आँख की किरकिरी उपन्यास भाग-2

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आशा को डर लगा। क्या हुआ यह? माँ चली गईं, मौसी चली गईं। उन दोनों का सुख मानो सबको खल रहा है, अब उसकी बारी है शायद। सूने घर में दाम्पत्य की नई प्रेम-लीला उसे न जाने कैसी लगने लगी। संसार के कठोर कर्तव्यों से प्रेम को फूल के समान तोड़कर अलग कर लेने पर यह अपने ही रस से अपने को संजीवित नहीं रख पाता, धीरे-धीरे मुरझाकर विकृत हो जाता है। आशा को भी ऐसा लगने लगा कि उनके अथक मिलन में एक थकान और कमज़ोरी है। वह मिलन रह-रहकर मानो शिथिल हो जाता है- प्रेम की जड़ अगर कामों में न हो तो भोग का विकास पूर्ण और स्थाई नहीं होता। महेन्द्र ने भी अपने विमुख संसार के ख़िलाफ़ विद्रोह करके अपने प्रेमोत्सव के सभी दीपों को एक साथ जलाकर बड़ी धूम-धाम से सूने घर के अमंगल में ही उसने आशा से कहा- "तुम्हें इन दिनों हो क्या गया है, चुन्नी! मौसी चली गईं तो इस तरह मुँह लटकाए क्या रहती हो? हम दोनों के प्रेम में क्या सभी प्रेम समाए हुए नहीं हैं।"

आशा दुखी होकर सोचती- 'अपने प्रेम में कोई अपूर्णता तो है। मैं तो मौसी की बात सोचा करती हूँ। सास चली गई हैं, इसका मुझे डर लगता है।'

घर के काम-काज अब ठीक से नहीं चलते। नौकर-चाकर कन्नी काटने लगे। 'तबीयत ख़राब है' कहकर नौकरानी एक दिन नहीं आई- रसोई पकाने वाला ब्राह्मण शराब पीकर गायब हो गया। महेन्द्र ने आशा से कहा-"खूब मजा आया, आज हम लोग खुद ही रसोई बनाए।"

गाड़ी से महेन्द्र न्यू मार्केट गया। कौन-सी चीज़ कितनी चाहिए, इसका उसे कुछ भी पता न था, बहुत-सा सामान उठाकर खुशी-खुशी घर लौटा। उन चीजों का किया क्या जाए, यह आशा भी ठीक से न जानती थी। प्रयोग में ही दिन के दो-तीन बज गए और बहुत-से अजीबो-गरीब खाना तैयार करके महेन्द्र को बड़ा मजा आया। लेकिन आशा महेन्द्र के उस मजे में साथ न दे सकी। अपनी अज्ञता पर उसे मन-ही-मन बड़ी लज्जा और कुढ़न हुई।

कमरे की चीज़ें इस क़दर बिखर गई थीं कि ज़रूरत पर कुछ पाना ही कठिन था। महेन्द्र की डॉक्टरी वाली छुरी एक दिन तरकारी काटने के काम आई और कूड़ों के ढेर में जा छिपी; जिस पर वह नोट लिखा करता था, वह कापी पंखे का काम करके अन्त में रसोई की राख में आराम करने लगी।

इन अनहोनी घटनाओं से महेन्द्र के कौतूहल की सीमा न रही, लेकिन आशा को इससे तकलीफ होने लगी। बे-तरतीबी के बहाव में सारी गृहस्थी को बहाकर हँसते हुए उसी के साथ बहते चलना उस बालिका को विभीषिका जैसा लगा।

एक दिन शाम को दोनों बरामदे में बैठे थे। सामने खुली छत। बारिश खुल जाने से कलकत्ता की दूर तक फैली इमारतों की चोटियाँ चाँदनी में नहा रही थीं। बगीचे से मौलसिरी के बहुत-से ओदे फूल लाकर आशा माथा झुकाए माला गूँथ रही थी। महेन्द्र खींचातानी करके, रुकावट डालकर, उल्टा-सीधा सुनाकर नाहक ही झगड़ा करना चाह रहा था। बे-वजह इस तरह सताए जाने के कारण आशा उसे झिड़कना चाहती थी कि किसी बनावटी उपाय से उसका मुँह दबाकर महेन्द्र उसकी कहन को अकुराते ही कुचल रहा था।

किसी पड़ोसी के पिंजरे की कोयलिया कूक उठी। महेन्द्र ने उसी दम अपने सिर पर झूलते हुए पिंजरे को देखा। अपनी कोयल पड़ोसी की कोयल की बोली चुपचाप कभी नहीं सह सकती- आज वह चुप क्यों है? महेन्द्र ने कहा- "तुम्हारी आवाज़ से लजा गई है।"

उत्कण्ठित होकर आशा ने कहा- "आज इसे हो क्या गया।"

आशा ने निहोरा करके कहा- "मजाक नहीं, देखो न, उसे क्या हुआ है?"

महेन्द्र ने पिंजरे को उतारा। पिंजरे पर लिपटे हुए कपड़ों को हटाया। देखा, कोयल मरी पड़ी थी। अन्नपूर्णा के जाने के बाद खानसामा छुट्टी पर चला गया था। कोयल का किसी ने ख्याल ही न किया था। देखते-ही-देखते आशा का चेहरा फीका पड़ गया। उसकी अगुलियाँ चल न सकीं- फूल यों ही पड़े रह गए। चोट तो महेन्द्र को भी लगी, लेकिन नाहक ही रस-भंग होगा, इसलिए उसने इसे हँसकर टाल जाने की कोशिश की। बोला- "अच्छा ही हुआ। मैं इधर डॉक्टरी को निकलता और उधर यह कमबख्त 'कू-कू' करके तुम्हें जलाया करती थी।" कहकर अपने बाहु-पाश में लपेटकर उसने आशा को अपने पास खींच लेना चाहा। अपने को धीरे-धीरे उसके बन्धन से छुड़ाकर आशा ने ऑंचल से मौलसिरी के सब फूल गिरा दिए। बोली- "छि:-छि: अब देर क्यों? जल्दी जाकर माँ को ले आओ!"

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इतने में दुतल्ले से 'महेन्द्र भैया' की पुकार सुनाई पड़ी। "अरे रे, आओ- आओ..." महेन्द्र ने जवाब दिया। बिहारी की आवाज़ से उसका हृदय खिल उठा। विवाह के बाद वह इन दोनों के सुख का बाधक बनकर कभी-कभी आता रहा है, आज वही बाधा सुख के लिए निहायत ज़रूरी लगी। बिहारी का आना आशा को भी अच्छा लगा। वह जरा घूँघट खींचकर जल्दी से उठ बैठी। महेन्द्र बोला-"अरे, जा कहाँ रही हो, और कोई नहीं, बिहारी आ रहा है।" आशा ने कहा- "भाई साहब के लिए नाश्ता ले आऊँ?"

एक काम का मौक़ा आ गया, इससे आशा का अवसाद कुछ हल्का हो गया।

सास की कुशल के लिए घूँघट काढ़े वह खड़ी रही। बिहारी से अभी भी वह बोलती-चालती नहीं।

अन्दर क़दम रखते ही बिहारी ने कहा- "तौबा-तौबा! कैसे कवित्व के बीच आ टपका मैं! खैर फ़िक्र न करो भाभी, मैं बैरंग वापस जाता हूँ।"

आशा ने महेन्द्र की तरफ ताका। महेन्द्र ने पूछा- "माँ की क्या खबर है, बिहारी?"

बिहारी बोला- "माँ और चाची की चर्चा अभी क्यों भाई, काफ़ी समय है।"

सच ए नाइट वाज नाट मेड फार मदर्स एंड आंट्स।

कहकर बिहारी लौट पड़ा। महेन्द्र ने उसे जबर्दस्ती खींचकर बिठा दिया। बिहारी ने कहा- "देख लो भाभी, कसूर मेरा नहीं है- यह मुझे जबरन खींच लाया है- पाप इसने किया है, अभिशाप मुझ पर न पड़े।" आशा से कोई जवाब देते नहीं बनता, इसलिए ऐसी बातों से वह खीझ उठती है। बिहारी जानकर उसे तंग करता है।

बिहारी ने कहा- "घर की हालत ऑंखों से देख रहा हूँ- अब भी क्या माँ को लाने का वक्त नहीं आया?"

महेन्द्र ने कहा- "बेशक! हम तो उन्हीं की राह देख रहे हैं।'

बिहारी ने कहा- "यही जताते हुए उन्हें पत्र लिखने में तुम्हें नाम का समय लगेगा, लेकिन उनकी खुशी का अन्त न रहेगा। भाभी, उन दो मिनटों के लिए महेन्द्र भैया को तुम्हें फुरसत देनी पड़ेगी, मेरी दरखास्त रही।"

आशा बिगड़कर चली गई। उसकी ऑंखों से ऑंसू बहने लगे।

महेन्द्र बोला- "जाने किस शुभ घड़ी में तुम दोनों की भेंट हुई थी- आखिर सुलह नहीं ही हो सकी- वही खट-पट।"

बिहारी ने कहा- "तुम्हें तुम्हारी माँ ने तो बर्बाद किया ही, पत्नी भी बर्बाद करने पर तुली है। यही मुझसे नहीं देखा जाता, इसी से जब-तब कुछ कह देता हूँ।"

महेन्द्र- "मगर नतीजा क्या होता है उसका?"

