अवगुंठन -रविन्द्र नाथ टैगोर

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महामाया और राजीव लोचन दोनों सरिता के तट पर एक प्राचीन शिवालय के खंडहरों में मिले। महामाया ने मुख से कुछ न कहकर अपनी स्वाभाविक गम्भीर दृष्टि से तनिक कुछ तिरस्कृत अवस्था में राजीव की ओर देखा, जिसका अर्थ था कि जिस बिरते पर तुम आज बेसमय मुझे यहां बुला ले आये हो? मैं अब तक तुम्हारी सभी बातों का समर्थन करती आई हूं, इसी से तुम्हारा इतना साहस बढ़ गया।

राजीव लोचन तो वैसे महामाया से सदैव त्रस्त रहता है, उस पर यह चितवन! बेचारा कांप उठा। साहस बटोरकर कुछ कहना चाहता था; किन्तु उसकी आशाओं पर उसी क्षण पानी फिर गया और अब इस भेंट की शीघ्रता से कोई-न-कोई कारण बिना बताये भी उसका छुटकारा नहीं हो सकता। अत: वह शीघ्रता से कह बैठा-मैं चाहता हूं कि यहां से कहीं भाग चलें और वहां जाकर दोनों विवाह कर लें। राजीव जिन विचारों को प्रकट करना चाहता था, विचार तो उसने ठीक वही प्रगट किए; किन्तु जो भूमिका वह बनाकर लाया था, वह न जाने कहां गुम हो गई? उसके विचार बिल्कुल रसहीन और निरर्थक सिध्द हुए सो तो ठीक है ही; लेकिन सुनने में भी भद्दे और अजीब-से लगे। वह स्वयं ही सुनकर भौंचक्का-सा रह गया। और भी दो-चार बात जोड़कर उसे तनिक नरम बना देने की शक्ति उसमें न रही। शिवालय के खंडहरों में सरिता के तट पर इस जलती हुई दुपहरिया में महामाया को बुलाकर उस मूर्ख ने केवल इतना ही कहा- चलो, हम कहीं चलकर विवाह कर लें।

महामाया कुलीनों के घर की अविवाहित कन्या है। अवस्था है चालीस वर्ष की। जैसी बड़ी अवस्था है, वैसा ही सौन्दर्य। शरद की धूप के समान पक्के सोने के रंग की प्रतिमा-सी लगती है, उस धूप जैसी ही दीप्त और नीरव उसकी दृष्टि है दिव्यलोक जैसी उन्मुक्त और निर्भीक। उसके पिता नहीं है, केवल बड़ा भाई है। उसका नाम है भवानीचरण। भाई-बहन का स्वभाव एक-सा ही है। मुख से कहता नहीं, पर तेज ऐसा है कि दोपहर के सूर्य की तरह चुपके से जला सब कुछ देते हैं। ख़ासकर भवानीचरण से लोग अकारण ही भय खाया करते हैं।

राजीव लोचन परदेशी है। यहां की रेशम की कोठी का बड़ा साहब उसे अपने साथ ले आया था। राजीव के पिता इस साहब की कोठी में काम करते थे। उसके स्वर्गवासी हो जाने पर साहब ने उसके नाबालिग लड़के के लालन-पालन का सारा भार अपने ऊपर ले लिया और बाल्यकाल से ही उसे वह अपनी इस वामनहारी की कोठी में ले आया। लड़के के साथ केवल उसकी स्नेह करने वाली बुआ थी। राजीव अपनी बुआ के साथ भवानीचरण के पड़ोस में रहा करता था। महामाया उसकी बाल-सहचरी थी और राजीव की बुआ के साथ उसका सुढृढ़ स्नेह बंधन था।

राजीव की अवस्था क्रमश: सोलह, सत्रह, अठारह, यहां तक कि उन्नीस वर्ष की हो गई; फिर भी बुआ के अनुरोध करने पर भी वह विवाह नहीं करना चाहता था। साहब उसकी इस सुबुध्दि का परिचय पाकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि लड़के ने उन्हीं को अपना आदर्श बना लिया है। साहब भी अविवाहित थे।

