आँख की किरकिरी उपन्यास भाग-7

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अन्नपूर्णा काशी से आई। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जाकर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देखकर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हें लगा, वे मन के अनजान ही अन्नपूर्णा को चाह रही थीं। इतने दिनों के बाद आज पल-भर में ही यह बात स्पष्ट हो उठी कि उनको इतनी वेदना महज़ इसश्लिए थी कि अन्नपूर्णा न थीं। एक पल में उसकी चुकी चित्ता ने अपने चिरंतन स्थान पर अधिकार कर लिया। महेन्द्र की पैदाइश से भी पहले जब इन दिनों जिठानी-देवरानी ने वधू के रूप में इस परिवार के सारे सुख-दु:खों को अपना लिया था- पूजा-त्योहारों पर, शोक-मृत्यु में दोनों ने गृहस्थी के रथ पर साथ-साथ यात्रा की थी- उन दिनों के गहरे सखीत्व ने राजलक्ष्मी के हृदय को आज पल-भर में आच्छन्न कर लिया। जिसके साथ सुदूर अतीत में उन्होंने जीवन का आरम्भ किया था- तरह-तरह की रुकावटों के बाद बचपन की सहचरी गाढ़े दु:ख के दिनों के उनकी बगल में खड़ी हुई। यह एक घटना उनके मौजूदा सुख-दु:खों, प्रिय घटनाओं में स्मरणीय हो गई। जिसके लिए राजलक्ष्मी ने इसे भी बेरहमी से चोट पहुँचाई थी, वह आज कहाँ है!

अन्नपूर्णा बीमार राजलक्ष्मी के पास बैठकर उनका दायाँ हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं- "दीदी!" राजलक्ष्मी ने कहा- "मँझली!"

उनसे और बोलते न बना। ऑंखों में ऑंसू बहने लगे। यह दृश्य देखकर आशा से न रहा गया। वह बगल के कमरे में जाकर ज़मीन पर बैठकर रोने लगी।

राजलक्ष्मी या आशा से अन्नपूर्णा महेन्द्र के बारे में कुछ पूछने का साहस न कर सकीं। साधुचरण को बुलाकर पूछा- "मामा, महेन्द्र कहाँ है?"

मामा ने महेन्द्र और विनोदिनी का सारा क़िस्सा कह सुनाया। अन्नपूर्णा ने पूछा- "बिहारी कहाँ है?"

साधुचरण ने कहा- "काफ़ी दिनों से वे इधर आए नहीं। उनका हाल ठीक-ठीक नहीं बता सकता।"

अन्नपूर्णा बोलीं- "एक बार बिहारी के यहाँ जाकर खोज-खबर तो ले आइए!"

साधुचरण ने उसके यहाँ से लौटकर बताया- "वे घर पर नहीं हैं, अपने बाली वाले बगीचे में गए हैं।"

अन्नपूर्णा ने डॉक्टर नवीन को बुलाकर मरीज़ की हालत के बारे में पूछा। डॉक्टर ने बताया, "दिल की कमज़ोरी के साथ ही उदरी हो आई है, कब अचानक चल बसें, कहना मुश्किल है।" शाम को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ने लगी। अन्नपूर्णा ने पूछा- "दीदी, नवीन डॉक्टर को बुलवा भेजूँ?"

राजलक्ष्मी ने कहा- "नहीं बहन, नवीन डॉक्टर के करने से कुछ न होगा।"

अन्नपूर्णा बोलीं- "तो फिर किसे बुलवाना चाहती हो तुम?"

