शालभंजिका

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विवरण 'शालभंजिका' त्रिभंग मुद्रा में खड़ी एक महिला की दुर्लभ और अद्वितीय पत्थर की मूर्ति है, जिसे ग्वालियर के 'गूजरी संग्रहालय' में कड़ी सुरक्षा में रखा गया है।
राज्य मध्य प्रदेश
वर्तमान स्थान गूजरी संग्रहालय, ग्वालियर
निर्माण काल 10वीं और 11वीं शताब्दी
प्राप्ति स्थान ग्यारसपुर गांव, विदिशा
विशेष शालभंजिका स्त्री की मूर्ति जिसमें स्त्री का विशेष शैली में चित्रण हो, जैसे किसी वृक्ष के नीचे उसकी एक डाली को पकड़े स्त्री की मूर्ति। 'शालभंजिका' का शाब्दिक अर्थ है- 'शाल वृक्ष की डाली को तोड़ती हुई'। इन्हें 'मदनिका' और 'शिलाबालिका' भी कहते हैं।
संबंधित लेख गुप्त काल, विदिशा, मध्य प्रदेश का इतिहास, मध्य प्रदेश की संस्कृति
अन्य जानकारी 1989 में शालभंजिका की प्रतिमा न्यूयॉर्क में एक प्रदर्शनी में रखी गई थी। उस वक्त इसका एक करोड़ रुपए का बीमा करवाया गया था।

शालभंजिका (अंग्रेज़ी: Salabhanjika) पत्थर से बनी एक महिला की दुर्लभ व विशिष्ट मूर्ति है, जो त्रिभंग मुद्रा में खड़ी है। ऐसा कहा जाता है कि ग्यारसपुर में पाई गई यह मूर्ति 8वीं से 9वीं शताब्दी के बीच की है। इस उत्कृष्ट मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि यह जंगल की देवी है। शालभंजिका स्त्री की मूर्ति जिसमें स्त्री का विशेष शैली में चित्रण हो, जैसे किसी वृक्ष के नीचे उसकी एक डाली को पकड़े स्त्री की मूर्ति। 'शालभंजिका' का शाब्दिक अर्थ है- 'शाल वृक्ष की डाली को तोड़ती हुई'। इन्हें 'मदनिका' और 'शिलाबालिका' भी कहते हैं।


शालभंजिका की प्रतिमा ग्वालियर के 'गूजरी महल संग्रहालय' में रखी हुई है। 'ग्यारसपुर लेडी' के नाम से मशहूर इस बेशकीमती प्रतिमा को कड़ी सुरक्षा में रखना पड़ता है, क्योंकि इस पर कई अंतरराष्ट्रीय तस्करों की निगाहें लंबे समय से लगी हुई हैं। शालभंजिका प्रतिमा की तीन ऐसी विशेषताएं हैं, जिनके कारण दुनिया भर में उसकी ख्याति है और उसकी कीमत अनमोल है।

कौन थी शालभंजिका

शालभंजिका

गुप्त काल में एक प्रथा थी कि गांव की सुंदर लड़की अधोवस्त्र पहनकर शाल के पेड़ को पैर से छूती थी। उस समय पूरा गांव एक उत्सव मनाता था। उसी समय गांव की सुंदर लड़कियाँ जीरो फिगर रखकर इस उत्सव में आती थीं और इनके रूप का नाम शालभंजिका पड़ गया। जीरो फिगर वाली इसी युवती को किसी कलाकार ने पत्थर की प्रतिमा में ढाल दिया और तब से यह रूप अस्तित्व में है।

शालभंजिका पत्थरों से बनी एक महिला की दुर्लभ व विशिष्ट संरचना है, जिसे हम हज़ारों बार देख भी चुके होंगे, जो मादक मुस्कान में त्रिभंग मुद्रा (शरीर तीन हिस्सों में मुड़ा) में खड़ी होती है। भारत में बहुतायत में पाई गई यह मूर्तियां 8वीं से 9वीं शताब्दी के बीच की हैं। इस मूर्ति की खूबसूरती बेजोड़ है। जंगल की देवी समझी जाने वाली यह महिला अपने शरीर को तीन तरह से मोड़कर दुर्लभ अवस्था में है।

शरीर में इतने खिचाव के बावजूद भी उसके चेहरे पर सुंदर भाव दिखाई देते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की यह शालभंजिका भारत के सनातन संस्कृति में सौंदर्य के नारी सौन्दर्य का प्रतिमान है।

मातृत्व की देवी

शालभंजिका को मातृत्व की देवी भी माना जाता है। संभव है कि मातृत्व की देवी का यह स्वरूप प्रसव के समय का हो जिसमें एक आनंददायक मातृप्रेम की पीड़ा में त्रिभंगी मुद्रा बन गई हो और शाल के वृक्ष की लताओं को कसकर पकड़कर भींचने के कारण वह टूट जाती हों। तभी चित्रकार ने इसे शालभंजिका कहा हो। शालभंजिका का भारतीय संस्कृति में कितना महत्त्व है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस स्वरूप को बुद्धिज़्म में माया के बुद्ध के जन्म के दृश्य से जोड़ दिया गया।

बौद्ध धर्म से संबंध

शालभंजिका

कुछ आलोचक कहते हैं कि शालभंजिका का बौद्ध धर्म से घनिष्ठ संबंध है। इस मत का आधार यह है कि रानी माया ने इस मुद्रा में गौतम बुद्ध को एक अशोक वृक्ष के नीचे जन्म दिया था। कुछ आलोचकों का यह भी कहना है कि शालभंजिका एक पुरानी देवी है, जिसका संबंध प्रजनन से है। शालभंजिका का छोटा रूप हिंडोला तोरण पर भी देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूता को शुभ माना जाता है। शायद यही कारण है कि शालभंजिका को किलों के तोरण द्वार पर भी प्रमुखता से जगह मिली।[1]

