आँख की किरकिरी उपन्यास भाग-3

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18

पिकनिक के दिन जो वाकया गुज़रा उसके बाद फिर महेन्द्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को फ्लू हो गया। बीमारी कुछ ख़ास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमज़ोरी काफ़ी थी। विनोदिनी रात-दिन उनकी सेवा में लगी रहती।

महेन्द्र बोला- "माँ के सेवा-जतन में यों दिन-रात एक करोगी, तो तुम्हीं बीमार पड़ जाओगी।"

बिहारी ने कहा- "आप नाहक परेशान हैं, भैया! ये सेवा कर रही है, करने दो। दूसरा कोई ऐसी सेवा थोड़े ही करेगा।"

महेन्द्र बार-बार मरीज़ के कमरे में आने-जाने लगा। एक आदमी काम कुछ नहीं करता, लेकिन हर घड़ी पीछे लगा फिरता है, यह बात विनोदिनी को अच्छी न लगी। तंग आकर उसने दो-तीन बार कहा- "महेन्द्र बाबू, यहाँ बैठे रहकर आप क्या कर रहे हैं? जाइए, नाहक क्यों कॉलेज से गैर-हाज़िर होते हैं?"

महेन्द्र उसके पीछे लगा डोलता है, इसका विनोदिनी को नाज़ था। खुशी थी। लेकिन फिर भी ऐसा क्या, बीमार माँ के बिस्तर के पास भी क्षुब्ध बैठे रहना- उसका धीरज टूट जाता, घृणा होती। अपने ऊपर किसी काम की ज़िम्मेदारी रहने पर वह और किसी बात का ख्याल नहीं करती। जब तक खिलाना-पिलाना, रोगी की सेवा, घर के काम-धंधे की ज़रूरत रहती- किसी ने उसे कभी ढीला-ढाला नहीं देखा और खुद भी काम-काज के समय निकम्मापन पसन्द नहीं करती।

कभी-कभी ज़रा देर को, माँ का हाल पूछने के लिए बिहारी आ जाया करता। कमरे में क़दम रखते ही वह समझ जाता कि काहे की ज़रूरत है, कहाँ कौन-सी चीज़ की कमी है, उसकी ऑंखें तुरन्त ताड़ जातीं और लमहे-भर में सब-कुछ ठीक करके वह कमरे से निकल जाता। विनोदिनी समझ रही थी कि मेरी सेवा को बिहारी श्रद्धा की नज़र से देखता है। लिहाज़ा बिहारी के आने से उसे जैसे विशेष पुरस्कार मिलता था। महेन्द्र नियम से कॉलेज जाने लगा। एक तो उसका मिज़ाज ही बड़ा कड़वा हो गया, उस पर यह कैसा परिवर्तन! समय पर खाना तैयार नहीं होता, साइस जाने कहाँ गायब रहता, मोजे का छेद धीरे-धीरे बड़ा होता जाता। ऐसी गड़बड़ में उसे पहले- जैसा आनन्द नहीं आता। जब जिस चीज़ की ज़रूरत हो, उसी क्षण उसे पा जाने से आराम कैसा होता है, इस बारे में वह कई दिन पहले ही स्वाद चख चुका था। अब उसकी कमी से आशा की जहालत में मज़ा खत्म हो गया- "चुन्नी, मैंने बाहर तुमसे कहा कि मेरे नहाने के पहले ही कुरते में बटन लगा रखना, अचकन, पतलून ठीक करके रखना- मगर यह कभी नहीं होता। नहाकर बटन लगाने और कपड़े ढूँढ़ने में ही मेरा घण्टा-भर निकल जाता है।

शर्मसार होकर आशा कहती- "मैंने बैरे से कह दिया था।"

"...बैरे से कह दिया था! खुद कर लेती तो कौन-सा गुनाह हो जाता! कभी जो तुमसे कोई काम हो!"

आशा पर मानो गाज गिरी। ऐसी झिड़की उसे कभी नहीं सुननी पड़ी। उसकी ज़बान पर या मन में यह जवाब न आया कि मेरी इस जहालत के तुम्हीं तो ज़िम्मेदार हो। उसे तो मालूम ही न था गृह-कार्य की कुशलता अभ्यास के अनुभव से आती है। वह सोचा करती थी कि अपनी अयोग्यता और निर्बुध्दिता के कारण ही मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाती। जब-जब महेन्द्र ने विनोदिनी की उपमा देकर आशा को धिक्कारा है, उसने उसे विनम्रता से स्वीकारा है।

कभी-कभी आशा बीमार सास के आस-पास चक्कर काटती, कभी-कभी शर्माई-सी दरवाज़े के पास खड़ी हो जाती। उसकी इच्छा होती कि अपने- आपको वह गृहस्थी के उपयुक्त बनाए, कुछ काम करके दिखाए, परन्तु उससे कोई भी कैसी मनोवेदना उसमें भीतर-ही-भीतर बढ़ रही थी, लेकिन अपनी अस्पष्ट व्यथा और अजानी आशंका को वह साफ़ समझ नहीं पाती। वह खूब महसूस कर रही थी कि उसे चतुर्दिक् का सब-कुछ बर्बाद हो रहा है। लेकिन यह सब कैसे बना था और नष्ट ही कैसे हो रहा है और कैसे इसका प्रतिकार हो- वह नहीं जानती। रह-रहकर यही कहने को जी चाहता कि मैं अयोग्य हूँ,- मेरी मूढ़ता की तुलना नहीं हो सकती।

अब तक तो पति-पत्नी दोनों घर के एक कोने में दुबके कभी बोल-बतियाकर कभी यों ही चुपचाप मजे में दिन बिताते रहे। मगर जब विनोदिनी न होती तो आशा के साथ अकेले बैठकर महेन्द्र बात ही न कर पाता।

महेन्द्र ने बैरे से पूछा- "किसकी चिट्ठी है?"

"बिहारी बाबू की।"

"किसने दी है?"

"बहूजी (विनोदिनी) ने।"

"देखूँ जरा।" चिट्ठी ले ली। जी में आया, फाड़कर उसे पढ़े। उलट-पलटकर देखा, फिर बैरे की तरफ फेंक दिया।

बरामदे में कुछ देर चहलकदमी करके कमरे में आकर महेन्द्र ने देखा, कमरे की दीवार पर टाँगी एक तस्वीर की डोरी टूटने वाली है और इसकी वजह से तस्वीर टेढ़ी हो गई है। आशा को डाँटते हुए महेन्द्र ने कहा- "तुम कुछ भी नहीं देखतीं। इस तरह सारी चीज़ें बर्बाद हो रही हैं।"

दमदम के फूलों का जो गुच्छा बनाकर विनोदिनी ने पीतल की फूलदानी में सजाया था, वह आज भी वहीं सूखा पड़ा है। महेन्द्र कभी इन बातों पर गौर नहीं करता था, आज उसकी निगाह उस पर पड़ी। बोला- "जब तक विनोदिनी आकर फेंक न दे, यह पड़ा ही रहेगा।"

उसने फूल-समेत फूलदानी उठाकर बाहर फेंक दी। ठन्-ठन् बजती वह सीढ़ी पर लुढ़कती जा पड़ी। 'आशा मेरे मन के लायक़ क्यों नहीं रहती, क्यों वह मेरे मन-मुताबिक़ काम नहीं करती?' महेन्द्र बाहर निकला। जाकर फूलदानी उठा लाया। कोने में एक मेज़ पड़ी सीढ़ी पर बैठकर उसी टेबल पर कोहनी टिकाए हाथों पर सिर रखे सोया रहा।

अंधेरा होने पर कमरे में बत्ती आई, लेकिन आशा नहीं। महेन्द्र छत पर ज़ोर-ज़ोर से चहल-कदमी करने लगा। रात के नौ बजे, महेन्द्र के सूने कमरे में आधी रात का सन्नाटा छा गया- आशा फिर भी न आई। महेन्द्र ने बुलावा भेजा। सकुचाई-सी आकर वह छत पर दरवाज़े के पास ठिठक गई। महेन्द्र पास गया- उसे छाती से लगा लिया। पति के कलेजे से लगकर वह ज़ोरों से रो पड़ी- अपने को ज़ब्त न कर सकी, ऑंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। कलेजे से लगाकर महेन्द्र ने उसके बालों को चूमा- मौन आसमान के सितारे चुपचाप देखते रहे।

रात को महेन्द्र ने बिस्तर पर बैठकर बताया- "कॉलेज में मेरी रात की डयूटी लगी है, कुछ दिनों के लिए मुझे कॉलेज के ही आस-पास कहीं डेरा लेना पड़ेगा।"

आशा सोचने लगी- "गुस्सा शायद रह ही गया है? मुझ पर नाराज होकर तो नहीं जा रहे? आखिर निगुनी मैं। पति को घर से रुख़्सत करके ही रही! मेरा तो मर जाना ही अच्छा था।"

लेकिन महेन्द्र के हाव-भाव में गुस्से का कोई लक्षण न दीखा। बड़ी देर तक वह चुप रहा। आशा के मुखड़े को कलेजे से लगाकर उँगली से बालों को चीरते-चीरते उसके जूड़े को ढीला कर दिया। पहले प्यार से महेन्द्र इसी तरह आशा का जूड़ा खोल दिया करता था- आशा इस पर एतराज़ करती थी। आज मगर उसने चूँ भी न की। अचानक उसके कपाल पर ऑंसू की एक बूँद टपक पड़ी। महेन्द्र ने उसका मुँह अपनी ओर फेरकर स्नेह से रुँधे स्वर में पुकारा- "चुन्नी!"

आशा को कोई जवाब न मिला। अपने कोमल हाथों से उसने कसकर महेन्द्र को दबा लिया। महेन्द्र ने कहा-"मुझसे ग़लती हो गई, माफ कर दो।"

अपने फूल-से सुकुमार हाथ से महेन्द्र के होठों को दबाती हुई वह बोली- "छि:, ऐसा न कहो! तुमने कोई कसूर नहीं किया। कसूर मेरा है। मुझे दासी के समान फटकारो। मुझे अपने पाँवों में रहने लायक़ बना लो!"

जिस दिन जाना था, सुबह जगते समय महेन्द्र ने कहा- "चुन्नी, मेरी रतन, तुम्हें मैं अपने हृदय में सबसे ऊपर रखूँगा। कोई तुमसे आगे नहीं जा सकेगा।"

कलेजे को कड़ा करके सब तरह का त्याग करने को तैयार होकर उसने पति से अपनी एक निहायत मामूली-सी माँग की। बोली- "मुझे रोज़-रोज़ चिट्ठी लिखना!"

महेन्द्र ने पूछा- "तुम भी लिखोगी?"

आशा ने कहा- "मैं क्या लिखना जानती हूँ?"

उसके कान के पास की लट को सरकाता हुआ महेन्द्र बोला- "तुम अक्षय कुमार दत्ता से भी अच्छा लिख सकती हो- जिसे चारुपाठ कहते हैं!"

