एसेनी

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एसेनी लगभग दूसरी सदी ई.पू. में एसेनी नामक यहूदी साधु संप्रदाय की स्थापना हुई। एसेनी का शब्दिक अर्थ है 'मौन रहनेवाला', 'धर्मनिष्ठ' या 'संन्यासी'। सीरिया, फिलिस्तीन, मिस्र एवं उत्तर अफ्रीका के अन्य देशों में वनों और पर्वतों के निकट झरनों और नदियों के किनारे इनकी बस्तियाँ होती थीं। इतिहास लेखक फ़ीलो इनकी तुलना भारतीय संतों के साथ करता है। स्त्राबो उनको 'दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का संघ' कहता है।

एसेनी साधुओं की जमात में या तो छोटे बालकों को लिया जाता था या युवावस्था पार किए हुए उन लोगों को जिन्हें सांसारिक भोगविलास की ओर अधिक आकर्षण न रह गया हो। दीक्षित होने से पूर्व उन्हें अपनी समस्त धन संपत्ति साधुकुल को दे देनी पड़ती थी। तीन वर्ष तक उन्हें उपवास और ्व्रात रखकर मन और इंद्रियों की साधना करनी पड़ती थी। दीक्षा से पहले उन्हें प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि :

मैं सदा ईश्वरनिष्ठ रहूँगा। मनुष्य मात्र के प्रति न्याय का व्यवहार करूँगा। किसी प्रकार की हिंसा न करूँगा। किसी को हानि न पहुँचाऊँगा। सब प्रकार की बुराइयों से दूर रहूँगा। बड़प्पन और अभिमान की भावना से बचूँगा। सचाई का सदा पालन करूँगा। पाप की कमाई से बचूँगा। जमात के कुलपति से अपनी कोई बात न छिपाऊँगा, न जमात के रहस्य को किसी बाहरी व्यक्ति पर प्रकट करूँगा।

एसेनी साधु आजीवन अविवाहित रहते थे। वे संयम तथा तपस्या का जीवन व्यतीत करते थे। एसेनियों की साधु बस्तियों का प्रबंध कुलपति करता था। व्यक्तिगत संपत्ति रखने का किसी को अधिकार न था। समस्त संपत्ति जमात की होती है। सबका एक ही जगह भोजन बनता था और सब एक साथ बैठकर भोजन करते थे। प्रत्येक एसेनी को अनिवार्य रूप से प्रतिदिन कुछ घंटे शारीरिक श्रम करना पड़ता था। इस श्रम के अंतर्गत खेती करना, कपड़ा बुनना और भोजन बनाना आदि कार्य सम्मिलित थे। निजी काम के लिए नौकर या दास रखना पाप समझा जाता था। पवित्र जीवन, दीन दुखियों की सेवा, शरीरश्रम और योगसाधन को ऐसनी आत्मोन्नति के चार मुख्य आधार मानते थे। मांस और मदिरा को वे छूते तक न थे। पानी के सिवाय वे अन्य कोई पेय नहीं पीते थे। भोजन के आरंभ तथा समाप्ति पर वे ईश्वर को धन्यवाद देते थे। एसेनी सूर्य को ईश्वर की दिव्य ज्योति का भौतिक चिह्न मानते थे। उपासना के समय सदा सूर्य की ओर मुँह कर लेते थे। बालार्णव का उदय होते ही उसकी ओर मुँह करके यहूदियों के प्रसिद्ध मंत्र 'रोमा' का उच्चारण करते थे। अपने चरित्र और तत्वज्ञान के लिए आसपास के संसार में वे बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे।[1]

ईसा के जन्म के समय एसेनी साधुओं की संख्या इतिहास लेखक यूसुफ के अनुसार 4000 से अधिक थी किंतु ईसा से लगभग सौ वर्ष बाद यह साधुसंप्रदाय लुप्तप्राय हो चुका था।[2]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 260 |
  2. सं.ग्रं.-जी.टी. बेट्टानी : हिस्ट्री ऑव जूडाइज़्म ऐंड क्रिश्चियानिटी (1872); वि.ना. पांडें : यहूदी धर्म और सामी संस्कृति (1195); एच. ग्रैज़ : हिस्ट्री ऑव द ज्यूज़ (1904)।

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