इस बीच में बुआ भी स्वर्गवासिनी बनी।

इधर ताकत से अधिक व्यय किए बिना महामाया के लिए अनुरूप और योग्य पात्र मिलना कठिन हो रहा था और उसकी कुमारी अवस्था भी क्रमश: बढ़ती ही जा रही थी।

पाठकगणों को यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रणय-बन्धन में बांधना जिन देवता का काम है, वे यद्यपि इन दोनों के प्रति अब तक बराबर लापरवाही ही दिखा रहे थे; लेकिन प्रणय-बन्धन का बोझ जिस पर है उसने अब तक अपना समय व्यर्थ नहीं किया। वृध्द प्रजा-वती जिस समय झोंके ले रहे थे। नवयुवक कन्दर्प उस समय पूर्णतया सावधान था।

कामदेव का प्रभाव भिन्न-भिन्न प्रकार से पड़ा करता है। उनके प्रभाव में आकर राजीव अपने मन की दो बातें कहने के लिए पर्याप्त अवसर ढूंढ़ रहा था, पर महामाया उसे अवसर ही नहीं देती थी।

वास्तव में उसकी निस्तब्ध गम्भीर चितवन राजीव के व्यथित हृदय में एक प्रकार का भय पैदा कर देती थी।

आज सैकड़ों बार शपथ लेने के बाद राजीव उसे उस शिवालय के खंडहरों में ला सका। इसी से उसने सोचा कि जो कुछ उसे कहना है, आज सब-कुछ कह-सुन लेगा, उसके बाद या तो ज़िन्दगी भर सुख में रहेगा और नहीं तो आत्महत्या कर लेगा, जीवन के एक संकटमय दिन में राजीव ने केवल इतना ही कहा- चलो, विवाह कर लें और उसके उपरान्त पाठ भूले हुए छात्र के समान सकपकाकर चुप रह गया।

महामाया को मानो यह आशा ही न थी कि राजीव उसके सन्मुख ऐसा प्रस्ताव रख देगा। इससे देर तक वह चुप खड़ी रही।

दोपहरी की बहुत-सी अनिर्दिष्ट करुण ध्वनियां होती हैं, वे सबकी-सब इस सन्नाटे में फूट निकलीं। वायु से शिवालय का आधा हिलता हुआ टूटा द्वार बीच-बीच में बहुत ही क्षीण स्वर में धीरे-धीरे खुलने और बन्द होने लगा। कभी शिवालय के झरोखे में बैठा हुआ कपोत गुटुरगूं-गुटुरगूं करता तो कभी सूखे पल्लवों के ऊपर से सरासर करती हुई गिरगिट निकल जाती तो कभी सहसा मैदान की ओर से वायु का एक ज़ोर का झोंका आता और उससे सब पेड़ों के पत्ते बार-बार आर्त्तनाद कर उठते; बीच-बीच में सहसा नदी का जल जागृत हो जाता और टूटे घाट की सीढ़ियों पर छल-छल, छपक-छपक चोट करने लगता। इन सब अकस्मात उदासी में डूबे हुए असल शब्दों के बीच बहुत दूरी पर, एक वृक्ष के नीचे किसी गडरिये की बांस की बांसुरी में से मैदानी राग निकल रहा है। राजीव को महामाया के मुख की ओर देखने की हिम्मत नहीं हुई। वह शिवालय की भीत के सहारे स्वप्न की-सी अवस्था में चुपचाप खड़ा-खड़ा सरिता के निर्मल जल की ओर निहारता रहा।

कुछ देर के पश्चात् मुंह फेरकर राजीव ने फिर एक बार भिक्षुक की तरह महामाया के मुख की ओर देखा। महामाया ने उसका आशय समझा, सिर हिलाते हुए कहा- 'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।