आशा ने कहा- "मज़ाक रहने दो, हाँ।"

जाने के पहले आशा महेन्द्र का सामान सहेजने लगी। मोटे-मोटे गरम कपड़ों की तह बनाना कठिन था, बक्स में सबका सामान और भी कठिन। दोनों ने मिलकर दबा-दुबूकर जो एक बक्स में आ जाता, उसे दो बक्सों में रखा। फिर भी भूल से जो चीज़ें छूट गईं, उनकी कई गठरियाँ अलग से बन गईं। इससे आशा शर्म महसूस करती रही, तो भी आपस की छीना-झपटी और हँस-हँसकर एक-दूसरे को दोषी ठहराने में आनन्द के पिछले दिन लौट आए। यह तैयारी विदाई की है, ज़रा देर के लिए आशा यह भूल गई। साईस कम-से-कम दस बार जता गया कि गाड़ी तैयार है, मगर कौन सुनता है। अन्त में खिन्न होकर बोला- "खोल दो घोड़ों को।"

सुबह से तीसरा पहर हो गया और अब साँझ होने को आई। तब कहीं एक दूसरे को सेहत का ख्याल रखने की ताकीद करके, नियम से चिट्ठी लिखने का बार-बार वादा कराके भारी हृदय लिये दोनों जुदा हुए। दो-दिन हुए, राजलक्ष्मी उठने-बैठने लगी हैं। शाम को बदन पर एक मोटी चादर लपेटे विनोदिनी के साथ ताश खेल रही थी। आज उसे कोई हरारत न थी। महेन्द्र कमरे में आया। विनोदिनी की तरफ उसने बिल्कुल नहीं देखा। माँ से बोला- "माँ, कॉलेज में मेरी रात की डयूटी लगी है। यहाँ से आते-जाते नहीं बनता-कॉलेज के पास ही एक डेरा ले लिया है। आज से वहीं रहूँगा।"

राजलक्ष्मी अन्दर से रूठकर बोलीं- "जाओ, पढ़ाई में हर्ज होगा, तो रह भी कैसे सकते हो!"

बीमारी तो उनकी जाती रही थी, लेकिन जैसे ही उन्होंने सुना कि महेन्द्र जा रहा है, अपने को बीमार और कमज़ोर महसूस करने लगीं। विनोदिनी से कहा- "ज़रा तकिया तो इधर खिसका दो, बिटिया!" और वह तकिए का सहारा लेकर लेट गई। विनोदिनी धीरे-धीरे उनके बदन पर हाथ फेरने लगी।

महेन्द्र ने उनके कपाल पर हाथ रखा, नब्ज देखी। माँ ने अपनी कलाई हटा ली। कहा- "नब्ज़ से क्या खाक पता चलता है! तू फ़िक्र मत कर, मैं ठीक हूँ।"

कहकर उन्होंने बड़ी बमुश्किल करवट बदली।

विनोदिनी से महेन्द्र ने कुछ न कहा। राजलक्ष्मी को प्रणाम करके वह चला गया।


19

विनोदिनी ने सोचा, 'आखिर माजरा क्या है? मान या गुस्सा या डर, पता नहीं क्या? मुझे यह दिखाना चाहते हैं कि वह मेरी परवाह नहीं करते? बाहर जाकर रहेंगे? अच्छा, यही देखना है, कितने दिन?' लेकिन खुद उसके मन में भी बेचैनी लगने लगी।

वह रोज ही उस पर नया फंदा फेंका करती, तरह-तरह के तीरों से वेधा करती थी। उस काम के चुक जाने से वह छटपटाने लगी। घर का नशा ही उतर गया। महेन्द्र विहीना आशा उसके लिए बिल्कुल स्वाद-रहित थी। आशा को महेन्द्र जितना प्यार करता था, वह विनोदिनी के प्यार के भूखे हृदय को मथा करता था। जिस महेन्द्र ने उसके जीवन की सार्थकता को चौपट कर दिया, जिसने उस जैसी नारी-उपेक्षा करके आशा- जैसी मंदबुध्दि बालिका को अपनाया- उस महेन्द्र को विनोदिनी चाहती है या उससे चिढ़ती है, उसे इसकी सज़ा देगी या अपने हृदय में एक आग लहकाई है, वह आगईर्ष्या की है या प्रेम की या दोनों की मिलावट है, यह वह सोच न पाती। वह मन-ही-मन तीखी हँसी हँसकर कहती- 'मुझ-जैसी गत किसी भी स्त्री की नहीं हुई होगी। मैं यही नहीं समझ सकी कि मैं मारना चाहती हूँ कि मरना।' लेकिन चाहे जिस वजह से भी हो, जलने के लिए या जलाने के लिए, महेन्द्र की उसे नितान्त आवश्यकता थी। गहरा नि:श्वास छोड़ती हुई विनोदिनी बोली- "बच्चू जाएगा कहाँ? उसे आना पड़ेगा। वह मेरा है।" घर की सफाई के बहाने शाम को आशा महेन्द्र के कमरे में उसकी किताबें, उसकी तस्वीर आदि सामानों को छू-छा रही थी, अपने अचरे से उन्हें झाड़-पोंछ रही थी। महेन्द्र की चीजों को बार-बार छूकर, कभी उठाकर कभी रखकर अपने बिछोह की साँझ बिता रही थी। विनोदिनी धीरे-धीरे उसके पास आकर खड़ी हो गई। आशा शर्मा गई। छूना तो उसने छोड़ दिया और कुछ ऐसा जताया मानो वह कुछ खोज रही है। विनोदिनी ने हँसकर पूछा-"क्या हो रहा है, बहन?"

होठों पर हल्की हँसी लाकर बोली- "कुछ भी नहीं।"

विनोदिनी ने उसे गले लगाया। पूछा- "भई ऑंख की किरकिरी, देवरजी इस तरह घर से चले क्यों गए?"

विनोदिनी के इस सवाल से ही आशा शंकित हो उठी। कहा- "तुम्हें तो मालूम है। जानती ही हो, काम का दबाव रहता है।

दाहिने हाथ से उसकी ठुड्डी उठाकर, मानो करुणा से गल गई हो इस तरह सन्न होकर उसने आशा को देखा और लम्बी साँस ली।

आशा का दिल बैठ गया। वह अपने को अबोध और विनोदिनी को चालाक समझा करती थी। विनोदिनी के चेहरे का भाव देखकर उसके लिए सारा संसार अंधकारमय हो गया। विनोदिनी से साफ-साफ कुछ पूछने की उसकी हिम्मत न पड़ी। दीवार के पास एक सोफे पर बैठ गई। विनोदिनी भी बगल में बैठी। उसे अपने कलेजे से जकड़ लिया। सखी के इस आलिंगन से वह अपने-आपको सम्हाल न सकी। दोनों के ऑंसू झरने लगे। दरवाज़े पर अन्धा भिखारी मँजीरा बजाता हुआ गा रहा था, 'तरने को अपने चरणों की तरणी दे माँ, तारा!'

बिहारी महेन्द्र की तलाश में आया था। दरवाज़े पर से ही उसने देखा, आशा रो रही है और विनोदिनी उसे अपनी छाती से लगाए उसके ऑंसू पोंछ रही है। देखकर बिहारी वहाँ से खिसक गया। बँगले के अंधेरे कमरे में जाकर बैठ गया। दोनों हथेलियों से अपना सिर दबाकर सोचने लगा, 'आशा आखिर रो क्यों रही है? जो बेचारी स्वभाव से ही कोई कसूर करने में असमर्थ है, ऐसी नारी को भी जो रुलाए उसे क्या कहा जाए।' विनोदिनी की उस तरह की सांत्वना, निस्वार्थ सखी-प्रेम को देखकर अभिभूत हो गया।"

वह बड़ी देर तक अंधेरे में बैठा रहा। अन्धे भिखारी का गाना जब बन्द हो गया तो वह पैर पटककर खाँसता हुआ महेन्द्र के कमरे की तरफ बढ़ा। द्वार पर पहुँचा भी न था कि आशा घूँघट काढ़कर अन्त:पुर की ओर भाग गई।

अन्दर पहुँचते ही विनोदिनी ने पूछा- "अरे, क्या आपकी तबीयत ख़राब है, बिहारी बाबू?"

बिहारी- "नहीं तो।"

विनोदिनी- "फिर ऑंखें ऐसी लाल क्यों हैं?"

बिहारी ने इस बात का जवाब नहीं दिया। पूछा-"विनोद-भाभी, महेन्द्र कहाँ गया?"

विनोदिनी गम्भीर होकर बोली- "सुना है, कॉलेज में काम ज़्यादा है। इसलिए उन्होंने वहीं कहीं पास में डेरा ले लिया है। अच्छा, मैं चलूँ!"

अनमना बिहारी दरवाज़े के सामने राह रोककर खड़ा हो गया था। चौंककर वह जल्दी से हट गया। शाम के वक्त बाहर से सूने कमरे में इस तरह विनोदिनी से बात करना लोगों को अच्छा न लगेगा।- अचानक इसका ध्यादन आया। उसके जाते-जाते बिहारी इतना कह गया-"विनोद-भाभी, आशा का ख्याल रखिएगा। सीधी है बेचारी। उसे किसी को न तो चोट पहुँचाना आता है, न चोट से अपने को बचाना।"

अंधेरे में बिहारी विनोदिनी का चेहरा न देख पाया-उसमेंईर्ष्या के भाव जग आए थे। आज बिहारी पर नज़र पड़ते ही वह समझ गई थी कि आशा के लिए उसका हृदय दु:खी है। विनोदिनी आप कुछ नहीं! उसका जन्म आशा को सुरक्षित रखने, उसकी राहों के काँटों को बीनने के लिए ही हुआ है! श्रीमान् महेन्द्र बाबू आशा से विवाह करें, इसीलिए किस्मत की मार से विनोदिनी को बारामात के बर्बर बन्दर के साथ वनवास लेना पड़ेगा। और श्रीमान् बिहारी बाबू से आशा की ऑंखों में ऑंसू नहीं देखे जाते, सो विनोदिनी को अपना दामन उठाए सदा तैयार रहना पड़ेगा! वह महेन्द्र और बिहारी को एक बार अपने पीछे की छाया के साथ धूल में पटककर बताना चाहती है कि यह आशा कौन है, और कौन है विनोदिनी! दोनों में कितना फ़र्क़ है! दुर्भाग्य से विनोदिनी अपनी प्रतिभा को किसी पुरुष-हृदय के राज्य में विजयी बनाने का अवसर नहीं पा सकी, इसलिए उसने जलता शक्तिशेल उठाकर संहारमूर्ति धारण की।

बड़े ही मीठे स्वर में विनोदिनी बिहारी को कहती गई- "आप बेफिक्र रहें, बिहारी बाबू! मेरी ऑंख की किरकिरी के लिए इतनी चिन्ता करके आप नाहक इतना कष्ट न उठाएँ।"

20

जल्दी महेन्द्र को एक चिट्ठी मिली। उस पर पहचाने अक्षर देखकर वह चौंक गया। दिन में झमेलों के कारण उसने उसे खोला नहीं- कलेजे के पास जेब में डाल दिया। कॉलेज के लैक्चर सुनते हुए, अस्पताल का चक्कर काटते हुए यक-ब-यक उसे ऐसा लग आता कि उसके कलेजे के घोंसले में मुहब्बत की एक चिड़िया सो रही है। उसे जगाया नहीं कि उसकी मीठी चहक कानों में गूँज उठेगी।

शाम को अपने सूने कमरे में महेन्द्र लैम्प की रोशनी में आराम से कुर्सी पर बैठा। अपनी देह के ताप से तपी उस चिट्ठी को बाहर निकला। देर तक उसने उसे खोला नहीं, मगर गौर से देखता रहा। उसे पता था कि खत में ख़ास कुछ है नहीं। ऐसी सम्भावना ही नहीं कि आशा अपने मन की बात सुलझाकर लिख सकेगी। उसके टेढ़े-मेढ़े हरफों और आड़ी-तिरछी पंक्तियों से उसके मन के भावों की कल्पना कर लेनी होगी। आशा के कच्चे हाथों, बड़े जतन से लिखे अपने नाम में महेन्द्र को एक रागिनी सुनाई पड़ी-"साध्वीा नारी के मन के गहन बैकुण्ठ से उठने वाला पावन प्रेम-संगीत।"

दो ही चार दिनों की जुदाई से महेन्द्र के मन का वह अवसाद चला गया। सरल आशा के नवीन प्रेम की स्मृति फिर ताजी हो गई। इन दिनों गिरस्ती की रोज़मर्रा की असुविधाएँ उसे खिझाने लगी थीं, अब वह सब मिट गया, बस कर्म और कारणहीन एक विशुद्ध प्रेमानंद की जोत में आशा की मानसी मूर्ति उसके मन में जीवन्त हो उठी।

महेन्द्र ने लिफाफे को इत्मीनान से खोला। उसमें से चिट्ठी निकालकर अपने गाल और कपाल से लगाई। महेन्द्र ने जो खूशबू कभी आशा को भेंट की थी, अकुलाए नि:श्वास-सी उसी की महक खत में से निकलकर महेन्द्र के प्राणों में पैठ गई।

खत खोलकर पढ़ा। अरे जैसी टेढ़ी-मेढ़ी पंक्तियाँ हैं, वैसी भाषा तो नहीं है! हरफ कच्चे, मगर उनसे बातों का मेल कहाँ? लिखा था- 'प्रियतम, जिसे भूलने के लिए घर से चल दिए, इस लिखावट से उसकी याद क्यों दिलाऊँ? जिस लता को मरोड़कर माटी में फेंक दिया, किस हया से वह फिर धड़ को जकड़कर उठने की कोशिश करे! जाने वह मिट्टी में मिलकर मिट्टी क्यों न हो गई!

