प्रियप्रवास षष्ठ सर्ग

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प्रियप्रवास षष्ठ सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
सर्ग षष्ठ
छंद मन्दाक्रान्ता, मालिनी
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
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प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल सत्रह (17) सर्ग
प्रियप्रवास प्रथम सर्ग
प्रियप्रवास द्वितीय सर्ग
प्रियप्रवास तृतीय सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्थ सर्ग
प्रियप्रवास पंचम सर्ग
प्रियप्रवास षष्ठ सर्ग
प्रियप्रवास सप्तम सर्ग
प्रियप्रवास अष्टम सर्ग
प्रियप्रवास नवम सर्ग
प्रियप्रवास दशम सर्ग
प्रियप्रवास एकादश सर्ग
प्रियप्रवास द्वादश सर्ग
प्रियप्रवास त्रयोदश सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्दश सर्ग
प्रियप्रवास पंचदश सर्ग
प्रियप्रवास षोडश सर्ग
प्रियप्रवास सप्तदश सर्ग

धीरे-धीरे दिन गत हुआ पद्मिनीनाथ डूबे।
दोषा आई फिर गत हुई दूसरा वार आया।
यों ही बीतीं विपुल घड़ियाँ औ कई वार बीते।
कोई आया न मधुपुर से औ न गोपाल आये॥1॥

ज्यों-ज्यों जाते दिवस चित का क्लेश था वृध्दिपाता।
उत्कण्ठा थी अधिक बढ़ती व्यग्रता थी सताती!
होतीं आके उदय उर में घोर उद्विग्नतायें।
देखे जाते सकल ब्रज के लोग उद्भ्रान्त से थे॥2॥

खाते-पीते गमन करते बैठते और सोते।
आते-जाते वन अवनि में गोधनों को चराते।
देते-लेते सकल ब्रज की गोपिका गोपजों के।
जी में होता उदय यह था क्यों नहीं श्याम आये॥3॥

दो प्राणी भी ब्रज-अवनि के साथ जो बैठते थे।
तो आने की न मधुवन से बात ही थे चलाते।
पूछा जाता प्रतिथल मिथ: व्यग्रता से यही था।
दोनों प्यारे कुँवर अब भी लौट के क्यों न आये॥4॥

आवासों में सुपरिसर में द्वार में बैठकों में।
बाज़ारों में विपणि सब में मंदिरों में मठों में।
आने ही की न ब्रजधन के बात फैली हुई थी।
कुंजों में औ पथ अ-पथ में बाग में औ बनों में॥5॥

आना प्यारे महरसुत का देखने के लिए ही।
कोसों जाती प्रतिदिन चली मंडली उत्सुकों की।
ऊँचे-ऊँचे तरु पर चढ़े गोप ढोटे अनेकों।
घंटों बैठे तृषित दृग से पंथ को देखते थे॥6॥

आके बैठी निज सदन की मुक्त ऊँची छतों में।
मोखों में औ पथ पर बने दिव्य वातायनों में।
चिन्तामग्ना विवश विकला उन्मना नारियों की।
दो ही ऑंखें सहस बन के देखती पंथ को थीं॥7॥

आके कागा यदि सदन में बैठता था कहीं भी।
तो तन्वंगी उस सदन की यों उसे थी सुनाती।
जो आते हो कुँवर उड़ के काक तो बैठ जा तू।
मैं खाने को प्रतिदिन तुझे दूध औ भात दूँगी॥8॥

आता कोई मनुज मथुरा ओर से जो दिखाता।
नाना बातें सदुख उससे पूछते तो सभी थे।
यों ही जाता पथिक मथुरा ओर भी जो जनाता।
तो लाखों ही सकल उससे भेजते थे सँदेसे॥9॥

फूलों पत्तों सकल तरुओं औ लता बेलियों से।
आवासों से ब्रज अवनि से पंथ की रेणुओं से।
होती सी थी यह ध्वनि सदा कुंज से काननों से।
मेरे प्यारे कुँवर अब भी क्यों नहीं गेह आये॥10॥

मालिनी छन्द

यदि दिन कट जाता बीतती थी न दोषा।
यदि निशि टलती थी वार था कल्प होता।
पल-पल अकुलाती ऊबती थीं यशोदा।
रट यह रहती थी क्यों नहीं श्याम आये॥11॥