महामाया का सिर जैसे ही हिला, वैसे ही राजीव की आशा भी उसी क्षण पृथ्वी पर मूर्छित होकर गिर पड़ी। कारण, राजीव यह भलीभांति जानता था कि महामाया का सिर महामाया के निजी मतानुसार ही हिलता है और किसी की ताकत नहीं कि उसे अपने मत से विचलित कर सके? अपने कुल का शक्तियुक्त अभिमान-स्रोत महामाया के वंश में न जाने किस काल से बहता चला आ रहा है? भला आज वह राजीव जैसे अकुलीन ब्राह्मण के साथ विवाह करने के लिए कैसे तैयार हो सकती है? प्यार करना और बात है और विवाह के सूत्र में बंधना और बात। कुछ भी हो महामाया समझ गई कि उसके अपने ही विचार-व्यवहार के कारण राजीव का घमण्ड यहां तक चढ़ गया है और उसी क्षण वहां से चलने के लिए उद्यत हो गई।

राजीव ने समय एवं परिस्थिति से अवगत होते हुए कहा- कल ही यहां से चला जा रहा हूं।

महामाया ने पहले तो विचार किया कि अब उसे ऐसा भाव दिखाना चाहिए कि जहां चाहे रहे, इससे उसे क्या मतलब? पर दिखा न सकी। पग बढ़ाना चाहा, पर बढ़ा नहीं सकी-उसने शान्त मुद्रा में पूछा- क्यों?

राजीव ने कहा- हमारे साहब की यहां से सोनपुर के लिए बदली हो गई है, वे जा रहे हैं, सो मुझे भी साथ लेते जायेंगे।

महामाया का बहुत देर तक मुख न खुल सका। वह सोचती रही, दोनों के जीवन की गति दो ओर है, किसी भी इन्सान को सदैव के लिए नजरबन्द नहीं किया जा सकता। अत: उसने शान्त ओष्ठों को तनिक खोलकर कहा- अच्छा।

उसका यह 'अच्छा' कुछ-कुछ गहरी उसास-सी सुनाई दी और इतना ही कह के यह जाने के लिए तैयार हो गई। इतने में राजीव ने चौंककर कहा- भवानी बाबू।

महामाया ने देखा, भवानीचरण शिवालय की ओर आ रहे हैं। समझ गई कि उन्हें सब पता लग गया है। राजीव ने महामाया पर अकस्मात मुसीबत आते हुए देखकर, शिवालय की टूटी हुई दीवार फांदकर भागने का प्रयत्न किया; किन्तु महामाया ने हाथ पकड़कर उसे रोक लिया। भवानीचरण शिवालय के खंडहरों में पहुँचे और सिर्फ एक बार चुपचाप दोनों की ओर स्थिर दृष्टि से देखा।

महामाया ने राजीव की ओर देखते हुए अविचलित स्वर में कहा- राजीव मैं तुम्हारे घर ही आऊंगी। तुम मेरी राह देखना।

भवानीचरण चुपचाप शिवालय से बाहर आ गये। महामाया भी चुपचाप उनका अनुसरण करने लगी और राजीव चकित-सा होकर वहीं खड़ा रहा; मानो उसे फाँसी का दण्ड सुनाया गया हो।

भाग 2

उसी दिन रात को भवानीचरण ने विशेष रेशमी साड़ी लेकर महामाया को दी, और बोले- इसे पहन आओ।

महामाया उसे पहन आई। उसके बाद बोले- अब, मेरे साथ चलो। आज तक भवानीचरण की आज्ञा तो दूर रही, संकेत तक का भी किसी ने उल्लंघन नहीं किया था? महामाया ने भी नहीं।

उसी रात्रि को दोनों सरिता के तट पर श्मशान भूमि की ओर चल दिये। श्मशान भूमि अधिक दूर नहीं थी। वहां गंगा यात्री के घर में एक बूढ़ा ब्राह्मण अंतिम घड़ियां गिन रहा था। उसकी खटिया के पास दोनों पहुंचकर खड़े हो गये। घर के एक कोने में पुरोहित ब्राह्मण भी मौजूद था। भवानीचरण ने उससे संकेत में कुछ कहा। वह शीघ्र ही शुभानुष्ठान की तैयारियां करके पास आ खड़ा हुआ। महामाया समझ गई कि इस मृत्यु को आलिंगन करने वाले इन्सान के साथ उसका विवाह होगा। उसने रत्ती भर भी विरोध नहीं किया। समीप में ही जलती हुई दो चिताओं के प्रकाश में उस अंधेरे से घर में मृत्यु की यंत्रणा की आर्त्त-ध्वनि के साथ अस्पष्ट मन्त्रोच्चारण मिलाकर महामाया का पाणिग्रहण संस्कार करा दिया गया।

