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विवरण 'अ' देवनागरी वर्णमाला का प्रथम वर्ण और प्रथम स्वर है।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से कंठ्‌य ह्रस्व (जिसका दीर्घ रूप ‘आ’ है), मध्य, अवृत्तमुखी, अर्धविवृत और मूल स्वर है।
अनुनासिक रूप अँ (जैसे- ‘अँगना’, ‘अँधेरा’)।
मात्रा ‘अ’ का कोई मात्रा-चिह्‌न नहीं होता अपितु किसी व्यंजन के बाद ‘अ’ जुड़ने पर केवल ‘हल्‌’ चिह्‌न (‌्) हट जाता है (जैसे—क्‌+अ = क, ख्‌+अ = ख, ह्‌+अ = ह)।
व्याकरण [ संस्कृत (धातु) अक् + ड ] पुल्लिंग- विष्णु, शिव, ब्रह्मा, वायु, अग्नि, विश्व, अमृत।
विशेष 'अ' इब्राली भाषा के अलेफ्‌, यूनानी के अल्फा और लातिनी, इतालीय तथा अंग्रेज़ी के ए के समकक्ष है।
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अन्य जानकारी 'अ' का प्रयोग अव्ययीभाव समास के रूप में भी होता है। नञ् तत्पुरुष समास में नकार का लोप होकर केवल अकार रह जाता है; अऋणी को छोड़कर स्वर के पूर्व 'अ' का अन्‌ हो जाता है।

संस्कृत तथा भारत की समस्त प्रादेशिक भाषाओं की वर्णमाला का प्रथम अक्षर है। इब्राली भाषा का अलेफ्‌, यूनानी का अल्फा और लातिनी, इतालीय तथा अंग्रेज़ी का ए इसके समकक्ष है। 'अ' देवनागरी वर्णमाला का प्रथम वर्ण और प्रथम स्वर है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से ‘अ’ कंठ्‌य ह्रस्व (जिसका दीर्घ रूप ‘आ’ है), मध्य, अवृत्तमुखी, अर्धविवृत और मूल स्वर है।