प्रति दिन कितनों को पंथ में भेजती थीं।
निज प्रिय सुत आना देखने के लिए ही।
नियत यह जताने के लिए थे अनेकों।
सकुशल गृह दोनों लाडिले आ रहे हैं॥12॥

दिन-दिन भर वे आ द्वार पै बैठती थीं।
प्रिय पथ लखते ही वार को थीं बिताती।
यदि पथिक दिखाता तो यही पूछती थीं।
मम सुत गृह आता क्या कहीं था दिखाया॥13॥

अति अनुपम मेवे औ रसीले फलों को।
बहु 'मधुर मिठाई दुग्ध को व्यंजनों को।
पथश्रम निज प्यारे पुत्र का मोचने को।
प्रतिदिन रखती थीं भाजनों में सजा के॥14॥

जब कुँवर न आते वार भी बीत जाता।
तब बहुत दु:ख पा के बाँट देती उन्हें थीं।
दिन-दिन उर में थी वृध्दि पाती निराशा।
तम निबिड़ दृगों के सामने हो रहा था॥15॥

जब पुरबनिता आ पूछती थी सँदेसा।
तब मुख उनका थीं देखती उन्मना हो।
यदि कुछ कहना भी वे कभी चाहती थीं।
न कथन कर पातीं कंठ था रुध्द होता॥16॥

यदि कुछ समझातीं गेह की सेविकायें।
बन विकल उसे थीं ध्यान में भी न लातीं।
तन सुधि तक खोती जा रही थीं यशोदा।
अतिशय बिमना औ चिन्तिता हो रही थीं॥17॥

यदि दधि मथने को बैठती दासियाँ थीं।
मथन-रव उन्हें था चैन लेने न देता।
यह कह-कह के ही रोक देतीं उन्हें वे।
तुम सब मिल के क्या कान को फोड़ दोगी॥18॥

दुख-वश सब धंधो बन्द से हो गये थे।
गृह जन मन मारे काल को थे बिताते।
हरि-जननि-व्यथा से मौन थीं शारिकायें।
सकल सदन में ही छा गई थी उदासी॥19॥

प्रतिदिन कितने ही देवता थीं मनाती।
बहु यजन कराती विप्र के वृन्द से थीं।
नित घर पर कोई ज्योतिषी थीं बुलाती।
निज प्रिय सुत आना पूछने को यशोदा॥20॥

सदन ढिग कहीं जो डोलता पत्र भी था।
निज श्रवण उठाती थीं समुत्कण्ठिता हो।
कुछ रज उठती जो पंथ के मध्य यों ही।
बन अयुत-दृगी तो वे उसे देखती थीं॥21॥

गृह दिशि यदि कोई शीघ्रता साथ आता।
तब उभय करों से थामतीं वे कलेजा।
जब वह दिखलाता दूसरी ओर जाता।
तब हृदय करों से ढाँपती थीं दृगों को॥22॥

मधुवन पथ से वे तीव्रता साथ आता।
यदि नभ-तल में थीं देख पाती पखेरू।
उस पर कुछ ऐसी दृष्टि तो डालती थीं।
लख कर जिसको था भग्न होता कलेजा॥23॥

पथ पर न लगी थी दृष्टि ही उत्सुका हो।
न हृदय तल ही की लालसा वर्ध्दिता थी।
प्रतिपल करता था लाडिलों की प्रतीक्षा।
यक यक तन रोऑं नँद की कामिनी का॥24॥

प्रतिपल दृग देखा चाहते श्याम को थे।
छन-छन सुधि आती श्याम मुर्ति की थी।
प्रति निमिष यही थीं चाहती नन्दरानी।
निज वदन दिखावे मेघ सी कान्तिवाला॥25॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

रो रो चिन्ता-सहित दिन को राधिका थीं बिताती।
ऑंखों को थीं सजल रखतीं उन्मना थीं दिखाती।
शोभा वाले जलद-वपु की हो रही चातकी थीं।
उत्कण्ठा थी परम प्रबला वेदना वर्ध्दिता थी॥26॥

बैठी खिन्ना यक दिवस वे गेह में थीं अकेली।
आके ऑंसू दृग-युगल में थे धारा को भिगोते।
आई धीरे इस सदन में पुष्प-सद्गंधा को ले।
प्रात: वाली सुपवन इसी काल वातायनों से॥27॥

