सदस्य वार्ता:रवीन्द्रकीर्ति स्वामी

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      जैनदर्शन में अहिंसा - अनेकान्त - कर्मसिद्धान्त- अपरिग्रह-स्याद्वाद जैसे अनेक लोकोपकारी सर्वोदयी सिद्धान्तों का निरूपण किया गया है । उसी के साथ लोक और उसकी रचना के संबंध में विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है । भगवान महावीर स्वामी ने अपनी दिव्यध्वनि में जिन विषयों का प्रतिपादन किया है । उनमें दृष्टिवाद नाम का एक अंग है उसके पाँच भेद हैं ।-
            चंद्र प्राप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति ,जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ,द्वीप सागर प्रज्ञप्ति और व्याख्या प्रज्ञप्ति ।
                           चंद्रप्रज्ञप्ति में चंद्रमा संबंधी विमान, आयु, परिवार, रिद्धि, गमन, हानि, वृद्धि, ग्रहण, अर्धग्रहण, चतुर्थांश ग्रहण आदि का वर्णन है । इसी प्रकार सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य संबंधी आयु , परिवार, गमन, आदि का वर्णन है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप संबंधी मेरु,कुलाचल, महाहृद, ( तालाब-क्षेत्र-कुंडवन व्यन्तरों के आवास महानदी आदि ) का वर्णन है ।
                          द्वीप सागर प्रज्ञप्ति में असंख्यात द्वीप- समुद्रों का स्वरूप , वहाँ पर होने वाले अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन है । व्ख्याप्रज्ञप्ति में भव्य- अभव्य भेद-प्रमाण, लक्षण, रूपी- अरूपी , जीव-अजीव द्रव्यों का और अवांतर सिद्धों का तथा दूसरी वस्तुओं का वर्णन है ।
                       इन्हीं के आधार पर आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्थ की प्राकृत भाषा में अनुपम रचना की । सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने जहाँ धवला आदि ग्रन्थों का अध्ययन करके गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार आदि अद्वितीय जिनवाणी का सारभूत अमृतमयी वांग्मय प्रस्तुत किया उसी प्रकार लोक, उसकी रचना के संबंध में त्रिलोकसार नामक विलक्षण ग्रन्थ की रचना की, जिसमें तीनों का का बहुत सुंदर वर्णन संकलित किया है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक के तीसरे और चौथे अध्याय में इस विषय का सुंदर ढंग से प्रतिपादन किया है ।वहाँ से इसका अध्ययन करना चाहिए ।

जीवंधर कुमार नामके एक राजकुमार ने एक बार मरते हए कुत्ते को महामंत्र णमोकार मंत्र सुनाया़ जिससे उसकी आत्मा को बहुत शान्ति मिली और वह मरकर सुंदर देवता - यक्षेन्द्र हो गया । वहाँ जन्म लेते ही उसे याद आ गया कि मुझे एक राजकुमार ने महा मंत्र सुनाकर इस देवयोनि को दिलाया है, तब वह तुरंंत अपने उपकारी राजकुमार के पास आया और उन्हें नमस्कार किया ।

