि पाये बौराय॥ (बिहारीलाल) सोना धतूरे की अपेक्षा सौ गुना अधिक मादक होता है 'क्योंकि' धतूरे को खाने पर नशा होता है, पर सोना हाथ में आते ही। |
सार | वस्तुओं का उत्तरोत्तर उत्कर्ष वर्णन | अति ऊँचे गिरि, गिरि से भी ऊँचे हरिपद है। उनसे भी ऊँचे सज्जन के ह्रदय विशद हैं॥ यहाँ पर्वत की अपेक्षा भगवान के चरण और भगवान के चरण की अपेक्षा सज्जनों के ह्रदय का उत्कर्ष वर्णन है। |
अनुमान | साधन (प्रत्यक्ष) के द्वारा साध्य (अप्रत्यक्ष) का चमत्कारपूर्ण वर्णन | मोहि करत कत बावरी, किये दूराव दुरै न। कहे देत रंग राति के, रँग निचुरत से नैन॥ बिहारीलाल यहाँ लाल आँखें देखकर रात की रति-केलि का अनुमान हो रहा है। 'रंग निचुरत से नैन' साधन है जिसके द्वारा 'रति के रंग' साध्य का अनुमान होता है। |
यथासंख्य\क्रम | कुछ पदार्थों का उल्लेख करके उसी क्रम (सिलसिले) से उनसे संबद्ध अन्य पदार्थों, कार्यों या गुणों का वर्णन करना | मनि मानिक मुकता छबि जैसी। अहि गिरि गजसिर सोह न तैसी॥ यहाँ प्रथम चरण में मणि, माणिक्य और मुक्ता का जिस क्रम से कथन है द्वितीय चरण में उसी क्रम से उनको जोड़ना पड़ता है। मणि सर्प के सिर पर माणिक्य पर्वत पर और मुक्ता हाथी के मस्तक पर उत्पन्न होती है। |
अर्थापत्ति | एक बात से दूसरी बात का स्वतः सिद्ध हो जाना | अथवा एक परस में ही जब, तरस रही मैं इतनी होगी विकल न जाने तब वह, सदा-संगिनी कितनी कुब्जा की उक्ति है- कृष्ण के एक ही स्पर्श के बाद उनसे वियुक्त होकर जब मुझे इतनी बेकली (व्याकुलता\बेचैनी) है तो उनसे बिछुड़कर सदा साथ रहने वाली बेचारी राधा की कैसी दशा होगी।(मैथिलीशरण गुप्त) |
परिसंख्या | एक ही वस्तु की अनेक स्थानों में स्थिति संभव होने पर भी अन्यत्र निषेध कर उसका एक स्थान में वर्णन करना। | राम के राज्य में वक्रता केवल सुन्दरियों के कटाक्ष में थी। |
सम | परस्पर अनुकूल वस्तुओं का योग्य संबंध वर्णन | चिरजीवो जोरी, जुरै क्यो न सनेह गँभीर। को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥ (बिहारीलाल) यहाँ राधा और कृष्ण की योग्य जोड़ी की प्रशंसा है। |
तद्गुण | अपने गुण को छोड़कर उत्कृष्ट गुण वाली दूसरी वस्तु के गुण को ग्रहण करना। | अरुण किरण-माला से रवि की, निर्झर का चंचल उज्ज्वल जल, बन सुवर्ण, पिघले सुवर्ण की, धारा-सा बहता है, अविरल। यहाँ सूर्य की लाल किरणों के संपर्क में आने से निर्झर का जल अपनी उज्ज्वलता को छोड़कर सूर्य की लालिमा ग्रहण कर सुन्दर वर्ण वाला बन गया है। |
अतद्गुण | तद्गुण का उल्टा (दूसरी वस्तु के गुणों को ग्रहण न करना) | चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग। (रहीम) |
मीलित (मिल-जाना) | अनुरूप वस्तु के द्वारा किसी वस्तु का छिप जाना | बरन बास सुकुमारता, सब बिध रही समाय। पंखुरी लगी गुलाब की, गाल न जानी जाय॥ (बिहारीलाल) गुलाब की पंखड़ी नायिका के गाल पर रंग, गंध और कोमलता के अतिशय सादृश्य के कारण उस गुलाब की पंखड़ी का अलग से ज्ञात नहीं होता। |