बिहारी- "नतीजा तुम्हारे लिए कुछ ख़ास नहीं होता, मेरे लिए थोड़ा-बहुत होता है।"

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बिहारी ने खुद बैठकर महेन्द्र से चिट्ठी लिखवाई और उस पत्र के साथ दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को लेने गया। राजलक्ष्मी समझ गई, चिट्ठी बिहारी ने लिखवाई है- मगर फिर भी उससे रहा न गया। साथ-साथ विनोदिनी आई।

लौटकर उन्होंने घर की जो बदतर हालत देखी- तमाम यों ही गन्दा पड़ा, तितर-बितर- इसलिए बहू के प्रति उनका मन और भी ख़राब हो गया।

लेकिन बहू में यह कैसा परिवर्तन! वह छाया-सी उनके पीछे डोलती-फिरती। कहें, न कहें, हरदम हर काम में हाथ बँटाने को मुस्तैद। आज़िज आकर वह कह उठतीं- "छोड़ो-छोड़ो, मिट्टी पलीद करके रख दोगी तुम! जो काम आता नहीं, उसमें हाथ क्या डालना?"

राजलक्ष्मी के जी में आया, 'हो न हो, अन्नपूर्णा के चले जाने से ही बहू की यह तरक़्क़ी हुई है।' लेकिन फिर मन में आया, 'महेन्द्र सोचेगा, चाची थीं तो मैं बीवी के साथ निष्कंटक मौज करता था और माँ का पहुँचना था कि विरह का दु:ख शुरू हो गया। इससे यही साबित होगा कि चाची उसकी शुभैषी रहीं, माँ सुख का काँटा है। रहने दो, अपने को क्या पड़ी?"

इधर कहीं महेन्द्र दिन को बुला भेजता तो बहू जाने में आनाकानी करती। राजलक्ष्मी ही झिड़का करतीं-"महेन्द्र बुला रहा है, तुम टाल जाती हो! ज़्यादा दुलार पाने का यही नतीजा होता है। जाओ, सब्जियाँ मैं देख लूँगी।"

फिर शुरू होता वही स्लेट-पेंसिल और 'चारुपाठ' का झूठ नाटक। प्रेम के अकारण अभियोग से एक-दूसरे को दोषी ठहराना- किसका प्रेम ज़्यादा वज़नी है, इस पर निरर्थक वाद-विवाद। वर्षा के दिन को रात और चाँदनी रात को दिन बनाना।

ऐसे में एक विनोदिनी आशा के गले से लिपटकर बोली- "बहन, तुम्हारा सौभाग्य अक्षय हो... जुग-जुग! लेकिन चूँकि मैं दुखिया हूँ, इसलिए क्या मेरी तरफ एक नज़र ताकना भी गुनाह है?"

छुटपन से ही अपने आत्मीय के यहाँ पराई-सी पली थी, इसलिए लोगों के सामने आशा सदा संकुचित रहा करती। जुड़ी भौंहें और तीखी निगाह, अनिंद्य मुखड़ा और भरी हुई जवानी लिये जब विनोदिनी आई, तो खुद बढ़कर उससे परिचय करने की हिम्मत आशा की न हुई।

आशा ने गौर किया, राजलक्ष्मी से विनोदिनी को किसी भी तरह का संकोच नहीं। और मानो आशा को दिखा-दिखाकर राजलक्ष्मी भी उसका काफ़ी आदर करतीं। यह भी देखा, घर के कामकाज में विनोदिनी पटु है, प्रभुत्व मानो उसके लिए बहुत ही सहज है, स्वभाव-सिद्ध नौकर-नौकरानियों से काम लेने, झिड़कने-फटकारने और हुक्म देने में उसे ज़रा सी हिचक नहीं होती। यह सब देख-भालकर विनोदिनी के आगे आशा अपने को बहुत छोटा समझने लगी।

वही सर्वगुण संपन्न विनोदिनी जब खुद उससे नेह की भीख माँगने आई, तो उसका आनन्द चौगुना हो उमड़ पड़ा। जादूगर के माया-तरु की तरह उसके प्रेम का बीज एक ही दिन में अकुराया, पत्तों से लद गया और फल-फूल उठा।

आशा ने कहा- "हम-तुम सखिया हुईं, एक कोई नाम रख छोड़ें हम अपना।"

विनोदिनी ने हँसकर पूछा- "क्या आखिर?"

आशा ने बहुत-से अच्छे-अच्छे नाम गिनाए-"हरसिंगार, कदम्ब, मौलसिरी"

विनोदिनी बोली- "ये सारे-के-सारे बड़े पुराने पड़ गए। इन दुलार के नामों की कोई कद्र नहीं।"

आशा ने पूछा- "फिर तुम्हें कौन-सा पसन्द है?"

हँसकर विनोदिनी ने कहा- "ऑंख की किरकिरी।"

आशा कोई मीठा-सा नाम ही चाहती थी, लेकिन विनोदिनी की पसन्द से उसने दुलार की इस गाली को ही कबूल कर लिया। बाँहों से उसकी गर्दन लपेटकर बोली-"मेरी ऑंख की किरकिरी!" और हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई।

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आशा को एक साथी की बड़ी ज़रूरत थी। प्यार का त्योहार भी महज दो आदमियों से नहीं मनता- मीठी बातों की मिठाई बाँटने के लिए गैरों की भी ज़रूरत पड़ती है।

भूखी-प्यासी विनोदिनी भी नई बहू से प्रेम के इतिहास को शराबी की दहकती हुई सुरा के समान कान फैलाकर पीने लगी। सूनी दोपहरी में माँ जब सोती होतीं, घर के नौकर-चाकर निचले तल्ले के आरामगाह में छिप जाते, बिहारी की ताकीद से महेन्द्र कुछ देर के लिए कॉलेज गया होता और धूप से तपी नीलिमा के एक छोर से चील की तीखी आवाज़ बहुत धीमी सुनाई देती, तो कमरे के फर्श पर अपने बालों को तकिए पर बिखेरे आशा लेट जाती और पेट के नीचे तकिया रखकर पट पड़ी विनोदिनी उसकी गुन-गुन स्वर से कही जाने वाली कहानी में तन्मय हो जाती- उसकी कनपटी लाल हो उठती, साँस ज़ोर-ज़ोर से चलने लगती।

विनोदिनी खोद-खोदकर पूछती और छोटी-से-छोटी बात भी निकाल लेती, एक ही बात कई बार सुनती-घटना खत्म हो जाती तो कल्पना करती; कहती- "अच्छा बहन, कहीं ऐसा होता तो क्या होता और यह होता तो क्या करती?" इन अनहोनी कल्पनाओं की राह में सुख की बातों को खींचकर दूर तक ले जाना आशा को भी अच्छा लगता।

विनोदिनी कहती- "अच्छा भई ऑंख की किरकिरी, तुझसे कहीं बिहारी बाबू का ब्याह हुआ होता तो?"

आशा- "राम-राम, ऐसा न कहो! बड़ी शर्म आती है मुझे। हाँ, तुम्हारे साथ होता तो क्या कहने! चर्चा तो तुमसे होने की भी चली थी।"

विनोदिनी- "मुझसे तो जाने कितनों की, कितनी ही बातें चलीं। न हुआ, ठीक ही हुआ। मैं जैसी हूँ, ठीक हूँ।"

आशा प्रतिवाद करती। वह भला यह कैसे कबूल कर ले कि विनोदिनी की अवस्था उससे अच्छी है। उसने कहा- "ज़रा यह तो सोच देखो, अगर मेरे पति से तुम्हारा ब्याह हो जाता! होते-होते ही तो रह गया।" होते-होते ही रह गया। क्यों नहीं हुआ? आशा का यह बिस्तर, यह पलंग सभी तो उसी का इन्तज़ार कर रहे थे। उस सजे-सजाए शयन-कक्ष को विनोदिनी देखती और इस बात को किसी भी तरह न भुला पाती। इस घर की वह महज़ एक मेहमान है- आज उसे जगह मिली है, कल छोड़ जाना होगा।

तीसरे पहर विनोदिनी खुद अपनी अनूठी कुशलता से आशा का जूड़ा बाँध देती और जतन से श्रृंगार करके उसके पति के पास भेजा करती।

इस तरह खामखाह देर कर देना चाहती।

नाराज़ होकर महेन्द्र कहता, "तुम्हारी यह सहेली तो टस-से-मस नहीं होना चाहतीं- घर कब जाएँगी?"