              राजकुमार तब तक उस कुत्ते को लिये बैठे हुए थे , देव ने उनसे कहे- राजन् ! मैं आपका बहुत अहसान मानता हूँ कि आपने मुझे इस योनि में पहुँचा दिया । जीवंधर कुमार यह दृश्य देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उसे सदैव उस महामंत्र को पढ़ने की प्रेरणा दी । देव ने उनसे कहा -  स्वामिन् ! जब भी आपको कभी मेरी ज़रूरत लगे तो मुझे अवश्य याद करना और मुझे कुछ सेवा का अवसर अवश्य प्रदान करना । मैं आपका उपकार हमेशा स्मरण करूँगा ।
                 प्यारे साथियों ! वह महामंत्र इस प्रकार है -
                                   णमोकार अरिहंताणं ।
                                   णमो सिद्धाणं ।
                                   णमो आइरियाणं ।
                                   णमो उवज्झायाणं ।
                                   णमो लोए सव्व साहूणं ।
       आप सब भी इस मंत्र को प्रतिदिन नौ बार, सत्ताइस बार अथवा एक सौ आठ बार यदि पढ़कर अपना कार्य शुरू करेंगे तो आपको बहुत सफलता मिलेगी ।
     णमोकार महामंत्र के अपमान का कुफल-
              एक बार की बात है कि सुभौम चक्रवर्ती नामके एक राजा के पास एक व्यंतर देव मनुष्य का रूप धारण करके एक टोकरे में बहुत सुंदर- सुंदर फल लेकर आया । राजा को उसने वे फल भेंट किये । राजा उन्हें खाकर बड़ा प्रसन्न हुआ , उसने उस मनुष्य वेषधारी देव से पूछा- 
                ये फल तुम कहाँ से लाये हो ? ये तो बहुत मीठे और स्वादिष्ट फल हैं । मैं इन्हें अपने राज्य में प्रतिदिन चाहता हूँ ।मुझे इनके पेड़ों के विषय में बताइये कि कैसे मेरे यहाँ ये लग सकते हैं ?
    छद्मवेषी मनुष्य ने कहा कि-
                राजन् ! आप मेरे साथ चलिये , मैं आपको इन फलों के पेड़ अवश्य दिलवा दूँगा ।
           राजा सुभौम बिना कुछ सोचे- समझे उसके अज्ञात व्यक्ति के साथ चल पड़े ।मंत्रियों ने बहुत रोका, किन्तु फल के लालच में राजा ने किसी की न सुनी और उस व्यक्ति के साथ चला गया ।
    वह व्यक्ति राजा को एक समुद्र के बीच में ले गया और अपना रूप प्रकट करके बोला-
             राजन् ! मैं तुमसे अपने पूर्व जन्म का बदला लेने आया हूँ । पूर्व जन्म में मैं तुम्हारा रसोइया था, तब तुमने खीर गरम- गरम परोस देने के कारण मुझे जान से मार डाला था । मैं मरकर व्यंतर देव हुआ हूँ । अत मैं अब तुमसे बदला लेने आया हूँ । उसने राजा से कहा-
                अब मैं तुम्हें जान से मारूँगा । राजा बेचाराडर के मारे काँपने लगा , किन्तु अब यहाँ उसे कोई बचाने वाला नहीं था ।वह असहाय होकर अपने मन में णमोकार महामंत्र पढ़ने लगा , तो देव की शक्ति कुंठित हो गई और वह उसे मार न सकने के कारण झुंझला गया । पुनः उसने छलपूर्वक राजा से कहा-
          राजन् ! आप अपने जो मंत्र पढ़ रहे हो , उसे पानी में लिख कर पैर से मिटा दो ,तबक़ों मैं तुम्हें छोड़ दूँगा ,अन्यथा इसी समुद्र में डुबो कर मार डालूँगा । 
                  राजा सुभौम को अपने जीवन का मोह आ गया और वह देव के छल को नहीं समझ सका । उसने सोचा कि - चलो, बाद में मैं मंत्र को अच्छी प्रकार से पढ़ लूँगा । अभी मैं इसके कहे अनुसार मंत्र को पानी में लिख कर उस पर पैर रख दिया । किन्तु यह क्या ? उसके द्वारा ऐसा करते ही देव की शक्ति जागृत हो गई और देवता ने राजा को गहरे समुद्र में डुबा दिया , जिससे राजा मरकर नर्क में चला गया ।
            बंधुओं ! देखो , णमोकार महामंत्र के अपमान के कारण राजा को नर्क के दुःख भोगने पड़े ।अत इस महामंत्र का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए ।और इसे सदैव जपने से स्वर्ग- मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
                                                     द्वारा- रवीन्द्र कीर्ति स्वामी (पीठाधीश - जम्बूद्वीप , हस्तिनापुर  - मेरठ, उत्तर प्रदेश- भारत )

