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'''भवानी दयाल संन्यासी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bhawani Dayal Sanyaasi'', जन्म- [[10 सितंबर]], [[1892]], जोहान्सबर्ग | '''भवानी दयाल संन्यासी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bhawani Dayal Sanyaasi'', जन्म- [[10 सितंबर]], [[1892]], जोहान्सबर्ग, [[दक्षिण अफ़्रीका]]; मृत्यु- [[9 मई]], [[1950]]) राष्ट्रवादी, हिंदी सेवी और आर्यसमाजी थे। उन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए दक्षिण अफ़्रीका में 'हिंदी आश्रम' की स्थापना की थी। भवानी दयाल नेटाल की आर्य प्रतिनिधि सभा के पहले [[अध्यक्ष]] थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन=भारतकोश पुस्तकालय |संपादन=|पृष्ठ संख्या=567|url=}}</ref> | ||
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भवानी दयाल संन्यासी का जन्म 10 सितंबर, 1892 ई. को जोहान्सबर्ग, [[दक्षिण अफ़्रीका]] में हुआ था। उनके [[पिता]] जयराम सिंह और [[माता]] कुली बन कर [[भारत]] से वहां गए थे। भवानी दयाल की शिक्षा दक्षिण अफ़्रीका में ही एक गुजराती ब्राह्मण द्वारा संचालित [[हिंदी]] हाई स्कूल और मिशन स्कूल में हुई। | |||
==परिचय== | ==परिचय== | ||
भवानी दयाल राष्ट्रवादी विचारों के व्यक्ति थे। [[बंगाल]] विभाजन के आंदोलन के काल में वे भारत आए थे और [[स्वदेशी आंदोलन]] से उनका संपर्क हुआ। यहां | भवानी दयाल राष्ट्रवादी विचारों के व्यक्ति थे। [[बंगाल]] विभाजन के आंदोलन के काल में वे भारत आए थे और [[स्वदेशी आंदोलन]] से उनका संपर्क हुआ। यहां भवानी दयाल को [[तुलसीदास]] और [[सूरदास]] की रचनाओं के साथ-साथ [[स्वामी दयानंद]] के '[[सत्यार्थ प्रकाश|सत्यार्थप्रकाश]]' के अध्ययन का अवसर मिला और वे आर्यसमाजी बन गए। | ||
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भवानी दयाल ने [[कांग्रेस]] के अधिवेशनों में भाग लिया, आंदोलनों में जेल गए और [[बिहार]] के [[किसान आंदोलन]] में भी सम्मिलित रहे। [[1927]] में उन्होंने संन्यास ले लिया था और आर्य समाज के संन्यासी के रूप में [[धर्म]] और [[हिंदी भाषा]] के प्रचार में लगे रहे। स्वामी जी भारत की राष्ट्रीयता और [[दक्षिण अफ़्रीका]] के प्रवासी भारतीयों के बीच एक सेतु का काम करते थे। | |||
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'''रणधीर सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Randhir Singh'', जन्म- [[7 जुलाई]], [[ | '''रणधीर सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Randhir Singh'', जन्म- [[7 जुलाई]], [[1878]], [[लुधियाना]], [[पंजाब]]; मृत्यु- [[16 अप्रैल]], [[1961]]) प्रसिद्ध [[सिख]] नेता और क्रांतिकारी थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन=भारतकोश पुस्तकालय |संपादन=|पृष्ठ संख्या=569|url=}}</ref> | ||
==जन्म एवं परिचय== | ==जन्म एवं परिचय== | ||
रणधीर सिंह का जन्म | रणधीर सिंह का जन्म 7 जुलाई,1878 ई. में पंजाब के लुधियाना ज़िले में हुआ था। उन्होंने [[लाहौर]] के क्रिश्चियन कॉलेज में शिक्षा पाई। तत्कालीन प्रमुख सिख नेताओं से परिचय के बाद रणधीर सिंह 'सिंह सभा' आंदोलन में सम्मिलित हो गए। उनकी सशस्त लेखनी और काव्य प्रतिभा से इस आंदोलन को बड़ा बल मिला। रणधीर सिंह केवल [[पंजाबी भाषा]] में ही लिखते थे। अध्ययन के द्वारा उन्होंने सिख जीवन दर्शन का गहन ज्ञान प्राप्त किया। आजीविका के लिए रणधीर सिंह ने कुछ वर्ष तहसीलदार के रूप में काम किया और उसके बाद खालसा कॉलेज [[अमृतसर]] में अध्यापक बन गए। | ||
== सामाजिक सुधारों के समर्थक == | == सामाजिक सुधारों के समर्थक == | ||
