चातुर्मास्य यज्ञ

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यह चार महीनों में होने वाला एक वैदिक यज्ञ है, जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है, जिसे चौमासा भी कहा जाता है। कात्यायन श्रौतसूत्र में इसके महत्व के बारे में बताया गया है। फाल्गुन से इसका आरंभ होने की बात कही गई है। इसका आरंभ फाल्गुन, चैत्र या वैशाख की पूर्णिमा से हो सकता है और आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वादशी या पूर्णिमा पर इसका उद्यापन करने का विधान है। इस अवसर पर चार पर्व हैं- वैश्वदेव, वरुणघास, शाकमेघ और सुनाशीरीय। पुराणों में इस व्रत के महत्व के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है।

व्रत एवं पूजा पाठ

इस समय के दौरान भोजन में किसी भी प्रकार का तामसिक प्रवृति का भोजन नहीं होना चाहिए। भोजन में नमक का प्रयोग करने से व्रत के शुभ फलों में कमी होती है, व्यक्ति को भूमि पर शयन करना चाहिए, जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दान का सेवन करने से बचना चाहिए। इस अवधि के दौरान सत्य का आचरण करते हुए दूसरों को दु:ख देने वाले शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए।

इसके अतिरिक्त शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए है, उनका सख्ती से पालन करना चाहिए। सुबह जल्दी उठना चाहिए। नित्यक्रियाओं को करने के बाद, स्नान करना चाहिए। स्नान अगर किसी तीर्थ स्थान या पवित्र नदी में किया जाता है, तो वह विशेष रुप से शुभ रहता है। किसी कारण वश अगर यह संभव न हो, तो इस दिन घर में ही स्नान कर सकता है। स्नान करने के लिये भी मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। यह विष्णु का व्रत है अतः 'नमो- नारायण' या ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र’ के जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति प्राप्त होती है।

स्नान कार्य करने के बाद भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। पूजन करने के लिए धान्य के ऊपर कुम्भ रख कर, कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से बांधना चाहिए। इसके बाद कुम्भ की पूजा करनी चाहिए, जिसे कुम्भ स्थापना के नाम से जाना जाता है। कुम्भ के ऊपर भगवान की प्रतिमा या तस्वीर रख कर पूजा करनी चाहिए। ये सभी क्रियाएं करने के बाद धूप, दीपक और पुष्प से पूजा करनी चाहीए। इस समय पूजा पाठ करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते है। अत: मोक्ष की प्राप्ति होती है।

चातुर्मास महत्व

पुराणों में ऎसा उल्लेख है, कि इस दिन से भगवान श्रीविष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है। आषाढ मास से कार्तिक मास के मध्य के समय को चातुर्मास कहते है। इन चार माहों में भगवान विष्णु क्षीरसागर की अनंत शय्या पर शयन करते है। इसलिये इन माह अवधियों में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते। इन दिनों में तपस्वी एक स्थान पर रहकर ही तप करते है। धार्मिक यात्राओं में भी केवल ब्रजयात्रा की जा सकती है। ब्रज के विषय में यह मान्यता है कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर तीर्थ ब्रज में निवास करते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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