आके पूरा सदन उसने सौरभीला बनाया।
चाहा सारा-कलुष तन का राधिका के मिटाना।
जो बूँदें थीं सजल दृग के पक्ष्म में विद्यमाना।
धीरे-धीरे क्षिति पर उन्हें सौम्यता से गिराया॥28॥

श्री राधा को यह पवन की प्यार वाली क्रियायें।
थोड़ी सी भी न सुखद हुईं हो गईं वैरिणी सी।
भीनी-भीनी महँक मन की शान्ति को खो रही थी।
पीड़ा देती व्यथित चित को वायु की स्निग्धता थी॥29॥

संतापों को विपुल बढ़ता देख के दुखिता हो।
धीरे बोलीं सदुख उससे श्रीमती राधिका यों।
प्यारी प्रात: पवन इतना क्यों मुझे है सताती।
क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से॥30॥

कालिन्दी के कल पुलिन पै घूमती सिक्त होती।
प्यारे-प्यारे कुसुम-चय को चूमती गंध लेती।
तू आती है वहन करती वारि के सीकरों को।
हा! पापिष्ठे फिर किसलिए ताप देती मुझे है॥31॥

क्यों होती है निठुर इतना क्यों बढ़ाती व्यथा है।
तू है मेरी चिर परिचिता तू हमारी प्रिया है।
मेरी बातें सुन मत सता छोड़ दे बामता को।
पीड़ा खो के प्रणतजन की है बड़ा पुण्य होता॥32॥

मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्रवाले।
जाके आये न मधुवन से औ न भेजा सँदेसा।
मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ।
जा के मेरी सब दु:ख-कथा श्याम को तू सुनादे॥33॥

हो पाये जो न यह तुझसे तो क्रिया-चातुरी से।
जाके रोने विकल बनने आदि ही को दिखा दे।
चाहे ला दे प्रिय निकट से वस्तु कोई अनूठी।
हा हा! मैं हूँ मृतक बनती प्राण मेरा बचा दे॥34॥

तू जाती है सकल थल ही बेगवाली बड़ी है।
तू है सीधी तरल हृदया ताप उन्मूलती है।
मैं हूँ जी में बहुत रखती वायु तेरा भरोसा।
जैसे हो ऐ भगिनि बिगड़ी बात मेरी बना दे॥35॥

कालिन्दी के तट पर घने रम्य उद्यानवाला।
ऊँचे-ऊँचे धवल-गृह की पंक्तियों से प्रशोभी।
जो है न्यारा नगर मथुरा प्राणप्यारा वहीं है।
मेरा सूना सदन तज के तू वहाँ शीघ्र ही जा॥36॥

ज्यों ही मेरा भवन तज तू अल्प आगे बढ़ेगी।
शोभावाली सुखद कितनी मंजु कुंजें मिलेंगी।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह लेंगी तुझे वे।
तो भी मेरा दु:ख लख वहाँ जा न विश्राम लेना॥37॥

थोड़ा आगे सरस रव का धाम सत्पुष्पवाला।
अच्छे-अच्छे बहु द्रुम लतावान सौन्दर्य्यशाली।
प्यारा वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा।
आना जाना इस विपिन से मुह्यमाना न होना॥38॥

जाते-जाते अगर पथ में क्लान्त कोई दिखावे।
तो जा के सन्निकट उसकी क्लान्तियों को मिटाना।
धीरे-धीरे परस करके गात उत्ताप खोना।
सद्गंधो से श्रमित जन को हर्षितों सा बनाना॥39॥

संलग्ना हो सुखद जल के श्रान्तिहारी कणों से।
ले के नाना कुसुम कुल का गंध आमोदकारी।
निधधूली हो गमन करना उध्दता भी न होना।
आते-जाते पथिक जिससे पंथ में शान्ति पावें॥40॥

लज्जाशीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये।
होने देना विकृत-वसना तो न तू सुन्दरी को।
जो थोड़ी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना।
होठों की औ कमल-मुख की म्लानतायें मिटाना॥41॥

जो पुष्पों के 'मधुर-रस को साथ सानन्द बैठे।
पीते होवें भ्रमर भ्रमरी सौम्यता तो दिखाना।
थोड़ा सा भी न कुसुम हिले औ न उद्विग्न वे हों।
क्रीड़ा होवे न कलुषमयी केलि में हो न बाधा॥42॥

