"सदस्य वार्ता:दिनेश सिंह" के अवतरणों में अंतर
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− | <poem> | + | {{स्वतंत्र लेखन नोट}} |
− | कितना सुंदर होता की हम | + | {{Poemopen}} |
− | एक | + | <poem>कितना सुंदर होता की |
− | न | + | हम सिर्फ एक मानव होते |
+ | न जाति पाति के लिए जगह | ||
न धर्मो के बंधन होते | न धर्मो के बंधन होते | ||
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जो घूम रहा था शहर शहर | जो घूम रहा था शहर शहर | ||
− | पहुँच रहा | + | अब पहुँच रहा वो गांवों में |
− | वो कौम बयारी जहर घोलते | + | वो कौम बयारी जहर घोलते |
− | + | इन महकी स्वच्छ हवाओं में | |
+ | |||
+ | क्या सुलझेंगी अब मानस की | ||
+ | ये कौमी गांठ घनेरी | ||
+ | क्या रोशन होंगी उन्मन पथ की | ||
+ | ये गलियाँ अंधेरी</poem> | ||
+ | {{Poemclose}} | ||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
+ | |||
+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
+ | [[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]][[Category:काव्य कोश]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
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==प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -दिनेश सिंह== | ==प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -दिनेश सिंह== | ||
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== प्रकति की सुन्दर-----------------दिनेश सिंह == | == प्रकति की सुन्दर-----------------दिनेश सिंह == | ||
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[[Category:दिनेश सिंह]] | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
[[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]][[Category:काव्य कोश]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]] | [[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]][[Category:काव्य कोश]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
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+ | == मेघ आगमन -दिनेश सिंह == | ||
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+ | {{स्वतंत्र लेखन नोट}} | ||
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+ | <poem>घुमड़ घुमड़कर मेघ गगन में मंडप लगे सजाने | ||
+ | विविध वर्ण की चुनर पहनकर धरती लगी सँवरने | ||
+ | पहन पहनकर मोर मुकुट बन उपवन बने बाराती | ||
+ | कुञ्ज भवन में मंगल गान गाने लगी कालपी | ||
+ | |||
+ | नवल पात में छुपी कोकिला जब मधुरिम स्वर में गयी | ||
+ | भू बंकिम विशाल के रोम रोम ने ली सहशा अंगड़ाई | ||
+ | दादुर चातक औ भ्रमर वीर हैं नवल गान वन में गाते | ||
+ | मध्य निशा में कीट पतंगे बंशी मधुर बजाते | ||
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+ | मेघ आगमन देख धरा के खिली कपोलो की लाली | ||
+ | फूल-फूल पराग प्रेम मय पात पात पर हरियाली | ||
+ | तरु तड़ाग गिरी कानन उपवन में है ख़ुशियाँ लहरायी | ||
+ | शीश नवाती मेघ राज को झुक झुकर तरुवर की डाली | ||
+ | |||
+ | हुये अंग रोमांचित अवनी के जब अम्बर प्रेम गीत गाया | ||
+ | संगीत घोलती दमक दामिनी धरणी पर स्वर्ग उतर आया | ||
+ | नभ और धरा का मिलन देख हो उठा रोमांचित भू मंडल | ||
+ | इस मिलन का साक्षतकार बने तब गीत मेरे कवि ने गाया | ||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
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+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
+ | [[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]][[Category:काव्य कोश]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
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+ | |||
+ | == मेरी यामिनी की नवल चन्द्रिका -दिनेश सिंह == | ||
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+ | {{Poemopen}} | ||
+ | <poem>चाँदनी से धुली आज ये यामिनी | ||
+ | प्रीति मेरे हृदय में जगाने लगी | ||
+ | चकोरा हुआ प्रेम में मन मेरा | ||
+ | देखकर रात रानी लजाने लगी | ||
+ | |||
+ | जो मेरे अन्तः का कोना था सूना पड़ा | ||
+ | उस जगह पर कोई नव कली खिल रही | ||
+ | घोलकर अपने रंग में ये चंचल पवन | ||
+ | गंध उसकी मेरे अंग में भर रही | ||
+ | |||
+ | ये पवन तुम जरा मंद मन्दतर बहो | ||
+ | इसको मत तोड़ देना तुम झंझोर कर | ||
+ | बड़ी कोमल है ये मेरे उर की कली | ||
+ | गिर ना जाये कहीं डाल से टूट कर | ||
+ | |||
+ | मेरी यामिनी की नवल चन्द्रिका | ||