उतावली हो आशा कहती, "न-न, मेरी ऑंख की किरकिरी पर तुम नाराज क्यों हो। तुम्हें पता नहीं, तुम्हारी चर्चा उसे कितनी अच्छी लगती है- किस जतन से वह सजा-सँवारकर मुझे तुम्हारे पास भेजा करती है।" राजलक्ष्मी आशा को कुछ करने-धरने न देतीं। विनोदिनी ने उसकी तरफदारी की, और उसे काम में जुटाया। विनोदिनी को आलस जरा भी नहीं था। दिन-भर एक-सी काम में लगी। आशा को वह छुट्टी नहीं देना चाहती। एक के बाद दूसरा, वह कामों का कुछ ऐसा क्रम बनाती कि आशा के लिए ज़रा भी चैन पाना गैरमुमकिन था। आशा का पति छत वाले सूने कमरे में बैठा चिढ़ के मारे छटपटा रहा है- यह सोचकर विनोदिनी मन-ही-मन हँसती रहती। आशा अकुलाकर कहती, "भई ऑंख की किरकिरी, अब इजाज़त दो, वह नाराज़ हो जाएँगे।"

झट विनोदिनी कहती, "बस, ज़रा-सा। इसे खत्म करके चली जाओ! ज़्यादा देर न होगी।" ज़रा देर में आशा फिर उद्विग्न होकर कहती- "न बहन, अब वह सचमुच ही नाराज़ होंगे। मुझे छोड़ दो, चलूँ मैं।" विनोदिनी कहती, "ज़रा नाराज़ ही हुए तो क्या। सुहाग में गुस्सा न मिले तो मुहब्बत में स्वाद नहीं मिलता- जैसे सब्ज़ी में नमक-मिर्च के बिना।"

लेकिन नमक-मिर्च का मजा क्या होता है, यह विनोदिनी ही समझ रही थी- न न थी सिर्फ उसके पास सब्ज़ी। उसकी नस-नस में मानो आग लग गई। जिधर भी नज़र करती, चिनगारियाँ उगलती उसकी ऑंखें। ऐसी आराम की गिरस्ती! ऐसे सुहाग के स्वामी! इस घर को तो मैं राजा की रिसायत, इस स्वामी को अपने चरणों का दास बनाकर रखतीं। (आशा को गले लगाकर) "भई ऑंख की किरकिरी, मुझे बताओ न, कल तुम लोगों में क्या बातें हुईं। तुमने वह कहा था, जो मैंने करने को कहा था? तुम लोगों के प्यार की बातें सुनकर मेरी भूख-प्यास जाती रहती है।"

12

एक दिन आखिर आजिज़ आकर महेन्द्र ने माँ से कहा-"यह अच्छी बात है, माँ? दूसरे के घर की एक जवान विधवा को घर रखकर एक भारी ज़िम्मेदारी कन्धे पर लाद लेने की क्या पड़ी है? जाने कब क्या मुसीबत हो?"

राजलक्ष्मी ने कहा- "अरे, यह तो अपने विपिन की बहू है, इसे मैं बिरानी थोड़े ही समझती हूँ।"

महेन्द्र ने कहा- "जो कहो, लेकिन यह अच्छा नहीं है। मेरी राय में इसे रखना ठीक नहीं।"

राजलक्ष्मी खूब जानती थीं कि महेन्द्र की राय को ठुकराना आसान नहीं। इसलिए उन्होंने बिहारी से कहा-"अरे बिहारी, तू एक बार महेन्द्र को समझाकर देख! यह विपिन की बहू जब से यहाँ है, तभी से इस बुढ़ापे में मुझे थोड़ा आराम मिला है। वह पराई हो या जो हो, किसी से कभी ऐसी सेवा नहीं मिली।"

बिहारी ने कोई जवाब न दिया। वह जाकर महेन्द्र से बोला, "यार, विनोदिनी की भी सोचते हो?"

महेन्द्र ने हँसकर कहा- "सोचकर रात की नींद हराम है। अपनी भाभी से पूछ देखो, विनोदिनी के ध्यारन से इन दिनों और सब ध्यामन टूट गया है।"

घूँघट की आड़ से आशा ने महेन्द्र को चुपचाप धमकाया। बिहारी ने कहा- "अच्छा, दूसरा विषवृक्ष!" चुन्नी उसे यहाँ से निकाल बाहर करने को छटपटा रही है।

घूँघट से आशा की ऑंखों ने फिर उसे झिड़का।

बिहारी ने कहा- "निकाल ही बाहर करो तो लौट आने में कितनी देर लगती है! अरे, विधवा का विवाह रचा दो, विष के दाँत एकबारगी टूट जाएँगे।"

महेन्द्र बोला- "विवाह तो कुन्द का भी कर दिया गया था।"

बिहारी ने कहा- "इस उपमा को अभी छोड़ो! विनोदिनी की बात कभी-कभी मैं सोचा करता हूँ। तुम्हारे यहाँ तो ज़िन्दगी-भर यह रह नहीं सकती और इनके यहाँ का जंगल किसी के लिए भी वनवास है।" विनोदिनी आज तक महेन्द्र के सामने नहीं गई, पर बिहारी ने उसको देखा है। उसने सिर्फ इतना समझा है कि यह स्त्री जंगल में छोड़ने लायक़ नहीं है। लेकिन शिखर घर के दिए में एक तरह से जलती है, और दूसरी तरह वह घर को आग भी लगा देती है। महेन्द्र के मन में यह शंका भी थी।

महेन्द्र ने इस बात पर बिहारी की खूब खिल्ली उड़ाई। बिहारी ने भी इसका जवाब दिया। लेकिन उसके मन ने समझा था कि यह स्त्री खिलवाड़ करने की नहीं, उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। राजलक्ष्मी ने विनोदिनी को सावधान कर दिया। कहा- "देखना बेटी, बहू से इतनी मिठास न रखना! तुम गाँव-घर से गृहस्थ के यहाँ रही हो- आजकल के चाल-चलन को नहीं जानतीं। बुध्दिमती हो, समझ-बूझकर चलना!"

इसके बाद विनोदिनी ने आशा को दूर-ही-दूर रखा। कहा- "मैं भई होती कौन हूँ! मेरी जैसी स्त्री से अगर आप अपनी इज्जत बचाकर चलना नहीं चाहते तो कब क्या हो जाएगा, कौन कह सकता है?" आशा निहोरे-विनती करती, गिड़गिड़ाती, रोती-पीटती, लेकिन विनोदिनी एकदम अडिग। बातों से आशा आकण्ठ भर उठी, मगर विनोदिनी ने तरजीह न दी।

इधर महेन्द्र के बाजू शिथिल हो गए। जो अनियम और उच्छृंखलता पहले उसे कौतुक-सी लगती थी, वही अब धीरे-धीरे उसे दुखाने लगी। आशा की सांसारिक अपटुता से उसे खीझ होती, लेकिन जबान खोलकर कहता नहीं।

प्यार की जलती हुई सेज पर ऑंख खोलकर धीरे-धीरे घर-गृहस्थी के धन्धों, लिखाई-पढ़ाई में ध्यालन देकर महेन्द्र ने करवट बदली। अपनी चिकित्सा-सम्बन्धी किताबों का उसने जाने कहाँ-कहाँ से उद्धार किया और अपने कोट-पतलून को धूप दिखाने की चेष्टा की।

13

विनोदिनी जब बिल्कुल ही पकड़ में न आई, तो आशा को एक तरकीब सूझी। बोली, "भई ऑंख की किरकिरी, तुम मेरे पति के सामने क्यों नहीं आती, भागती क्यों फिरती हो?" विनोदिनी ने बड़े संक्षेप में लेकिन तेज़ स्वर में कहा- "छि:!"

आशा बोली- "क्यों? माँ से मुझे पता चला है, तुम हम लोगों की गैर नहीं हो।"

गम्भीर होकर विनोदिनी ने कहा- "संसार में अपना-पराया कोई नहीं होता। जो अपना मानता है, वही अपना है और जो पराया समझता है, वह अपना होते हुए भी पराया है।"

आशा ने देखा, यह बात लाजवाब है। वास्तव में उसके पति विनोदिनी के साथ ज्यादती करते हैं, सचमुच उसे गैर समझते हैं और नाहक ही उससे खीझा करते हैं।

उस दिन साँझ को आशा ने बड़े नाज़ो-अंदाज़से पति के सामने छेड़ा- "तुम्हें मेरी ऑंख की किरकिरी से परिचय करना पड़ेगा।"

महेन्द्र हँसकर बोला, "तुम्हारे साहस की बलिहारी!"

आशा ने पूछा- "क्यों, इसमें डर किस बात का?"

महेन्द्र- "अपनी सखी की जिस गज़ब की ख़ूबसूरती का ज़िक्र किया करती हो वह तो खतरे से ख़ाली नहीं।"

आशा ने कहा- "खैर, वह मैं देख लूँगी। तुम उससे बोलोगे या नहीं, इतना बता दो।"

विनोदिनी को देखने का कौतूहल महेन्द्र को भी था। फिर भी यह आग्रह उसे ठीक नहीं लग रहा था।

हृदय के नाते के बारे में महेन्द्र के उचित-अनुचित का आदर्श औरों की अपेक्षा कुछ कड़ा था। इसके पहले वह विवाह की बात नहीं सुनना चाहता था, इसलिए कि कहीं माँ के अधिकार पर ऑंच न आए। और अब आशा के सम्बन्ध की रक्षा वह इस तरह से करना चाहता कि किसी पराई औरत के लिए मन में ज़रा-सी कौतूहल न पैदा हो। प्यार के मामले में वह बड़ा वैसा-सा है, लेकिन पक्का- इस बात का उसे मन-ही-मन नाज़ भी था। यहाँ तक कि वह चूँकि बिहारी को अपना दोस्त कहता, इसलिए दूसरे किसी को भी वह मित्र नहीं मानना चाहता। कोई उसकी ओर खिंचकर आता भी तो वह ज़बर्दस्ती उसकी ओर से लापरवाही दिखाता और बिहारी के सामने उस बेचारे का मज़ाक उड़ाते हुए अपनी उदासी ज़ाहिर करता। बिहारी कहीं एतराज करता तो महेन्द्र कहता, "यह तुमसे हो सकता है। कहीं भी जाते हो, तुम्हें मित्रों की कमी नहीं रहती मगर मैं हर किसी को मित्र नहीं मान सकता।"

ऐसे महेन्द्र का मन जब इधर एक अपरिचिता की ओर कौतूहल और व्यग्रता से बरबस खिंच जाया करता, तो अपने आदर्श के आगे वह नीचा हो जाता। सो वह विनोदिनी को घर से हटाने के लिए अपनी माँ को तंग करने लगा।

महेन्द्र ने कहा- "रहने भी दो चुन्नी, तुम्हारी किरकिरी से गप-शप की फुर्सत कहाँ है अपने पास? पढ़ने के वक्त किताबों से नाता और फुर्सत की घड़ियों के लिए तुम हो- इस बीच...!" दोनों के बीच में विनोदिनी के लिए सुई की नोक-भर भी जगह छोड़ने को महेन्द्र तैयार नहीं था, यह बात उसके गर्व का विषय बन बैठी। उसका वह गर्व आशा से सहा नहीं जाता, पर आज उसने हार कबूल कर ली। कहा- "खैर, मेरी ही खातिर तुम मेरी किरकिरी से बोलो!"