उन्मीलित | मीलित का उल्टा | दीठि न परत समान दुति, कनक- कनक से गात। भूषण कर करकस लगत, परस पिछाने जात॥ (बिहारीलाल) यहाँ सुनहले शरीर और सोने के आभूषणों का अंतर नहीं दीखता पर स्पर्श में कठोरता के अनुभव से आभूषणों और अंगों का पार्थक्य मालूम पड़ता है। |
सामान्य | सदृश गुणों के कारण प्रस्तुत का अप्रस्तुत के साथ अभेद प्रतिपादन | यह उज्ज्वल प्रासाद, चाँदनी से मिल एकाकार। गुण साम्य (सुन्दरता) के कारण प्रस्तुत (प्रासाद) अप्रस्तुत (चाँदनी) ने मिलकर अभिन्न प्रतीत हो रहा है। |
स्वभावोक्ति | वस्तु का यथावत\स्वाभाविक वर्णन | सोभित कर नवनीत लिए, घुटरुन चलत रेनु तनु मंडित मुख दधि लेप किए। (सूरदास) यहाँ कृष्ण की बाल- चेष्टा का स्वाभाविक वर्णन है। |
व्याजोक्ति (व्याज- छल\बहाना) | प्रकट हुए रहस्य को किसी बहाने से छिपा लेना | कारे वरन डरावनो, कत आवत इहि गेह। कै वा लख्यौ सखी, लखे लगैं थरथरी देह॥ (बिहारीलाल) नायिका किसी सखी के पास बैठी है। वहीं किसी काम से कृष्ण चले आते हैं। उन्हें देखकर नायिका को आलिंगनेच्छाजन्य कम्पन (थरथरी) हो आती है पर उसे वह यह कह छिपाती है कि इस काले व्यक्ति को देखकर ही मैं डर से काँपने लगती हूँ। |
अर्थांतरन्यास | सामान्य का विशेष से या विशेष का सामान्य से समर्थन करना | जे 'रहीम' उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग॥(रहीम) सामान्य का विशेष से समर्थन। प्रथम चरण- सामान्य बात। द्वितीय चरण - विशेष बात। |
लोकोक्ति | प्रसंगवश लोकोक्ति का प्रयोग करना | आछे दिन पाछे गये, हरि से कियो न हेत। अब पछतावा क्या करै, चिड़ियाँ चुग गई खेत॥ |
उदाहरण- | एक वाक्य कहकर उसके उदाहरण के रूप में दूसरा वाक्य कहना नोट- 'दृष्टांत' में दोनों वाक्यों में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव रहता है तथा कोई वाचक शब्द नहीं होता; जबकि 'उदाहरण' में दोनों वाक्यों का साधारण धर्म तो भिन्न रहता है परंतु वाचक शब्द के द्वारा उनमें समानता प्रदर्शित की जाती है। |
वे रहीम नर धन्य है, पर उपकारी अंग। बाँटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग। (रहीम) |
अलंकार | लक्षण\पहचान चिह्न | उदाहरण\ टिप्पणी |
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मानवीकरण | अमानव (प्रकृति, पशु-पक्षी व निर्जीव पदार्थ) में मानवीय गुणों का आरोपण | जगीं वनस्पतियाँ अलसाई, मुख धोती शीतल जल से। (जयशंकर प्रसाद) |
ध्वन्यर्थ व्यंजना | ऐसे शब्दों का प्रयोग जिनसे वर्णित वस्तु प्रसंग का ध्वनि-चित्र अंकित हो जाय। | चरमर-चरमर- चूँ- चरर- मरर। जा रही चली भैंसागाड़ी। (भगवतीचरण वर्मा) |
विशेषण - विपर्यय | विशेषण का विपर्यय कर देना (स्थान बदल देना) | इस करुणाकलित ह्रदय में अब विकल रागिनी बजती। (जयशंकर प्रसाद) यहाँ 'विकल' विशेषण रागिनी के साथ लगाया गया है जबकि कवि का ह्रदय विकल हो सकता है रागिनी नहीं। |