जिस दिन विवाह हुआ उसके दूसरे दिन ही महामाया विधवा हो गई। इस दुर्घटना से महामाया को तिल मात्र भी शोक न हुआ और राजीव भी अचानक महामाया के विवाह की सूचना पाकर जैसा दुखी हुआ था, वैधव्य की सूचना से वैसा न हुआ, बल्कि उसे कुछ खुशी हो गई।

पहले उसने सोचा कि साहब को सूचित कर दे और उसकी सहायता से इस अमानुषिक अत्याचार पर किसी प्रकार प्रतिबन्ध लगा दिया जाये? तभी विचार आया कि साहब तो सोनपुर जा चुका है। राजीव को भी वह साथ ले जाना चाहता था, पर वह एक मास का अवकाश लेकर यहीं रह गया है।

महामाया ने उसे वचन दिया है- तुम मेरी राह देखना। उसकी वह किसी प्रकार भी उपेक्षा नहीं कर सकता? इतने में बड़े ज़ोर की आंधी के साथ मूसलाधर वर्षा होने लगी। आंधी क्या थी, भयंकर तूफ़ान था, राजीव को ऐसा महसूस होने लगा मानो अभी उसके सिर पर मकान ही टूट पड़ेगा। जब उसने देखा कि उसके अन्त:करण के समान बाह्य-प्रकृति में भी एक प्रकार की प्रलय-सी उठ खड़ी हुई है, तब उसे कुछ-कुछ शांति-सी मिली। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो स्वयं प्रकृति ही आकाश-पाताल एक करके, उससे कहीं अधिक शक्ति का प्रयोग करके उसका काम पूरा कर रही है।

इसी समय बाहर से किसी ने द्वार पर ज़ोर से धक्का मारा, राजीव ने शीघ्रता के साथ द्वार खोला। घर में भीगे वस्त्र पहने हुए एक स्त्री ने प्रवेश किया। चेहरे पर उसके लम्बा अवगुंठन पड़ा हुआ था। राजीव ने उसी क्षण पहचान लिया, यह तो महामाया है। उसने आवेश-भरे स्वर में पूछा-महामाया! तुम चिता से उठ आई हो?

महामाया ने कहा- हां! मैंने वचन दिया था कि मैं तुम्हारे घर आऊंगी? उसी वचन को पालने के लिए आई हूं; लेकिन राजीव, मैं अब ठीक पहले की तरह नहीं हूं। मेरा सब-कुछ बदल गया है; लेकिन अपने मन में महामाया हूं। अब भी बोलो और यदि तुम वचन दो कि कभी भी तुम मेरा अवगुंठन न हटाओगे, मेरा मुख न निहारोगे तो मैं जीवन-भर तुम्हारे साथ रह सकती हूं।

मृत्यु के चंगुल से वापस मिल जाना ही बहुत है, उस समय और सब बातें तुच्छ मालूम देती हैं। राजीव ने शीघ्रता से कहा-तुम जैसे चाहो, वैसे रहना। मुझे छोड़ जाओगी तो मैं नहीं रह सकता।

महामाया ने कहा- तो अभी चलो। तुम्हारा साहब जहां गया है, वहीं ले चलो मुझे।

घर में जो कुछ था, सब कुछ छोड़-छाड़कर राजीव महामाया को लेकर उसी प्रकृति के प्रकोप में निकल पड़ा। ऐसा बवंडर चल रहा था कि खड़ा होना मुश्किल था, उसके वेग से कंकड़ियां उड़-उड़कर बन्दूक के छर्रों के समान शरीर में चुभने लगीं। दोनों इस भय से कहीं सिर पर वृक्ष न गिर पड़े, सड़क छोड़कर विस्तृत मैदान में होकर रास्ता पार करने लगे? बवंडर का ज़ोर पीछे से धकेलने लगा, मानो यह इन्हें इस दुनिया से छीनकर प्रलय की ओर उड़ाये लिए जा रहा हो।