"लेकिन इससे तुम्हारा क्या नुकसान है नाथ, लमहे-भर को याद ही आ गया तो! उससे जी को चोट भी कितनी लगेगी! मगर तुम्हारी उपेक्षा काँटे-सी मेरे पंजर में चुभकर रह गई है! तुम जिस तरह भूल बैठे, मुझे भी उसी तरह भुलाने की तरकीब बता दो।"

"नाथ, तुमने मुझे प्यार किया था, यह क्या मेरा ही कसूर था! ऐसे सौभाग्य की मैंने स्वप्न में भी आशा की थी क्या? मैं कहाँ से आई, मुझे कौन जानता था? मुझे नज़र उठाकर न देखा होता, मुझे अगर यहाँ मुफ़्त की बाँदी बनकर रहना होता, तो मैं क्या तुम्हें दोष दे सकती थी? जाने मेरे किस गुण पर तुम खुद ही बिना मेघ के बिजली ही कड़की, तो उस बिजली ने सिर्फ जलाया ही क्यों? तन-मन को बिल्कुल राख क्यों न कर डाला?

"इन दो दिनों में बेहद सब्र किया, बहुत सोचती रही, लेकिन एक बात न समझ सकी कि यहाँ रहकर भी क्या तुम मुझे ठुकरा नहीं सकते थे? मेरे लिए भी क्या घर छोड़कर जाने की ज़रूरत थी? क्या मैं तुम्हें इतना घेरे हूँ? मुझे अपने कमरे के कोने में, दरवाज़े के बाहर फेंक देने पर भी क्या मैं तुम्हारी नज़र में आती? यही था, तो तुम फिर गए क्यों? मेरे कहीं जाने का क्या कोई उपाय न था? बहकर आई थी, बहकर चली जाती...."

यह चिट्ठी कैसी! भाषा किसकी थी, महेन्द्र को समझते देर न लगी। महेन्द्र उस पत्र को लिए स्तंभित रहा।

बड़ी देर तक सोचता रहा। खत को उसने कई बार पढ़ा। कुछ दिनों तक जो दूर के आभास की तरह रहा, आज वह साफ़ प्रकट होने लगा। उसकी ज़िन्दगी के आसमान के एक कोने में जो धूमकेतु छाया था, आज उसकी उठी हुई पूँछ आग की रेखाओं में जलती हुई दिखाई पड़ी।

चिट्ठी यह असल में विनोदिनी की है। भोली आशा ने इसे अपनी बात समझकर लिखा है। पहले जिन बातों को उसने कभी सोचा नहीं, विनोदिनी के लिखाने से वे ही बातें उसके मन में जाग उठीं। जो नई वेदना पैदा हुई, उसे इस खूबी के साथ आशा तो हर्गिज़ ज़ाहिर नहीं कर सकती थी। वह सोचने लगी, 'सखी ने मेरे मन की बात को ऐसा ठीक-ठीक कैसे समझ लिया! और, इतना ठीक से ज़ाहिर कैसे किया!' वह अपनी अंतरंग सखी को और भी मज़बूत सहारे की तरह पकड़ बैठी। क्योंकि जो बात उसके मन में है, उसकी भाषा उसकी सखी के पास है-इतनी बेबस थी वह!

महेन्द्र कुर्सी से उठा। भवों पर बल डाला। विनोदिनी पर क्रोध करने की कोशिश की। मगर बीच में आशा पर गुस्सा आ गया। आशा की मूर्खता तो देखो, पति पर यह कैसा जुल्म! वह फिर बैठ गया और इस बात के सबूत में उस खत को फिर से पढ़ गया। अन्दर-ही-अन्दर खुशी होने लगी। यह समझकर उसने चिट्ठी को पढ़ने की बहुत चेष्टा की, मानो वह आशा की ही लिखी हो। लेकिन इसकी भाषा किसी भी तरह से भोली आशा की याद नहीं दिलाती। दो ही चार पंक्तियाँ पढ़ते ही सुख से पागल कर देने वाला एक झाग भरी शराब- जैसा सन्देह मन को ढाप लेता। प्रेम की इस प्रतीति ने महेन्द्र को मतवाला बना दिया। उसे लगने लगा चाहे खुद के प्रति हिंसा करके ही मन को किसी और तरफ लगा दे। उसने मेज़ पर ज़ोरों का मुक्का मारा और उछलकर खड़ा हो गया। बोला- "हटाओ, चिट्ठी को जला डालें।" चिट्ठी को वह लैम्प के क़रीब ले गया। जलाया नहीं, फिर एक बार पढ़ गया। अगले दिन नौकर काग़ज़ की बहुत-सी राख उठा ले गया था, लेकिन यह राख आशा की चिट्ठियों की न थी, उसके उत्तर की कई अधूरी कोशिशों की राख थी, जिन्हें अन्त में महेन्द्र ने जला दिया था।

इस बीच और एक चिट्ठी आ पहुँची-

"तुमने मेरे पत्र का जवाब नहीं दिया? अच्छा ही किया सही बात लिखी तो नहीं जाती; तुम्हारा जो जवाब है, उसे मैंने मन में समझ लिया। भक्त जब अपने देवता को पुकारता है तो देवता क्या ज़बान से कुछ कहते हैं? लगता है, दुखिया की तुलसी को चरणों में जगह मिल गई।"

"लेकिन भक्त की पूजा से कहीं शिव की तपस्या टूटती हो तो मेरे हृदय के देवता, नाराज न होना! वरदान दो या न दो, ऑंखें उठाकर निहारो या न निहारो, जान सको या न जान सको- पूजा किए बिना भक्त की दूसरी गति नहीं। इसलिए आज भी दो पंक्तियाँ लिख भेजती हूँ-हे! मेरे पत्थर के देवता तुम अडिग ही रहो!"

महेन्द्र फिर जवाब लिखने बैठा। लेकिन पत्र को आशा को लिखते हुए कलम की नोंक पर जवाब विनोदिनी का आ जाता। चालाकी से इधर-उधर की हाँकते उससे लिखते हुए नहीं बनता। लिख-लिखकर बहुत-से पन्ने फाड़ डाले। एक लिखा भी गया तो उसे लिफाफे में भरकर आशा का नाम लिखते हुए अचानक किसी ने उसकी पीठ पर चाबुक जमाया- 'बेईमान! विश्वस्त बालिका से इस तरह दगा!' महेन्द्र ने पत्र को टुकड़े करके फेंक दिया और बाकी रात मेज पर दोनों हथेलियों में मुँह छिपाए अपने को मानो अपनी ही नज़र से छिपाने की कोशिश करता रहा।

तीसरा पत्र? "रूठना जो क़तई नहीं जानता, वह भी क्या प्यार करता है? अपने प्यार को अनादर और अपमान से बचाए न रख सकूँ तो वह तुम्हें दूँगी कैसे?"

"शायद तुम्हारे मन को ठीक-ठीक समझ नहीं पाई हूँ, तभी इतनी हिम्मत कर सकी हूँ। तुम छोड़ गए तो भी मैं ही बढ़कर चिट्ठी लिखी; जब तुम चुप हो गए थे, तब भी मन की कह गई हूँ। मगर तुम्हारे साथ अगर ग़लती की है, तो वह भी क्या मेरा ही कसूर है? शुरू से आखिर तक सारी बातें एक बार दुहराकर देखो तो सही कि मैंने जो कुछ समझा था, वह तुम्हीं ने नहीं समझाया क्या?"

"चाहे जो हो, ग़लत हो या सही, जो लिखा है, वह मिटने का नहीं, जो दिया है, वह वापिस नहीं ले सकूँगी, यही शिकायत है। छि:-छि: ऐसी शर्म भी नारी के नसीब में आती है। लेकिन इससे यह हर्गिज़ न समझना कि जो प्यार करती है, वह अपने प्यार को बार-बार अपमानित कर सकती है। साफ़ बताओ की मेरी चिट्ठी की चाहत नहीं हो तो बताओ और इसका जवाब न मिला तो यहीं तक बस।"

महेन्द्र से और न रहा गया। मन में बोला- 'खूब नाराज होकर ही घर लौट रहा हूँ। विनोदिनी का ख्याल है, मैं उसे भूलने के लिए घर से भाग खड़ा हुआ हूँ।' उसकी इस हेकड़ी को भुलाने के लिए ही महेन्द्र ने उसी दम घर लौट जाने का संकल्प किया।

इतने में बिहारी आ गया। उसे देखते ही महेन्द्र के मन की उमंग दुगुनी हो गई। अब तक सन्देहों के चलते बिहारी से उसेईर्ष्या होती रही थी और दोनों में गाँठ पड़ती जा रही थी। चिट्ठी पढ़ने के बाद और ज़्यादा आवेग में उसने उसकी आगवानी की।

लेकिन बिहारी का चेहरा आज उतरा हुआ था। महेन्द्र ने सोचा, 'बेचारे ने इस बीच विनोदिनी से ज़रूर मुलाकात की होगी और वहाँ से ठोकर खाकर आया है!' उसने पूछा- "क्यों भाई, इस बीच मेरे घर गए थे कभी?"

बिहारी ने कहा- "वहीं से होकर आ रहा हूँ अभी।"

मन-ही-मन बिहारी की पीड़ा का अनुमान करके महेन्द्र को अच्छा न लगा। उसने मन में कहा- 'अभागा! किसी महिला ने कभी उसे नहीं चाहा।' फिर भी उसने बातचीत शुरू करते हुए पूछा- "कैसे हैं सब?" इस बात का जवाब देने के बजाय वह बोला- "घर छोड़कर अचानक यहाँ।"

महेन्द्र ने कहा- "इधर लगातार नाइट-डयूटी पड़ रही है- वहाँ दिक्कत हो रही थी।"

बिहारी बोला- "नाइट-डयूटी तो इसके पहले भी पड़ी है, मगर घर छोड़ते तो नहीं देखा कभी?"

महेन्द्र ने हँसकर कहा- "क्यों कोई शक हो रहा है।"

बिहारी बोला- "मजाक न करो। तुम्हें कहीं नहीं रहना है। चलो इसी वक्त घर चलो।"

घर जाने को तो वह तैयार ही बैठा था; मगर बिहारी ने आग्रह किया तो वह मना कर गया, गोया घर जाने की उसे ज़रा भी इच्छा नहीं। बोला- "पागल हुए हो, मेरे एक साल पर पानी फिर जाएगा।" बिहारी ने कहा- "देखो महेन्द्र भैया, मैं तुम्हें तब से देखता आया हूँ, जब तुम छोटे-से थे। मुझे फुसलाने की कोशिश न करो! तुम जुल्म कर रहे हो।"

महेन्द्र- "जुल्म कर रहा हूँ, किस पर, जज साहब!"

बिहारी नाराज़ होकर बोला- "तुम सदा दिल की तारीफ करते आए हो, अब तुम्हारा दिल कहाँ गया?"