राजलक्ष्मी ने कहा- "एक बार बिहारी को बुलवा सको, तो अच्छा हो।"

अन्नपूर्णा के दिल में चोट लगी। उस दिन काशी में उन्होंने बिहारी को दरवाज़े पर से ही अंधेरे में अपमानित करके लौटा दिया था। वह तकलीफ वे आज भी न भुला सकी थीं। बिहारी अब शायद ही आए। उन्हें यह उम्मीद न थी कि इस जीवन में उन्हें अपने किए का प्रायश्चित करने का कभी मौक़ा मिलेगा।

अन्नपूर्णा एक बार छत पर महेन्द्र के कमरे में गई। घर-भर में यही कमरा आनन्द-निकेतन था। आज उस कमरे में कोई श्री नहीं रह गई थी- बिछौने बेतरतीब पड़े थे। साज-सामान बिखरे हुए थे, छत के गमलों में कोई पानी नहीं डालता था, पौधे सूख गए थे।

आशा ने देखा, मौसी छत पर गई है। वह भी धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे गई। अन्नपूर्णा ने उसे खींचकर छाती से लगाया और उसका माथा चूमा। आशा ने झुककर दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़ लिये। बार-बार उनके पाँवों से अपना माथा लगाया। बोली- "मौसी, मुझे आशीर्वाद दो, बल दो। आदमी इतना कष्ट भी सह सकता है, मैंने यह कभी सोचा तक न था। मौसी, इस तरह कब तक चलेगा?"

अन्नपूर्णा वहीं ज़मीन पर बैठ गई। आशा उनके पैरों पर सिर रखकर लोट गई। अन्नपूर्णा ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और चुपचाप देवता को याद करने लगीं।

ज़माने के बाद अन्नपूर्णा के स्नेह-सने मौन आशीर्वाद ने आशा के मन में बैठकर शांति का संचार किया। उसे लगा, उसकी मनोकामना पूरी हो गई है। देवता उस- जैसी नादान की उपेक्षा कर सकते हैं, मगर मौसी की प्रार्थना नहीं ठुकरा सकते।

मन में दिलासा और बल पाकर आशा बड़ी देर के बाद एक लंबा नि:श्वास छोड़कर उठ बैठी। बोली- "मौसी, बिहारी भाई साहब को आने के लिए चिट्ठी लिख दो!" अन्नपूर्णा बोलीं- "उँहूँ, चिट्ठी नहीं लिखूँगी।"

आशा- "तो उन्हें खबर कैसे होगी?"

अन्नपूर्णा बोलीं- "मैं कल खुद उससे मिलने जाऊँगी।"

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जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, 'जब तक कोई काम लेकर न बैठूँ चैन न मिलेगा।' यही सोचकर उसने कलकत्ता के ग़रीब किरानियों के मुफ़्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दिनों में डाबर की मछलियाँ जिस तरह कम पानी और कीचड़ में किसी प्रकार जिंदा रह लेती हैं, तंग गलियों के सँकरे कमरों में परिवार का बोझ उठाने वाले बेचारे किरानियों की ज़िन्दगी वैसी ही है-उन दुबले, पीले पड़े, चिन्ता से पिसने वाले भद्रवर्ग के लोगों के प्रति बिहारी को बहुत पहले ही दया हो आई थी- इसलिए उसने उन्हें बगीचे की छाँह और गंगा-तट की खुली हवा दान देने का संकल्प किया।

बाली में उसने बगीचा ख़रीदा और चीनी कारीगरों से छोटे झोंपड़े बनवाने शुरू किए। लेकिन मन को राहत न मिली। काम में लगने का दिन ज्यों-ज्यों क़रीब आने लगा, उसका मन अपने निश्चय से डिगने लगा। बार-बार उसका मन यही कहने लगा- "इस काम में कोई सुख नहीं, रस नहीं, सौंदर्य नहीं-यह महज़ एक नीरस भार है।" काम की कल्पना ने इसके पहले कभी भी बिहारी को इतना परेशान नहीं किया। कभी ऐसा भी था कि बिहारी को ख़ास कोई ज़रूरत ही न थी, जो कुछ भी सामने आ जाता, उसी में वह सहज ही अपने को लगा सकता था। अब उसके मन में न जाने कौन-सी भूख जगी है, उसे बुझा लेने के पहले और किसी भी चीज़ में उसकी आसक्ति नहीं होती। जैसी शुरू से आदत रही है, इस-उस में हाथ डालकर देखता और दूसरे ही क्षण उसे छोड़कर छुटकारा पाना चाहता! बिहारी में यौवन सिकुड़कर आराम कर रहा था। उसने कभी सज्ञान होकर इस तरफ देखा भी नहीं, लेकिन विनोदिनी के स्पर्श ने उसे धधका दिया। अभी-अभी पैदा हुए गरुड़ की तरह अपनी खुराक के लिए वह सारी दुनिया को झिंझोड़ती फिर रही है।