  • जे. पी. वोगेल के अनुसार वह अश्वघोष थे, जिन्होंने सर्वप्रथम बुद्धचरितम् में "तोरण शालभंजिका" शब्द का प्रयोग वास्तुकला संबंध में किया। तोरण इसलिए क्योंकि शालभंजिकाओं का निर्माण मन्दिर या मंच के तोरण द्वार पर ही होता था।
  • होयसल साम्राज्य में बनी शालभंजिकाओं या मदनिकाओं पर भावप्रवणता के साथ-साथ आभूषणों के अलंकरण पर भी अद्भुत कार्य किया गया है। उन्हें देखकर विस्मित मन के लिए यह कल्पना कर पाना जटिल हो जाता है कि ये मूर्तियाँ आज से 900 वर्ष पूर्व बनी थी। होयसल साम्राज्य के समय बनी मदनिकाएँ भारतीय वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं।
  • शालभंजिकाओं के रूप-स्वरूप एवं मुद्राओं में भी विविधता परिलक्षित होती रही है। उत्तर भारतीय मूर्तिकला में निर्मित प्रतिमाएँ भावप्रवण हैं। जो त्रिभंगी मुद्रा में वृक्ष की डाल को पकड़कर खड़ी दिखाई पड़ती हैं। शालभंजिकाओं को शाल या अशोक वृक्ष के साथ निर्मित किया जाता था। उस समय की यह धारणा थी कि महिलाओं द्वारा इन वृक्षों की पूजा करने से उन्हें पुत्र की प्राप्ति होती है।
  • शालभंजिका का संस्कृत में अर्थ है- "शाल वृक्ष की डाल को तोड़ती हुई"। शालभंजिका को "स्त्रियों के उद्यान क्रीड़ा" के रूप में भी परिभाषित किया जाता है। कुमारी, अविवाहित कन्याएँ जब शाल या अशोक के वृक्ष की डाल झकझोरती थीं तो उनके पुष्प झरने लगते थे और वे उन्हें बटोर लिया करती थीं। स्त्रियां वृक्ष की डाल झुकाकर उनके पुष्प तोड़कर एक-दूसरे के ऊपर फेंकती थीं। बौद्ध साहित्य में शालभंजिका को श्रावस्ती के एक वृहद उत्सव के रूप में परिभाषित किया गया है।

विशेषताएँ

  1. शालभंजिका की सबसे पहली विशेषता तो यह है कि वह पत्थर की मूर्ति है, फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कुराहट का भाव स्पष्ट दिखाई देता है।
  2. दूसरा यह कि 10वीं और 11वीं शताब्दी की इस प्रतिमा में भी वह ऐसे अधोवस्त्र पहने दिखाई देती है कि आज के आधुनिक समाज में भी वह संभव नहीं लगता।
  3. इसके अलावा उसका शरीर सौष्ठव ऐसा है कि देखने वाला उसे देखता ही रह जाता है। इस प्रकार की जीरो फिगर 1200 साल पहले लड़कियां रखती थीं।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

तोरण पर उत्कीर्ण शालभंजिका, विट्ठल मंदिर, हम्पी
  • 1989 में शालभंजिका की प्रतिमा न्यूयॉर्क में एक प्रदर्शनी में रखी गई थी। उस वक्त इसका एक करोड़ रुपए का बीमा करवाया गया था। ये मूर्ति मध्य प्रदेश की धरोहर है।
  • ग्यारसपुर की शालभंजिका एक महिला की प्रतिमा है, जो अपने शारीरिक सौंदर्य और मोहक मुस्कान की वजह से कई देशों में सराही जा चुकी है।
  • इसके चेहरे पर अद्वितीय मुस्कान के कारण इसे इंडियन मोनालिसा भी कहा गया है।
  • इसकी कीमत को देखते हुए ग्वालियर के ही एक गैंगस्टर शरमन शिवहरे ने यह धमकी दी थी कि वह इसे महल से चुरा लेगा। तब तक ये प्रतिमा बाहर खुले में ही रखी रहती थी। गैंगस्टर की धमकी के बाद इसे 7 तालों में बंद करके रखा गया।
  • गूजरी महल म्यूजिम में प्रतिमा को कड़ी सुरक्षा में रखा गया है। इस प्रतिमा पर हमेशा पहरा रहता है और चारों ओर से सलाखों वाले केज में सुरक्षित रखा गया है।
  • भारी सुरक्षा की वजह से इसे देखना भी काफी मुश्किल है। इस बारे में पुरातत्त्व विभाग के उप निदेशक कहते हैं कि बेशकीमती और 1000 वर्ष से ज्यादा पुरानी इस प्रतिमा को सुरक्षित रखने के कई जतन करने होते हैं।
  • यह प्रतिमा विदिशा ज़िले के ग्यारसपुर गांव में कई टुकड़ों में खंडित अवस्था में मिली थी।
  • सबसे पहले इस प्रतिमा को 1985 में फ़्राँस की प्रदर्शनी में रखा गया था। उस वक्त इसकी कीमत 60 लाख रुपए आंकी गई थी। इसके बाद कई और देशों में इसे प्रदर्शित किया गया और अब इसकी कीमत करोड़ों में हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शालभंजिका, विदिशा (हिंदी) nativeplanet.com। अभिगमन तिथि: 26 सितंबर, 2020।

बाहरी कड़ियाँ

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