महेन्द्र- "फिलहाल तो अस्पताल में है।"

बिहारी- "चुप रहो! तुम यहाँ हँस-हँसकर मुझसे मज़ाक कर रहे हो और वहाँ तुम्हारी आशा तुम्हारे कमरों में रोती फिर रही है।" आशा के रोने की बात सुनकर अचानक महेन्द्र को धक्का लगा। अपने नए नशे में उसे इसकी सुध न थी कि दुनिया में और भी किसी का सुख-दु:ख है। वह चौंका! पूछा- "आशा क्यों रो रही है?" बिहारी ने अपनी ऑंखों जो कुछ देखा, आदि से अन्त तक कह सुनाया। उसे याद आ गया कैसे विनोदिनी से लिपटकर आशा की ऑंखें बह रही थी। उसका गला रुँध गया। महेन्द्र को खूब पता था कि आशा का मन वास्तव में किधर है!

महेन्छ्र बोला- "खैर चलो। गाड़ी बुला लो!"

22

महेन्द्र घर पहुँचा। उसका चेहरा देखते ही आशा के मन का सारा संदेह कुहरे के समान एक ही क्षण मं। फट गया। अपनी चिट्ठियों की बात सोचकर महेन्द्र के सामने मारे शर्म के वह सिर न उठा सकी। इस पर महेन्द्र ने शिकवा किया- "ऐसे आरोप लगाकर तुमने चिट्ठियाँ लिखी कैसे!"

और उसने जाने कितनी बार पढ़ी हुई वे तीनों चिट्ठियाँ अपनी जेब से निकालीं। आशा ने गिड़गिड़ाकर कहा- "तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, इन चिट्ठियों को फाड़ फेंको!" महेन्द्र से उन चिट्ठियों को ले लेने के लिए वह उतावली हो गई। महेन्द्र ने उसे रोककर चिट्ठियों को जेब के हवाले किया। कहा- "मैं काम से गया और तुमने मेरा मतलब ही नहीं समझा? मुझ पर संदेह किया?" छलछलाती ऑंखों से आशा बोली- "अबकी बार मुझे माफ कर दो! आइन्दा ऐसा न होगा।" महेन्द्र ने कहा- "कभी नहीं?"

आशा बोली- "कभी नहीं।"

महेन्द्र ने उसे अपने पास खींचकर चूम लिया। आशा बोली- "लाओ, चिट्ठियाँ दे दो, फाड़ डालूँ!"

महेन्द्र बोला- "रहने दो उन्हें।" आशा ने विनय से यह समझा-"मेरी सज़ा के रूप में इन्होंने चिट्ठियाँ रख ली हैं।"

चिट्ठियों के चलते आशा का मन विनोदिनी की तरफ से ज़रा ऐंठ गया। पति लौट आए, यह खबर वह विनोदिनी से कहने न गई, बल्कि उससे कतराती रही। विनोदिनी इसे ताड़ गई और काम के बहाने बिल्कुल दूर ही रही।

महेन्द्र ने सोचा- "अजीब है! सोचा था, अबकी बार विनोदिनी को मज़े से देख पाऊँगा- उलटा ही हुआ। फिर उन चिट्ठियों का मतलब?"

महेन्द्र ने अपने मन को इसके लिए सख्त बनाया कि नारी के दिल को अब कभी समझने की कोशिश नहीं करेगा। सोच रखा था, "विनोदिनी पास आना भी चाहेगी तो मैं दूर-दूर रहूँगा।" अभी उसके जी में आया, 'न, यह तो ठीक नहीं हो रहा है- सचमुच ही हम लोगों में कोई विकार आ गया है। खुले दिल की विनोदिनी से बातचीत, हँसी-दिल्लगी करके संदेह की इस घुटन को मिटा डालना ही ठीक है।' उसने आशा से कहा- "लगता है, मैं ही तुम्हारी सखी की ऑंख की किरकिरी हो गया। उनकी तो अब झाँकी भी नहीं दिखाई पड़ती।"

उदास होकर आशा बोली- "जाने उसे क्या हो गया है!"

इधर राजलक्ष्मी आकर रोनी-सी होकर बोली- "बेटी, अब तो विपिन की बहू को रोकना मुश्किल हो रहा है।"

राजलक्ष्मी बोलीं- "मुझे क्या पता।" महेन्द्र चौंकते मगर अपने पर नियंत्रण करते हुए उसने पूछा- "क्यों माँ?"

"बेटा, वह तो अबकी बार अपने घर जाने के लिए अड़ गई है। तुझे तो किसी की खातिरदारी आती नहीं। एक पराई लड़की अपने घर आई है, उसका अगर घर के लोगों- जैसा आदर-मान न हो तो रहे कैसे?" विनोदिनी सोने के कमरे में चादर सी रही थी। महेन्द्र गया। आवाज़ दी- "किरकिरी!"

विनोदिनी सम्हलकर बैठी। पूछा- "जी! महेन्द्र बाबू!"

महेन्द्र बाबू ने कहा- "अजीब मुसीबत है! ये हज़रत महेन्द्र बाबू कब से हो गए!"

अपनी सिलाई में ऑंखें गड़ाए हुए ही विनोदिनी बोली- "फिर क्या कहकर पुकारूँ आपको?"

महेन्द्र ने कहा- "जिस नाम से अपनी सखी को पुकारती हो- 'ऑंख की किरकिरी'!"

और दिन की तरह विनोदिनी ने मज़ाक करके कोई जवाब न दिया। वह अपनी सिलाई में लगी रही।

महेन्द्र ने कहा- "लगता है, वही सच्चा रिश्ता है, तभी तो दुबारा जुड़ पा रहा है।"

विनोदिनी ज़रा रुकी। सिलाई के किनारे से बढ़ रहे धागे के छोर को दाँतों से काटती हुई बोली- "मुझे क्या पता, आप जानें!"

और दूसरे जवाबों को टालकर गम्भीरता से पूछ बैठी- "कॉलेज से एकाएक कैसे लौट आए।"

महेन्द्र बोला- "केवल लाश की चीर-फाड़ से कब तक चलेगा?"

विनोदिनी ने फिर दाँत से सूत काटा और उसी तरह सिर झुकाए हुए बोली- "तो अब जीवन की ज़रूरत है?"

महेन्द्र ने सोचा था, 'आज विनोदिनी से बड़े सहज ढंग से हँसी-मज़ाक करूँगा' लेकिन बोझ इतना हो गया कि लाख कोशिश करके भी हल्का जवाब जुबान पर न आ सका। विनोदिनी आज कैसी दूरी रखकर चल रही है, यह देखकर महेन्द्र उद्वेलित हो गया। इच्छा होने लगी, एक झटके से इस रुकावट को मटियामेट कर दे। उसने विनोदिनी की कटी हुई वाक्य-चिकोटी का कोई जवाब न दिया-अचानक उसके पा जा बैठा। बोला- "तुम हम लोगों को छोड़कर जा क्यों रही हो? कोई अपराध हो गया है मुझसे!" विनोदिनी इस पर ज़रा खिसक गई। सिलाई से सिर उठाकर उसने अपनी बड़ी-बड़ी ऑंखें महेन्द्र की ओर लगाकर कहा- "काम-धन्धा तो हर किसी को है। आप सब छोड़कर कहीं और रहने चले दिए। वह क्या किसी अपराध से कम है।"

महेन्द्र को कोई अच्छा जवाब ढूँढ़े न मिला। ज़रा देर चुप रहकर पूछा- "ऐसा क्या काम पड़ा है कि गए बिना होगा ही नहीं?"

बड़ी सावधानी से सुई में धागा डालती हुई वह बोली-"काम है या नहीं, यह मैं ही जानती हूँ। आपको उसकी फेहरिस्त क्या दूँ!"

महेन्द्र खिड़की से बाहर चिन्तित-सा बड़ी देर तक एक नारियल की फुनगी पर नज़र टिकाए चुप बैठा रहा। विनोदिनी चुपचाप सिलाई करती रही। यह हाल कि फर्श पर सुई गिरे, तो आवाज़ सुनाई दे! बड़ी देर बाद महेन्द्र अचानक बोल उठा। हठात् जो निस्तब्धता भंग हुई, विनोदिनी चौंक पड़ी। उसकी उँगली में सुई चुभ गई।

महेन्द्र ने पूछा- "किसी भी तरह से न रुक सकोगी?"

सुई चुभी अंगुली का ख़ून चूसती हुई विनोदिनी ने कहा- "विनती किस बात की? मैं रही न रही, आपको क्या फ़र्क़ पड़ता है।"

कहते-कहते उसका गला भर आया। फिर झुककर वह सिलाई में लग गई। लगा, उसकी पलकों की कोर में ऑंखों की हल्की-सी रेखा झलक पड़ी है। माघ का अपराद्द उधर शाम के अंधेरे में खोने लगा था। लमहे-भर में महेन्द्र ने विनोदिनी का हाथ दबाकर रुंध और सजल स्वर में कहा, "अगर इससे मेरा कुछ बिगड़ता हो तो रुकोगी।"

विनोदिनी ने झट से हाथ छुड़ा लिया। थोड़ा सरककर बैठ गई। महेन्द्र चौंका। अपनी अन्तिम बात अपने ही कानों में व्यंग्य- जैसी गूँजती रही। दोषी जीभ को उसने दाँत से काटा फिर कुछ कहते न बना। घर में सन्नाटा छाया था, तभी आशा आ गई। विनोदिनी झट कह उठी, "खैर, तुम लोगों ने जब मेरी अकड़ इतनी बढ़ा रखी है, तो मेरा भी फर्ज़ है कि तुम लोगों की एक बात मान लूँ। जब तक विदा नहीं करोगे, मैं यहीं रहूँगी।"

पति की कामयाबी से फूली न समाती हुई आशा सखी से लिपट गई। बोली- "तो फिर यही पक्का रहा! तीन बार कबूल करो कि जब तक हम विदा नहीं करते, तब तक रहोगी, रहोगी, रहोगी।" विनोदिनी ने तीन बार कबूल किया। आशा ने कहा-"भई किरकिरी, रहना तो पड़ा, फिर नाकों-चने क्यों चबवाए? अन्त में मेरे पति से हार माननी ही पड़ी?"

विनोदिनी हँसकर बोली- "भाई साहब, हार मैंने मानी कि तुमने मानी?"

महेन्द्र को जैसे काठ मार गया हो। लग रहा था, जैसे उनका अपराध तमाम कमरों में बिखरा पड़ा है। उसने गम्भीर होकर कहा- "हार तो मेरी ही हुई है।" और वह कमरे से बाहर चला गया।

और दूसरे ही क्षण फिर अन्दर आया। आकर विनोदिनी से कहा- "मुझे माफ कर दो!"

विनोदिनी बोली- "क्या कुसूर किया है तुमने, लालाजी?"


महेन्द्र बोला- "तुम्हें यों ज़बरदस्ती यहाँ रोक रखने का हमें कोई अधिकार नहीं।"

विनोदिनी हँसकर बोली- "ज़बरदस्ती कहाँ की है? प्यार से सीधी तरह ही तो रहने को कहा- यह ज़बरदस्ती थोड़े है।"

आशा सोलहों आने सहमत होकर बोली- "हर्गिज नहीं।"

विनोदिनी ने कहा- "भाई साहब, तुम्हारी इच्छा है, मैं रहूँ। मेरे जाने से तुम्हें तकलीफ होगी- यह तो मेरी खुशकिस्मती है। क्यों भई किरकिरी, ऐसे सहृदय दुनिया में मिलते कितने हैं? और दु:ख में दुखी, सुख में सुखी भाग्य से कोई मिला, तो मैं ही उसे छोड़कर जाने को क्यों उतावली होऊँ?"