बिहारी का जो पिछला जीवन सुख और सन्तोष से कट गया, उसे वह अब भारी नुकसान समझता। ऐसी मेघघिरी साँझ जाने कितनी आईं, पूर्णिमा की कितनी रातें- वे सब हाथों में अमृत का पात्रा लिये बिहारी के सूने हृदय के द्वार से चुपचाप लौट गईं- उन दुर्लभ शुभ घड़ियों में कितने गीत घुटे रहे, कितने उत्सव न हो पाए, इसकी कोई हद नहीं। बिहारी के मन में जो पुरानी सुधियाँ थीं, उन्हें विनोदिनी ने उद्यत चुम्बन की रक्तिम आभा से ऐसा फीका और तुच्छ कर दिया था। जीवन के ज़्यादातर दिन महेन्द्र की छाया में कटे! उनकी सार्थकता क्या थी? प्रेम की वेदना में सारे जल-थल-आकाश के केन्द्र-कुहर से ऐसी ताप में इस तरह बाँसुरी बजती है, यह तो अचेतन बिहारी कभी सोच भी न पाया था। विनोदिनी ने बिहारी को बाँहों में लपेटकर अचानक एक पल में जिस अनोखे सौंदर्य-लोक में पहुँचा दिया, उसे वह कैसे भूले! फिर भी उस विनोदिनी से बिहारी आज इस तरह दूर क्यों है? इसलिए कि विनोदिनी ने जिस सौंदर्य-रस से बिहारी का अभिषेक किया उस सौंदर्य के अनुकूल संसार में विनोदिनी से किसी संबंध की वह कल्पना नहीं कर सकता।

वह न तो मानिनी का मान भंग करना चाहता है, न सौन्दर्य को कलंकित करना चाहता है और न ही महेन्द्र से कुहनी बाजी करना होता है। शायद यही वजह है कि वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। अपने बगीचे के दक्खिन में फले जामुन-तले बिहारी मेघ-घिरे प्रभात में चुपचाप पड़ा था, सामने से कोठी की डोंगी आ-जा रही थीं। अलसाया-सा वह उसी को देख रहा था। वेला धीरे-धीरे बढ़ती जा रह थी। नौकर ने आकर पूछा, "भोजन का प्रबन्ध करे या नहीं?" बिहारी ने कहा-"अभी रहने दो।"

इतने में उसने चौंककर देखा, सामने अन्नपूर्णा खड़ी है। बदहवास-सा वह उठ पड़ा, दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़कर ज़मीन पर माथा टेककर प्रणाम किया। अन्नपूर्णा ने बड़े स्नेह से अपने दाएँ हाथ से उसके बदन और माथे को छुआ। भर आए से स्वर में पूछा- "तू इतना दुबला क्यों हो गया है, बिहारी?"

बिहारी ने कहा- "ताकि तुम्हारा स्नेह पा सकूँ।"

सुनकर अन्नपूर्णा की ऑंखें बरस पड़ीं। बिहारी ने व्यस्त होकर पूछा- "तुमने अभी भोजन नहीं किया है, चाची?"

अन्नपूर्णा बोलीं- "अभी मेरे खाने का समय नहीं हुआ।"

बिहारी बोला- "चलो-चलो, मैं रसोई की जुगत किए देता हूँ। एक युग के बाद तुम्हारे हाथ की रसोई पत्तल का प्रसाद पाकर जी जाऊँगा मैं।"

महेन्द्र और आशा के बारे में बिहारी ने कोई चर्चा नहीं की। इसका दरवाज़ा तो एक दिन खुद अन्नपूर्णा ने ही अपने हाथों बन्द कर दिया था। मान में भरकर उसने उसी निष्ठुर निषेध का पालन किया। खा चुकने के बाद अन्नपूर्णा ने कहा- "घाट पर नाव तैयार है बिहारी, चल, कलकत्ता चल!"