भाग 3

पाठक इस कथा को कोरी कवि-कल्पना ही न समझें। जिन दिनों यहां सती की प्रथा प्रचलित थी, उन्हीं दिनों ऐसी घटनाएं कभी-कभी हो जाया करती थीं।

महामाया के हाथ-पैर बांधकर यथासमय चिता में रखकर उसमें आग लगा दी गई थी। आग भी खूब जोरों से जल उठी थी। लेकिन उसी समय बहुत ज़ोर का बवंडर उठा और मूसलाधर वर्षा पड़ने लगी। जो दाह-संस्कार करने आये थे वे शीघ्रता से 'गंगायात्री' वाली कोठरी में जा छिपे और भीतर से द्वार बन्द कर लिया। सभी समझते हैं कि ऐसे आंधी पानी में चिता बुझते समय नहीं लगता। इसी बीच में उसके हाथों में बंधा कपड़ा जलकर भस्म हो गया और हाथ खुल गये। असह्य दाह-पीड़ा में मुख से वह कुछ कह न सकी, तुरन्त उठकर बैठ गई और पैर की रस्सी खोल डाली। उसके बाद कई स्थानों से जली हुई साड़ी से देह को छिपाये हुए लगभग नंगी-सी चिता से उठकर पहले वह अपने घर आई। घर में कोई था नहीं? सब श्मशान में थे। दीपक जलाकर एक धोती पहनकर महामाया ने एक बार दर्पण में अपना चेहरा देखा और दर्पण ज़मीन पर दे पटका। फिर कुछ देर खड़ी-खड़ी सोचती रही। उसके बाद चेहरे पर लम्बा अवगुंठन किया और राजीव के घर की ओर चल दी। इसके बाद जो कुछ हुआ, सो पाठकों को मालूम ही है।

महामाया अब राजीव के पास ही रहती है; लेकिन राजीव के जीवन में सुख-शान्ति नहीं, दोनों के बीच, केवल अवगुंठन का व्यवधान है।

लेकिन वह अवगुंठन मौत के समान चिर-स्थायी नहीं, अपितु मृत्यु से भी बढ़कर पीड़ा उत्पादक है। इसलिए कि निराशा मृत्यु की विरह पीड़ा को धीरे-धीरे अचिंतन रूप प्रदान कर देती है; किन्तु इस अवगुंठन के पृथक् रूप ने एक जीती-जागती आशा को प्रतिदिन प्रतिपल व्यथित एवं पीड़ित कर रखा है।

एक तो पहले ही महामाया की शान्त प्रकृति है, उस पर उसके इस अवगुंठन के भीतर नीरवता दुगुनी असह्य-सी प्रतीत होने लगी। राजीव अब ऐसे रहने लगा, जैसे उसे मृत्यु की चलती-फिरती पुतली ने घेर लिया हो। वह पुतली उसके जीवन को आलिंगन करके नित्यप्रति उसे क्षीण करती जा रही है। राजीव पहले जिस महामाया नाम से परिचित था उसे तो उसने खो दिया। अब तो वह केवल उसकी सुन्दर बाल्य-स्मृति पर ही जीवन को अवलम्बित करके इस दुनिया में रह सकता है, परन्तु उसमें भी अवगुंठन युक्त पुतली सदैव उसके पार्श्व में रहकर बाधा पहुंचाती रहती है। वह सोचता है, इंसान में स्वभाव से ही काफ़ी अन्तर है और ख़ास कर महामाया तो महाभारत के कर्ण के समान स्वाभाविक कवच धनी है। वह अपने स्वभाव के इर्द-गिर्द एक प्रकार का आवरण लेकर जन्मी है। उपरान्त बीच में, फिर मानो वह पुनर्जन्म लेकर और एक आवरण लेकर आई है। रात-दिन साथ रहती हुई भी वह इतनी दूर चली गई है कि मानो राजीव से उस दूरी को पार नहीं किया जाता, मानो वह केवल एक माया की रेखा के बाहर बैठकर अतृप्त तृषित मन से इस सूक्ष्म एवं अटल रहस्य से अवगत होने का प्रयत्न कर रहा है, जैसे तारागण प्रत्येक निशा में नींद रहित निर्निमेष नत नयनों से अन्धकार यामिनी के रहस्य से अवगत होने के निष्फल प्रयास में रात्रि बिता दिया करते हैं। इस प्रकार ये दोनों चिरपरिचित संगरहित साथी भिन्न-भिन्न जीव के रूप में बहुत काल तक साथ बने रहे।