पति को चुप रहते देख आशा ज़रा खिन्न मन से बोली- "बातों में तुमसे कौन जीते? मेरे स्वामी तो हार मान गए, अब ज़रा रुक भी जाओ।"

महेन्द्र फिर तेज़ी से बाहर हो गया। उधर बिहारी कुछ देर राजलक्ष्मी से बातचीत करके महेन्द्र की ओर आ रहा था। दरवाज़े पर ज्योंही बिहारी पर नज़र पड़ी, महेन्द्र बोल उठा- "भाई बिहारी, मुझ-सा नालायक़ दुनिया में दूसरा नहीं।"

उसने कुछ ऐसे कहा कि वह बात कमरे में पहुँच गई।

अन्दर से उसी दम पुकार हुई- "बिहारी बाबू?"

बिहारी ने कहा- "अभी आया, विनोद-भाभी!"

कमरे में जाते ही बिहारी ने तुरन्त आशा की तरफ देखा- घूँघट में से जितना-भर दिखाई पड़ा, उसमें विषाद या वेदना की कोई निशानी ही न थी। आशा उठकर जाने लगी। विनोदिनी उसे पकड़े रही। कहा- "यह तो बताएँ भाई साहब, मेरी ऑंखों की किरकिरी से आपका सौत का नाता है क्या? आपको देखते ही वह भाग क्यों जाना चाहती है?" आशा ने शर्माकर विनोदिनी को झिड़का।

बिहारी ने हँसकर कहा- "इसलिए कि विधाता ने मुझे वैसा ख़ूबसूरत नहीं बनाया है।"

विनोदिनी- "देख लिया भई किरकिरी, बिहारी बाबू किस क़दर बचाकर बात करना जानते हैं! इन्होंने तुम्हारी पसन्द को दोष नहीं दिया, दिया विधाता को। लक्ष्मण-जैसे सुलक्षण देवर को पाकर तुझे आदर करना न आया, तेरी ही तकदीर खोटी है।"

बिहारी- "इस पर तुम्हें अगर तरस आए विनोद-भाभी, तो फिर मुझे शिकवा ही क्या रहे!"

विनोदिनी- "समुद्र तो है ही, फिर भी बादलों के बरसे बिना चातक की प्यास क्यों नहीं मिटती?"

आशा को आखिर रोककर न रखा जा सका। वह ज़बरदस्ती हाथ छुड़ाकर चली गई। बिहारी भी जाना चाह रहा था। विनोदिनी ने कहा- "महेन्द्र बाबू को क्या हुआ है, कह सकते हैं आप?" बिहारी ठिठक पड़ा। बोला- "मुझे तो कुछ पता नहीं, कुछ हुआ है क्या?"

विनोदिनी- "पता नहीं, मुझे तो ठीक नहीं दीखता।"

उत्सुक होकर बिहारी कुर्सी पर बैठ गया। पूरी तरह सुन लेने के ख्याल से वह उन्मुख होकर विनोदिनी की ओर ताकता रहा। विनोदिनी कुछ न बोली। मन लगाकर चादर सीने लगी। कुछ देर रुककर वह बोला, "तुमने महेन्द्र में ख़ास कुछ गौर किया क्या?"

विनोदिनी बड़े सहज भाव से बोली- "क्या जानें, मुझे तो ठीक नहीं दीखता। मुझे तो अपनी किरकिरी के लिए फ़िक्र होती है।"- और एक लम्बी उसाँस लेकर वह सिलाई छोड़कर जाने लगी। बिहारी ने व्यस्त होकर कहा- "ज़रा बैठो, भाभी!"

विनोदिनी ने कमरे के सारे खिड़की-किवाड़ खोल दिए। लालटेन की बत्ती बढ़ा दी और सिलाई का सामान लिये बिस्तर के उस छोर पर जा बैठी। बोली- "मैं तो यहाँ सदा रहूँगी नहीं- मेरे चले जाने पर मेरी किरकिरी का ख्याल रखना- वह बेचारी दुखी न हो।"

कहकर मन के उद्वेग को ज़ब्त करने के लिए उसने मुँह फेर लिया।

बिहारी बोल पड़ा- "भाभी, तुम्हें रहना ही पड़ेगा। तुम्हारा अपना कहने को कोई नहीं- इस भोली लड़की को सुख-दु:ख में बचाने का भार तुम लो- कहीं तुम छोड़ गई, तो फिर कोई चारा नहीं।" विनोदिनी- "भाई साहब, दुनिया का हाल तुमसे छिपा नहीं, मैं यहाँ सदा कैसे रह सकता हूँ? लोग क्या कहेंगे?"

बिहारी- "लोग जो चाहें कहें, तुम ध्यातन ही मत दो! तुम देवी हो, एक असहाय लड़की को दुनिया की ठोकरों से बचाना तुम्हारे ही योग्य काम है।"

विनोदिनी का रोऑं-रोऑं पुलकित हो उठा। बिहारी के इस भक्ति-उपहार को वह मन से भी ग़लत मानकर ठुकरा न सकी, हालाँकि वह छलना कर रही थी। ऐसा व्यवहार उसे कभी किसी से न मिला था। विनोदिनी के ऑंसू देखकर बिहारी मुश्किल से अपने ऑंसू ज़ब्त करके महेन्द्र के कमरे में चला गया। बिहारी को यह बात बिल्कुल समझ में न आई कि महेन्द्र ने अचानक अपने-आपको नालायक़ क्यों कह दिया। कमरे में जाकर देखा, महेन्द्र नहीं था। पता चला, वह टहलने निकल गया है। पहले बे-वजह वह घर से कभी बाहर नहीं जाया करता था। जाने-पहचाने लोगों के घर से बाहर उसे बड़ी परेशानी होती। बिहारी सोचता हुआ धीरे-धीरे अपने घर चला गया।

विनोदिनी आशा को अपने कमरे में ले आई। उसे छाती से लगाकर छलछलाई ऑंखों से कहा- "भई किरकिरी मैं बड़ी अभागिन हूँ, बड़ी बदशकुन।"

आशा दुखी मन से बोली- "ऐसा क्यों कहती हो, बहन?"

सुबकते बच्चे की तरह वह आशा की छाती में मुँह गाड़कर बोली- "मैं जहाँ भी रहूँगी, बुरा ही होगा। मुझे छोड़ दे बहन, छुट्टी दे! मैं अपने जंगल में चली जाऊँ।" महेन्द्र से बिहारी की मुलाकात न हो सकी, इसलिए कोई बहाना बनाकर फिर वह वहाँ आया ताकि आशा और महेन्द्र के बीच की आशंका वाली बात को और कुछ साफ़ तौर से जान सके। वह विनोदिनी से यह अनुरोध करने का बहाना लिये आया कि कल महेन्द्र को अपने यहाँ भोजन के लिए आने को कहे। उसने आवाज़ दी- "विनोद भाभी।" और बाहर से ही बत्ती की मद्धम रोशनी में गीली ऑंखों वाली दोनों सखियों को आलिंगन में देखकर वह ठिठक गया। अचानक आशा के मन में हुआ कि हो न हो, आज बिहारी ने ज़रूर विनोदिनी से कुछ निन्दा की बात कही है, तभी वह जाने की बात कर रही है। यह तो बिहारी बाबू की बड़ी ज्यादती है। ऊँहू अच्छे मिज़ाज के नहीं हैं। कुढ़कर आशा बाहर निकल आई और बिहारी भी विनोदिनी के प्रति मन की भक्ति की ओर बढ़कर बैरंग वापस हो गया। रात को महेन्द्र ने आशा से कहा- "चुन्नी, मैं सुबह की गाड़ी से बनारस चला जाऊँगा।"

आशा का कलेजा धक् से रह गया। पूछा..."क्यों?"

महेन्द्र बोला- "काफ़ी दिन हो गए, चाची से भेंट नहीं हुई।"

महेन्द्र की यह बात सुनकर आशा शर्मिन्दा हो गई। उसे यह इससे भी पहले सोचना चाहिए था। अपने सुख-दु:ख के आकर्षण में वह अपनी स्नेहमयी मौसी को भूल गई। महेन्द्र ने कहा- "अपने स्नेह की एकमात्र थाती को वह मेरे ही हाथों सौंप गई हैं- उन्हें एक बार देखे बिना मुझे चैन नहीं मिलता।"

कहते-कहते महेन्द्र का गला भर आया। स्नेह-भरे मौन आशीर्वाद और अव्यक्त मंगल-कामना से वह बार-बार अपना दायाँ हाथ आशा के माथे पर फेरने लगा। अचानक ऐसे उमड़ आए स्नेह का मर्म आशा न समझ सकी। उसका हृदय केवल पिघलकर ऑंखों से बहने लगा। आज ही शाम को स्नेह-वश विनोदिनी ने उसे जो कुछ कहा था, याद आया। इन दोनों में कहीं योग भी है या नहीं, वह समझ न सकी। लेकिन उसे लगा, "यह मानो उसके जीवन की कोई सूचना है। अच्छी बुरी, कौन जाने!"

भय से व्याकुल होकर उसने महेन्द्र को बाँहों में जकड़ लिया। महेन्द्र उसके नाहक सन्देह के आवेश को समझ गया। बोला- "चुन्नी, तुम पर तुम्हारी पुण्यवती मौसी का आशीर्वाद है। तुम्हें कोई ख़तरा नहीं। तुम्हारी ही भलाई के लिए वह अपना सर्वस्व छोड़कर चली गई-तुम्हारा कभी कोई बुरा नहीं हो सकता।"

इस पर आशा ने निडर होकर अपने मन के भय को निकाल फेंका। पति के इस आशीर्वाद को उसने अक्षय-कवच के समान ग्रहण किया। मन-ही-मन उसने मौसी के चरणों की धूल को बार-बार अपने माथे से लगाया और एकाग्र होकर बोली- "तुम्हारा आशीर्वाद सदा मेरे स्वामी की रक्षा करे।"

दूसरे दिन महेन्द्र चला गया। विनोदिनी ने जाते समय कुछ न बोला। विनोदिनी मन में कहने लगी-'ग़लती खुद की और गुस्सा मुझ पर! ऐसा साधु-पुरुष तो मैंने नहीं देखा। लेकिन ऐसी साधुता ज़्यादा दिन नहीं टिकती!'

23

बहुत दिनों के बाद अचानक महेन्द्र को आते देखकर एक ओर तो अन्नपूर्णा गद्गद हो गई और दूसरी ओर उन्हें यह शंका हुई कि शायद आशा की माँ से फिर कुछ चख-चख हो गई है- महेन्द्र उसी की शिकायत पर दिलासा देने आया है। छुटपन से ही महेन्द्र मुसीबत पड़ने पर अपनी चाची की शरण में जाता रहा है। कभी किसी पर उसे गुस्सा आया, तो चाची ने उसे शान्त कर दिया और कभी उसे कोई तकलीफ हुई तो चाची ने धीरज से सहने की नसीहत दी। लेकिन विवाह के बाद से जो सबसे बड़ा संकट महेन्द्र पर आ पड़ा, उसके प्रतिकार की कोशिश तो दूर रही- सांत्वना देने तक में वह असमर्थ रहीं। इसके बारे में जब वह यह समझ गई कि चाहे, जैसे भी वह हाथ डालें, घर की अशान्ति दुगुनी हो जाएगी, तो उन्होंने घर ही छोड़ दिया। बीमार बच्चा जब पानी के लिए चीखता रोता है और पानी देने की मनाही होती है, तो दुखिया माँ जैसे दूसरे कमरे में चली जाती है, अन्नपूर्णा ठीक वैसे ही काशी चली गई थीं। सुदूर तीर्थ में रहकर धर्म-कर्म में ध्यामन लगाकर दीन-दुखिया को कुछ भुलाया था- महेन्द्र क्या फिर उन्हीं झगड़े-झंझटों की चर्चा से उनके छिपे घाव पर चोट करने आया है?