बिहारी बोला- "कलकत्ता से मेरा क्या लेना-देना।"

अन्नपूर्णा ने कहा- "दीदी बहुत बीमार है, वे तुम्हें देखना चाहती हैं एक बार।"

सुनकर बिहारी चौंक उठा। पूछा- "और महेन्द्र भैया।"

अन्नपूर्णा- "वह कलकत्ता में नहीं है, बाहर गया है।"

सुनते ही बिहारी का चेहरा सफेद पड़ गया। वह चुप रहा।

अन्नपूर्णा ने पूछा- "तुझे क्या मालूम नहीं है सारा क़िस्सा ?"

बिहारी बोला- "कुछ तो मालूम है, अंत तक नहीं।"

इस पर अन्नपूर्णा ने विनोदिनी को लेकर महेन्द्र के भाग जाने का क़िस्सा बताया। बिहारी की निगाह में जल-थल-आकाश का रंग ही बदल गया, उसकी कल्पना के ख़ज़ाने का सारा रस सुनते ही कड़वा हो गया- "तो क्या वह मायाविनी उस दिन शाम को मेरे साथ खेल, खेल गई? उसका प्रेम-निवेदन महज़ मक्कारी था! वह अपना गाँव छोड़कर बेहया की तरह महेन्द्र के साथ भाग गई!"

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बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर क़दम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेन्द्र के भाग जाने की शर्म ने उसके सिर को गाड़ दिया। पुराने और जाने-पहचाने नौकरों से उसने पहले की तरह मुलायमियत से कुशल-क्षेम न पूछी। हवेली में जाने को मानो उसके क़दम नहीं उठ रहे थे। दुनिया के सामने खुले-आम महेन्द्र बेबस आशा को जिस गहरे अपमान में छोड़ गया है, जो अपमान औरत के सबसे बड़े परदे को उघाड़कर उसे सारी दुनिया की कौतूहल-भरी कृपा-दृष्टि के बीच खड़ा कर देता है, उसी अपमान के आवरणहीन स्वरूप में बिहारी सकुचाई और दुखित आशा को कौन-से प्राण लेकर देखेगा!

लेकिन इन चिन्ताओं और संकोच का मौक़ा ही न रहा। हवेली में पहुँचते ही आशा दौड़ी-दौड़ी आई और बिहारी से बोली- "भाई साहब, जरा जल्दी आओ, माँ को देखो जल्दी!"

बिहारी से आशा की खुलकर बातचीत ही पहली थी। दुर्दिन का मामूली झटका सारी रुकावटों को उड़ा ले जाता है-जो दूर-दूर रहते हैं, बाढ़ उन सबको अचानक एक सँकरी जगह में इकट्ठा कर देती है।

आशा की इस संकोचहीन अकुलाहट से बिहारी को चोट लगी। इस छोटे-से वाकये से ही वह समझ सका कि महेन्द्र अपनी गिरस्ती की कैसी मिट्टी पलीद कर गया है।

बिहारी राजलक्ष्मी के कमरे में गया। अचानक साँस की तकलीफ हो जाने से राजलक्ष्मी फीकी पड़ गई थीं-लेकिन वह तकलीफ ज़्यादा देर नहीं रही इसलिए सँभल गईं।

बिहारी ने राजलक्ष्मी को प्रणाम किया। चरणों की धूल ली। राजलक्ष्मी ने उसे पास बैठने का इशारा किया और धीरे-धीरे कहा- "कैसा है बिहारी? जाने कितने दिनों से तुझे नहीं देखा!"

बिहारी ने कहा- "तुमने अपनी बीमारी की खबर क्यों नहीं भिजवाई? फिर क्या मैं ज़रा भी देर कर पाता।"

राजलक्ष्मी ने धीमे-से कहा- "यह क्या मुझे मालूम नहीं, बेटे! तुझे कोख में नहीं रखा मैंने, लेकिन तुझसे बढ़कर मेरा अपना क्या दुनिया में है कोई?"