आशा के आगे अपने प्रेम की दृढ़ता और श्रेष्ठता प्रमाणित करके अन्त में बड़ी कृपा करके वह विनोदिनी से बात करने को राज़ी हुआ।

दूसरे दिन सुबह आशा गई और सोई हुई विनोदिनी से लिपट गई। विनोदिनी बोली- "यह कैसा गज़ब! चकोरी आज चाँद छोड़कर मेघ के दरबार में?"

आशा ने कहा- "तुम लोगों की यह कविता मेरी समझ में नहीं आती, फिर गषेबर में नाहक घी क्या डालना! जो इन बातों का जवाब दे सकता है, चलकर एक बार उसे सुनाओ!"

विनोदिनी ने पूछा- "आखिर वह रसिक है कौन?"

आशा ने कहा- "तुम्हारे देवर- मेरे पति। मज़ाक नहीं, तुमसे बातें करने के लिए वह मुझे परेशान कर रहे हैं।"

विनोदिनी अपने मन में बोली- 'बीवी के हुक्म से मेरी बुलाहट हुई है और मैं सिर पर पाँव रखकर भागी जाऊँगी- ऐसी समझा है मुझे!'

विनोदिनी किसी भी तरह तैयार न हुई। आशा पति के सामने बड़ी लज्जिु‍त हुई।

मन-ही-मन महेन्द्र इस पर बड़ा नाराज हुआ, "मेरे सामने आने में एतराज! मुझे दूसरे मामूली लोगों-सा समझती हैं? और कोई होता तो जाने कब, कितने बहानों से विनोदिनी से मिलता, बोलता-चालता। लेकिन महेन्द्र ने इसकी कभी कोशिश तक न की, इसी से विनोदिनी को क्या मेरा परिचय नहीं मिला? वह एक बार भली तरह जान लेती तो समझ जाती कि मुझमें और दूसरे किसी पुरुष में क्या फ़र्क़ है।"

दो दिन पहले विनोदिनी भी कुढ़न से बोली थी, "इतने दिनों से इस घर में हूँ और महेन्द्र एक बार मुझे देखने की कोशिश भी नहीं करता! बुआ के कमरे में होती हूँ तब भी वह किसी बहाने अपनी माँ के पास नहीं आता। ऐसी लापरवाही किस बात की। मैं कोई जड़ पदार्थ हूँ! मैं आदमी नहीं... स्त्री नहीं! कहीं वह मुझे जान पाता तो पता चलता कि उसकी प्यारी चुन्नी और मुझमें क्या फ़र्क़ है!"

आशा ने तरकीब सुझाई- "तुम कॉलेज गए हो, यह कहकर मैं उसे अपने कमरे में ले आऊँगी कि अचानक बाहर से तुम आ जाना! बस, कोई बस न चलेगा।"

महेन्द्र ने पूछा- "आखिर किस गुनाह के लिए उसे इतनी बड़ी सजा?"

आशा बोली- "मुझे गुस्सा आ गया है- तुमसे मुलाकात करने में भी आपत्ति! उसकी अकड़ तोड़कर ही रहूँगी।"

महेन्द्र बोला- "तुम्हारी प्यारी सखी को देखे बिना मैं मरा नहीं जा रहा हूँ। मैं यों चोरों की तरह मिलना नहीं चाहता।"

आशा ने महेन्द्र का हाथ पकड़कर विनती की- "मेरे सिर की कसम तुम्हें, एक बार, बस एक बार तो तुम्हें यह करना ही पड़ेगा। जैसे भी हो, उसकी हेकड़ी तो भुलानी ही पड़ेगी। फिर तुम्हारा जैसा जी चाहे करना।"

महेन्द्र चुप रहा। आशा बोली- "मेरी आरजू है, मान जाओ!"

महेन्द्र को भी ललक हो रही थी। इसीलिए बेहद उदासी दिखाकर वह सहमत हुआ।

शरत् की धुली दोपहरी। महेन्द्र के कमरे में विनोदिनी आशा को कार्पेट के जूते बनाना बता रही थी। आशा अनमनी-सी बार-बार बाहर ताक-ताककर गिनती में भूल करके अपना बेहद सीधापन दिखा रही थी। आखिर तंग आकर विनोदिनी ने उसके हाथ का कार्पेट झपटकर गिरा दिया और कहा- "यह तुम्हारे बस का नहीं, मैं चलती हूँ, काम पड़ा है।"

आशा ने कहा- "बस, ज़रा देर और देखो, अब भूल नहीं होगी।"

आशा सीने से लग गई।

इतने में दबे पाँव महेन्द्र आया और दरवाज़े के पास विनोदिनी के पीछे खड़ा हो गया। आशा सिलाई पर ऑंखें गाड़े हुए ही धीरे-धीरे हँसने लगी।

विनोदिनी ने पूछा- "एकाएक हँसी किस बात पर आ गई?"

आशा से और न रहा गया। वह खिलखिला पड़ी और विनोदिनी के बदन पर कार्पेट फेंककर बोली, "तुमने ठीक ही कहा, यह मेरे बस का नहीं।" और विनोदिनी से लिपटकर और ज़ोर से हँसने लगी। विनोदिनी पहले ही ताड़ गई थी। आशा की चंचलता और हाव-भाव से उससे छिपा कुछ न था। वह यह भी खूब जान गई थी कि महेन्द्र कब चुपचाप उसके पीछे आकर खड़ा हो गया। निरी नादान बनकर उसने अपने को आशा के आसान जाल में फँसने दिया।

अन्दर आते हुए महेन्द्र ने कहा- "मैं बदनसीब ही इस हँसी से क्यों वंचित हूँ।"

चौंककर विनोदिनी ने माथे पर कपड़े का पल्ला डाला और उठने लगी। आशा ने उसका हाथ धर दबाया।

महेन्द्र ने कहा- "या तो आप बैठिए, मैं चला जाता हूँ, या फिर आप भी बैठिए, मैं भी बैठता हूँ।"

जैसा कि आम तौर से औरतें करती हैं, छीना-झपटी, शोर-गुल करके विनोदिनी ने शर्म की धूम नहीं मचाई। उसने सहज ही सुर में कहा- "आपके ही अनुरोध से बैठती हूँ, लेकिन मन-ही-मन अभिशाप न दीजिएगा।"

महेन्द्र ने कहा- "अभिशाप दूँगा। दूँगा कि आप में देर तक चलने की शक्ति न रह जाए।"

विनोदिनी ने कहा- "इस अभिशाप से मैं नहीं डरती। क्योंकि आपका देर तक ज़्यादा देर का नहीं होगा, शायद अब खत्म भी हो चला।"

और उसने फिर उठकर खड़ा होना चाहा। आशा ने उसका हाथ थाम लिया। कहा- "सिर की सौगंध तुम्हें, और कुछ देर बैठो!"

14

आशा ने पूछा, "अब सच-सच बताना, मेरी ऑंख की किरकिरी कैसी लगी तुम्हें?"

महेन्द्र ने कहा- "बुरी नहीं।"

आशा बहुत ही क्षुब्ध होकर बोली, "तुम्हें तो कोई अच्छी ही नहीं लगती।"

महेन्द्र- "सिर्फ एक को छोड़कर।"

आशा ने कहा- "अच्छा, परिचय ज़रा जमने दो, फिर देखती हूँ, अच्छी लगती है या नहीं।"

महेन्द्र बोला- "जमने दो? यानी ऐसा लगातार चला करेगा रवैया?"

आशा ने कहा- "भलमनसाहत के नाते भी तो लोगों से बोलना-चालना पड़ता है। एक दिन की भेंट के बाद ही अगर मिलना-जुलना बन्द कर दो, तो क्या सोचेगी बेचारी? तुम्हारा हाल ही अजीब है। और कोई होता तो ऐसी स्त्री से दौड़कर मिला करता और तुम हो कि आफत आ पड़ी मानो!"

औरों से अपने इस फ़र्क़ की बात सुनकर महेन्द्र खुश हुआ। बोला- "अच्छा यही सही। मगर ऐसी जल्दबाज़ी क्या? मैं कहीं भागा तो नहीं जा रहा हूँ, न तुम्हारी सखी को भागने की जल्दी है- लिहाज़ा, बीच-बीच में भेंट हुआ ही करेगी और भेंट होने पर भलमनसाहत रखे, इतनी अक्ल तुम्हारे पति को है।"

महेन्द्र ने सोचा था, अब से विनोदिनी किसी-न-किसी बहाने ज़रूर आ जाया करेगी। लेकिन गलत समझा था। वह पास ही नहीं फटकती कभी, अचानक जाते-आते भी कहीं नहीं मिलती। अपनी स्त्री से वह इसका ज़िक्र भी न करता कि कहीं मेरा आग्रह न झलक पड़े। बीच-बीच में विनोदिनी से मिलने की स्वाभाविक और मामूली-सी इच्छा को छिपाए और दबाए रखने की कोशिश में उसकी अकुलाहट बढ़ने लगी। फिर विनोदिनी की उदासीनता उसे और उत्तेजित करने लगी।

विनोदिनी से भेंट होने के दूसरे दिन प्रसंगवश यों ही मज़ाक में महेन्द्र ने आशा से पूछा- "तुम्हारा यह अयोग्य पति तुम्हारी ऑंख की किरकिरी को कैसा लगा?"