कालिन्दी के पुलिन पर हो जो कहीं भी कढ़े तू।
छू के नीला सलिल उसका अंग उत्ताप खोना।
जी चाहे तो कुछ समय वाँ खेलना पंकजों से।
छोटी-छोटी सु-लहर उठा क्रीड़ितों को नचाना॥43॥

प्यारे-प्यारे तरु किसलयों को कभी जो हिलाना।
तो हो जाना मृदुल इतनी टूटने वे न पावें।
शाखापत्रों सहित जब तू केलि में लग्न हो तो।
थोड़ा सा भी न दु:ख पहुँचे शावकों को खगों के ॥44॥

तेरी जैसी मृदु पवन से सर्वथा शान्ति-कामी।
कोई रोगी पथिक पथ में जो पड़ा हो कहीं तो।
मेरी सारी दुखमय दशा भूल उत्कण्ठ होके।
खोना सारा कलुष उसका शान्ति सर्वाङ्ग होना॥45॥

कोई क्लान्ता कृषक ललना खेत में जो दिखावे।
धीरे-धीरे परस उसकी क्लान्तियों को मिटाना।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला।
छाया द्वारा सुखित करना, तप्त भूतांगना को॥46॥

उद्यानों में सु-उपवन में वापिका में सरों में।
फूलोंवाले नवल तरु में पत्र शोभा द्रुमों में।
आते-जाते न रम रहना औ न आसक्त होना।
कुंजों में औ कमल-कुल में वीथिका में वनों में॥47॥

जाते-जाते पहुँच मथुरा-धाम में उत्सुका हो।
न्यारी-शोभा वर नगर की देखना मुग्ध होना।
तू होवेगी चकित लख के मेरु से मन्दिरों को।
आभावाले कलश जिनके दूसरे अर्क से हैं॥48॥

जी चाहे तो शिखर सम जो सद्य के हैं मुँडेरे।
वाँ जा ऊँची अनुपम-ध्वजा अङ्क में ले उड़ाना।
प्रासादों में अटन करना घूमना प्रांगणों में।
उद्युक्ता हो सकल सुर से गेह को देख जाना॥49॥

कुंजों बागों विपिन यमुना कूल या आलयों में।
सद्गंधो से भरित मुख की वास सम्बन्ध से आ।
कोई भौंरा विकल करता हो किसी कामिनी को।
तो सद्भावों सहित उसको ताड़ना दे भगाना॥50॥

तू पावेगी कुसुम गहने कान्तता साथ पैन्हे।
उद्यानों में वर नगर के सुन्दरी मालिनों को।
वे कार्यों में स्वप्रियतम के तुल्य ही लग्न होंगी।
जो श्रान्ता हों सरस गति से तो उन्हें मोह लेना॥51॥

जो इच्छा हो सुरभि तन के पुष्प संभार से ले।
आते-जाते स-रुचि उनके प्रीतमों को रिझाना।
ऐ मर्मज्ञे रहित उससे युक्तियाँ सोच होना।
जैसे जाना निकट प्रिय के व्योम-चुम्बी गृहों के॥52॥

देखे पूजा समय मथुरा मन्दिरों मध्य जाना।
नाना वाद्यों 'मधुर-स्वर की मुग्धता को बढ़ाना।
किम्वा ले के रुचिर तरु के शब्दकारी फलों को।
धीरे-धीरे 'मधुररव से मुग्ध हो हो बजाना॥53॥

नीचे फूले कुसुम तरु के जो खड़े भक्त होवें।
किम्वा कोई उपल-गठिता-मूर्ति हो देवता की।
तो डालों को परम मृदुता मंजुता से हिलाना।
औ यों वर्षा कर कुसुम की पूजना पूजितों को॥54॥

तू पावेगी वर नगर में एक भूखण्ड न्यारा।
शोभा देते अमित जिसमें राज-प्रासाद होंगे।
उद्यानों में परम-सुषमा है जहाँ संचिता सी।
छीने लेते सरवर जहाँ वज्र की स्वच्छता हैं॥55॥