कहते-कहते राजलक्ष्मी की ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। बिहारी झटपट उठा। ताखों पर दवा-दारू की शीशियों को देखने के बहाने उसने अपने-आपको जब्त किया। उसके बाद आकर उसने राजलक्ष्मी की नब्ज़ देखनी चाही। राजलक्ष्मी बोलीं- "मेरी नब्ज़ को छोड़- मैं पूछती हूँ, तू इतना दुबला क्यों हो गया है?"

अपने दुबले हाथों से राजलक्ष्मी ने बिहारी की गर्दन की हड्डी छूकर देखी।

बिहारी ने कहा- "जब तक तुम्हारे हाथ की रसोई नसीब नहीं होती, यह हवा ढकने की नहीं। तुम जल्दी ठीक हो जाओ माँ, मैं इतने में रसोई का इन्तज़ाम कर रखता हूँ।"

राजलक्ष्मी फीकी हँसी हँसकर बोलीं- "हाँ, जल्दी-जल्दी इन्तज़ाम कर, बेटे- तेरी देख-रेख के लिए कोई भी नहीं है। अरी ओ मँझली- तुम लोग अब बिहारी की शादी करा दो, देखो न, इसकी शक्ल कैसी हो गई है।" अन्नपूर्णा ने कहा- "तुम चंगी हो लो, दीदी- यह तो तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी है।"

राजलक्ष्मी बोलीं- "मुझे अब यह मौक़ा न मिलेगा। बहन, बिहारी का भार तुम्हीं लोगों पर रहा, इसे तुम लोग सुखी रखना? मैं इसका ऋण नहीं चुका सकी, लेकिन भगवान भला करे इसका।" यह कहकर उन्होंने बिहारी के माथे पर अपना दायाँ हाथ फेर दिया।

आशा से कमरे में न रहा गया। वह रोने के लिए बाहर चली गई। अन्नपूर्णा ने भरी हुई ऑंखों से बिहारी को स्नेह-भरी दृष्टि से देखा।

राजलक्ष्मी को अचानक न जाने क्या याद आ गया। बोलीं- "बहू, अरी ओ बहू!" आशा के अन्दर आते ही बोलीं- "बिहारी के खाने का इंतजाम किया या नहीं?"

बिहारी बोला- "तुम्हारे इस पेटू को सबने पहचान लिया है माँ। डयोढ़ी पर आते ही नज़र पड़ी, अंडे वाली मछलियाँ लिये वैष्णवी जल्दी-जल्दी अन्दर जा रही है, मैं समझ गया, अभी इस घर से मेरी ख्याति मिटी नहीं है।"

और बिहारी ने हँसकर आशा की ओर देखा।

आशा आज शर्माई नहीं। स्नेह से हँसते हुए उसने यह दिल्लगी कबूल की। इस घर के लिए बिहारी क्या है, पहले आशा यह पूरी तरह न जानती थी- बहुत बार एक बे-मतलब का मेहमान समझकर उसने उसकी उपेक्षा की है, बहुत बार उसकी यह बेरुखी उसके व्यवहार में साफ़ झलक पड़ी है। उसी अफ़सोस से धिक्कार से उसकी श्रद्धा और करुणा की तरफ तेज़ी से उमड़ पड़ी है।

राजलक्ष्मी ने कहा- "मँझली बहू, यह महाराज के बस की बात नहीं, रसोई की निगरानी तुम्हें करनी पड़ेगी। काफ़ी कड़वा न हो तो अपने इस 'बाँगाल'1 ¬लड़के को खाना नहीं रुचता।"

बिहारी बोला- "माँ, तुम्हारी माँ विक्रमपुर की लड़की थीं और तुम नदिया ज़िले के एक भले घर के लड़के को बांगाल कहती हो! मुझे यह बर्दाश्त नहीं।"

इस पर काफ़ी दिल्लगी रही। बहुत दिनों के बाद महेन्द्र के घर की मायूसी का भार मानो हल्का हो गया।