विशेष-
  1. [ संस्कृत (धातु) अक् + ड ] पुल्लिंग- विष्णु, शिव, ब्रह्मा, वायु, अग्नि, विश्व, अमृत।
  2. ‘अ’ का अनुनासिक रूप अँ है (जैसे- ‘अँगना’, ‘अँधेरा’ आदि में प्रयुक्त)।
  3. अन्य स्वरों के मात्रा-चिह्‌न होते हैं परंतु ‘अ’ का कोई मात्रा-चिह्‌न नहीं होता अपितु किसी व्यंजन के बाद ‘अ’ जुड़ने पर केवल ‘हल्‌’ चिह्‌न (‌्) हट जाता है (जैसे—क्‌+अ = क, ख्‌+अ = ख, ह्‌+अ = ह)।
  4. उच्चारण की दृष्टि से ‘अ’ के 6 भेद हैं- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित होने से 3 भेद और उनके ‘निरनुनासिक’ (अनुनासिक –रहित) और अनुनासिक होने से कुल 6 भेद है। प्राचीन संस्कृत वैयाकरण ‘अ’ के ‘ह्रस्व’, ‘दीर्घ’ और ‘प्लुत’ भेद मानते हैं, और इसलिए ‘अ’ के 8 भेद कहते हैं। हिंदी में ‘दीर्घ अ’ अर्थात्‌ ‘आ’ एक पृथक् स्वर माना जाता है और ‘प्लुत अ’ (अर्थात्‌ ‘आऽऽ) का हिंदी में कभी-कभी ही प्रयोग होता है।
  5. हिंदी में ‘अ’ के मुख्यत: 3 रूप ही अधिक प्रचलित हैं- ‘अ’, अनुनासिक रूप ‘अँ’ तथा अनुस्वार युक्त रूप ‘अ’। यह ध्यान देने योग्य है कि अनुनासिक रूप ‘अँ’ का चिह्‌न ‘ँ’ है जिसे ‘अर्धचंद्रबिंदु’ या ‘चंद्रबिंदु’ कहा जाता है।
  6. ‘अं’ के अनुस्वार युक्त ‘अ’ है उसका प्रयोग वहीं समझना चाहिए जहाँ वह य, र, ल, व, श, ष, स या ह से पहले आए (जैसे—अंश,अंस)। अनुस्वार का वास्तविक चिह्‌न ‘ं’ है जो सभी स्वरों के साथ आ सकता है (एकांश, विंश)। अन्य व्यंजनों से पहले ‘अं’ का प्रयोग ङ्‌, ञ्‌, ण्‌, न्‌, म्‌ अर्थात् कवर्ग आदि पाँचों वर्गों के अंतिम वर्णों के स्थान पर लेखन-सुविधा, टंकण-सुविधा, या मुद्रण-सुविधा के लिए किया जाता है। उदाहरणार्थ, अङ्क, अञ्जन, अण्डा, अंधा, अम्बरीष, को क्रमश: अंक, अंजन, अंडा, अंधा, अंबरीष लिखा जा सकता है परंतु ‘अ’ में लगी बिंदी ‘अनुस्वार’ नहीं है, अपितु पंचम वर्ण का प्रतीक हैं- यह ध्यान रखने योग्य है। इस महत्त्वपूर्ण बात का ज्ञान न होने, या उसका ध्यान न रखने, के कारण हिंदी के असंख्य विद्यार्थी आदि ही नहीं, लेखक और कोशकार भी भ्रमित रहे हैं और आज भी हैं। यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि ‘अन्त’ पूर्णत: सही है और ‘अन्‌त’ भी उसी के समान है परन्तु ‘अंत’ के केवल सुविधा के लिए लिखा जाता है, भाषा–दृष्टि से ‘अंत’ शब्द को ‘अनुस्वार-युक्त अ वाला’ नहीं कहा जा सकता।
  7. उक्त बात को अन्य स्वरों तथा स्वर-युक्त व्यंजनों के सन्दर्भ में भी जानना चाहिए तथा शब्दकोश, अनुक्रमणिका इत्यादि में उस पर ध्यान देना चाहिए। संस्कृत के शब्दकोशों में इस पर ध्यान देने से कोशों का शब्द-क्रम शुद्ध है परंतु हिंदी के अधिकतर कोशकार भ्रमित रहे हैं और उनके शब्दक्रम में ‘आंदोलन’, ‘कंठ’, ‘संत', को अनुस्वार-युक्त मानकर एक जगह स्थान दिया जाता है और ‘आंदोलन’, कण्ठ’, ’सन्त’ को दूसरी जगह, जबकि इन शब्दों के स्थान क्रमश: न्‌, ण्‌, न्‌,… ध्वनि के अनुसार सुनिश्चित रहने चाहिए। अभी तक के प्रसिद्ध हिंदी शब्दकोशों में ‘अकारादि क्रम’ के स्थान पर ‘अंकारादिक्रम’ रहा है जो अशुद्ध, त्रुटि पूर्ण और भ्रामक है।
  8. ‘अकार’ अर्थात्‌ ‘अ’ का एक व्यापक उपयोग महत्त्वपूर्ण है। व्यंजन के शुद्ध रूप (क्‌, ख्‌ आदि) का उच्चारण अकेले करना सामान्यत: कठिन या असम्भव है। अत: व्यंजन का स्वर-सहित उच्चारण ही स्वभाविक रूप से किया जाता है, अत: ‘क्‌’, को ‘क’, ‘ख्‌’ को ‘ख्‌’, ...’ बोलने में व्यंजन के अंत में ‘अ’ जुड़ ही जाता है। व्यंजनों का इस प्रकार अकारांत उच्चारण हिंदी भाषी क्षेत्रों की विशेषता है। संस्कृत वैयाकरण भी ‘क्‌’, ‘ख्‌’, ...’ की ध्वनियों को क्रमश: ककार, खकार... ही कहते हैं (क्‌कार, ख्‌कार,…नहीं)।[1]

उच्चारण

पाणिनी के अनुसार इसका उच्चारण कंठ से होता है। उच्चारण के अनुसार संस्कृत में इसके अठारह भेद हैं:-

सानुनासिक
ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
निरनुनासिक
ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित

हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में के प्राय दो ही उच्चारण ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। केवल पर्वतीय प्रदेशों में, जहाँ दूर से लोगों को बुलाना या संबोधन करना होता है, प्लुत का प्रयोग होता है। इन उच्चारणों को क्रमश अ, अ2 और अ3 से व्यक्त किया जा सकता है। दीर्घ करने के लिए अ के आगे एक खड़ी रेखा जोड़ देते हैं जिससे उसका आकार आ हो जाता है। संस्कृत तथा उससे संबद्ध सभी भाषाओं के व्यंजन में अ समाहित होता है और उसकी सहायता से ही उनका पूर्ण उच्चारण होता है। उदाहरण के लिए, क= क्‌+ अ; ख= ख्‌+ अ, आदि। वास्तव में सभी व्यंजनों को व्यक्त करने वाले अक्षरों की रचना में अ प्रस्तुत रहता है। अ का प्रतीक खड़ी रेखा। अथवा ा है जो व्यंजन के दक्षिण, मध्य या ऊपरी भाग में वर्तमान रहती है, जैसे क (क् + ा) में मध्य में है; ख (ख् + ा) , ग (ग्+ ा) , घ (घ्+ ा) में दक्षिण भाग में तथा ङ (ङ्‌+ ा) , छ (छ्‌ + ा) , ट (ट् + ा) आदि में ऊपरी भाग में है। 'अ' स्वर की रचना के बारे में वर्णोद्धारतंत्र में उल्लेख है। एक मात्रा से दो रेखाएँ मिलती हैं। एक रेखा दक्षिण ओर से घूमकर ऊपर संकुचित हो जाती है; दूसरी बाईं ओर से आकर दाहिनी ओर होती हुई मात्रा से मिल जाती है। इसका आकार प्राय इस प्रकार संगठित हो सकता है। चौथी शती ईसा पूर्व की ब्राह्मी से लेकर नवीं शती ई. को देवनागरी तक इसके कई रूप मिलते हैं।

'अ' का प्रयोग

अ का प्रयोग अव्यय के रूप में भी होता है। नञ् तत्पुरुष समास में नकार का लोप होकर केवल अकार रह जाता है; अऋणी को छोड़कर स्वर के पूर्व अ का अन्‌ हो जाता है। नञ् तत्पुरुष में अ का प्रयोग निम्नलिखित छह विभिन्न अर्थों में होता है-

  1. सादृश्य- अब्राह्मण। इसका अर्थ है ब्राह्मण को छोड़कर उसके सदृश दूसरा वर्ण, (क्षत्रिय, वैश्य आदि)।
  2. अभाव- अपाप। पाप का अभाव।
  3. अन्यत्व- अघट। घट छोड़कर दूसरा पदार्थ, पट, पीठ आदि।
  4. अल्पता- अनुदरी। छोटे पेट वाली।
  5. अप्राशस्त्य- अकाल। बुरा काल, विपत्काल आदि।
  6. विरोध- असुर। सुर का विरोधी, राक्षस आदि।

इसी तरह अ का प्रयोग संबोधन (अ! ), विस्मय (अ:), अधिक्षेप (तिरस्कार) आदि में होता है।

तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।
अप्राशस्त्यं विरोधश्च नर्ञ्थाषट् प्रकीर्तिता।।

विशेष महत्त्व

अ (पुल्लिंग, संज्ञा) अर्थ में विष्णु के लिए प्रयुक्त होता है। कहीं-कहीं आकार से ब्रह्मा का भी बोध होता है। तंत्रशास्त्र के अनुसार अ में ब्रह्मा, विष्णु और शिव तथा उनकी शक्तियाँ वर्तमान हैं। तंत्र में अ के पर्याय सृष्टि, श्रीकंठ, मेघ, कीर्ति, निवृत्ति, ब्रह्मा, वामाद्यज, सारस्वत, अमृत, हर, नरकाटि, ललाट, एकमात्रिक, कंठ ब्राह्मण, वागीश तथा प्रणवादि भी पाए जाते हैं। प्रणव के (अ+ उ+ म) तीन अक्षरों में अ प्रथम है। योग साधना में प्रणव (ओ३म्‌) और विशेषत उसके प्रथम अक्षर अ का विशेष महत्व है। चित्त एकाग्र करने के लिए पहले पूरे ओ३म्‌ का उच्चारण न कर उसके बीजाक्षर अ का ही जप किया जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसके जप से शरीर के भीतरी तत्त्व कफ, वायु, पित्त, रक्त तथा शुक्र शुद्ध हो जाते हैं और इससे समाधि की पूर्णावस्था की प्राप्ति होती है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी शब्दकोश खण्ड-1 पृष्ठ 1
  2. (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 27 जनवरी, 2014।

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