एक दिन, बरसात के मौसम में, शुक्ल पक्ष के दशमी की रात्रि को बादल फटे और निशिकर ने दर्शन दिये। निशिकर की ज्योत्स्ना से यामिनी सोती हुई पृथ्वी के सिरहाने बैठी जागरण कर रही थी। उस यामिनी को देखने बिस्तरे से उठकर राजीव भी झरोखे के पास जा बैठा। बरखा और गर्मी के संगम से थके हुए उपवन में से एक प्रकार की सुगन्ध और झींगुरों की झिन्न-झिन्न की ध्वनि कमरे में आकर उसके मनोराज्य में एक प्रकार की अराजकता व्याप्त कर रही थी। राजीव देख रहा था बगीचे के अंधकार में खड़े हुए वृक्षों के उस पार शान्त स्थिर सरोवर मंजे हुए स्वच्छ रजत-थाल के समान चमक रहा है। इंसान ऐसे समय में स्पष्ट तौर पर कुछ भी सोच सकता है या नहीं, बताना कठिन है। पर हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उसका सम्पूर्ण हृदय किसी एक दिशा की ओर प्रवाहित हुआ है, गन्ध-युक्त उपवन के समान ही एक सुगन्ध से पूर्ण उच्छ्वास छोड़ता रहता है। पता नहीं राजीव ने क्या-क्या विचारा? उसे प्रतीत हुआ कि मानो आज उसके पहले के सब नियम टूट गये हैं। आज इस बरसात की रात ने उसके समक्ष अपना मेघों का अवगुंठन हटा डाला है और आज की यह यामिनी पहले की उस महामाया के समान निस्तब्ध शून्य और सुगंभीर हो गई है। होते-होते अकस्मात ऐसा हुआ कि राजीव का ध्यान जीती-जागती पुतली की ओर प्लावित हो गया। स्वान चलित के समान चलकर राजीव ने महामाया के कमरे में प्रवेश किया। महामाया उस समय निन्द्रा लोक की सैर कर रही थी।

राजीव उसकी शैया के पास जाकर खड़ा हो गया। मुंह झुकाकर देखा, महामाया के अवगुंठन-से हीन चेहरे पर चन्द्रज्योत्स्ना आ पड़ी है, लेकिन! हाय! यह क्या? वह चिरपरिचित पुरुष के समान खिला हुआ चेहरा कहां गया? चिताग्नि की शिखा अपनी विकराल लहराती हुई जिह्ना से महामाया के बायें कपोल का थोड़ा-सा सौन्दर्य चाटकर वहां सदैव के लिए अपनी राक्षसी भूख का अमिट चिन्ह छोड़ गई है।

शायद राजीव चौंक पड़ा हो। शायद एक अव्यक्त ध्वनि भी उसके कंठ से मुखरित हो गई होगी। महामाया तत्काल आश्चर्यचकितावस्था में जाग उठी। देखा, सामने राजीव खड़ा है। उसी क्षण वह अवगुंठन खींचकर शैया छोड़कर एकदम उठ खड़ी हुई। राजीव ताड़ गया कि अब उसके सिर पर दामिनी टूटना चाहती है। वह फर्श पर गिर पड़ा; और महामाया के चरणों को स्पर्श कर बोला- मुझे क्षमा करो, महामाया मुझे क्षमा कर दो।

महामाया कुछ उत्तर न देकर, एक पल के लिए भी पीछे की ओर न हटकर, घर से बाहर निकल गई। राजीव के घर फिर वह कभी नहीं, लौटी। उसका कहीं भी पता न चला। इस क्षमाहीन चिर-गमन की क्रोधाग्नि राजीव के सम्पूर्ण जीवन पर सदैव के लिए सुदीर्घ दग्ध-चिन्ह छोड़ गई।

टीका टिप्पणी और संदर्भ


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