इतनी बातें होती रहीं, मगर किसी भी तरफ से किसी ने भी महेन्द्र का नाम न लिया। पहले बिहारी से महेन्द्र की चर्चा ही राजलक्ष्मी की एकमात्र बात हुआ करती थी। महेन्द्र ने अपनी माँ का इसके लिए बहुत बार मज़ाक भी उड़ाया है। आज उसी राजलक्ष्मी की ज़बान पर भूलकर भी महेन्द्र का नाम न आते देखकर बिहारी दंग रह गया।

राजलक्ष्मी को झपकी लग गई। बाहर जाकर बिहारी ने अन्नपूर्णा से कहा- "माँ की बीमारी तो सहज नहीं लगती।"

अन्नपूर्णा बोलीं- "यह तो साफ़ ही देख रही हूँ।" कहकर अन्नपूर्णा खिड़की के पास बैठ गईं।

बड़ी देर चुप रहकर बोलीं- "महेन्द्र को तू खोज नहीं लाएगा, बेटे! अब तो देर करना वाजिब नहीं जँचता।"

बिहारी कुछ देर चुप रहा, फिर बोला- "जो हुक्म करोगी, वह करूँगा। उसका पता मालूम है किसी को?"

अन्नपूर्णा- "पता ठीक-ठीक किसी को मालूम नहीं, ढूँढ़ना पड़ेगा। और एक बात तुमसे कहूँ- आशा का ख्याल करो। अगर विनोदिनी के चंगुल से महेन्द्र को तू न निकाल सका, तो वह ज़िंदा न रहेगी।" मन-ही-मन तीखी हँसी-हँसकर बिहारी ने सोचा, 'मैं दूसरे का उद्धार करूँ- भगवान मेरा उद्धार कौन करे!' बोला- "विनोदिनी के जादू से महेन्द्र को सदा के लिए बचा सकूँ, मैं ऐसा कौन-सा मंतर जानता हूँ, चाची!" इतने में मैली-सी धोती पहने आधा घूँघट निकाले आशा अपनी मौसी के पाँवों के पास आ बैठी। उसने समझा था, दोनों में राजलक्ष्मी की बीमारी के बारे में बातें हो रही हैं इसीलिए चली आई। पतिव्रता आशा के चेहरे पर गुम-सुम दु:ख की मौन महिमा देखकर बिहारी के मन में एक अपूर्व भक्ति का संचार हुआ। शोक में गर्म ऑंसू से सिंचकर इस तरुणा ने पिछले युग की देवियों-जैसी एक अटूट मर्यादा पाई है। राजलक्ष्मी की दवा और पथ्य के बारे में आशा से बातें करके बिहारी ने उसे वहाँ से जब विदा किया, तो एक उसाँस भरकर उसने अन्नपूर्णा से कहा- "महेन्द्र को मैं उस चंगुल से निकलूँगा।" बिहारी महेन्द्र के बैंक में गया। वहाँ उसे पता चला महेन्द्र इन दिनों उनकी इलाहाबाद- शाखा से लेन-देन करता है।

50

स्टेशन जाकर विनोदिनी औरतों वाले डयोढे दर्जे के डिब्बे में जा बैठी। महेन्द्र ने कहा, "अरे, कर क्या रही हो, मैं तुम्हारा दूसरे दर्जे का टिकट ले रहा हूँ।"

वह बोली "बेजा क्या है, यहाँ आराम से ही रहूँगी।" महेन्द्र ताज्जुब में पड़ गया। विनोदिनी स्वभाव से ही शौकीन थी। ग़रीबी का कोई भी लक्षण उसे न सुहाता था। अपनी ग़रीबी को वह अपने लिए अपमानजनक ही मानती थी। महेन्द्र ने इतना समझ लिया था कि कभी उसके घर की खुशहाली, विलास की सामग्रियों और औरों की अपेक्षा उनके धनी होने के गौरव ने ही विनोदिनी के मन को आकर्षित किया था। इस धन-दौलत की, इन सारे आराम और गौरव की वह सहज ही मालकिन हो सकती थी, इस कल्पना ने उसे बड़ा उत्तेजित कर दिया था। आज जब उसको महेन्द्र पर प्रभुत्व पाने का मौक़ा मिला है, अनचाहे भी वह उसकी धन-दौलत को अपने काम में ला सकती है, तो वह क्यों ऐसी असह्य उपेक्षा से यों तनकर तकलीफदेह शर्मनाक दीनता अपना रही है? वह महेन्द्र पर कम-से-कम निर्भर रहना चाह रही थी।