रणधीर सिंह अस्पृश्यता के विरोधी और महिलाओं के अधिकारों के पक्षधर थे। रणधीर सिंह का कहना था कि विद्यालयों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा का समावेश हो और उसे विदेशी प्रभाव से मुक्त रखा जाए। | रणधीर सिंह अस्पृश्यता के विरोधी और महिलाओं के अधिकारों के पक्षधर थे। रणधीर सिंह का कहना था कि विद्यालयों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा का समावेश हो और उसे विदेशी प्रभाव से मुक्त रखा जाए। | ||
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प्रथम विश्वयुद्ध ([[1914]]-[[1918]]) के समय [[ब्रिटिश सरकार]] ने रकाबगंज गुरुद्वारा की बाहरी | प्रथम विश्वयुद्ध ([[1914]]-[[1918]]) के समय [[ब्रिटिश सरकार]] ने रकाबगंज गुरुद्वारा की बाहरी दीवार गिरा देने का आदेश दिया तो भाई रणधीर सिंह के विचारों में एकदम परिवर्तन आया। वे ब्रिटिश विरोधी हो गए। [[भारतीय सेना]] को भी विद्रोह के लिए तैयार किया गया। [[1915]] में रणधीर सिंह ने ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का निश्चय किया। | ||
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पर पहले ही भेद खुल जाने के कारण भाई रणधीर सिंह और उनके साथी गिरफ्तार कर लिए गए। भाई को आजीवन कारावास की सजा मिली। 17 वर्ष जेल में रहकर जब वे बाहर आए, उस समय तक देश की राजनीतिक स्थिति बदल चुकी थी। रणधीर सिंह [[कांग्रेस]] की अहिंसक राजनीति का समर्थन नहीं कर सके और उसके आलोचक बने रहे। | पर पहले ही भेद खुल जाने के कारण भाई रणधीर सिंह और उनके साथी गिरफ्तार कर लिए गए। भाई को आजीवन कारावास की सजा मिली। 17 [[वर्ष]] जेल में रहकर जब वे बाहर आए, उस समय तक देश की राजनीतिक स्थिति बदल चुकी थी। रणधीर सिंह [[कांग्रेस]] की अहिंसक राजनीति का समर्थन नहीं कर सके और उसके आलोचक बने रहे। | ||
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16 अप्रैल, 1961 को रणधीर सिंह का देहांत हो गया। | [[16 अप्रैल]], [[1961]] को रणधीर सिंह का देहांत हो गया। | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
09:40, 5 जनवरी 2017 का अवतरण
माधवी 3
| |
पूरा नाम | भवानी दयाल संन्यासी |
जन्म | 10 सितंबर, 1892 |
जन्म भूमि | जोहान्सबर्ग दक्षिण अफ़्रीका |
मृत्यु | 9 मई, 1959 |
अभिभावक | पिता - जयराम सिंह |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | समाज सेवा |
प्रसिद्धि | समाज सुधारक |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | गांधी जी |
अन्य जानकारी | उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की और अपना शेष जीवन 'हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान' की सेवा में लगाया। |
अद्यतन | 04:45, 1 जनवरी-2017 (IST) |
भवानी दयाल संन्यासी (अंग्रेज़ी: Bhawani Dayal Sanyaasi, जन्म- 10 सितंबर, 1892, जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ़्रीका; मृत्यु- 9 मई, 1950) राष्ट्रवादी, हिंदी सेवी और आर्यसमाजी थे। उन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए दक्षिण अफ़्रीका में 'हिंदी आश्रम' की स्थापना की थी। भवानी दयाल नेटाल की आर्य प्रतिनिधि सभा के पहले अध्यक्ष थे।[1]
जन्म एवं शिक्षा
भवानी दयाल संन्यासी का जन्म 10 सितंबर, 1892 ई. को जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ़्रीका में हुआ था। उनके पिता जयराम सिंह और माता कुली बन कर भारत से वहां गए थे। भवानी दयाल की शिक्षा दक्षिण अफ़्रीका में ही एक गुजराती ब्राह्मण द्वारा संचालित हिंदी हाई स्कूल और मिशन स्कूल में हुई।
परिचय
भवानी दयाल राष्ट्रवादी विचारों के व्यक्ति थे। बंगाल विभाजन के आंदोलन के काल में वे भारत आए थे और स्वदेशी आंदोलन से उनका संपर्क हुआ। यहां भवानी दयाल को तुलसीदास और सूरदास की रचनाओं के साथ-साथ स्वामी दयानंद के 'सत्यार्थप्रकाश' के अध्ययन का अवसर मिला और वे आर्यसमाजी बन गए।