परिचय

रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी,

भारतकोश पर आपका स्वागत है! आपको सूचित किया जाता है कि भारतकोश पर आप जो सम्पादन कर रहे हैं, उसकी प्रामाणिकता भी जरूरी है। अत: इसके लिए सर्वप्रथम आप अपना संक्षिप्त परिचय और डाली गयी सामग्री का संदर्भ देने की कृपा करें। Nib4.pngगोविन्द राम - वार्ता 17:41, 7 फ़रवरी

गंगा के तट पर बसे नगर

गंगा के मैदान में अनेक नगर बसे, जिनमें मुख्य रूप से रूड़की, सहारनपुर, मेरठ, आगरा (मशहूर मक़बरे ताजमहल का शहर), मथुरा (भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली के रूप में पूजनीय), अलीगढ़, कानपुर, बरेली, लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी (पवित्र शहर बनारस), पटना, भागलपुर, राजशाही, मुर्शिदाबाद, बर्दवान (वर्द्धमान), कलकत्ता, हावड़ा, ढाका, खुलना और बारीसाल उल्लेखनीय हैं। डेल्टा क्षेत्र में कलकत्ता और उसके उपनगर हुगली के दोनों किनारों पर लगभग 80 किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं व भारत के जनसंख्या, व्यापार तथा उद्योग को दृष्टि से सबसे घने बसे हुए इलाक़ों में गिने जाते हैं।

    गंगा का मैदानी तट हस्तिनापुर भी माना जाता है । यहाँ बूढ़ी गंगा के नाम से नदी बहती हैं ।वहाँ ं भी भक्त गण स्नान करते हैं । वहाँ जम्बूद्वीप नामके विश्व प्रसिद्ध रचना बनी हुई है । जिसे देखने के लिए देश - विदेश के पर्यटक 
      जैन शास्त्रों के अनुसार हस्तिनापुर तीर्थ करोड़ों वर्ष प्राचीन माना गया है ।श्री जिनसेनाचार्य द्वारा रचित आदिपुराण ग्रन्थ के अनुसार प्रथम तीर्थंकर भगवान रिषभदेव ने युग की आदि में यहाँ एक वर्ष के उपवास के पश्चात् राजा श्रेयांस के द्वारा जैन विधि से नवधा भक्ति पूर्वक पड़गाहन करने के बाद इक्षु रस का आहार ग्रहण किया था ।
     उनकी स्मृति में वहाँ जम्बूद्वीप तीर्थ परिसर में उनकी आहार मुद्रा की प्रतिमा विराजमान हैं । उसके दर्शन करके भक्तगण प्राचीन इतिहास से परिचित होते हैं ।

निवेदन

रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी,

अपना परिचय देने के लिए धन्यवाद‍ ! आपको यह सूचित किया जाता है कि लेख सम्पादन करते समय उस लेख में अपना नाम न लिखें क्योंकि उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। सम्पादनकर्ता का नाम प्रत्येक लेख के इतिहास में लिखा होता है। अत: आपसे निवेदन है कि आगे से आप लेख में अपना नाम न लिखें। Nib4.pngगोविन्द राम - वार्ता 16:18, 11 फ़रवरी 2013 (IST)

                                           (भजन )
                       दिगम्बर प्राकृतिक मुद्रा, विरागी की निशानी है ।
                       कमण्डलु पिच्छिधारी नग्न- मुनिवर की कहानी  है ।।टेक०।।
                        दिशाएँ ही बनी अंबर, न तन पर वस्त्र ये डालें ।
                        महाव्रत पाँच समिति और, गुप्ती तीन ये पालें ।।
                        त्रयोदश विधि चरित पालन, करें जिनवर की वाणी है ।।कमण्डलु --।।१।।
                         बिना बोले ही इनकी शान्त मुद्रा यह बताती है ।
                        मुक्ति कन्या वरण में यह, ही मुद्रा काम आती है ।।
                        मोक्ष पथ के पथिक जन को, यही वाणी सुनानी है ।।कमंडलु०।।२ ।।
                       यदि मुनिव्रत न पल सकता, तो श्रावक धर्म मत भूलो ।
                       देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा, परम कर्तव्य मत भूलो ।।
                       बने मति " चन्दना" ऐसी, यही रृषियों की वाणी है ।।कमण्डलु ० ।।३ ।।