+ | ज्योति मेरे हृदय में जलाने लगी | ||
+ | ये हटो मेरे अन्तः के घने बादलो | ||
+ | प्रेममयी-ज्योतिस्तर प्रबलतर हुयी | ||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
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+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
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+ | == आकुल अंतर -दिनेश सिंह == | ||
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+ | {{Poemopen}} | ||
+ | <poem>मन हर्षित होकर जब जब गाया | ||
+ | वह विरह वेदना तब तब पाया | ||
+ | हुयी झणिक कभी आभा प्रज्वलित | ||
+ | अवगुंठनों से भरा तम निकट आया | ||
+ | |||
+ | खड़ी हो गयी मुँह फेरकर के कल्पनाये | ||
+ | अति प्रखरतर हो गयी सारी विपद्ताएँ | ||
+ | दिवस की दिनकर किरण ओझल हुयी | ||
+ | हुयी विमुखरित चाँद की भी चन्द्रिकाएँ | ||
+ | |||
+ | आहात हृदय ! हृदय का हर्ष भूला | ||
+ | हुआ गीत इतंना क्षीण की वह पंथ भूला | ||
+ | मुस्कान अधरों की कही विलुप्तित हुयी | ||
+ | औ हर्ष सारे हृदय के मार्ग भूला | ||
+ | |||
+ | मुरझा गयी सारी हृदय की मधुर बेला | ||
+ | खड़ा है निस्तेज होकर वह अकेला | ||
+ | मधुर स्मृति झण भर को होती प्रज्वलित | ||
+ | फिर खिंच जाती है यादों की काली रेखा | ||
+ | |||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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+ | ==संबंधित लेख== | ||
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+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
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+ | == अषाढ़ के बादल -दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>देखकर इस धरा के हृदय की जलन | ||
+ | रो पड़े आज फिर से गगन के नयन | ||
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+ | अश्रु धारा बहे तो फिर ऐसे बहे | ||
+ | काँटों के सँग सँग फूल भी बह गये | ||
+ | अश्रु से सींचकर शांत करता तपन | ||
+ | रो पड़े आज फिर से गगन के नयन | ||
+ | |||
+ | आँख में अश्रु है-स्वर में प्रबल रोर है | ||
+ | कड़कती मेघ में दामिनी गरज कहती घटाएँ हैं, | ||
+ | सूर्य छुपने का अब क्यों है करता यतन | ||
+ | रो पड़े आज फिर से गगन के नयन | ||
+ | |||
+ | छुप गये सारे योद्धा निज नीड में | ||
+ | रोर करता अकेला है रण भूमि में | ||
+ | भेरी फिर से बजाया रण में गगन | ||
+ | रो पड़े आज फिर से गगन के नयन | ||
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+ | == किसी सतरंगी नील नयन में -दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>किसी सतरंगी नील नयन में | ||
+ | खोया मेरा मन विहंंग | ||
+ | ज्यों किसी गुलावी मधुबन में | ||
+ | खो गया भवर का अंतरंग | ||
+ | |||
+ | खिली देख कलि मधुबन में | ||
+ | जा बैठ गया नादान विहग | ||
+ | निरख कली नत कोरो को | ||
+ | उलझ गया अनजान विहग | ||
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+ | मोद भरे उन कोरो में | ||
+ | कोरो में ! रवि किरणों सी लिए धार | ||
+ | वह नवल कली के मधुवन में | ||
+ | है भूल गया खग कठिन राह | ||
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+ | ==संबंधित लेख== | ||
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+ | <poem>मन के गहरे अंधकार में | ||
+ | ज्वलित हुआ एक प्रश्न प्रबल | ||
+ | मानव हो तुम सबसे सुंदर | ||
+ | फिर क्यों करता है अति छलबल | ||
+ | |||
+ | तुम जीवन के सौन्दर्य सृष्टि हो | ||
+ | कुदरत की आदर्श दृष्टि हो | ||
+ | न्योछावर तुझमे सकल सृष्टि है | ||
+ | अगणित सुषमावो से निर्मित हो | ||
+ | |||
+ | प्रथम सृष्टि का कैसे आना | ||
+ | ये मानव पहचान तुमने | ||
+ | विज्ञानं ज्ञान का समावेश | ||
+ | है बस तेरे मन मस्तिक में | ||
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+ | हे अखिल विश्व के चिर रूपम | ||
+ | ये सब है बस तेरे उर अन्तः में | ||
+ | फिर क्यों भरता है राग देव्ष | ||
+ | अपने मन के अन्तः कण में | ||
+ | |||
+ | क्यों खोज रहा है ज्योती तम में | ||
+ | फैल जा व्योम का विस्तार बनके | ||
+ | नहीं देव अन्तः भेद फिर तुझमे है क्यों | ||
+ | बरस जा जलद से जल धार बनके | ||
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+ | जीत सको तुम त्रिभुवन को | ||
+ | कर सको पूर्ण अभिलाषा मन के | ||
+ | कुछ भी दुर्लभ नहीं तुम्हे | ||
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+ | <poem>चाँद मेरी रात का पूनम सा खिला है | ||