महेन्द्र को इसकी ज़बरदस्त आशा थी कि पूछने से पहले ही आशा से उसे इसका बड़ा ही अच्छा ब्यौरा मिलेगा। लेकिन सब्र करने का जब कोई नतीजा न निकला, तो ढंग से यह पूछ बैठा।

आशा मुश्किल में पड़ी। विनोदिनी ने कुछ भी नहीं कहा। इससे आशा अपनी सखी से नाराज़ हुई थी। बोली-"ठहरो भी, दो-चार दिन मिल-जुलकर तो कहेगी। कल भेंट भी कितनी देर को हुई और बातें भी कितनी हो सकीं।"

महेन्द्र इससे भी कुछ निराश हुआ और विनोदिनी के बारे में लापरवाही दिखाना उसके लिए और भी कठिन हो गया।

इसी बीच बिहारी आ पहुँचा। पूछा- "क्यों भैया, आज किस बात पर विवाद छिड़ा हुआ है?"

महेन्द्र ने कहा- "देखो न, तुम्हारी भाभी ने कुमुदिनी या प्रमोदिनी जाने किससे तो जाने क्या नाता जोड़ा है लेकिन मुझे भी अगर उससे वैसा ही कुछ जोड़ना पड़े तो जीना मुश्किल जानो!" आशा के घूँघट के अन्दर घोर कलह घिर आया। बिहारी ज़रा देर चुपचाप महेन्द्र की ओर ताकता रहा और हँसता रहा। बोला- "भाभी, बात तो यह अच्छी नहीं। यह सब भुलाने की बातें हैं। तुम्हारी ऑंख की किरकिरी को मैंने देखा है, और भी अगर बार-बार देख पाऊँ, तो उसे दुर्घटना न समझूँगा, यह मैं कसम खाकर कह सकता हूँ। लेकिन इतने पर भी महेन्द्र जब कबूल नहीं करना चाहते तो दाल में कुछ काला है।"

महेन्द्र और बिहारी में बहुत भेद है, आशा को इसका एक और सबूत मिला।

अचानक महेन्द्र को फोटोग्राफी का शौक़ हो आया। पहले भी एक बार उसने सीखना शुरू करके छोड़ दिया था। उसने फिर से कैमरे की मरम्मत की, और तस्वीरें लेनी शुरू कर दी। घर के नौकर-चाकरों तक के फोटो लेने लगा।

आशा ज़िद पकड़ बैठी- "मेरी सखी की तस्वीर लेनी पडेग़ी।"

बहुत मुख्तसर में महेन्द्र ने जवाब दिया- "अच्छा!"

और उससे मुख्तसर में उसकी ऑंख की किरकिरी ने कहा- "नहीं।" आशा को इसके लिए फिर एक तरकीब खोजनी पड़ी।

तरकीब यह थी कि आशा किसी तरह उसे अपने कमरे में बुलाएगी और सोते समय ही उसकी तस्वीर को लेकर महेन्द्र एक ख़ासा सबक देगा। मज़े की बात यह कि विनोदिनी दिन में कभी सोती नहीं। लेकिन उस दिन आशा के कमरे में उसे झपकी आ गई। बदन पर लाल ऊनी चादर डाले, खुली खिड़की की तरफ मुँह किए, हथेली पर सिर रखे वह ऐसी सुन्दर अदा से सोई थी कि महेन्द्र ने कहा- "लगता है, फोटो खिंचाने के लिए तैयार हुई है।"

दबे पाँव महेन्द्र कैमरा लेकर आया। किस तरह से तस्वीर अच्छी आएगी, यह तय करने के लिए विनोदिनी को बड़ी देर तक बहुत अच्छी तरह देख लेना पड़ा। यहाँ तक कि कला कि खातिर छिपकर सिरहाने के पास उसके बिखरे बालों को ज़रा-सा हटा देना पड़ा। नहीं जँचा तो उसे फिर से सुधार लेना पड़ा। कानोंकान उसने आशा से कहा- "पाँव के पास से चादर को ज़रा बाईं तरफ खिसका दो!" भोली आशा ने उसके कानों में कहा- "मुझसे ठीक न बनेगा, कहीं नींद न टूट जाए। तुम्हीं खिसका दो।"

महेन्द्र ने चादर खिसका दी।

और तब उसने तस्वीर खींचने के लिए कैमरे में प्लेट डाली। डालना था कि खटका हुआ और विनोदिनी हिल उठी, लम्बा नि:श्वास छोड़ घबराकर उठ बैठी। आशा ज़ोर से हँस पड़ी। विनोदिनी बेहद नाराज हुई। अपनी जलती हुई ऑंखों से महेन्द्र पर चिनगारियाँ बरसाती हुई बोली- "बहुत बुरी बात है।"

महेन्द्र ने कहा- "बेशक बुरी बात है। लेकिन चोरी भी की और चोरी का माल हाथ न लगा, इससे तो मेरे दोनों काल गए। इस बुराई को ही लेने दीजिए, उसके बाद मुझे सज़ा दीजिएगा।" आशा भी बहुत आरजू-मिन्नत करने लगी। तस्वीर ली गई। लेकिन पहली तस्वीर ख़राब हो गई। लिहाज़ा दूसरे दिन दूसरी तस्वीर लिये बिना फोटोग्राफर न माना। उसके बाद मित्रता के चिद्द-स्वरूप दोनों सखियों की एक साथ एक तस्वीर लेने की बात आई। विनोदिनी 'ना' न कह सकी। बोली- "यही लेकिन आखिरी है।"

यह सुनकर महेन्द्र ने उस तस्वीर को बर्बाद कर दिया। इस तरह तस्वीर लेते-लेते परिचय काफ़ी आगे बढ़ गया।

15

बाहर से हिला-डुला दो तो दबी राख में आग फिर से लहक उठती है। आशा और महेन्द्र की मुहब्बत का उछाह मंद पड़ता जा रहा था, वह तीसरी तरफ की ठोकर से फिर जाग पड़ा। आशा में हँसी-दिल्लगी की ताकत न थी, पर आशा उससे थकती न थी, लिहाज़ा विनोदिनी की आड़ में आशा को बहुत बड़ा आश्रय मिल गया। महेन्द्र को हमेशा आनन्द की उमंग में रखने के लिए उसे लोहे के चने नहीं चबाने पड़ते थे।

विवाह होने के बाद कुछ ही दिनों में आशा और महेन्द्र एक-दूसरे के लिए अपने को उजाड़ने पर आमादा थे- प्रेम का संगीत शुरू ही पंचम के निषाद से हुआ था, सूद के बजाय पूँजी ही भुना खाने पर तुले थे। अब उसकी अपनी कोशिश न रह गई। महेन्द्र और विनोदिनी जब हँसी-मज़ाक करते होते, वह बस जी खोलकर हँसने में साथ देती। पत्ते खेलने में महेन्द्र आशा को बेतरह चकमा देता, तो आशा विनोदिनी से फैसले के लिए गिड़गिड़ाती हुई शिकायत करती। महेन्द्र कोई मज़ाक कर बैठता या गैरवाजिब कुछ कहता तो आशा को यह उम्मीद होती कि उसकी तरफ से विनोदिनी उपयुक्त जवाब दे देगी। इस प्रकार इन तीनों की मण्डली जम गई।

मगर इससे विनोदिनी के काम-धन्धों में किसी तरह की ढिलाई न आ पाई। रसोई, गृहस्थी के दूसरे काम-काज, राजलक्ष्मी की सेवा-जतन- सारा कुछ खत्म करके ही वह इस आनन्द में शामिल होती। महेन्द्र आज़िजी से कहता- "नौकर-महरी को काम नहीं करने देती हो, चौपट करोगी उन्हें तुम।"

विनोदिनी कहती- "काम न करके खुद चौपट होने से यह बेहतर है। तुम अपने कॉलेज जाओ!"

महेन्द्र- "ऐसी बदली के दिन?"