तू देखेगी जलद-तन को जा वहीं तद्गता हो।
होंगे लोने नयन उनके ज्योति-उत्कीर्णकारी।
मुद्रा होगी वर-वदन की मूर्ति सी सौम्यता की।
सीधे सीधे वचन उनके सिक्त होंगे सुधा से॥56॥

नीले फूले कमल दल सी गात की श्यामता है।
पीला प्यारा वसन कटि में पैन्हते हैं फबीला।
छूटी काली अलक मुख की कान्ति को है बढ़ाती।
सद्वस्त्त्रों में नवल-तन की फूटती सी प्रभा है॥57॥

साँचे ढाला सकल वपु है दिव्य सौंदर्य्यशाली।
सत्पुष्पों सी सुरभि उस की प्राण संपोषिका है।
दोनों कंधो वृषभ-वर से हैं बड़े ही सजीले।
लम्बी बाँहें कलभ-कर सी शक्ति की पेटिका हैं॥58॥

राजाओं सा शिर पर लसा दिव्य आपीड़ होगा।
शोभा होगी उभय श्रुति में स्वर्ण के कुण्डलों की।
नाना रत्नाकलित भुज में मंजु केयूर होंगे।
मोतीमाला लसित उनका कम्बु सा कंठ होगा॥59॥

प्यारे ऐसे अपर जन भी जो वहाँ दृष्टि आवें।
देवों के से प्रथित-गुण से तो उन्हें चीन्ह लेना।
थोड़ी ही है वय तदपि वे तेजशाली बड़े हैं।
तारों में है न छिप सकता कंत राका निशा का॥60॥

बैठे होंगे जिस थल वहाँ भव्यता भूरि होगी।
सारे प्राणी वदन लखते प्यार के साथ होंगे।
पाते होंगे परम निधियाँ लूटते रत्न होंगे।
होती होंगी हृदयतल की क्यारियाँ पुष्पिता सी॥61॥

बैठे होंगे निकट जितने शान्त औ शिष्ट होंगे।
मर्य्यादा का प्रति पुरुष को ध्यान होगा बड़ा ही।
कोई होगा न कह सकता बात दुर्वृत्तता की।
पूरा-पूरा प्रति हृदय में श्याम आतंक होगा॥62॥

प्यारे-प्यारे वचन उनसे बोलते श्याम होंगे।
फैली जाती हृदय-तल में हर्ष की बेलि होगी।
देते होंगे प्रथित गुण वे देख सद्दृष्टि द्वारा।
लोहा को छू कलित कर से स्वर्ण होंगे बनाते॥63॥

सीधे जाके प्रथम गृह के मंजु उद्यान में ही।
जो थोड़ी भी तन-तपन हो सिक्त होके मिटाना।
निर्धूली हो सरस रज से पुष्प के लिप्त होना।
पीछे जाना प्रियसदन में स्निग्धता से बड़ी ही॥64॥

जो प्यारे के निकट बजती बीन हो मंजुता से।
किम्वा कोई मुरज-मुरली आदि को हो बजाता।
या गाती हो 'मधुर स्वर से मण्डली गायकों की।
होने पावे न स्वर लहरी अल्प भी तो विपिन्ना॥65॥

जाते ही छू कमलदल से पाँव को पूत होना।
काली-काली कलित अलकें गण्ड शोभी हिलाना।
क्रीड़ायें भी ललित करना ले दुकूलादिकों को।
धीरे-धीरे परस तन को प्यार की बेलि बोना॥66॥

तेरे में है न यह गुण जो तू व्यथायें सुनाये।
व्यापारों को प्रखर मति और युक्तियों से चलाना।
बैठे जो हों निज सदन में मेघ सी कान्तिवाले।
तो चित्रों को इस भवन के ध्यान से देख जाना॥67॥

जो चित्रों में विरह-विधुरा का मिले चित्र कोई।
तो जाके निकट उसको भाव से यों हिलाना।
प्यारे हो के चकित जिससे चित्र की ओर देखें।
आशा है यों सुरति उनका हो सकेगी हमारी॥68॥

जो कोई भी इस सदन में चित्र उद्यान का हो।
औ हों प्राणी विपुल उसमें घूमते बावले से।
तो जाके सन्निकट उसके औ हिला के उसे भी।
देवात्मा को सुरति ब्रज के व्याकुलों की कराना॥69॥

कोई प्यारा-कुसुम कुम्हला गेह में जो पड़ा हो।
तो प्यारे के चरण पर ला डाल देना उसी को।
यों देना ऐ पवन बतला फूल सी एक बाला।
म्लाना ही हो कमल पग को चूमना चाहती है॥70॥

जो प्यारे मंजु-उपवन या वाटिका में खड़े हों।
छिद्रों में जा क्वणित करना वेणु सा कीचकों को।
यों होवेगी सुरति उनको सर्व गोपांगना की।
जो हैं वंशी श्रवण रुचि से दीर्घ उत्कण्ठ होतीं॥71॥

ला के फूले कमलदल को श्याम के सामने ही।
थोड़ा-थोड़ा विपुल जल में व्यग्र हो हो डुबाना।
यों देना ऐ भगिनि जतला एक अंभोजनेत्र।
ऑंखों को हो विरह-विधुरा वारि में बोरती है॥72॥

धीरे लाना वहन करके नीप का पुष्प कोई।
औ प्यारे के चपल दृग के सामने डाल देना।
ऐसे देना प्रकट दिखला नित्य आशंकिता हो।
कैसी होती विरहवश मैं नित्य रोमांचिता हूँ॥73॥

बैठे नीचे जिस विटप के श्याम होवें उसी का।
कोई पत्ता निकट उनके नेत्र के ले हिलाना।
यों प्यारे को विदित करना चातुरी से दिखाना।
मेरे चिन्ता-विजित चित का क्लान्त हो काँप जाना॥74॥

सूखी जाती मलिन लतिका जो धरा में पड़ी हो।
तो पाँवों के निकट उसको श्याम के ला गिराना।
यों सीधे से प्रकट करना प्रीति से वंचिता हो।
मेरा होना अति मलिन औ सूखते नित्य जाना॥75॥

कोई पत्ता नवल तरु का पीत जो हो रहा हो।
तो प्यारे के दृग युगल के सामने ला उसे ही।
धीरे-धीरे सँभल रखना औ उन्हें यों बताना।
पीला होना प्रबल दु:ख से प्रोषिता सा हमारा॥76॥

यों प्यारे को विदित करके सर्व मेरी व्यथायें।
धीरे-धीरे वहन करके पाँव की धूलि लाना।
थोड़ी सी भी चरणरज जो ला न देगी हमें तू।
हा! कैसे तो व्यथित चित को बोध मैं दे सकूँगी॥77॥

जो ला देगी चरणरज तो तू बड़ा पुण्य लेगी।
पूता हूँगी भगिनि उसको अंग में मैं लगाके।
पोतूँगी जो हृदय तल में वेदना दूर होगी।
डालूँगी मैं शिर पर उसे ऑंख में ले मलूँगी॥78॥

तू प्यारे का मृदुल स्वर ला मिष्ट जो है बड़ा ही।
जो यों भी है क्षरण करती स्वर्ग की सी सुधा को।
थोड़ा भी ला श्रवणपुट में जो उसे डाल देगी।
मेरा सूखा हृदयतल तो पूर्ण उत्फुल्ल होगा॥79॥

भीनी-भीनी सुरभि सरसे पुष्प की पोषिका सी।
मूलीभूता अवनितल में कीर्ति कस्तूरिका की।
तू प्यारे के नवलतन की वास ला दे निराली।
मेरे ऊबे व्यथित चित में शान्तिधारा बहा दे॥80॥

होते होवें पतित कण जो अंगरागादिकों के।
धीरे-धीरे वहन करके तू उन्हीं को उड़ा ला।
कोई माला कलकुसुम की कंठसंलग्न जो हो।
तो यत्नों से विकच उसका पुष्प ही एक ला दे॥81॥

पूरी होवें न यदि तुझसे अन्य बातें हमारी।
तो तू मेरी विनय इतनी मान ले औ चली जा।
छू के प्यारे कमलपग को प्यार के साथ आ जा।
जी जाऊँगी हृदयतल में मैं तुझी को लगाके॥82॥

भ्रांता हो के परम दु:ख औ भूरि उद्विग्नता से।
ले के प्रात: मृदुपवन को या सखी आदिकों को।
यों ही राधा प्रगट करतीं नित्य ही वेदनायें।
चिन्तायें थीं चलित करती वर्ध्दिता थीं व्यथायें॥83॥

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