+ | किन्तु वो उलझी घटाओं से घिरा है | ||
+ | ये पवन तुम मंद अपनी गति करो | ||
+ | छणिक वो दिख रहा कभी बुझ रहा है | ||
+ | |||
+ | सूर्य अपनी प्रभा लेकर वो कब का जा चूका है | ||
+ | सुनहली साँझ का मौसम सुनहरा आ चूका है | ||
+ | रुपहरे चाँद से!सिंदूरी चाँदनी छन छन रही है | ||
+ | हृदय के तार से मृदु रागनी बजने लगी है | ||
+ | |||
+ | गगन के बाँह में रजनी शिथिल खोई हुई है | ||
+ | जगी है चाँदनी मेरी सकल अलि सोयी हुई है | ||
+ | भिगो कर लाज से है चन्द्रिका चुपचाप बैठी | ||
+ | मगर ये झील सी आँखें हैं जो कुछ कह रही हैं | ||
+ | |||
+ | ठहर जा चाँदनी कुछ पल अभी है रात बांकी | ||
+ | अभी है बात बांकी बात का विस्तार बांकी | ||
+ | युगों से शान्त मानस की उमंगें कह रही है | ||
+ | अरी इस यामिनी की हर छटा मनभावनी है | ||
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+ | == जुगनू के प्रति -दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>बादलों ने आज फिर धरती को घेरा | ||
+ | ढक लिया है चांद तारो को अँधेरा | ||
+ | पर आज ये बिद्रोह किसने कर दिया है बादलो से | ||
+ | कह रहा है इस तिमिर को नष्ट कर दूंगा धरा से | ||
+ | |||
+ | बादलों को कौन ये ललकारता है | ||
+ | धायकर जो गगन छूना चाहता है | ||
+ | चीरकर तिमिरांचल को तीव्र गति से बढ़ रहा है | ||
+ | वह तिमिर को नष्ट करने पर अटल है लग रहा है | ||
+ | |||
+ | देखकर बिद्रोह अतिकर मेघ गरजा | ||
+ | दमक करके दामिनी का अंग फड़का | ||
+ | सकल दिशि घनघोर तम औ हवा ब्याकुल | ||
+ | किन्तु चिर ज्योति जलाने को वह आतुर | ||
+ | |||
+ | अठखेलियां वह इस तिमिर से खेलता है | ||
+ | पल भर ज्वलित कभी लुप्त वह हो रहा है | ||
+ | वह इन घमंडी घटाओं का मद दर्प कर | ||
+ | पंथ पर विश्वास का दीपक जलाये बढ़ रहा है | ||
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+ | == मनुजतत्व सकल वसुंधरा -दिनेश सिंह == | ||
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+ | {{Poemopen}} | ||
+ | <poem>दे विद्द-विदद् हे दायनी | ||
+ | शत-शत रूप धर-धर कर | ||
+ | चयन-मम ह्रदय-पर कर-शयन | ||
+ | हर-हर हृदय के दारुण-दहन | ||
+ | |||
+ | हो प्रखर उर ज्योतिर्जल-विभा | ||
+ | प्रभा सा ज्वलित हो पद्य-जल अभा | ||
+ | कृति-कृत्त कर-विकृति-प्रबति हर | ||
+ | सतित-सत पथ पर चलें दृढ़तर | ||
+ | |||
+ | भर कर-सजल-जल-नयन पर | ||
+ | जीवन अमिय रस सींच कर | ||
+ | हर श्लेष-क्लेश-विमुक्क्त कर | ||
+ | चलते चलें पथ कर्म पर | ||
+ | |||
+ | झरे जीर्ण-जाति विषानला | ||
+ | छटे गहन-घन-तम-भ्रम भरा | ||
+ | हो उदित उर-उर भास्करा | ||
+ | मनुजतत्व सकल वसुंधरा | ||
+ | </poem> | ||
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+ | |||
+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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+ | ==संबंधित लेख== | ||
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+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
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+ | == यह पावसी सान्ध्य -दिनेश सिंह == | ||
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+ | {{Poemopen}} | ||
+ | <poem>हुआ ललोहित गगन और | ||
+ | दिनमान चला निज युग को | ||
+ | किरण-हंसनी पंख समेट कर | ||
+ | जा बैठ गयी तरु शिखरों पर | ||
+ | |||
+ | गगन मार्ग से उतर रही | ||
+ | निज केश कलाप बिखेरे | ||
+ | यह पावसी सान्ध्य सकल | ||
+ | एकाकीपन को समेटे | ||
+ | |||
+ | मुख मौन-द्रागित र्निमेष लिये | ||
+ | सौन्दय भाव के पंख खोल | ||
+ | भू पर उतरी खिली अमराई | ||
+ | हो गया तरुण हरीतिमालोक | ||
+ | |||
+ | तोम तिमिर का दुर्ग देख | ||
+ | स्वर स्वानो के है गूंज उठे | ||
+ | स्वर बध्य राग गाते श्रृगाल | ||
+ | सब अपने गृह से निकल पड़े | ||
+ | </poem> | ||
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+ | |||
+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
+ | |||
+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
+ | [[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]][[Category:काव्य कोश]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
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+ | __INDEX__ | ||
+ | |||
+ | == अन्तःद्वन्द -भाग-८-दिनेश सिंह == | ||
+ | |||
+ | {{Poemopen}} | ||
+ | <poem>मै , मेरा और अपने में | ||
+ | उलझ गया संसार मेरा | ||
+ | हाय प्रायोजित अभिनय से | ||
+ | मुझे नहीं अवकाश मिला | ||