विनोदिनी- "न यह नहीं होने का... गाड़ी तैयार है, जाना पड़ेगा।"

महेन्द्र- "मैंने तो गाड़ी को मना कर दिया था।"

विनोदिनी ने कहा "मैंने कह रखा था।" कहकर महेन्द्र की पोशाक लाकर हाज़िर कर दी।

महेन्द्र- "तुम्हें राजपूत के घर पैदा होना चाहिए था, लड़ाई के समय अपने आत्मीय को कवच पहनाती।"

मौज़-मजे के लिए कॉलेज न जाना, पढ़ाई में ढिलाई करना विनोदिनी क़तई न सह पाती थी। उसके कठोर शासन से दिन 'दोपहर को विनोद एकबारगी उठ गया और साँझ का अवकाश महेन्द्र के लिए बड़ा ही रमणीक और मोहक हो उठा। उसका दिन मानो अवसान के इन्तज़ार में रहता।

पहले बीच-बीच में रसोई समय पर न बनती और महेन्द्र को कॉलेज न जाने का बहाना मिल जाता। अब विनोदिनी सारा इन्तज़ाम खुद करके समय पर रसोई बनाती। खाना खत्म होता कि महेन्द्र को खबर कर दी जाती- "गाड़ी तैयार खड़ी है।" पहले कपड़ों का इस तरतीब से रहना तो दूर रहा। यही पता न होता था कि वे धोबी के यहाँ हैं कि अलमारी की ही किसी गुफा में पड़े हैं। शुरू-शुरू में विनोदिनी इन बेतरतीबियों के लिए महेन्द्र के सामने आशा को मीठा उलाहना दिया करती थी- महेन्द्र भी उस बेचारी की ला-इलाज योग्यता पर स्नेह से हँस दिया करता। अन्त में सखी के नेह से उसने आशा की सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। घर की शक्ल बदल गई।

अचकन का बटन नदारद है, आशा झटपट कोई तरकीब नहीं निकाल पाती कि विनोदिनी आकर अचकन उसके हाथ से झपट लेती और बात-की-बात में सी देती। एक दिन महेन्द्र की परसी हुई थाली बिल्ली ने जूठी कर दी। आशा परेशान। देखते-ही-देखते विनोदिनी ने रसोई से जाने क्या-क्या लाकर काम चला दिया। आशा दंग रह गई।

अपने खाने-पहनने, काम और आराम में, हर बात में तरह-तरह से महेन्द्र को विनोदिनी के सेवा-स्पर्श का अनुभव होने लगा। विनोदिनी के बनाए रेशमी जूते उसके पाँवों में पड़े, विनोदिनी का बुना रेशमी गुलबन्द गले में एक पति के पास जाती- उसमें कुछ तो होता आशा का अपना और कुछ किसी और का- अपनी वेश-भूषा के रूप और आनन्द में वह अपनी सखी से मानो गंगा-यमुना-सी मिल गई है। बिहारी की अब वह कद्र न रही थी- उसकी बुलाहट नहीं होती। उसने महेन्द्र को लिख भेजा- 'कल इतवार है, दोपहर को आकर मैं माँ के हाथ का बना भोजन खाऊँगा।' महेन्द्र ने देखा, यह तो इतवार ही गोबर हो जाएगा। उसने जल्दी से लिख भेजा, 'इतवार को कुछ ज़रूरी काम से मुझे बाहर जाना पड़ेगा।'

फिर भी भोजन कर चुकने के बाद बिहारी खोज-खबर के लिए महेन्द्र के यहाँ आया। नौकर से पता चला, महेन्द्र कहीं बाहर नहीं गया है। 'महेन्द्र भैया' कहकर उसने सीढ़ी से आवाज़ दी और कमरे में दाखिल हुआ। महेन्द्र बड़ा अप्रतिभ हो गया। 'सिर में बे-हिसाब दर्द है'-कहकर उसने तकिए का सहारा लिया। यह सुनकर और महेन्द्र के चेहरे का हाव-भाव देखकर आशा तो अचकचा गई। उसने विनोदिनी की तरफ इस आशय से ताका कि क्या करना चाहिए। विनोदिनी खूब समझ रही थी- मामला संगीन नहीं है, फिर भी घबराकर बोली, "बड़ी देर से बैठे हो, थोड़ी देर लेट जाओ! मैं यूडीकोलोन ले आती हूँ।" महेन्द्र बोला- "रहने दो, उसकी ज़रूरत नहीं।"

विनोदिनी ने उस पर ध्यासन न दिया। वह जल्दी से बर्फ-मिले पानी में यूडीकोलोन डालकर ले आई। आशा को गीला रूमाल देती हुई बोली- "उनके सिर पर बाँध दो!"

महेद्र बार-बार कहने लगा- "अरे छोड़ो-छोड़ो!" बिहारी हँसी रोककर चुपचाप यह नाटक देखता रहा। मन में गर्व करते हुए महेन्द्र ने कहा- "कमबख्त बिहारी देखे कि मेरी कितनी इज्ज़त होती है!"

बिहारी खड़ा था। लाज से काँपते हाथों से आशा ठीक से पट्टी न बाँध पाई लुढ़ककर यूडीकोलोन की एक बूँद महेन्द्र की ऑंख से गिर गई। विनोदिनी ने आशा से रूमाल लेकर अपने कुशल हाथों से ठीक से बाँध दिया। सफेद कपड़े के दूसरे टुकड़े को यूडीकोलोन में भिगोकर धीमे-धीमे पट्टी पर निचोड़ने लगी। आशा घूँघट काढ़े पंखा झलती रही।

स्निग्ध स्वर में विनोदिनी ने पूछा- "महेन्द्र बाबू, आराम मिलता है?" आवाज़ में इस तरह शहद घोलकर विनोदिनी ने तेज़ कनखियों से बिहारी को देख लिया। देखा, कौतुक से बिहारी की ऑंखें हँस रही हैं। उसको यह सब कुछ प्रहसन-सा लगा। विनोदिनी समझ गई, 'इस आदमी को ठगना आसान नहीं, इसकी पैनी निगाह से कुछ नहीं बच सकता।'

बिहारी ने हँसकर कहा- "विनोदिनी भाभी, ऐसी तीमारदारी से बीमारी जाने की नहीं, और बढ़ जाएगी।"

विनोदिनी- "मैं मूर्ख स्त्री, मुझे इसका क्या पता! आपके चिकित्सा-शास्त्र में ऐसा ही लिखा है, क्यों?"

बिहारी- "लिखा तो है ही। सेवा देखकर अपना भी माथा दुखने लगा। लेकिन फूटे कपाल को चिकित्सा के बिना ही चंगा हो जाना पड़ता है। महेन्द्र भैया का कपाल जोरदार है।"

विनोदिनी ने कपड़े का ओछा टुकड़ा रख दिया। कहा- "न, हमें क्या पड़ी! दोस्त का इलाज दोस्त ही करे।"

16

बिहारी ने सोचा- 'ऊँहूँ! दूर-दूर रहने से अब काम नहीं चलने का। चाहे जैसे हो, इसके बीच- अपने लिए भी जगह बनानी पड़ेगी। इनमें से किसी को यह पसन्द तो न होगा, लेकिन फिर भी मुझे रहना पड़ेगा।' बुलावे या स्वागत की अपेक्षा किए बिना ही बिहारी महेन्द्र के व्यूह में दाखिल होने लगा। उसने विनोदिनी से कहा- "विनोद भाभी, इस शख़्स को इसकी माँ ने बर्बाद किया, इसकी बीवी बर्बाद कर रही है- तुम भी उस जमात में शामिल न होकर इसे कोई नई राह सुझाओ।"

महेन्द्र ने पूछा- "यानी?"

बिहारी- "यानी मेरे-जैसा आदमी, जिसे कभी कोई नहीं पूछता..."

महेन्द्र- "उसको बर्बाद करो! बर्बाद होने की उम्मीदवारी इतनी आसान नहीं बच्चू कि दरखास्त दे दी और मंजूर हो गई।"

विनोदिनी हँसकर बोली- "बर्बाद होने का दम होना चाहिए बिहारी, बाबू!"

बिहारी ने कहा- "अपने-आप में वह खूबी न भी हो तो पराए हाथ से आ सकती है। एक बार देख ही लो पनाह देकर!"

विनोदिनी- "यों तैयार होकर आने से कुछ नहीं होता- लापरवाह रहना होता है। क्या ख्याल है, भई ऑंख की किरकिरी! अपने इस देवर का भार तुम्हीं उठाओ न!"

आशा ने दो अगुलियों से उसे ठेल दिया। बिहारी ने भी इस दिल्लगी में साथ न दिया।

विनोदिनी से यह छिपा न रहा कि बिहारी को आशा से मजाक करना पसन्द नहीं। वह आशा पर श्रद्धा रखता है और विनोदिनी को उल्लू बनाना चाहता है, यह बात उसे चुभी।

उसने आशा से फिर कहा- "तुम्हारा यह भिखारी देवर मुझे इंगित करके तुमसे ही दुलार की भीख माँगने आया है- कुछ दे दो न, बहन!"

आशा बहुत खीझ उठी। जरा देर के लिए बिहारी का चेहरा तमतमा उठा, दूसरे ही दम वह हँसकर बोला- "दूसरे पर यों टाल देना ठीक नहीं है।"

विनोदिनी समझ गई कि बिहारी सब बंटाधार करके आया है- इसके सामने हथियारबन्द रहना ज़रूरी है। महेन्द्र भी आजिज आ गया। बोला- "बिहारी तुम्हारे महेन्द्र भैया किसी व्यापार में नहीं पड़ते, जो पास है, उसी से खुश हैं वे।"

बिहारी- "खुद न पड़ना चाहते हो चाहे, मगर किस्मत में लिखा होता है तो व्यापार की लहर बाहर से भी आ सकती है।"

विनोदिनी- "बहरहाल आपका तो हाथ ख़ाली है, फिर आपकी लहर किधर से आती है?"