खाता अवरोध समाप्त

रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी,

आपका खाता पुनर्स्थापित कर दिया गया है। Nib4.pngभारतकोश प्रबंधन - वार्ता 20:24, 19 फ़रवरी 2013 (IST)

    णमोकार महामंत्र के अपमान का कुफल-
             एक बार की बात है कि सुभौम चक्रवर्ती नामके एक राजा के पास एक व्यंतर देव मनुष्य का रूप धारण करके एक टोकरे में बहुत सुंदर- सुंदर फल लेकर आया । राजा को उसने वे फल भेंट किये । राजा उन्हें खाकर बड़ा प्रसन्न हुआ , उसने उस मनुष्य वेषधारी देव से पूछा- 
               ये फल तुम कहाँ से लाये हो ? ये तो बहुत मीठे और स्वादिष्ट फल हैं । मैं इन्हें अपने राज्य में प्रतिदिन चाहता हूँ ।मुझे इनके पेड़ों के विषय में बताइये कि कैसे मेरे यहाँ ये लग सकते हैं ?
   छद्मवेषी मनुष्य ने कहा कि-
               राजन् ! आप मेरे साथ चलिये , मैं आपको इन फलों के पेड़ अवश्य दिलवा दूँगा ।
          राजा सुभौम बिना कुछ सोचे- समझे उसके अज्ञात व्यक्ति के साथ चल पड़े ।मंत्रियों ने बहुत रोका, किन्तु फल के लालच में राजा ने किसी की न सुनी और उस व्यक्ति के साथ चला गया ।
   वह व्यक्ति राजा को एक समुद्र के बीच में ले गया और अपना रूप प्रकट करके बोला-
            राजन् ! मैं तुमसे अपने पूर्व जन्म का बदला लेने आया हूँ । पूर्व जन्म में मैं तुम्हारा रसोइया था, तब तुमने खीर गरम- गरम परोस देने के कारण मुझे जान से मार डाला था । मैं मरकर व्यंतर देव हुआ हूँ । अत मैं अब तुमसे बदला लेने आया हूँ । उसने राजा से कहा-
               अब मैं तुम्हें जान से मारूँगा । राजा बेचाराडर के मारे काँपने लगा , किन्तु अब यहाँ उसे कोई बचाने वाला नहीं था ।वह असहाय होकर अपने मन में णमोकार महामंत्र पढ़ने लगा , तो देव की शक्ति कुंठित हो गई और वह उसे मार न सकने के कारण झुंझला गया । पुनः उसने छलपूर्वक राजा से कहा-
         राजन् ! आप अपने जो मंत्र पढ़ रहे हो , उसे पानी में लिख कर पैर से मिटा दो ,तबक़ों मैं तुम्हें छोड़ दूँगा ,अन्यथा इसी समुद्र में डुबो कर मार डालूँगा । 
                 राजा सुभौम को अपने जीवन का मोह आ गया और वह देव के छल को नहीं समझ सका । उसने सोचा कि - चलो, बाद में मैं मंत्र को अच्छी प्रकार से पढ़ लूँगा । अभी मैं इसके कहे अनुसार मंत्र को पानी में लिख कर उस पर पैर रख दिया । किन्तु यह क्या ? उसके द्वारा ऐसा करते ही देव की शक्ति जागृत हो गई और देवता ने राजा को गहरे समुद्र में डुबा दिया , जिससे राजा मरकर नर्क में चला गया ।
           बंधुओं ! देखो , णमोकार महामंत्र के अपमान के कारण राजा को नर्क के दुःख भोगने पड़े ।अत इस महामंत्र का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए ।और इसे सदैव जपने से स्वर्ग- मोक्ष की प्राप्ति होती है ।