+ | |||
+ | लघु लघु मम मानस सागर में | ||
+ | रह रहकर एक लहर उठती | ||
+ | और तटी तक आ आकर | ||
+ | वह प्रश्न प्रबल एक कर जाती | ||
+ | |||
+ | नवनीत देह लेकर भूतल में | ||
+ | जब आया था तब धेय था क्या | ||
+ | तू जीवन में है उलझ गया | ||
+ | या जीवन तुझमे उलझ गया | ||
+ | |||
+ | अमिय फेन सा निर्मल मन | ||
+ | लेकर आया था धरणी में | ||
+ | मद अहं गरल भरा तड़ाग | ||
+ | संचित किया यान्त्रिक जीवन में | ||
+ | |||
+ | इस लघुता मन में प्रश्न प्रखर | ||
+ | है मृत्यु कुटिल या यह जीवन | ||
+ | यदि मृत्यु कुटिल है तो आखिर | ||
+ | सारा जीवन फिर क्यों रोदन | ||
+ | |||
+ | करुणार्द्र कथा है यदि जीवन | ||
+ | एक घनीभूति है यह पीड़ा | ||
+ | उस चंद्रावदनी रूपराशि पर | ||
+ | भीगी पलकें क्यों करती क्रीड़ा | ||
+ | |||
+ | जब नहीं था तू तब भी तू था | ||
+ | अब है पर आखिर सत्य नहीं | ||
+ | सत्य एक है मृत्यु किन्तु | ||
+ | मंजिल आखिर यह मृत्यु नहीं | ||
+ | |||
+ | कल, काल कलांतर बीत चुके | ||
+ | औ ज्ञान बहुत हम खोज चुके | ||
+ | नहीं मानव मन की दहन बुझी | ||
+ | सब पंचकोष में लीन हुए | ||
+ | </poem> | ||
+ | {{Poemclose}} | ||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
+ | |||
+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
+ | [[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]][[Category:काव्य कोश]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
+ | __NOTOC__ | ||
+ | __INDEX__ | ||
+ | |||
+ | == नयन देखते हैं नभ को-दिनेश सिंह == | ||
+ | |||
+ | {{Poemopen}} | ||
+ | <poem>है ज्ञात मुझे की नहीं तुम | ||
+ | अब इस मायावी जग में | ||
+ | पर रह रहकर कुछ भाव उभरते | ||
+ | इस आकुल अन्तःस्थल में | ||
+ | |||
+ | वो मधुर कंठ से मृदु वाणी | ||
+ | वो स्नेहिल भरी पुकार तेरी | ||
+ | एक बज्रपात सा उर में होता | ||
+ | जब करता है उर याद तेरी | ||
+ | |||
+ | अतिशय तंद्रिल करती स्मृतियाँ | ||
+ | अंतरतम पल पल प्रतिपल | ||
+ | उमड़ उमड़ करुणा के सागर | ||
+ | करते निमग्र तट के स्थल | ||
+ | |||
+ | धीरज की दीवार टूटकर | ||
+ | इत उत फैली तृण तृण | ||
+ | इस मेरे एकाकी सागर में | ||
+ | रह रहकर उठता ज्वार प्रबल | ||
+ | |||
+ | देव लोक की देव परी | ||
+ | हरकर तुम सबका मन | ||
+ | फिर अपने पंख फैलाकर | ||
+ | चली गई तुम नील गगन | ||
+ | |||
+ | अगणित तारे बिखरे नभ में | ||
+ | झिलमिल झिलमिल करते चंचल | ||
+ | जिस तारे में हो बिम्ब तुम्हारा | ||
+ | है ढूंढ रहे उसको लोचन | ||
+ | </poem> | ||
+ | {{Poemclose}} | ||
+ | |||
+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
+ | |||
+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
+ | [[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]][[Category:काव्य कोश]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
+ | __NOTOC__ | ||
+ | __INDEX__ | ||
+ | |||
+ | == चाह मन में-दिनेश सिंह == | ||
+ | |||
+ | {{Poemopen}} | ||
+ | <poem>नित चाह मन में होती प्रखरतर | ||
+ | नित बृद्धि हो ज्यों शशि गगन पर | ||
+ | यह हृदय में है क्या चाह कोई | ||
+ | या कोई मिथ्या है मन पर | ||
+ | फैल जाऊँ इस भुवन पर | ||
+ | |||
+ | इस धरा से उस गगन तक | ||
+ | इस दिशा से उस दिशा तक | ||
+ | इस तिमिर से उस प्रभा तक | ||
+ | है चाह मन में अति प्रबलतर | ||
+ | फैल जाऊँ इस भुवन पर | ||
+ | |||
+ | सिंधु के बिच लहर उठती | ||
+ | पवन के संग तट को छूती | ||
+ | है पूर्ण वह अभिलाष करती | ||
+ | मै गीत के संग प्रभा छूकर | ||
+ | फैल जाऊँ इस भुवन पर | ||
+ | |||
+ | देखकर इन पंक्तियों को जग हँसेगा | ||
+ | मिथ्या भरा इसके हृदय में जग कहेगा | ||
+ | पंथ में भी अपशकुन के बिखरे सितारे | ||
+ | पर बढ़ रहा हूँ पंथ में कर्मिक हथेली थामकर | ||
+ | की फैल जाऊँ इस भुवन पर | ||
+ | </poem> | ||
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+ | == अब वह बनी मुक्तधारा--दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी | ||
+ | किसी के गीत की उपमा बनी थी जो अभी तक | ||
+ | प्रगति-पथ पर चली वो ज्योति पथ पर बिछाती | ||
+ | स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी | ||
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+ | अवहेलना जिसकी युगों से हुई थी | ||
+ | किसी की काम की कामना अब तक बनी थी | ||
+ | नवरूप अब लेकर जगी वो प्रेम की अनुगामिनी | ||
+ | स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी | ||