और व्यंग्य की हँसी हँसकर उसने आशा को दबाया। आशा कुढ़कर चली गई। बिहारी मुँह की खाकर गुस्से में भी चुप रहा। वह जाने को तैयार हुआ, तो विनोदिनी बोल उठी- "हताश होकर न जाइए बिहारी बाबू, मैं ऑंख की किरकिरी को भेजे देती हूँ।"

विनोदिनी के उठने से बैठक टूट गई। इससे महेन्द्र मन-ही-मन नाराज हुआ। महेन्द्र की नाराज शक्ल देखकर बिहारी का आवेग उमड़ आया।

बोला- "महेन्द्र भैया, अपना सत्यानाश करना चाहते हो, करो! तुम्हारी ऐसी ही आदत रही है। लेकिन जो सरल हृदय की साध्वीड़ तुम्हारा विश्वास करके पनाह में है, उसका सत्यानाश तो न करो। अब भी कहता हूँ, ऐसा न करो!"

कहते-कहते बिहारी का गला रुँध गया।

दबे क्रोध से महेन्द्र ने कहा- "बिहारी, तुम्हारी बात बिल्कुल समझ में नहीं आती। बुझौअल रहने दो, साफ-साफ कहो।"

बिहारी ने कहा- "मैं दो टूक ही कहूँगा। विनोदिनी तुम्हें जान-बूझकर पाप की ओर खींच रही है और तुम बिना समझे क़दम बढ़ा रहे हो?"

महेन्द्र गरज उठा- "सरासर झूठ है। तुम अगर भले घर की बहू-बेटी को गलत सुबहे की निगाह से देखते हो तो तुम्हारा घर के अन्दर आना ठीक नहीं।"

इतने में विनोदिनी एक थाली में मिठाइयाँ लेकर आई और बिहारी के सामने रखी। बिहारी बोला- "अरे, यह क्या! मुझे बिल्कुल भूख नहीं।"

विनोदिनी बोली- "ऐसी क्या बात! मुँह मीठा करके ही जाना होगा।"

बिहारी बोला- "मेरी दरखास्त मंजूर हुई शायद? आदर-सत्कार शुरू हो गया?"

विनोदिनी होठ दबाकर हँसी। कहा- "आप जब देवर ठहरे, रिश्ते का ज़ोर तो है। जहाँ दावा कर सकते हैं, वहाँ भीख क्या माँगना? आदर तो आप छीनकर ले सकते हैं। आप क्या कहते हैं, महेन्द्र बाबू?" महेन्द्र बाबू ने कोई टिप्पणी नहीं की।

विनोदिनी- "बिहारी बाबू, आप शर्म से नहीं खा रहे हैं या नाराजगी से! किसी और को बुलाना पड़ेगा?"

बिहारी- "नहीं, ज़रूरत नहीं। जो मिला है, काफ़ी है।"

विनोदिनी- "मजाक? आप से तो पार पाना मुश्किल है। मिठाई से भी मुँह बन्द नहीं होता।"

रात को आशा ने महेन्द्र से बिहारी की शिकायत की। महेन्द्र और दिन की तरह हँसकर टाल नहीं गया, बल्कि उसने साथ दिया। सुबह ही महेन्द्र बिहारी के घर गया। बोला- "बिहारी, लाख हो, विनोदिनी आखिर अपने घर की तो नहीं है। तुम सामने होते हो तो उसे कैसी झिड़क होती है।"

बिहारी ने कहा- "अच्छा! तब तो यह ठीक नहीं। उन्हें अगर एतराज है, तो मैं सामने न जाऊँगा।"

महेन्द्र निश्चिंत हुआ। यह अप्रिय काम इस आसानी से बन जाएगा वह सोच भी न सका था। बिहारी से वह डरता था।

वह उसी दिन महेन्द्र के घर गया। बोला- "विनोद-भाभी मुझे, माफ कर दो!"

विनोदिनी- "कैसी माफी?"

बिहारी- "महेन्द्र से मालूम हुआ, मैं यहाँ आकर सामने होता हूँ, इसलिए आप नाराज हैं। इसलिए मैं माफी माँगकर रुखसत हो जाऊँगा।"

विनोदिनी- "ऐसा भी होता है भला! मैं तो आज हूँ, कल नहीं रहूंगी- मेरी वजह से आप क्यों रुख़्सत होंगे? इतना झमेला होगा, यह जानती होती तो मैं यहाँ न आती...।' कहकर विनोदिनी मुँह मलिन किए बिना ऑंसू छिपाने को तेज़ीसे चली गई।

बिहारी के मन में आया- 'झूठे सन्देह पर मैंने नाहक ही विनोदिनी के मन को चोट पहुँचाई है।'

उस दिन मानो मुश्किल में पड़ी राजलक्ष्मी महेन्द्र के पास जाकर बोली- "महेन्द्र विपिन की बहू घर जाने के लिए उतावली हो गई है।"

महेन्द्र ने पूछा- "क्यों, यहाँ उन्हें कोई तकलीफ है?"

राजलक्ष्मी- "तकलीफ नहीं, वह कहती है, मुझ-जैसी विधवा ज़्यादा दिन दूसरे के घर रहेगी, तो लोग निन्दा करेंगे।"

महेन्द्र क्षुब्ध होकर बोला- 'तो यह पराया घर है!'

बिहारी बैठा था। महेन्द्र ने उसे खीझी निगाह से देखा।

बिहारी ने सोचा था, 'कल मैंने जो कुछ कहा, उसमें निन्दा का आभास था- शायद उसी से विनोदिनी का जी दुखा।'

पति-पत्नी दोनों विनोदिनी से रूठे रहे।

ये बोलीं- "हमें पराया समझती हो, बहन!"

वे बोले- "इतने दिनों में हम पराए हो गए।"

विनोदिनी ने कहा- "हमें क्या तुम आजीवन पकड़े रहोगी?"

महेन्द्र बोला- "ऐसी जुर्रत कहाँ!"

आशा बोली- "फिर ऐसे क्यों हमारे जी को चुराया तुमने?"

उस दिन कुछ भी तय न हो सका। विनोदिनी बोली-"नहीं बहन, बेकार है, दो दिनों के लिए ममता न बढ़ाना ही ठीक है।"

कहकर अकुलाई हुई ऑंखों से उसने एक बार महेन्द्र को देखा।

दूसरे दिन बिहारी ने आकर कहा- "विनोद भाभी, यह जाने की ज़िद क्यों? कोई कुसूर किया है- उसी की सजा?"

मुँह फेरकर विनोदिनी बोली- "कुसूर आप क्यों करने लगे, कुसूर है मेरी तकदीर का।"

बिहारी- "आप अगर चली जाएँ, तो मुझे यही लगता रहेगा कि मुझी से नाराज होकर चली गई आप।"

करुण ऑंखों से विनती ज़ाहिर करती हुई विनोदिनी ने बिहारी की ओर ताका। कहा- "आप ही कहिए न, मेरा रहना उचित है?"

बिहारी मुश्किल में पड़ गया। रहना उचित है, यह बात वह कैसे कहे?

बोला- "ठीक है, आपको जाना तो पड़ेगा ही, लेकिन दो-चार दिन रुककर जाएँ, तो क्या हर्ज है?"

अपनी दोनों ऑंखें झुकाकर विनोदिनी ने कहा- "आप सब लोग रहने का आग्रह कर रहे हैं आप लोगों की बात टालकर जाना मेरे लिए मुश्किल है, मगर आप लोग गलती कर रहे हैं।"

कहते-कहते उसकी बड़ी-बड़ी पलकों से ऑंसू की बड़ी-बड़ी बूँदें तेज़ीसे ढुलकने लगीं।

बिहारी इन मौन ऑंसुओं से व्याकुल होकर बोल उठा- "महज इन कुछ दिनों में ही आपने सबको मोह लिया है, इसी से आपको कोई छोड़ना नहीं चाहता। अन्यथा न सोचें विनोद भाभी, ऐसी लक्ष्मी को चाहकर विदा भी कौन करेगा?"

आशा घूँघट काढ़े एक कोने में बैठी थी। घूँघट सरकारकर वह रह-रहकर ऑंखें पोंछने लगी।

आइन्दा विनोदिनी ने जाने की बात न चलाई।

बीच में यह जो झमेला खड़ा हुआ, उसे एकबारगी चुका देने की नियत से महेन्द्र ने प्रस्ताव रखा कि अगले इतवार को दमदम के बगीचे में पिकनिक कर आएँ।

आशा बहुत खुश हो गई। लेकिन विनोदिनी राजी न हुई। उसके तैयार न होने से आशा और महेन्द्र मायूस हो गए। उन्हें लगा, "इन दिनों विनोदिनी न जाने क्यों दूर हट जाना चाहती है!"

तीसरे पहर बिहारी आया। विनोदिनी बोली- "जरा देखिए तो बिहारी बाबू महेन्द्र बाबू दमदम जा रहे हैं पिकनिक के लिए। मैं नहीं जाना चाहती, तो सुबह से दोनों मुझसे रूठे हैं।"

बिहारी बोला- "नाराज होना उनका बेजा नहीं। आप साथ न गईं तो इनकी जो पिकनिक होगी, ईश्वर करे सातवें दुश्मन की भी वैसी न हो।"

विनोदिनी- "फिर आप भी चलिए न! आप चलें, तो मैं भी चलूँगी।"

बिहारी- "ठीक तो है। मगर बात यों है कि कर्म, दरअसल कर्त्ता की इच्छा पर होता है। बाबू की क्या राय है।?"