महेन्द्र ने पूछा- "पछाँह की तरफ जहाँ भी चाहे, चलो! सुबह जहाँ गाड़ी रुकेगी उतर पडेंग़े।"

महेन्द्र को ऐसी यात्रा में कोई आकर्षण नहीं। आराम न मिले तो तकलीफ होती है। बड़े शहर में रहने की इच्छा-जगह न मिले तो मुश्किल। इधर मन में यह डर लगा रहा कि विनोदिनी चुपचाप कहीं उतर न पड़े।

इस तरह विनोदिनी शनि ग्रह की तरह घूमने और महेन्द्र को घुमाने लगी। कहीं भी चैन न लेने दिया। विनोदिनी बड़ी जल्दी दूसरे को अपना बना सकती है। कुछ ही देर में हमसफरों से मिताई कर लेती। जहाँ जाना होता वहाँ की सारी बातों का अता-पता लगा लेती, रात्रिशाला में ठहरती और जहाँ जो कुछ देखने जैसा होता, उन बन्धुओं की मदद से देखती। अपनी आवश्यकता से महेन्द्र विनोदिनी के आगे रोज-रोज़ अपने को बेकार समझने लगा। टिकट लेने के सिवाय कोई काम नहीं। शुरू-शुरू के कुछ दिनों तक वह विनोदिनी के साथ-साथ चक्कर काटा करता था, लेकिन धीरे-धीरे वह असह्य हो गया। खा-पीकर वह सो जाने की फ़िक्र में होता, विनोदिनी तमाम दिन घूमा करती। माता के लाड़ में पला महेन्द्र यों भी चल सकता है, कोई सोचता भी न था।

एक दिन इलाहाबाद स्टेशन पर दोनों गाड़ी का इन्तज़ार कर रहे थे। किसी वजह से गाड़ी आने में देर हो रही थी। इस बीच और जो गाड़ियाँ आ-जा रही थीं, विनोदिनी उनके मुसाफिरों को गौर से देख रही थी। शायद उसे यह उम्मीद थी कि पछाँह में घूमते हुए चारों तरफ देखते-देखते अचानक किसी से भेंट हो जाएगी। कम-से-कम रुँधी गली के सुनसान घर में बेकार की तरह बैठकर अपने को घोंट मारने की अपेक्षा खोज-बीन में, इस खुली राह की चहल-पहल में शान्ति थी।

अचानक उधर काँच के एक बक्स पर नज़र पड़ते ही विनोदिनी चौंक उठी। उसमें उन लोगों की चिट्ठियाँ रखी जाती हैं, जिनका पता नहीं चलता। उसी बक्स के पत्रो में से एक में उसने बिहारी का नाम देखा। बिहारी नाम कुछ असाधारण नहीं। यह समझने की कोई वजह न थी कि यह बिहारी विनोदिनी का ही वांछित बिहारी का सन्देह न हुआ। उसने ठिकाना याद कर लिया। महेन्द्र एक बेंच पर बड़ा खुश बैठा था। विनोदिनी उसके पास जाकर बोली-"कुछ दिनों यहीं रहूँगी।"

विनोदिनी अपने इशारे पर महेन्द्र को नचा रही थी और फिर भी उसके भूखे-प्यासे मन को खुराक तक न देती थी, इससे उसके पौरुष गर्व को ठेस लग रही थी और उसका मन दिन-प्रतिदिन बागी होता जा रहा था। इलाहाबाद रुककर कुछ दिन सुस्ताने का मौक़ा मिले तो मानो वह भी जाय- लेकिन इच्छा के अनुकूल होने के बावजूद उसका मन विनोदिनी के ख्याल पर राज़ी होने को सहसा तैयार न हुआ। उसने नाराज़ होकर कहा- "जब निकल ही पड़ा तो जाकर ही रहूँगा, अब लौट नहीं सकता।"

विनोदिनी बोली- "मैं नहीं जाऊँगी।"