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+ | जिसके रूप का वर्णन नहीं कोई कर सका | ||
+ | कवि क्या शेष-नारद आदि नहीं कोई गा सका | ||
+ | हटाकर काम की मूरत को वह मुक्त धारा बनी | ||
+ | स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी | ||
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+ | दिया मद तोड़ जो कटीले तरु खड़े थे | ||
+ | बदल दी दृष्टि जग की जो कभी एकत्व थे | ||
+ | किया निर्माण निज नीड़ को वो अभिलाषनी | ||
+ | स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी | ||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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+ | == प्रियसी के प्रति---दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>मेरे मन बन के आस पास | ||
+ | स्वाछंद मरुत सा चपल श्वास | ||
+ | वश में करती वह एक एक क्षण | ||
+ | एक कली उपवन की रसाल | ||
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+ | मत रोक उपवन की सुरभि अरी | ||
+ | मै पथिक प्रवासी इतना निवास | ||
+ | निर्झर-सा अलक्षित लोक बसा | ||
+ | स्वप्निल-संसृति तृष्णा संसार | ||
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+ | शून्य हुई मधुमास डगर | ||
+ | निस्तेज हुई अनुराग लहर | ||
+ | मत जला शशि-ज्योति ज्यों लपटों से | ||
+ | ये द्युति चम्पक सा हिला गात | ||
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+ | == तंद्रिल अति तंद्रिल होता उर--दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>उगता है चाँद जब अंबर पर | ||
+ | संताप बढ़ाता जीवन का | ||
+ | उर में एसी हलचल भरता | ||
+ | कि रातो को मै सो न सका | ||
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+ | लहरा लहरा कर-जब पवन बहे | ||
+ | कुछ पल को शोक भूलता मन | ||
+ | मलयामिस्श्रित वो ध्वनि नुपुर सी | ||
+ | यूँ लगे चली आ रही हो तुम | ||
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+ | दिन की आभा पंख समेटे | ||
+ | ओझल होती है-जब नभ से | ||
+ | जब घिर जाता हूँ अन्धकार से | ||
+ | तब नयन कोर भींगे जल से | ||
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+ | चम्पई चाँदनी फैले नभ पर | ||
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+ | पर मुझे लगे ये चम्पक सी | ||
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+ | == स्वर्गिगक सुखमा बसा धरा पर--दिनेश सिंह == | ||
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+ | अचलो की श्रांखलाएँ अवर्णित निरुपम | ||
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+ | ज्यो धवल परिधान ओढ़े खड़ी हो कोई रूपसी | ||
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+ | बहा कवी का हृदय तेरे स्वर लहरों में | ||
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+ | वह उसका सुख ना देख सका | ||
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+ | नित प्रलय सेज पर सोता निर्बल | ||
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+ | <poem>हम बहुत जलाये बाह्य दीप | ||
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+ | पर नहीं कर सके दूर तिमिर | ||
+ | जो भरा हृदय के अन्तः में | ||
+ | |||
+ | कितने जल करके बुझे दीप | ||
+ | नही दीप जला विश्वास भरा | ||
+ | जहाँ भरा हुआ है राग द्वेष | ||
+ | उस अंध गुहा पर दीप जला | ||
+ | |||
+ | जाति कौम की सड़ी लकड़ियों | ||
+ | को एकत्रित कर आग लगा | ||
+ | तब मानवता के हवन कुण्ड से | ||
+ | अस्फुट होगी एक दिव्य विभा | ||
+ | |||
+ | हर अंध गुहा के अंतः में | ||
+ | जाग जाग वो जाग विभा | ||
+ | तेरी प्रदीप्त की ज्वाला से | ||
+ | जल जाये ईर्ष्यावती अभा</poem> | ||
+ | {{Poemclose}} | ||
+ | |||
+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
+ | |||
+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
+ | [[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]][[Category:काव्य कोश]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
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+ | |||
+ | == कडवे पत्ते-दिनेश सिंह == | ||
+ | |||
+ | {{स्वतंत्र लेखन नोट}} | ||
+ | {{Poemopen}} | ||
+ | <poem>तुम हाँथ पसारे यहाँ खड़े किस आशा में | ||
+ | क्यों बोल रहे हो यहाँ अश्रु की भाषा में | ||
+ | जो तेरा है उसे छीन झपट कर ले आओ | ||
+ | नहीं डाल गले में फांद शुलि पर चढ़ जाओ | ||
+ | |||
+ | बस यही रास्ते दो ही है तेरे सम्मुख | ||