बिहारी के प्रति इस पक्षपात से मालिक और मालकिन, दोनों ही भीतर-भीतर कुढ़ गए। बिहारी को साथ ले चलने की बात से महेन्द्र का आधा उत्साह जाता रहा। वह बिहारी को हर तरह से यह जता देने को आतुर था कि उसकी मौजूदगी विनोदिनी को कभी पसन्द नहीं-लेकिन अब तो उसे छोड़ जाना असम्भव होगा।

महेन्द्र ने कहा- "बेजा क्या है, अच्छा ही तो है। लेकिन बिहारी तुम्हारा ख़ास ऐब है कि जहाँ जाते हो, वहाँ कोई-न-कोई हंगामा मचाने से बाज नहीं आते। या तो वहाँ आस-पास के बच्चों की जमात जुटा लोगे या फिर गोरों से मार-पीट की नौबत। क्या कर बैठोगे क्या पता?"

बिहारी महेन्द्र की अनिच्छा को समझ गया। मन-ही-मन हँसा। बोला- "दुनिया में यही तो मजा है। क्या से क्या हो जाए, कहाँ कौन-सा फसाद खड़ा हो जाए- पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता। तो विनोद-भाभी, तड़के ही चल देना पड़ेगा। मैं समय से हाजिर हो जाऊँगा।"

सामान और नौकरों के लिए एक थर्ड क्लास और उन लोगों के लिए एक सेकेण्ड क्लास की बग्घी लाई गई। ख़ासा बड़ा एक पैक बक्स लिये बिहारी ठीक समय पर हाजिर हो गया। महेन्द्र ने कहा- "अरे यह फिर क्या उठा लाए? नौकरों वाली गाड़ी में तो अब यह आएगा नहीं।"

बिहारी बोला- 'आप परेशान न हों, मैं ठीक किए देता हूँ।"

विनोदिनी और आशा गाड़ी पर सवार हुए। बिहारी का क्या करे, महेन्द्र जरा आगा-पीछा करने लगा। बिहारी ने अपना सामान गाड़ी के ऊपर पटका और आप कोच-बक्स पर जा बैठा।

महेन्द्र के जी में जी आया। वह सोच रहा था, 'जाने बिहारी अन्दर ही बैठ जाएगा कि क्या करेगा!'

विनोदिनी ने परेशान होकर पूछा- "गिर तो नहीं पड़ेंगे बिहारी बाबू?"

बिहारी बोल उठा- "आप फ़िक्र न करें गिरना या बेहोश हो जाने की भूमिका नहीं।"

जैसे ही गाड़ी खिसकी, महेन्द्र ने कहा- "न हो तो मैं ही ऊपर जाता हूँ, बिहारी अन्दर आ जाए।"

आशा ने जल्दी से उसकी चादर खींची। कहा- "नहीं, तुम नहीं जा सकते।"

विनोदिनी बोली- "आपको आदत नहीं, क्या पता गिर-विर पड़ें।"

जोश में आकर महेन्द्र ने कहा- "गिर पडूँगा? हर्गिज नहीं।"

और वह गाड़ी से बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगा।

विनोदिनी- "तोहमत आप बिहारी बाबू पर लगाते हैं, मगर हंगामा मचाने में बेजोड़ तो आप ही हैं।"

महेन्द्र ने जरा मुँह लटकाकर कहा- "अच्छा एक काम करें। मैं एक और गाड़ी लेकर चलता हूँ, बिहारी यहाँ आ जाए।"

आशा ने कहा, "तो मैं तुम्हारे ही साथ चलूँगी।"

विनोदिनी बोली- "और मैं तब गाड़ी में से कूद पडूँ?" होते-होते झंझट आखिर निबट गया।

रास्ते-भर महेन्द्र बड़ा गम्भीर रहा।

गाड़ी दमदम के बगीचे में पहुँच गई। नौकरों वाली गाड़ी बहुत पहले ही रवाना हुई थी, पर लेकिन अभी तक उसका पता न था।

शरत् का सवेरा! बड़ा ही सुहाना। धूप निकल आई थी। ओस की बूँदें सूख चुकी थीं, पर निर्मल प्रकाश से पेड़-पौधे झिलमिला रहे थे। दीवार से लगी हरसिंगार की कतार थी। नीचे फूल बिछ गए थे। मह-मह खुशबू!

कलकत्ता की ईंट की ऊँची दीवार के घेरे में बाहर आकर आशा वन की हिरनी-सी उमग उठी। विनोदिनी के साथ उसने ढेरों फूल बीने, पेड़ से शरीफे तोड़े और नीचे बैठकर खाए। दोनों सखियों ने पोखर में देर तक स्नान किया। एक निरर्थक आनन्द से इन दो नारियों ने पेड़ों की छाया और छिटकी किरणों, पोखर के पानी और कुंजों के फूल-पत्तों को पुलकित सचेतन कर दिया।

दोनों सखियाँ नहा आईं। देखा, नौकरों वाली गाड़ी अब भी नदारद है। महेन्द्र बँगले के बरामदे में बिछी एक चौकी पर बैठा-बैठा उदास होकर एक विलायती इश्तहार पढ़ रहा था।

विनोदिनी ने पूछा- "और बिहारी बाबू?"

संक्षेप में महेन्द्र बोला- "पता नहीं।"

विनोदिनी- "चलिए, उन्हें ढूँढ़े।"

महेन्द्र- "आखिर उन्हें कोई चुराकर तो ले नहीं जाएगा! ढूँढ़े बिना भी मिल जाएँगे।"

विनोदिनी- "मगर हो सकता है, आपकी फ़िक्र से वह बेहाल हो रहे हों। चलकर उन्हें दिलासा ही दे आएँ।"

तालाब के किनारे बँधा हुआ विशाल बरगद था। उसी के चौंतरे पर बिहारी अपना पैक-बक्स खोलकर मिट्टी के तेल का चूल्हा जलाकर पानी गरम कर रहा था। जैसे ही लोग पहुँचे, उसने सबको चौंतरे पर बिठाकर एक-एक प्याला गरम चाय और तश्तरी में दो-एक मिठाइयाँ देकर उनकी खातिर की। विनोदिनी बार-बार कहने लगी-"गनीमत है कि बिहारी बाबू सारा सरंजाम साथ ले आए हैं! वरना चाय न मिलती तो क्या हाल होता महेन्द्र बाबू का।"

चाय मिली, तो महेन्द्र जी उठा। फिर भी बोला- "यह सब बिहारी की ज्यादती है। आए हैं हज़रत पिकनिक को और यहाँ भी बदस्तूर सारा इन्तज़ाम उठा लाए हैं। इससे मज़ा नहीं रहता!"

तपी दोपहरी की हवा पत्तों में मर्मराहट लाकर बहती रही, तालाब के बाँध पर जामुन की डालों पर कोयल रह-रहकर कूकती रहीं। विनोदिनी अपने बचपन का क़िस्सा सुनाने लगी- माँ-बाप की बात, छुटपन की सखी-सहेलियों की चर्चा। अचानक उसके माथे पर का पल्ला खिसक पड़ा। विनोदिनी की ऑंखों में कौतुक का जो तीखा कटाक्ष देख पैनी निगाहों वाले बिहारी के मन में आज तक तरह-तरह की शंकाएँ उठती रही थीं, वह श्याम चमक जब एक शान्त सजल रेखा से मन्द पड़ गई, तो बिहारी ने मानो और ही नारी को देखा। लजीली सती की नाईं विनोदिनी एकान्त भक्ति से पति की सेवा कर रही है, मंगलमयी माता के समान संतान को अपनी गोद में लिये हुए है-पहले यह छवि क्षण के लिए भी कभी बिहारी के मन में न आई-आज मानो ज़रा देर के लिए रंगमंच का परदा उठ गया और अन्दर का एक मंगल दृश्य उसे दिखाई दिया। बिहारी ने सोचा, 'विनोदिनी बाहर से विलासिनी युवती तो है, पर उसके अंतर्मन में पूजा-निरत एक नारी तपस्या में लीन है।' एक लम्बी साँस तोड़कर बिहारी ने मन-ही-मन कहा- 'सही-सही अपने को मनुष्य आप भी नहीं जानता- अंतर्यामी ही जानते हैं- परिस्थितिवश जो रूप बाहर बन जाता है, दुनिया उसी को सच समझती है।' बिहारी ने बातों के सिलसिले को टूटने न दिया, प्रश्नों से उसे जगाए रहा। आज सुबह ही जगने के जुल्म से थके हुए महेन्द्र की नींद पाँच बजे खुली। आज़िजी से बोला- "अब चल देना चाहिए।"

विनोदिनी ने कहा- "थोड़ी देर और रुकें तो?"

सामान सहेजने में अंधेरा हो आया। नौकरों ने इतने में खबर दी, किराए की गाड़ी न जाने कहाँ गायब है। ढूँढ़े न मिली। गाड़ी बगीचे के बाहर खड़ी थी। दो गोरे जबर्दस्ती उसे लेकर स्टेशन चल दिए। दूसरी गाड़ी ठीक करने के लिए नौकर भेजा गया। कुढ़ा हुआ महेन्द्र बार-बार मन में कहने लगा- 'आज का दिन मुफ़्त में बर्बाद हो गया।' ऐसी नौबत आ गई कि अपनी अधीरता वह छिपा न सका। बिहारी फिर कोच-बक्स पर जा बैठा। विनोदिनी चुपचाप ही बाहर की तरफ देखती रही- चाँदनी में अवाक् पेड़ों की पाँत दौड़ते हुए घने छाया-प्रवाह की तरह उसकी ऑंखों से होकर गुज़रने लगी। आशा गाड़ी के एक कोने में सो गई और महेन्द्र सारी राह उदास बैठा रहा।

टीका टिप्पणी और संदर्भ


बाहरी कड़ियाँ

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