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'''चरु''' धार्मिक मान्‍यताओं के अनुसार माता [[दुर्गा]] के चरणों में बंधे एक बहुत बड़े घड़े को कहा गया है। इस घड़े का उद्गम पब्‍बर नदी से हुआ है। लोगों का यह मानना है कि जब पब्‍बर नदी में बाढ़ आती है तो यह घड़ा नदी की ओर हिलने लगता है। कहा जाता है कि हाटकोटी मंदिर की परीधि के ग्रामों में जब कोई विशाल उत्सव, यज्ञ, विवाह आदि का आयोजन किया जाता था तो हाटकोटी से चरु लाकर उसमें भोजन रखा जाता था। चरु में रखा भोजन बार-बार बांटने पर भी समाप्त नहीं होता था। यह सब दैविक कृपा का प्रसाद माना जाता था। चरु को अत्यंत पवित्रता के साथ रखा जाना आवश्यक होता था अन्यथा परिणाम उलटा हो जाता था। लोक मानस में चरु को भी देवी का बिंब माना जाता रहा है। शास्त्रीय दृष्टि से चरु को हवन या यज्ञ का अन्न भी कहा जाता है।
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'''चरु''' धार्मिक मान्‍यताओं के अनुसार माता [[दुर्गा]] के चरणों में बंधे एक बहुत बड़े घड़े को कहा गया है। इस घड़े का उद्गम पब्‍बर नदी से हुआ है। लोगों का यह मानना है कि जब पब्‍बर नदी में बाढ़ आती है तो यह घड़ा नदी की ओर हिलने लगता है। कहा जाता है कि हाटकोटी मंदिर की परीधि के ग्रामों में जब कोई विशाल उत्सव, यज्ञ, [[विवाह]] आदि का आयोजन किया जाता था तो हाटकोटी से चरु लाकर उसमें भोजन रखा जाता था। चरु में रखा भोजन बार-बार बांटने पर भी समाप्त नहीं होता था। यह सब दैविक कृपा का प्रसाद माना जाता था। चरु को अत्यंत पवित्रता के साथ रखा जाना आवश्यक होता था अन्यथा परिणाम उलटा हो जाता था। लोक मानस में चरु को भी देवी का बिंब माना जाता रहा है। शास्त्रीय दृष्टि से चरु को हवन या यज्ञ का अन्न भी कहा जाता है।
 
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|अर्थ=यज्ञ/हवन में आहुति देने के लिए पकाया हुअा अन्न, हव्य अन्न, हविष्यान, हव्य अन्न को पकाने का मिट्टी का बर्तन, दूध, चावल और घी के मिश्रण से बनी खीर, चरागाह,
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08:37, 31 दिसम्बर 2015 का अवतरण

चरु धार्मिक मान्‍यताओं के अनुसार माता दुर्गा के चरणों में बंधे एक बहुत बड़े घड़े को कहा गया है। इस घड़े का उद्गम पब्‍बर नदी से हुआ है। लोगों का यह मानना है कि जब पब्‍बर नदी में बाढ़ आती है तो यह घड़ा नदी की ओर हिलने लगता है। कहा जाता है कि हाटकोटी मंदिर की परीधि के ग्रामों में जब कोई विशाल उत्सव, यज्ञ, विवाह आदि का आयोजन किया जाता था तो हाटकोटी से चरु लाकर उसमें भोजन रखा जाता था। चरु में रखा भोजन बार-बार बांटने पर भी समाप्त नहीं होता था। यह सब दैविक कृपा का प्रसाद माना जाता था। चरु को अत्यंत पवित्रता के साथ रखा जाना आवश्यक होता था अन्यथा परिणाम उलटा हो जाता था। लोक मानस में चरु को भी देवी का बिंब माना जाता रहा है। शास्त्रीय दृष्टि से चरु को हवन या यज्ञ का अन्न भी कहा जाता है।