लेकिन महेन्द्र ने आशा के सम्बन्ध में अपनी माँ से कोई शिकायत नहीं की। फिर तो उनकी शंका दूसरी ओर बढ़ी। जिस महेन्द्र के लिए आशा को छोड़कर कॉलेज तक जाना गँवारा न था, वह चाची की खोज-खबर लेने के लिए काशी कैसे आ पहुँचा? तो क्या आशा के प्रति उसका आकर्षण ढीला पड़ रहा है?"

उन्होंने पूछा- "मेरे सिर की कसम महेन्द्र, ठीक-ठीक बताना, चुन्नी कैसी है?"

महेन्द्र बोला- "वह तो ख़ासे मजे में है, चाची!"

"आजकल वह करती क्या है, बेटे! तुम लोग अभी तक वैसे ही बच्चों-जैसे हो या घर-गिरस्ती का भी ध्या न रखते हो अब?"

महेन्द्र ने कहा- "बचपना तो बिल्कुल बन्द है, चाची! सारे झंझटों की जड़ तो किताब थी- चारुपाठ- वह जाने कहाँ गायब हो गई, अब ढूँढ़े भी नहीं मिलती, कहीं।" -"अरे, बिहारी क्या कर रहा है?"

महेन्द्र ने कहा- "अपना जो काम है, उसे छोड़कर वह सब-कुछ कर रहा है। पटवारी-गुमाश्ते उसकी जायदाद की देख-भाल करते हैं। वे क्या देख-भाल करते हैं, खुदा जाने। बिहारी का हमेशा यही हाल रहा। उसका अपना काम दूसरे लोग देखते हैं, दूसरों का काम वह खुद देखता है।'

अन्नपूर्णा ने पूछा- "विवाह नहीं करेगा क्या?"

महेन्द्र ज़रा हँसकर बोला- "कहाँ, ऐसा कुछ तो दिखाई नहीं पड़ता।"

अन्नपूर्णा को अन्तर के गोपन-स्थान में एक चोट-सी लगी।

महेन्द्र ने कभी मज़ाक से, कभी गम्भीर होकर अपनी गिरस्ती का मौजूदा हाल उन्हें सुनाया, केवल विनोदिनी का कोई ज़िक्र उसने नहीं किया।

कॉलेज अभी खुला था। महेन्द्र का ज़्यादा दिन काशी में रहने की गुंजाइश न थी। लेकिन सख्त बीमारी के बाद अच्छी आबोहवा में सेहत सुधारने की जो तृप्ति होती है, काशी में अन्नपूर्णा के पास महेन्द्र को हर रोज़ उसी तृप्ति का अनुभव हो रहा था- लिहाज़ा दिन बीतने लगे। अपने-आप ही से विरोध की जो स्थिति हो गई थी, वह मिट गई। इन कई दिनों तक धर्मप्राण अन्नपूर्णा के साथ रहकर दुनियादारी के फर्ज़ ऐसे सहज और सुख देने वाले लगे कि महेन्द्र को उनके हौआ लगने की पिछली बात हँसी उड़ाने- जैसी लगी। उसे लगा- विनोदिनी कुछ नहीं। यहाँ तक कि उसकी शक्ल भी वह साफ-साफ याद नहीं कर पाता। आखिरकार बड़ी दृढ़ता से महेन्द्र मन-ही-मन बोला- 'आशा को मेरे हृदय से बाल-भर भी खिसका सके, ऐसा तो मैं किसी को, कहीं भी नहीं देख पाता।'

उसने अन्नपूर्णा से कहा- "चाची, मेरे कॉलेज का हर्ज हो रहा है, अब इस बार तो मैं चलूँ! तुम संसार की माया छोड़कर यहाँ आ बसी हो अकेले में, फिर भी अनुमति दो कि बीच-बीच में तुम्हारे चरणों की धूल ले जाया करूँ!"

काशी से लौटकर महेन्द्र ने आशा को जब मौसी के भेजे गए स्नेहोपहार- एक सिन्दूर की डिबिया और सफेद पत्थर का एक लोटा- दिया, तो उसकी ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। मौसी का वह स्नेहमय धीरज और उन पर अपनी तथा सास की फज़ीहतों की बात याद आते ही उसका हृदय व्याकुल हो उठा। उसने महेन्द्र से कहा- "बड़ी इच्छा हो रही है कि एक बार मैं भी काशी जाऊँ और मौसी की क्षमा तथा चरणों की धूल ले आऊँ। क्या यह मुमकिन नहीं?"

महेन्द्र ने आशा के मन की पीड़ा को समझा और इस बात पर राज़ी भी हुआ कि वह कुछ दिनों के लिए अपनी मौसी के पास जाए। लेकिन फिर अपनी पढ़ाई का हर्ज करके खुद उसे काशी ले जाने में उसे हिचक होने लगी।

आशा ने कहा- "मेरी बड़ी चाचीजी तो जल्दी ही काशी जाने वाली हैं। उनके साथ चली जाऊँ तो क्या हर्ज है?"

महेन्द्र ने जाकर राजलक्ष्मी से कहा- "माँ, बहू एक बार चाची से मिलने के लिए काशी जाना चाहती है।"

राजलक्ष्मी ने व्यंग से कहा- "बहू जाना चाहती है, तो ज़रूर जाए। जाओ, उन्हें ले जाओ!"

बिहारी राजलक्ष्मी से मिलने आया, तो वह बोलीं-"अरे, बिहारी, सुना तूने? अपनी बहू काशी जा रही है?"

बिहारी बोला- "कह क्या रही हो माँ, महेन्द्र भैया फिर पढ़ाई हर्ज करके जाएँगे?"

राजलक्ष्मी बोली- "न-न, महेन्द्र क्यों जाएँगे? महेन्द्र यहीं रहेंगे। बहू अपने बड़े चाचा के साथ जाएगी।"

बिहारी भीतर-ही-भीतर परेशान हुआ। वह सोचने लगा, "आखिर माजरा क्या है। महेन्द्र काशी गया तो आशा यहाँ रही और वह लौटा, तो अब आशा काशी जा रही है। दोनों में कुछ ऐसा हुआ है। आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? दोस्त होकर भी हम इसका कोई प्रतिकार नहीं कर सकते- दूर से खड़े-खड़े तमाशा देखते रहेंगे?"

माता के व्यवहार से बड़ा ही कुढ़कर महेन्द्र अपने कमरे में आकर बैठा था। विनोदिनी ने इस बीच महेन्द्र से भेंट नहीं की थी, सो आशा उसे बगल के कमरे से यहाँ ले आने के लिए अनुरोध कर रही थी। ऐसे में बिहारी आया। उसने महेन्द्र से पूछा- "आशा-भाभी का काशी जाना तय हुआ है?"

महेन्द्र बोला- "क्यों न हो, कोई अड़चन है?"

बिहारी बोला- "अड़चन की बात कौन कह रहा है! मगर अचानक तुम्हारे दिमाग में यह आया कैसे?"

महेन्द्र ने कहा- "अपनी मौसी को देखने की इच्छा, परदेस में रहने वाले आत्मीय के लिए व्याकुलता-मानव-चरित्रा में होती है।"

बिहारी ने पूछा- "साथ तुम जा रहे हो?"

पूछते ही महेन्द्र के दिमाग में आया, 'बड़े चाचा के साथ भेजना ठीक नहीं- बिहारी इसी पर बात करने आया है।'- ज़्यादा बोल-चाल से कहीं गुस्सा न फट पड़े, इसीलिए उसने संक्षेप में कहा- "नहीं।" बिहारी महेन्द्र को पहचानता था। वह नाराज है, यह बिहारी से छिपा न था। वह यह भी जानता था कि उसने ज़िद पकड़ ली, तो उसे टस-से-मस नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने फिर उसके जाने का ज़िक्र ही न किया। सोचा- 'बेचारी आशा अगर जी में कोई पीर ही छिपाए जाती हो, तो विनोदिनी के साथ जाने से उसे थोड़ी-सी राहत मिलेगी।' उसने धीरे-से कहा- "उनके साथ विनोद-भाभी जाएँ, तो अच्छा न रहेगा?" महेन्द्र चीख उठा- "बिहारी, अपने मन की बात खोलकर ही कहो! मेरे साथ टेढ़े-टेढ़े चलने की क्या ज़रूरत है? मैं समझ रहा हूँ, तुम्हें शुबहा है कि मैं विनोदिनी को प्यार करता हूँ। ग़लत है। प्यार मैं नहीं करता। मुझे बचाने के लिए पहरा देते फिरने की ज़रूरत नहीं। अपने को सम्हालो!

जहाँ पर काफ़ी दर्द हो, वहाँ अगर कोई बेरहमी के साथ पाँवों से मसल डाले तो चोट खाया हुआ आदमी चोट करने वाले पर जिस तरह बिना कुछ विचारे टूट पड़ना चाहता है- उसी तरह रुद्ध गले से बदरंग पड़ा चेहरा लिये बिहारी कुर्सी से उठकर महेन्द्र की ओर लपका-और, सहसा रुककर किसी तरह बोल पाया- "ईश्वर तुम्हें क्षमा करें, मैं चला।"

लड़खड़ाता हुआ वह कमरे से बाहर निकल गया। बगल के कमरे से विनोदिनी झपटकर आई- "बिहारी बाबू!"

दीवार का सहारा लिए हँसने की कोशिश करते हुए बिहारी ने कहा- "क्या है, विनोद भाभी!"

विनोदिनी बोली- "किरकिरी के साथ मैं भी काशी जाऊँगी।"

बिहारी ने कहा- "नहीं-नहीं भाभी, यह न होगा। मैं आरजू करता हूँ, मेरे कहने से कुछ मत करना। मैं यहाँ का कोई नहीं होता, यहाँ की किसी भी बात में मैं दख़ल नहीं देना चाहता। तुम देवी हो, जो तुम्हें ठीक जँचे, वही करना! मैं चला।"

विनोदिनी को नम्रता से नमस्कार करके बिहारी जाने लगा।

विनोदिनी बोली- "मैं देवी नहीं हूँ भाई साहब, सुनो तो सही। तुम चल दोगे, तो किसी का भला न होगा। फिर मुझे दोष मत देना!"

बिहारी चला गया। महेन्द्र ठगा-सा बैठा रहा।

विनोदिनी बिजली-सी कटाक्ष करती हुई बगल के कमरे में चली गई जहाँ आशा मारे शर्म के मरी-सी जा रही थी। बिहारी उसे प्यार करता है- महेन्द्र के मुँह से ऐसा सुनकर वह मुँह नहीं उठा पा रही थी। लेकिन उस समय उस पर विनोदिनी को दया ना आई। आशा ने अगर निगाह उठाकर देखा होता, तो वह डर जाती। सारे संसार पर मानो ख़ून चढ़ आया था विनोदिनी का झूठ! बेशक विनोदिनी को कोई भी नहीं प्यार करता।

आवेश में वही जो एक बार महेन्द्र के मुँह से निकल पड़ा था कि मैं नालायक़ हूँ, उसके बाद जब वह आवेश जाता रहा तो अपने उस अचानक उबल पड़ने की वहज से बिहारी से वह सकुचा गया था। उसे लग रहा था कि उसकी सारी बातें खुल गई हैं। वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता, फिर भी बिहारी का ख्याल है, प्यार करता है। जो कुढ़न बढ़ रही थी, आज वह अचानक भभक पड़ी।

लेकिन बगल के कमरे से विनोदिनी दौड़ती आई, और उसने बिहारी को रोकने की कोशिश की और बिहारी के कहे मुताबिक़ वह काशी जाने को तैयार हो गई- यह सब महेन्द्र की कल्पना के भी बाहर था। इस दृश्य ने महेन्द्र को एक चोट पहुँचाकर अभिभूत कर दिया। उसने कहा था कि वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता; लेकिन जो कुछ सुना, जो कुछ देखा, उसने उसे चैन न लेने दिया- महेन्द्र ने सोचा, ग़लत, मैं विनोदिनी को प्यार नहीं करता। शायद प्यार न भी करता हूँ, मगर कहना कि नहीं करता हूँ यह तो और भी कठिन है। इससे चोट न पहुँचे, ऐसी स्त्री कौन है? इसके प्रतिवाद की गुंजाइश कैसे हो?