+ | इन्ही रास्तों में तुमको चलना होगा | ||
+ | एक रास्ता और यहाँ है किन्तु तुम्हें | ||
+ | उसमें तुमको पल पल मरना होगा | ||
+ | |||
+ | स्वर भरे शब्द आशाओं के | ||
+ | कब पड़ते मुर्दों के कानो में | ||
+ | क्या नहीं जानते बंधू मेरे तुम | ||
+ | नहीं पाषाण पिघलते आँसू में | ||
+ | |||
+ | जिस आशा की तुम ज्वाला लेकर | ||
+ | जो चाह रहे हो कोई दीप जलाना | ||
+ | वह आशा ही आशा बनकर रह जायेगी | ||
+ | औ घिरा रहेगा अन्धकार से हर कोना | ||
+ | |||
+ | क्यों खोज रहे हो चढ़ अंचलों के शृंगों से | ||
+ | विभा कोई जिससे मिट जाये अंधियाली | ||
+ | पर सच है! की मानव के गौरव पथ से | ||
+ | कब की लुप्त हो गयी है किरणों की लाली</poem> | ||
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+ | |||
+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
+ | |||
+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
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+ | == कौन यहाँ नहीं है व्याकुल-दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>देख मेरी दयनीय दशा को | ||
+ | मन मेरा मुझसे है व्याकुल | ||
+ | बोला वह विश्व प्राङ्गणा में | ||
+ | सर,सलिल,कुसुम्म्य सभी व्याकुल | ||
+ | कौन यहाँ जो नहीं है व्याकुल | ||
+ | |||
+ | जलते सूरज के प्रखर तेज से | ||
+ | धरती का कण कण है व्याकुल | ||
+ | प्राकृति के सारे नियम तोड़ | ||
+ | मानवीय सभ्यता है व्याकुल | ||
+ | |||
+ | देख सबल का प्रबल वेग | ||
+ | निर्बल का अँग अँग व्याकुल | ||
+ | निर्भीक दौड़ते भय के रथ से | ||
+ | शांति,खड़ी नतमस्तक व्याकुल | ||
+ | |||
+ | धनवर्षा देख मंदिरो में | ||
+ | धन कुबेर होगा व्याकुल | ||
+ | भूखे की भूख देखकर के | ||
+ | हो रहा देव-होगा व्याकुल | ||
+ | |||
+ | जहाँ मानव होता है पावन | ||
+ | वह गंग बहे निसहाय विकल | ||
+ | धो धोकर मैल हुई मलिन | ||
+ | पावन गंगा का जल निर्मल | ||
+ | |||
+ | चुनी,कार्यपालिका के कार्यों से | ||
+ | यहाँ निम्नवर्ग आकुल व्याकुल | ||
+ | औ न्यायपालिका के निर्णाय से | ||
+ | है उच्चवर्ग व्याकुल विव्हल | ||
+ | |||
+ | मानव निर्मित यह हवन कुण्ड | ||
+ | जलता खगोल निसहाय विकल | ||
+ | सुन लगा ध्यान उठता तूफान | ||
+ | जाऊं!दीवार तोड़ किस ओर निकल</poem> | ||
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+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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+ | ==संबंधित लेख== | ||
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+ | == स्वर्ण-छवि-दिनेश सिंह == | ||
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+ | <poem>रजनी तिमिर ले जा रही थी | ||
+ | छितिज से,चाँद ओझल हो रहा था | ||
+ | औ मत्त स्वर में एक खग | ||
+ | स्वर चेतना में भर रहा था | ||
+ | |||
+ | थे पुष्प के तरु मुकुट पहने | ||
+ | यौन में डूबे सभी मकरन्द थे | ||
+ | बून्द चंचल ओस के कण | ||
+ | तृप्त वसुधा कर रहे थे | ||
+ | |||
+ | प्राण पपीहा मधुर स्वर में | ||
+ | था घोलता स्वर मधुर पव में | ||
+ | शैल श्रंग, दूर्वा प्रांतर पर | ||
+ | थी विभा मोति सी ओस कणों में | ||
+ | |||
+ | बहु टोलियां विहग दल की | ||
+ | गान करते विविध स्वर में | ||
+ | पूर्ण यौवना जल तरंगें | ||
+ | थिरकती थी एक सर में | ||
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+ | नव्य अरुणिमा ऊषा लेकर | ||
+ | सूर्य नभ पर आ चुका था | ||
+ | बदलकर पट नील अम्बर | ||
+ | पट पीत धारण कर चुका था | ||
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+ | आ पड़ी जब किरण अलि में | ||
+ | प्रात की नव विभा लेकर | ||
+ | रंगी सकल अलि स्वर्णाभ रंग | ||
+ | स्वर्ण व्योम औ स्वर्ण सरोवर</poem> | ||
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+ | <poem>फिर ढल चुका है सूर्य नभ से | ||
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+ | बालक अबोध बन जाते हो | ||
+ | |||
+ | कभी ममता की आँखों से बह | ||
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+ | कभी छद्द्म नीर बहाकर के | ||
+ | हृदय तोड़ तुम जाते हो | ||
+ | |||
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+ | बहुत पढ़ा इतिहास तुम्हारा | ||
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+ | |||
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+ | ह्रद में तुम ज्वार उठाकर | ||
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+ | तुम मेरे अंतः के नभ पर | ||