गांधी जी से भेंट
अफ़्रीका वापस जाने पर 1913 में भवानी दयाल की गांधी जी से भेंट हुई और उन्होंने आर्य समाज के प्रचार के साथ-साथ गांधी जी के विचारों के प्रचार में ही योग दिया। यद्यपि उनके जीवन का अधिक समय अफ़्रीका में ही बीता, फिर भी वे बीच-बीच में भारत आते रहे।
आर्य समाज के संन्यासी
भवानी दयाल ने कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लिया, आंदोलनों में जेल गए और बिहार के किसान आंदोलन में भी सम्मिलित रहे। 1927 में उन्होंने संन्यास ले लिया था और आर्य समाज के संन्यासी के रूप में धर्म और हिंदी भाषा के प्रचार में लगे रहे। स्वामी जी भारत की राष्ट्रीयता और दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों के बीच एक सेतु का काम करते थे।
भवानी दयाल संन्यासी 1939 में स्थायी रूप से भारत आकर अजमेर में रहने लगे थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की और अपना शेष जीवन 'हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान' की सेवा में लगाया।
निधन
9 मई, 1959 में भवानी दयाल का देहांत हो गया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 567 |
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
माधवी 3
| |
पूरा नाम | रणधीर सिंह |
अन्य नाम | भाई रणधीर सिंह |
जन्म | 7 जुलाई, 1878 |
जन्म भूमि | लुधियाना ज़िला, पंजाब |
मृत्यु | 16 अप्रैल 1961 |
मृत्यु स्थान | लुधियाना ज़िला, पंजाब |
नागरिकता | भारतीय |
पार्टी | कांग्रेस |
विद्यालय | क्रिश्चियन कॉलेज |
भाषा | पंजाबी |
जेल यात्रा | 17 वर्ष |
रचना | लेखनी और काव्य प्रतिभा |
अन्य जानकारी | रणधीर सिंह सामाजिक सुधारों के प्रबल समर्थक थे। |
रणधीर सिंह (अंग्रेज़ी: Randhir Singh, जन्म- 7 जुलाई, 1878, लुधियाना, पंजाब; मृत्यु- 16 अप्रैल, 1961) प्रसिद्ध सिख नेता और क्रांतिकारी थे।[1]
जन्म एवं परिचय
रणधीर सिंह का जन्म 7 जुलाई,1878 ई. में पंजाब के लुधियाना ज़िले में हुआ था। उन्होंने लाहौर के क्रिश्चियन कॉलेज में शिक्षा पाई। तत्कालीन प्रमुख सिख नेताओं से परिचय के बाद रणधीर सिंह 'सिंह सभा' आंदोलन में सम्मिलित हो गए। उनकी सशस्त लेखनी और काव्य प्रतिभा से इस आंदोलन को बड़ा बल मिला। रणधीर सिंह केवल पंजाबी भाषा में ही लिखते थे। अध्ययन के द्वारा उन्होंने सिख जीवन दर्शन का गहन ज्ञान प्राप्त किया। आजीविका के लिए रणधीर सिंह ने कुछ वर्ष तहसीलदार के रूप में काम किया और उसके बाद खालसा कॉलेज अमृतसर में अध्यापक बन गए।
सामाजिक सुधारों के समर्थक
रणधीर सिंह अस्पृश्यता के विरोधी और महिलाओं के अधिकारों के पक्षधर थे। रणधीर सिंह का कहना था कि विद्यालयों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा का समावेश हो और उसे विदेशी प्रभाव से मुक्त रखा जाए।
ब्रिटिश सरकार के विरोधी
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के समय ब्रिटिश सरकार ने रकाबगंज गुरुद्वारा की बाहरी दीवार गिरा देने का आदेश दिया तो भाई रणधीर सिंह के विचारों में एकदम परिवर्तन आया। वे ब्रिटिश विरोधी हो गए। भारतीय सेना को भी विद्रोह के लिए तैयार किया गया। 1915 में रणधीर सिंह ने ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का निश्चय किया।
आजीवन कारावास
पर पहले ही भेद खुल जाने के कारण भाई रणधीर सिंह और उनके साथी गिरफ्तार कर लिए गए। भाई को आजीवन कारावास की सजा मिली। 17 वर्ष जेल में रहकर जब वे बाहर आए, उस समय तक देश की राजनीतिक स्थिति बदल चुकी थी। रणधीर सिंह कांग्रेस की अहिंसक राजनीति का समर्थन नहीं कर सके और उसके आलोचक बने रहे।
निधन
16 अप्रैल, 1961 को रणधीर सिंह का देहांत हो गया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 569 |
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख