प्रियप्रवास चतुर्थ सर्ग

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प्रियप्रवास चतुर्थ सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
सर्ग चतुर्थ
छंद द्रुतविलम्बित, मालिनी,शार्दूल-विक्रीड़ित
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
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प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल सत्रह (17) सर्ग
प्रियप्रवास प्रथम सर्ग
प्रियप्रवास द्वितीय सर्ग
प्रियप्रवास तृतीय सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्थ सर्ग
प्रियप्रवास पंचम सर्ग
प्रियप्रवास षष्ठ सर्ग
प्रियप्रवास सप्तम सर्ग
प्रियप्रवास अष्टम सर्ग
प्रियप्रवास नवम सर्ग
प्रियप्रवास दशम सर्ग
प्रियप्रवास एकादश सर्ग
प्रियप्रवास द्वादश सर्ग
प्रियप्रवास त्रयोदश सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्दश सर्ग
प्रियप्रवास पंचदश सर्ग
प्रियप्रवास षोडश सर्ग
प्रियप्रवास सप्तदश सर्ग

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विशद-गोकुल-ग्राम समीप ही।
बहु-बसे यक सुन्दर-ग्राम में।
स्वपरिवार समेत उपेन्द्र से।
निवसते वृषभानु-नरेश थे॥1॥

        यह प्रतिष्ठित-गोप सुमेर थे।
        अधिक-आदृत थे नृप-नन्द से।
        ब्रज-धरा इनके धन-मन से।
        अवनि में अति-गौरविता रही॥2॥

यक सुता उनकी अति-दिव्य थी।
रमणि-वृन्द-शिरोमणि राधिका।
सुयश-सौरभ से जिनके सदा।
ब्रज-धरा बहु-सौरभवान थी॥3॥

शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

रूपोद्यान प्रफुल्ल-प्राय-कलिका राकेन्दु-विम्बनना।
तन्वंगी कल-हासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कला पुत्तली।
शोभा-वारिधि की अमूल्य-मणि सी लावण्य लीला मयी।
श्रीराधा-मृदुभाषिणी मृगदृगी-माधुर्य की मुर्ति थीं॥4॥

        फूले कंज-समान मंजु-दृगता थी मत्त कारिणी।
        सोने सी कमनीय-कान्ति तन की थी दृष्टि-उन्मेषिनी।
        राधा की मुसकान की 'मधुरता थी मुग्धता-मुर्ति सी।
        काली-कुंचित-लम्बमान-अलकें थीं मानसोन्मादिनी॥5॥

नाना-भाव-विभाव-हाव-कुशला आमोद आपूरिता।
लीला-लोल-कटाक्ष-पात-निपुणा भ्रूभंगिमा-पंडिता।
वादित्रादि समोद-वादन-परा आभूषणाभूषिता।
राधा थीं सुमुखी विशाल-नयना आनन्द-आन्दोलिता॥6॥

        लाली थी करती सरोज-पग की भूपृष्ठ को भूषिता।
        विम्बा विद्रुम को अकान्त करती थी रक्तता ओष्ठ की।
        हर्षोत्फुल्ल-मुखारविन्द-गरिमा सौंदर्य्यआधार थी।
        राधा की कमनीय कान्त छवि थी कामांगना मोहिनी॥7॥

सद्वस्त्रा-सदलंकृकृता गुणयुता-सर्वत्र सम्मानिता।
रोगी वृध्द जनोपकारनिरता सच्छास्त्रा चिन्तापरा।
सद्भावातिरता अनन्य-हृदया-सत्प्रेम-संपोषिका।
राधा थीं सुमना प्रसन्नवदना स्त्रीजाति-रत्नोपमा॥8॥

द्रुतविलम्बित छन्द

यह विचित्र-सुता वृषभानु की।
ब्रज-विभूषण में अनुरक्त थी।
सहृदया यह सुन्दर-बालिका।
परम-कृष्ण-समर्पित-चित्त थी॥9॥

        ब्रज-धराधिप औ वृषभानु में।
        अतुलनीय परस्पर-प्रीति थी।
        इसलिए उनका परिवार भी।
        बहु परस्पर प्रेम-निबध्द था॥10॥

जब नितान्त-अबोध मुकुन्द थे।
विलसते जब केवल अंक में।
वह तभी वृषभानु निकेत में।
अति समादर साथ गृहीत थे॥11॥

        छविवती-दुहिता वृषभानु की।
        निपट थी जिस काल पयोमुखी।
        वह तभी ब्रज-भूप कुटुम्ब की।
        परम-कौतुक-पुत्तलिका रही॥12॥

यह अलौकिक-बालक-बालिका।
जब हुए कल-क्रीड़न-योग्य थे।
परम-तन्मय हो बहु प्रेम से।
तब परस्पर थे मिल खेलते॥13॥

        कलित-क्रीड़न से इनके कभी।
        ललित हो उठता गृह-नन्द का।
        उमड़ सी पड़ती छवि थी कभी।
        वर-निकेतन में वृषभानु के॥14॥

जब कभी काल-क्रीड़न-सूत्र से।
चरण-नूपुर औ कटि-किंकिणी।
सदन में बजती अति-मंजु थी।
किलकती तब थी कल-वादिता॥15॥

        युगल का वय साथ सनेह भी।
        निपट-नीरवता सह था बढ़ा।
        फिर यही वर-बाल सनेह ही।
        प्रणय में परिवर्तित था हुआ॥16॥

बलवती कुछ थी इतनी हुई।
कुँवरि-प्रेम-लता उर-भूमि में।
शयन भोजन क्या, सब काल ही।
वह बनी रहती छवि-मत्त थी॥17॥

        वचन की रचना रस से भरी।
        प्रिय मुखांबुज की रमणीयता।
        उतरती न कभी चित से रही।
        सरलता, अतिप्रीति सुशीलता॥18॥

मधुपुरी बलवीर प्रयाण के।
हृदय-शैल-स्वरूप प्रसंग से।
न उबरी यह बेलि विनोद की।
विधि अहो भवदीय विडम्बना॥19॥

शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

काले कुत्सित कीट का कुसुम में कोई नहीं काम था।
काँटे से कमनीय कंज कृति में क्या है न कोई कमी।
पोरों में अब ईख की विपुलता है ग्रंथियों की भली।
हा! दुर्दैव प्रगल्भते! अपटुता तूने कहाँ की नहीं॥20॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कमल का दल भी हिम-पात से।
दलित हो पड़ता सब काल है।
कल कलानिधि को खल राहु भी।
निगलता करता बहु क्लान्त है॥21॥

        कुसुम सा प्रफुल्लित बालिका।
        हृदय भी न रहा सुप्रफुल्ल ही।
        वह मलीन सकल्मष हो गया।
        प्रिय मुकुन्द प्रवास-प्रसंग से॥22॥

सुख जहाँ निज दिव्य स्वरूप से।
विलसता करता कल-नृत्य है।
अहह सो अति-सुन्दर सद्म भी।
बच नहीं सकता दुखलेश से॥23॥

        सब सुखाकर श्रीवृषभानुजा।
        सदन-सज्जित-शोभन-स्वर्ग सा।
        तुरत ही दु:ख के लवलेश से।
        मलिन शोक-निमज्जित हो गया॥24॥

जब हुई श्रुति-गोचर सूचना।
ब्रज धराधिप तात प्रयाण की।
उस घड़ी ब्रज-वल्लभ प्रेमिका।
निकट थी प्रथिता ललिता सखी॥25॥

        विकसिता-कलिका हिमपात से।
        तुरत ज्यों बनती अति म्लान है।
        सुन प्रसंग मुकुन्द प्रवास का।
        मलिन त्यों वृषभानुसुता हुईं॥26॥

नयन से बरसा कर वारि को।
बन गईं पहले बहु बावली।
निज सखी ललिता मुख देख के।
दुखकथा फिर यों कहने लगीं॥27॥

मालिनी छन्द

कल कुवलय के से नेत्रवाले रसीले।
वररचित फबीले पीते कौशेय शोभी।
गुणगण मणिमाली मंजुभाषी सजीले।
वह परम छबीले लाडिले नन्दजी के॥28॥

        यदि कल मथुरा को प्रात ही जा रहे हैं।
        बिन मुख अवलोके प्राण कैसे रहेंगे।
        युग सम घटिकायें वार की बीतती थीं।
        सखि! दिवस हमारे बीत कैसे सकेंगे॥29॥

जन मन कलपाना मैं बुरा जानती हूँ।
परदुख अवलोके मैं न होती सुखी हूँ।
कहकर कटु बातें जी न भूले जलाया।
फिर यह दुखदायी बात मैंने सुनी क्यों?॥30॥

        अयि सखि! अवलोके खिन्नता तू कहेगी।
        प्रिय स्वजन किसी के क्या न जाते कहीं हैं।
        पर हृदय न जानें दग्ध क्यों हो रहा है।
        सब जगत् हमें है शून्य होता दिखाता॥31॥

यह सकल दिशायें आज रो सी रही हैं।
यह सदन हमारा, है हमें काट खाता।
मन उचट रहा है चैन पाता नहीं है।
विजन-विपिन में है भागता सा दिखाता॥32॥

        रुदनरत न जानें कौन क्यों है बुलाता।
        गति पलट रही है भाग्य की क्यों हमारे।
        उह! कसक समाई जा रही है कहाँ की।
        सखि! हृदय हमारा दग्ध क्यों हो रहा है॥33॥

मधुपुर-पति ने है प्यार ही से बुलाया।
पर कुशल हमें तो है न होती दिखाती।
प्रिय-विरह-घटायें घेरती आ रही हैं।
घहर घहर देखो हैं कलेजा कँपाती॥34॥

        हृदय चरण तो मैं चढ़ा ही चुकी हूँ।
        सविधि-वरण की थी कामना और मेरी।
        पर सफल हमें सो है न होती दिखाती।
        वह कब टलता है भाल में जो लिखा है॥35॥

सविधि भगवती को आज भी पूजती हूँ।
बहु-व्रत रखती हूँ देवता हूँ मनाती।
मम-पति हरि होवें चाहती मैं यही हूँ।
पर विफल हमारे पुण्य भी हो चले हैं॥36॥

        करुण ध्वनि कहाँ की फैल सी क्यों गई है।
        सब तरु मन मारे आज क्यों यों खड़े हैं।
        अवनि अति-दुखी सी क्यों हमें है दिखाती।
        नभ-पर दुख-छाया-पात क्यों हो रहा है॥37॥

अहह सिसकती मैं क्यों किसे देखती हूँ।
मलिन-मुख किसी का क्यों मुझे है रुलाता।
जल जल किसका है छार-होता कलेजा।
निकल निकल आहें क्यों किसे बेधती हैं॥38॥

        सखि, भय यह कैसा गेह में छा गया है।
        पल-पल जिससे मैं आज यों चौंकती हूँ।
        कँप कर गृह में की ज्योति छाई हुई भी।
        छन-छन अति मैली क्यों हुई जा रही है॥39॥

मनहरण हमारे प्रात जाने न पावें।
सखि! जुगुत हमें तो सूझती है न ऐसी।
पर यदि यह काली यामिनी ही न बीते।
तब फिर ब्रज कैसे प्राणप्यारे तजेंगे॥40॥

 सब-नभ-तल-तारे जो उगे दीखते हैं।
        यह कुछ ठिठके से सोच में क्यों पड़े हैं।
        ब्रज-दुख अवलोके क्या हुए हैं दुखारी।
        कुछ व्यथित बने से या हमें देखते हैं॥41॥

रह-रह किरणें जो फूटती हैं दिखाती।
वह मिष इनके क्या बोध देते हमें हैं।
कर वह अथवा यों शान्ति का हैं बढ़ाते।
विपुल-व्यथित जीवों की व्यथा मोचने को॥42॥

        दुख-अनल-शिखायें व्योम में फूटती हैं।
        यह किस दुखिया का हैं कलेजा जलाती।
        अहह अहह देखो टूटता है न तारा।
        पतन दिलजले के गात का हो रहा है॥43॥

चमक-चमक तारे धीर देते हमें हैं।
सखि! मुझ दुखिया की बात भी क्या सुनेंगे?
पर-हित-रत-हो ए ठौर को जो न छोड़ें।
निशि विगत न होगी बात मेरी बनेगी॥44॥

        उडुगण थिर से क्यों हो गये दीखते हैं।
        यह विनय हमारी कान में क्या पड़ी है?
        रह-रह इनमें क्यों रंग आ-जा रहा है।
        कुछ सखि! इनको भी हो रही बेकली है॥45॥

दिन फल जब खोटे हो चुके हैं हमारे।
तब फिर सखि! कैसे काम के वे बनेंगे।
पल-पल अति फीके हो रहे हैं सितारे।
वह सफल न मेरी कामनायें करेंगे॥46॥

        यह नयन हमारे क्या हमें हैं सताते।
        अहह निपट मैली ज्योति भी हो रही है।
        मम दु:ख अवलोके या हुए मंद तारे।
        कुछ समझ हमारी काम देती नहीं है॥47॥

सखि! मुख अब तारे क्यों छिपाने लगे हैं।
वह दु:ख लखने की ताब क्या हैं न लाते।
परम-विफल होके आपदा टालने में।
वह मुख अपना हैं लाज से या छिपाते॥48॥

        क्षितिज निकट कैसी लालिमा दीखती है।
        बह रुधिर रहा है कौन सी कामिनी का।
        बिहग विकल हो-हो बोलने क्यों लगे हैं।
        सखि! सकल दिशा में आग सी क्यों लगी है॥49॥

सब समझ गई मैं काल की क्रूरता को।
पल-पल वह मेरा है कलेजा कँपाता।
अब नभ उगलेगा आग का एक गोला।
सकल-ब्रज-धार को फूँक देता जलाता॥50॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

हा! हा! ऑंखों मम-दुख-दशा देख ली औ न सोची।
बातें मेरी कमलिनिपते! कान की भी न तूने।
जो देवेगा अवनितल को नित्य का सा उँजाला।
तेरा होना उदय ब्रज में तो अंधेरा करेगा॥51॥

        नाना बातें दु:ख शमन को प्यार से थी सुनाती।
        धीरे-धीरे नयन-जल थी पोंछती राधिका का।
        हा! हा! प्यारी दुखित मत हो यों कभी थी सुनाती।
        रोती-रोती विकल ललिता आप होती कभी थी॥52॥

सूख जाता कमल-मुख था होठ नीला हुआ था।
दोनों ऑंखें विपुल जल में डूबती जा रही थीं।
शंकायें थीं विकल करती काँपता था कलेजा।
खिन्ना दीना परम-मलिना उन्मना राधिका थीं॥53॥

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