+ | घुमड़ घुमड़ बन घन छाये | ||
+ | दो घडी को यदि सुख पाया | ||
+ | तुम खोज वेदना ले आये | ||
+ | |||
+ | मेरे अन्तरिक्ष की करुणा | ||
+ | सिसक सिसक कर रोयीं | ||
+ | क्या क्या जतन किये तब | ||
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+ | |||
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+ | जो आकर डेरा डाला | ||
+ | |||
+ | ------III-भाग | ||
+ | जब रजनी बेला में शशि | ||
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+ | मेरी करुणा का ईंधन | ||
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+ | ये कैसा उपहास तुम्हारा | ||
+ | आँखों संग नाच रहे तुम | ||
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+ | कल्याणी सुख के जल से | ||
+ | कलि को तो खिल जाने दो | ||
+ | |||
+ | तेरी दुःख की दुनिया पर | ||
+ | मिलता किसका संरछण | ||
+ | बस तू ही तू है दिखती | ||
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+ | तू कैसा जाल बुना है | ||
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+ | कोई पंथ ना सूझ रहा है | ||
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+ | उच्चस्वांस कर रोयी | ||
+ | तन्द्रा मेरी ये तरुणा | ||
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+ | तू कहाँ छुपी नहीं सुंदरता | ||
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+ | कीटों के किंकिणि-ध्वनि में | ||
+ | कोमल कलियों की पंखुड़ियों | ||
+ | भ्रमरों के मर मर स्वर में | ||
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+ | आयी हो मेरे मानस में तो | ||
+ | नमन करो तुम स्वराकार | ||
+ | हृदय भरो स्वर्गीय गान | ||
+ | श्रृंगार शिरोमणि अलंकार | ||
+ | |||
+ | तेरी नगरी में देख रहा | ||
+ | सुंदरता, दृश्य मनोरम | ||
+ | लहरों संग है तू थिरक रही | ||
+ | गाती संग गान विहंगम | ||
+ | |||
+ | हुआ क्षितिज में अरुणोदय | ||
+ | किरणे आ पड़ी अवनि में | ||
+ | मंत्रमुग्ध हो गया प्रकृति | ||
+ | सुंदरता, तेरे यौवन में | ||
+ | |||
+ | खोल दिये पंखुड़ी जलज | ||
+ | मकरंद चुम्ब अंकित करते | ||
+ | मचल रहे है मृदुल कान्त | ||
+ | और बाँह पसार तुझे भरते | ||
+ | |||
+ | हे स्वर्णदीप्त तू सुंदरता | ||
+ | पिक के तू उर्मिल गानो में | ||
+ | नभ मंडल में बन इन्द्रधनुष | ||
+ | अवनि के कोमल संसृति मे | ||
+ | |||
+ | ------II-भाग | ||
+ | हे स्वर्णदीप्त तू सुंदरता | ||
+ | तू किस सौरभ की माला को | ||
+ | है पलक झुकाये गूँथ रही | ||
+ | औ उठ उठ गिरती स्वागत को | ||
+ | |||
+ | कभी छुपी रूपसी के कपोल पर | ||
+ | लेकर लज्जा की लाली | ||
+ | कभी छटक केश तू इठलाती | ||
+ | जब चले चाल वो मतवाली | ||
+ | |||
+ | पलकों के पुतली में छिपकर | ||
+ | दीपक लौ सा वो बलखाना | ||
+ | वो छुपकर के नत कोरों में | ||
+ | बिन कहे बहुत कुछ कह जाना | ||
+ | |||
+ | कैसा कर डाला सम्मोहन | ||
+ | नयनो में भरकर मादकता | ||
+ | देख रहा प्रत्यक्ष कवी | ||
+ | सम्मोहित होती है कविता | ||
+ | |||
+ | गगन पसारे बाँह खड़ा | ||
+ | रजनी हो शिथिल समायी | ||
+ | था तम अपनी यौवन में | ||
+ | सुंदरता कुंकुम बरसायी | ||
+ | |||
+ | सम्मोहित हो गया जगत | ||
+ | जब यौवन ने ली अँगड़ाई | ||
+ | चपला चंचल तू सुंदरता | ||
+ | जब भर विलास मधु ले आई | ||
+ | |||
+ | कम्पित थरथर अधर प्रवाल | ||
+ | बहे ज्यों पवन काँपते पात | ||
+ | लाज से सकुचाती सुकुमारी | ||
+ | सकुचति छुई मुई ज्यों पात | ||
+ | |||
+ | पल्लवित हुआ काम का लोक | ||
+ | बिखेरे रति अपने जब केश | ||
+ | झील से गहरे गहरे नैन | ||
+ | डूब सा गया कवी देश | ||
+ | |||
+ | ----III-भाग | ||
+ | अलकानगरी की रति रानी | ||
+ | तू उज्जवल एक चेतना है | ||
+ | तेरी सुषमा के सागर में | ||
+ | सारा अनंत यह डूबा है | ||
+ | |||
+ | तेरी ज्योत्स्रना जलनिधि में | ||
+ | दो बटी हुई हैं धारायें | ||
+ | एक,डूब तृप्त होता है जग | ||
+ | एक पर मिलती हैं बाधायें | ||
+ | |||
+ | तेरे संग न्याय ये कैसा | ||
+ | विश्वास तोड़ता है जग | ||
+ | तब सुंदरता के पीछे | ||
+ | रहस्य खोजता है जग | ||
+ | |||
+ | हे स्वर्णदीप्त तू सुंदरता | ||
+ | तू निश्छल एक तपस्वी है | ||
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+ | भेद लगा पाना मुश्किल | ||
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+ | यदि हो!अन्तः का धवल वर्ण अम्बर | ||
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+ | सुंदर जीवन का हर क्रम है | ||