महेन्द्र बोला- "तो तुम अकेली रहो, मैं चलता हूँ।"

विनोदिनी बोली- "यह सही।" और बेझिझक उसने इशारे से कुली को बुलाया और स्टेशन से चल पड़ी।

पुरुष के कर्तत्व-अधिकार से परिपूर्ण महेन्द्र स्याह-सूरत लिये बैठा रह गया। जब तक विनोदिनी ऑंखों से ओझल न हो गई, वह देखता रहा। बाहर आकर देखा, विनोदिनी एक बग्घी पर बैठी है। उसने चुपचाप सामान रखवाया और कोचबक्स पर बैठ गया। अपने अभिमान की मिट्टीपलीद होने के बाद उसमें विनोदिनी के सामने बैठने का मुँह न रहा।

लेकिन गाड़ी चली, तो चली। घंटा-भर बीत गया, शहर छोड़कर वह खेतों की तरफ जा निकली। गाड़ीवान से पूछने में महेन्द्र को संकोच हुआ। शायद गाड़ीवान यह सोचेगा कि असल में अन्दर की औरत ही मालकिन है, इस बेकार आदमी से उसने यह भी सलाह नहीं की है कि कहाँ जाना है। वह कड़वा घूँट पीकर चुपचाप कोचबक्स पर बैठा रहा।

गाड़ी यमुना के निर्जन तट पर सुन्दर ढंग से लगाए एक बगीचे के सामने आकर रुकी। महेन्द्र हैरत में पड़ गया। 'किसका है यह बगीचा? इसका पता विनोदिनी को कैसे मालूम हुआ?'

फाटक बंद था। चीख-पुकार के बाद बूढ़ा रखवाला बाहर निकला। उसने कहा- "बगीचे के मालिक धनी हैं, बहुत दूर नहीं रहते। उनकी इजाज़त ले आएँ तो यहाँ ठहरने दूँगा।"

विनोदिनी ने एक बार महेन्द्र की तरफ देखा। बगीचे के सुन्दर घर को देखकर महेन्द्र लुभा गया था- बहुत दिनों के बाद कुछ दिनों के लिए रुकने की उम्मीद से वह खुश हो गया। विनोदिनी से कहा- "चलो, उस धनी के पास चलें। तुम बाहर गाड़ी पर रहना, मैं अन्दर जाकर किराया तय कर लूँगा।"

विनोदिनी बोली- "मैं अब चक्कर नहीं काट सकती। तुम जाओ, मैं तब तक यहीं सुस्ताती हूँ। डरने की कोई बात नहीं।"

महेन्द्र गाड़ी लेकर चला गया। विनोदिनी ने उस बूढ़े ब्राह्मण को बुलाकर उसके बाल-बच्चों के बारे में पूछा; वे कौन हैं, कहाँ काम करते हैं, बच्चियों की शादी कहाँ हुई है। उसकी स्त्री के देहान्त हो जाने की बात सुनकर करुण स्वर में बोली- "ओह, तब तो तुम्हें काफ़ी तकलीफ है। इस उम्र में दुनिया में निरे अकेले पड़ गए हो, कोई देखने वाला नहीं!"

और बातों-बातों में विनोदिनी ने पूछा- "यहाँ बिहारी बाबू न थे?"

बूढ़े ने कहा- "जी हाँ, थे कुछ दिन। माँजी क्या उनको पहचानती हैं?" विनोदिनी बोली- "वे हमारे अपने ही हैं।"

बूढ़े से बिहारी का जो हुलिया मिला, उसे विनोदिनी को कोई शुबहा न रहा। घर बुलाकर उसने सब कुछ पूछ-ताछ लिया कि बिहारी किस कमरे में सोता था, कहाँ बैठता था। उसके चले जाने के बाद से घर बन्द पड़ा था, इससे लगा कि उसमें बिहारी की गंध है। लेकिन यह पता न चल सका कि बिहारी गया कहाँ- शायद ही वह फिर लौटे।

महेन्द्र किराया चुकाकर मालिक से वहाँ रहने की इजाज़त ले ली।

टीका टिप्पणी और संदर्भ


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