महेन्द्र ने बक्स से निकालकर उसकी तीनों चिट्ठियां को फिर से पढ़ा। वह मन-ही-मन बोला- "इसमें कोई सन्देह नहीं कि विनोदिनी मुझे प्यार करती है। मगर कल वह बिहारी के सामने इस तरह क्यों आई? शायद मुझे दिखाने के ही लिए। मैंने जब साफ़ जता दिया कि मैं उसे प्यार नहीं करता, तो फिर किसी मौके से मेरे सामने प्यार को ठुकराए नहीं तो और क्या करे? हो सकता है, मुझसे इस तरह ठुकराई जाने पर वह बिहारी को प्यार भी करने लगे।"

महेन्द्र को इस तरह क्षोभ बढ़ चला कि अपनी उतावली से वह आप ही अचरज में पड़ गया। डर उठा। और, विनोदिनी ने सुन ही लिया तो क्या कि महेन्द्र उसे प्यार नहीं करता? इसमें दोष भी क्या? ऑंधी आने पर नाव की जंजीर जैसे लंगर को कसकर पकड़ती है, वैसे ही अकुलाहट में महेन्द्र ने आशा को और भी कसकर पकड़ा।

रात को महेन्द्र ने आशा का मुँह अपनी छाती से लगाकर पूछा- "चुन्नी, ठीक बताओ, तुम मुझे कितना प्यार करती हो?"

आशा सोचने लगी- "यह सवाल कैसा! बिहारी के बारे में जो शर्मनाक बात निकली है, क्या उसी से उस पर सन्देह की ऐसी छाया पड़ी?"

वह शर्म से मुई-सी होकर बोली- "छि:, आज यह क्या पूछ रहे हो तुम! तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, साफ़ बताओ, मेरे प्यार में तुम्हें कब क्या कमी दिखाई दी?"

उसे सताकर उसका माधुर्य निचोड़ने की नीयत से महेन्द्र बोला- "फिर तुम काशी क्यों जाना चाहती हो?"

आशा बोली- "मैं नहीं जाना चाहती। कहीं भी नहीं जाऊँगी मैं।"

महेन्द्र- "लेकिन चाहा तो था पहले?"

आशा बहुत दुखी होकर बोली- "तुम्हें पता है, मैंने क्यों चाहा था?"

आशा बोली- "हर्गिज नहीं, मजे से रहने के लिए नहीं जाना चाहती थी मैं।"

महेन्द्र ने कहा- "सच कहूँ चुन्नी, और किसी से विवाह किया होता तो तुम इससे कहीं ज़्यादा सुखी होती।"

सुनते ही चौंककर आशा महेन्द्र से छिटक पड़ी और तकिए में मुँह गाड़कर काठ की मारी-सी पड़ी रही। कुछ ही क्षण में उसकी रुलाई रोके न रुकी। सांत्वना देने के लिए महेन्द्र ने उसे कलेजे से लगाने की कोशिश की, पर आशा तकिए से चिपकी रही। पतिव्रता के ऐसे रूठने से महेन्द्र सुख, गर्व और धिक्कार से क्षुब्ध होने लगा।

विनोदिनी सोचने लगी, 'आखिर ऐसी तोहमत लगाए जाने पर बिहारी ने प्रतिवाद क्यों नहीं किया? उसने झूठा प्रतिवाद भी किया होता, तो मानो विनोदिनी को खुशी होती। ठीक ही हुआ कि महेन्द्र ने बिहारी पर ऐसी चोट की। यह उसका पावना ही था। आखिर बिहारी- जैसा आदमी आशा को प्यार क्यों करेगा? इस चोट ने बिहारी को दूर जो हटा दिया, मानो वह अच्छा ही हुआ'-विनोदिनी निश्चिन्त हो गई। लेकिन मृत्यु-बाण से बिंधे बिहारी का रक्तहीन पीला मुखड़ा विनोदिनी के हर काम में उसके पीछे-पीछे घूमता-सा रहा। विनोदिनी के अन्दर जो एक सेवा पारायण नारी-प्रकृति थी, वह उस कातर चेहरे को देखकर रोने लगी।

दो-तीन दिन तक वह सभी कामों में अनमनी रही। आखिर उससे न रहा गया। उसने एक सान्त्वना पत्र लिखा-

"भाई साहब, तुम्हारा जो सूखा चेहरा देखा, है, तब से मैं हृदय से यही कामना करती हूँ कि तुम भले-चंगे हो जाओ, जैसे तुम थे, वैसे ही हो जाओ- तुम्हारी वह सहज हँसी फिर कब देखूँगी- वह उदार बातें फिर कब सुनूँगी; एक पंक्ति में अपनी कुशल मुझे लिख भेजो!- तुम्हारी विनोदिनी, भाभी।"

दरबान के मार्फत चिट्ठी उसने बिहारी को भेज दी।

बिहारी आशा को प्यार करता है, इस बात को महेन्द्र इस रूखाई और इस बेहयाई से जुबान पर ला सकता है।- बिहारी ने यह कभी स्वप्न में भी न सोचा था। क्योंकि उसने खुद भी कभी ऐसी बात को दिल में जगह न दी थी।

लेकिन बात जब एक बार मुँह से निकल पड़ी, तो एकबारगी मार तो नहीं डाला जा सकता। उसमें सच्चाई का बीज जितना था, देखते-ही-देखते वह अकुराने लगा। अब उसने खुद को कसूरवार समझा। मन-ही-मन बोला- "मेरा गुस्सा करना तो शोभा नहीं देता, महेन्द्र से माफी माँगकर विदा लेनी होगी। उस रोज़ मैं कुछ इस तरह चला आया था, मानो महेन्द्र दोषी है, मैं विचारक हूँ... अपनी यह ग़लती मुझे कबूल करनी पड़ेगी।"

बिहारी समझ रहा था, आशा चली गई है। एक दिन शाम को वह धीरे-धीरे जाकर महेन्द्र के दरवाज़े पर जाकर खड़ा हुआ। राजलक्ष्मी के दूर के रिश्ते के मामा साधुचरण पर नज़र पड़ी। कहा- "कई दिनों से इधर आ नहीं सका-सब कुशल तो है?"

साधुचरण ने कुशल कही। बिहारी ने पूछा- "भाभी काशी कब गईं?"

साधुचरण ने कहा- "कहाँ, गई कहाँ? उनका जाना अब न होगा।"

यह सुनकर बिहारी सब-कुछ भूलकर अन्दर जाने को बेचैन हो उठा। पहले वह जैसे ग्रहण भाव से खुशी-खुशी अपनों-सा परिचित सीढ़ियों से अन्दर जाया करता था, सबसे हँसता-बोलता था, जी में कुछ होता न था, आज उसकी मनाही थी, दुर्लभ था वह- इसकी याद आते ही उसका मन पागल हो गया। बस एक बार, केवल अन्तिम बार इसी तरह अन्दर जाकर परिवार के सदस्य-सा राजलक्ष्मी से घूँघट निकाले आशा- भाभी से दो बातें- मात्र कर आना उसके लिए परम आकांक्षा का विषय बन बैठा।

साधुचरण ने कहा- "अरे, अंधेरे में खड़े क्यों रह गए, अन्दर आओ!"

बिहारी तेज़ी से दो-चार डग की तरफ बढ़ा और मुड़कर बोला- "नहीं, चलूँ मैं, काम है।" और जल्दी से लौट गया।

उसी रात बिहारी पश्चिम की ओर कहीं चला गया।

बिहारी घर पर नहीं मिला- दरबान विनोदिनी की चिट्ठी लेकर लौट आया। महेन्द्र डयोढ़ी के सामने वाले बगीचे में टहल रहा था। उसने पूछा- "किसकी चिट्ठी है?" दरबान ने बताया। महेन्द्र ने उससे चिट्ठी ले ली। एक बार तो जी में आया, चिट्ठी वह विनोदिनी को दे आए- कुछ कहे नहीं, सिर्फ विनोदिनी का लज्जित चेहरा देख आए। उसे इसमें ज़रा भी शक न था कि खत में लज्जा की बात ज़रूर है। याद आया, पहले भी एक बार उसने बिहारी को चिट्ठी भेजी थी। आखिर खत में है क्या, यह जाने बिना मानो उससे रहा ही न गया। उसने अपने- आपको समझाया, 'विनोदिनी उसी की देख-रेख में है, उसके भले-बुरे का वही ज़िम्मेदार है। लिहाज़ा ऐसे सन्देह वाले खत को खोलकर देखना वाज़िब है। विनोदिनी को ग़लत रास्ते पर हर्गिज़ नहीं जाने दिया जा सकता। खोलकर महेन्द्र ने उस छोटी-सी चिट्ठी को पढ़ा। वह सहज भाषा में लिखी थी, इसलिए उसमें मन का सच्चा उद्वेग फूट पड़ा था। महेन्द्र ने उसे बार-बार पढ़ा। खूब सोचा, मगर समझ नहीं सका कि विनोदिनी का झुकाव है किस तरफ। उसे रह-रहकर यही आशंका होने लगी, चूँकि मैंने यह कहकर उसका अपमान किया है कि मैं उसे प्यार नहीं करता, इसीलिए रूठकर वह अपने मन को और तरफ लगाना चाहती है। इसके बाद महेन्द्र के लिए धीरज रखना असम्भव हो उठा। जो लड़की अपने-आपको उसके हाथों सौंप देने के लिए आई थी, वह महज ज़रा-सी ग़लती से उसके कब्जे से निकल जाएगी। यह सोचकर महेन्द्र भीतर-ही-भीतर सुलगने लगी। मन में सोचा, 'विनोदिनी मन-ही-मन अगर तुझे चाहती है, तो उसकी खैर जानो-क्योंकि वह एक जगह बँधी रहेगी। अपने मन का तो मुझे पता है, मैं उस पर कभी जुल्म नहीं कर सकूँगा... वह मुझे निश्चिन्त होकर प्यार कर सकती है। मैं आशा को प्यार करता हूँ, मुझसे उसे कोई ख़तरा नहीं। यदि वह और किसी तरफ खिंची तो क्या अनर्थ होगा, वह कौन जानता है?" महेन्द्र ने निश्चय किया, 'अपने को प्रकट किए बिना किसी-न-किसी तरह फिर से विनोदिनी को अपनी ओर खींचना ही पड़ेगा।'

अन्दर जाते ही महेन्द्र ने देखा, विनोदिनी बीच में ही खड़ी उत्सुकता से किसी का इन्तज़ार कर रही है और महेन्द्र का मन डाह से जल उठा। बोला- "नाहक इन्तज़ार में खड़ी है, भेंट नहीं होने की। यह लीजिए, आपकी चिट्ठी लौट आई।"

कहकर उसने चिट्ठी उसकी ओर फेंक दी।

विनोदिनी बोली- "खुली क्यों?"

महेन्द्र जवाब दिए बिना ही चला गया। 'बिहारी ने चिट्ठी खोलकर पढ़ी और कोई जवाब न देकर चिट्ठी वापस भेज दी' यह सोचकर विनोदिनी की सारी नसें दप-दप करने लगीं। उसने चिट्ठी ले जाने वाले दरबान को बुलवा भेजा। वह और कहीं चला गया था- न मिला। चिराग की कोर से जैसे गरम तेल की बूँदें टपक पड़ती हैं- बन्द कमरे में विनोदिनी की दमकती हुई ऑंखों से ऑंसुओं में टपक गए। उसने अपनी चिट्ठी के टुकड़े कर डाले, फिर भी उसे चैन न मिला। स्याही की उन दो-चार लकीरों को भूत और वर्तमान से पोंछ डालने की, क़तई मनाही कर देने की गुंजाइश क्यों नहीं? गुस्से में आई मधुमक्खी जिस प्रकार हर सामने पड़ने वाले को काट खाती है- उसी प्रकार क्षुब्ध विनोदिनी अपने चारों ओर की दुनिया को जला डालने पर आमादा हो गई। मैं जो भी चाहती हूँ, उसी में रुकावट? किसी बात में कामयाबी नहीं!