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+ | लीन मलय में अविकल | ||
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+ | रवि बंद किया अपनी शाला | ||
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+ | श्याम श्वेत उन बादल पर | ||
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+ | आ समा गयी वसुधा के | ||
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+ | |||
+ | लहराती शीत पर्वत प्रदेश | ||
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+ | हिम के कण लघु लघु उड़ते यूँ | ||
+ | ज्यों चाँदी के चंचल उड़गण</poem> | ||
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+ | |||
+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
+ | |||
+ | [[Category:दिनेश सिंह]] | ||
+ | [[Category:सदस्य वार्ता]] | ||
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__INDEX__ | __INDEX__ |
14:32, 4 जनवरी 2015 के समय का अवतरण
सुझाव पर विचार
दिनेश सिंह जी, आपके दिये सुझाव पर भारतकोश टीम शीघ्र ही विचार करके आपको अवगत कराएगी। गोविन्द राम - वार्ता 19:52, 9 अगस्त 2014 (IST)
अन्तःद्वन्द -भाग-७-दिनेश सिंह |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
मन की व्यथा -दिनेश सिंह
यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं। |
कितना सुंदर होता की |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -दिनेश सिंह
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको
था ऋतू बसंत फूलों का उपवन
छुई मुई के तरु सी लज्जित
नयनो का वो मौन मिलन
कम्पित अधरों से वो कहना
नख से धरा कुदॆर रही थी
आँखों मे मादकता चितवन
साँसों का मिलता स्पंदन
भटक रहा था एकाकी पथ पर
पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा
ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन
खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा
ह्रदय के गहरे अन्धकार में
मन डूबा था विरह व्यथा में
छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से
फैलाया उर में प्रकाश यौवन
कितने सुख दुःख जीवन में हो
नहीं मृत्यु से किंचित भय
आँखों के सम्मुख रहो सदा जो
औ प्रीति रहे उर में चिरमय
एक सलोने से सपने में कोई -दिनेश सिंह
एक सलोने से सपने में कोई
नीदों में दस्तक दे जाती है
इन्द्रधनुष सा शतरंगी -
स्वप्न को रंगीत कर जाती है
अद्रशित सी कोई डोर
खीच रही है अपनी ओर
खीचा जाऊं हो आत्मविभोर
रूपसी कौन कौन चित चोर
अधरों में मुस्कान लिए
मुख पर शशी की जोत्स्रना
द्रगो में लाज-मुग्ध-यौवन विद्यमान
तेज रवि सा मुख-छबि-में रुचिमान
आखों का फैलाये तिछर्ण जाल
फंसाकर मेरा खग अनजान चली
जैसे नभ में छायी बदली-
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प्रकति की सुन्दर-----------------दिनेश सिंह
प्रकृति की सुन्दरता को देखकर
मन हो जाता है मुदित
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विविध ध्वनि विहंगावली
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गूंजता है सुर कलापी कोकिला
कुसुमासव सी मधुर आवाज
श्रुतिपटल पर कोई मुरली बजी
निशा का अवसान समीप हो
नवऊयान हो रही हो यामनी
शुन्य पर हो जब वातावरण
पतंगों की गूंज से , जैसे घंटी बजी
चाँद जब चादनी बिखेरे सुमेरु पर
देखते ही बन रही है अनुपम छटा
लग रहा है आज मानो अचल पर
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फिर से बज गया बिगुल
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निकल पड़े है फिर महारथी
वही रथी है वही सारथी
दागदार है सैन्य खड़ी
लड़ने को लाचार कारवाँ
कोई अन्य विकल्प नहीं
भरे हुये बातो का तरकश
प्रतिद्वंदी पर करते प्रहार
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नहीं मानते है वो हार
बिछा दिया शतरंजी बाजी
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खग गीत-दिनेश सिंह
उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में
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चाहे_डाल कही पर डेरा_या कर ले कहीं बसेरा
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बहे मरुत मधुरम मधुरम
ले गीत गन्ध चहुर्दिक उत्तम
गा पिक मधुर गान पञ्चम स्वर में
उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में
कर नृत्य मुग्ध हो नर्तकप्रिय
बरस उठे बन जल बादल
बहे ह्रदय का अन्धकार
नव प्रभात हो फिर जग में
जागे जग फिर एक बार
हो हरित नवल मसल का संचार
हो स्वप्न सजल सुखोन्माद
फिर हँसे दिशि_अखिल के कण्ठ से
उठे ध्वनि आनन्द में
उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में
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