25

उस दिन फागुन की पहली बसन्ती बयार बह आई। बड़े दिनों के बाद आशा शाम को छत पर चटाई बिछाकर बैठी। मध्दिम रोशनी में एक मासिक पत्रिका में छपी हुई एक धारावाहिक कहानी पढ़ने लगी। एक जगह जब कहानी का नायक काफ़ी दिनों बाद पूजा की छुट्टी में अपने घर लौट रहा था कि डकैतों के चंगुल में फँस गया। आशा का दिल धड़क उठा। इधर ठीक उसी समय नायिका सपना देखकर रोती हुई जग पड़ी। आशा के ऑंसू रोके न रुके। वह कहानियों की बड़ी उदार समालोचक थी। जो भी कहानी पढ़ती, वह उसे अच्छी लगती। विनोदिनी को बुलाकर कहती, "भई ऑंख की किरकिरी, मेरे सिर की कसम रही, इस कहानी को पढ़ देखना। ऐसी ही है! पढ़कर रोते-रोते बेदम!"

विनोदिनी की अच्छे-बुरे की कसौटी से आशा के उमंग, उत्साह को बड़ी चोट पहुँचती।

महेन्द्र को वह कहानी पढ़ाने का निश्चय करके गीली ऑंखों से उसने पत्रिका बन्द की। इतने में महेन्द्र आ गया। महेन्द्र बोला- "छत पर अकेली किस भाग्यवान को याद कर रही हो?"

आशा नायक-नायिका की बात भूल गई। उनसे पूछा-"आज तुम्हारी तबीयत कुछ ख़राब है क्या?"

महेन्द्र- "नहीं, तबीयत ठीक है।"

आशा- "फिर तुम मन-ही-मन जो कुछ सोच रहे हो मुझे साफ-साफ बताओ।"

आशा के डिब्बे में से एक पान निकालकर खाते हुए महेन्द्र ने कहा- "मैं यह सोच रहा था कि तुम्हारी बेचारी मौसी ने न जाने कब से तुम्हें नहीं देखा। अचानक ही एक दिन तुम वहाँ पहुँच जाओ तो वे कितनी खुश हो जाएँ।"

आशा ने कोई जवाब न दिया। उसकी ओर ताकती रही। वह समझ न सकी कि एकाएक फिर क्यों यह बात महेन्द्र के मन में आई।

आशा को चुप देखकर महेन्द्र ने पूछा- "तुम्हारी जाने की इच्छा नहीं होती क्या?"

इस बात का जवाब देना कठिन था। मौसी से मिलने की इच्छा भी होती है और महेन्द्र को छोड़कर जाने का दिल भी नहीं चाहता। आशा बोली- "कॉलेज की छुट्टियाँ होने पर जब तुम चलोगे तो मैं भी साथ चलूँगी।"

महेन्द्र- "छुट्टियों में भी जाने की गुंजाइश नहीं है। इम्तहान की तैयारी करनी है।"

आशा- "फिर रहने दो। न ही गई तो क्या?"

महेन्द्र- "रहने क्यों दे? तुमने जाना चाहा था, जाओ!"

आशा- "नहीं, मेरी इच्छा जाने की नहीं है।"

महेन्द्र- "अभी-अभी उस दिन तो ऐसी ज़बरदस्त इच्छा थी और अचानक ही वह इच्छा गायब हो गई!"

आशा नज़र झुकाए बैठी रही।

विनोदिनी से सुलह के लिए मौक़ा ढूँढ़ते हुए महेन्द्र का मन भीतर-ही-भीतर अधीर हो उठा था। आशा को चुपचाप देखकर नाहक ही उसे गुस्सा आ गया। बोला-"मुझ पर तुम्हें किसी तरह का शुबहा हुआ है क्या कि ऑंखों की निगरानी में रखना चाहती हो मुझे?" आशा की स्वाभाविक नम्रता, कोमलता और धीरजता महेन्द्र की बर्दाश्त से बाहर हो गया। अपने-आप बोला- "मौसी के यहाँ जाने की इच्छा है।- यह कहो कि मैं जाकर ही रहूँगी, जैसे भी हो। कभी हाँ, तो कभी नहीं, कभी चुप-यह क्या करती रहती हो?"

महेन्द्र की ऐसी रुखाई से आशा अचरज में पड़ी डर गई, लाख कोशिश करने पर भी उसे कोई जवाब न सूझा। यह समझ ही न पाती थी कि क्यों महेन्द्र कभी तो इतना आदर करता है और फिर अचानक बे-रहम-सा बन जाता है। इस तरह आशा के लिए महेन्द्र जितना ही दुर्बोध बनता जाता, आशा उतना ही धड़कते कलेजे से, भय और प्यार से उसे ज़्यादा जकड़ती जाती।

वह महेन्द्र पर शक करे, उसे ऑंखों की निगरानी में रखना चाहती है। यह कोई कठोर उपहास है कि निर्दय सन्देह! कसम खाकर इसका प्रतिवाद करना ज़रूरी है कि उसे हँसकर टाल जाए?

आशा थी और अब भी चुप रहते देखकर अधीर महेन्द्र तेज़ी से उठकर चला गया। फिर कहाँ तो रहा कहानी का नायक और कहाँ गई नायिका। सूर्यास्त की आभा अंधेरे में खो गई, साँझ वाली बसन्ती बयार जाती रही और सर्द हवा चलने लगी। फिर भी आशा उसी चटाई पर लेटी रही।

जब बहुत देर बाद वह कमरे में गई, तो देखा, महेन्द्र ने उसे बुलाया भी नहीं, सो गया है। मन में आया, स्नेहमयी मौसी की तरफ से उसे उदासीन देखकर महेन्द्र मन-ही-मन शायद उससे घृणा करता है। खाट पर जाकर आशा ने उसके दोनों पैर पकड़ लिये। इससे महेन्द्र करुणा से विगलित हो गया और उसने उसे खींच लेने की कोशिश की। लेकिन आशा बिल्कुल न उठी। उसने कहा-"मुझसे कोई कुसूर हुआ हो, तो मुझे माफ करो!"

महेन्द्र ने पिघलकर कहा- "तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है, चुन्नी! मैं ही बड़ा पाखण्डी हूँ, इसलिए नाहक ही मैंने तुम्हें चोट पहुँचाई।"

इस पर आशा की ऑंखें बरसती हुई महेन्द्र के पैरों को भिगोने लगीं। महेन्द्र उठ बैठा। अपनी बाँहों में उसे कसकर पास में सुलाया। रुलाई का वेग कुछ कम हुआ तो आशा बोली- "भला मौसी को देखने जाने को जी नहीं चाहता मेरा? लेकिन तुम्हें छोड़कर जाने का मन नहीं होता। इसी से जाना नहीं चाहती। तुम इससे नाराज़ मत हो।"

आशा के गीले गालों को धीरे-धीरे पोंछते हुए महेन्द्र ने कहा- "भला यह भी कोई नाराज़ होने की बात है? तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकती, इस पर मैं नाराज होऊँ? खैर, तुम्हें कहीं नहीं जाना पड़ेगा।"

आशा ने कहा- "नहीं, मैं काशी ज़रूर जाऊँगी।"

महेन्द्र- "क्यों?" आशा- "मैं तुम पर सन्देह कर रही हूँ इसलिए नहीं जाती- जब यह बात एक बार तुम्हारे मुँह से निकल गई, तो कुछ दिनों के लिए मुझे जाना ही पड़ेगा।"

महेन्द्र- "पाप मैंने किया है और प्रायश्चित तुम्हें करना पड़ेगा?"

आशा- "मैं नहीं जानती- लेकिन कहीं-न-कहीं पाप मुझसे हुआ है, नहीं तो ऐसी बातें उठती ही नहीं। जिन बातों को मैं ख्वाब में भी नहीं सोच सकती, आखिर वे बातें क्यों सुननी पड़ रही हैं।"

महेन्द्र- "इसलिए कि मैं कितना बुरा हूँ, इसका तुम्हें पता नहीं।"

आशा ने परेशान होकर कहा- "फिर! ऐसा न कहो, मगर काशी अब मैं ज़रूर जाऊँगी।"

महेन्द्र ने हँसकर कहा- "तो जाओ! लेकिन तुम्हारी नज़रों की ओट में मैं अगर बिगड़ जाऊँ तो?"

आशा बोली- "इतना डराने की ज़रूरत नहीं... मानों मैं इस विचार में ही घबरा रही हूँ।"

महेन्द्र- "लेकिन सोचना चाहिए। लापरवाही से अपने ऐसे स्वामी को अगर तुम बिगाड़ दो, तो दोष किसे दोगी?"

आशा- "दोष कम-से-कम तुम्हें न दूँगी, बेफिक्र रहो!"

महेन्द्र- "ऐसे में अपना दोष मान लोगी?"

आशा- "हज़ार बार मान लूँगी।"

महेन्द्र- "ठीक है। तो कल मैं तुम्हारे बड़े चाचाजी से मिलकर सब तय कर आऊँगा।"

और महेन्द्र ने कहा, "रात बहुत हो गई।" करवट बदलकर वह सो गया।

ज़रा देर बाद फिर इधर पलटकर अचानक कह उठा-"चुन्नी, रहने भी दो। न भी जाओगी तो क्या हो जाएगा?"

आशा बोली- "फिर मनाही क्यों? अब अगर एक बार मैं जा न पाई, तो मेरे बदन से तुम्हारी वह झिड़की हमेशा लगी रहेगी। दो ही चार दिन के लिए सही, मुझे भेज दो!"

महेन्द्र बोला- "अच्छा।"

वह फिर करवट बदलकर सो गया।

काशी जाने से एक दिन पहले आशा ने विनोदिनी के गले से लिपटकर कहा- "भई किरकिरी, मेरा बदन छूकर एक बात बताओ!"

विनोदिनी ने आशा का गाल दबा दिया। कहा- "कौन-सी?"

आशा- "पता नहीं आजकल। तुम कैसी तो हो गई हो। मेरे पति के सामने तुम निकलना ही नहीं चाहतीं।"

विनोदिनी- "क्यों नहीं चाहती, यह क्या तू नहीं जानती? उस दिन महेन्द्र बाबू ने बिहारी बाबू से जो कुछ कहा, तूने अपने कानों नहीं सुना? जब ऐसी बातें होने लगीं, तो फिर कमरे में क्या निकलना!"

'ठीक नहीं है'- आशा यह समझ रही थी और ये बातें कैसी शर्मनाक हैं, फिलहाल उसने अपने मन से यह भी समझा है। तो भी बोली- "बातें तो ऐसी जाने कितनी उठती हैं, उन्हें अगर बर्दाश्त नहीं कर सकती तो फिर प्यार क्या! तुम्हें यह सब भूलना पड़ेगा!"

विनोदिनी- "ठीक है, भूल जाऊँगी।"

आशा- "मैं कल काशी जा रही हूँ। तुम्हें इसका ख्याल रखना होगा कि उन्हें कोई तकलीफ न हो। जैसे भागती-फिरती हो, ऐसा करने से न चलेगा।"

विनोदिनी चुप रही। उसकी हथेली दबाकर आशा ने कहा- "मेरे सिर की कसम, वह वचन तो तुम्हें देना ही पड़ेगा।"

विनोदिनी बोली- "अच्छा।"

टीका टिप्पणी और संदर्भ


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