नेवासा

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नेवासा नामक पुरास्थल महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले में ज़िला मुख्यालय से उत्तर-पूर्व की ओर गोदावरी नदी की सहायक नदी प्रवरा के दोनों तटों पर स्थित है। इस स्थल को खोजने का श्रेय एम.एन. देशपाण्डे को जाता है।

उत्खनन

नेवासा में पुरा पाषाण काल प्रस्तर उपकरण प्राप्त हुए हैं। इस स्थल पर पुणे के दक्खन कॉलेज की ओर से 1954-56 में उत्खनन कार्य किया गया। इसके पश्चात् 1959-61 में पुनः इस स्थल पर एच.डी. सांकलिया एवं जेड. डी. अंसारी ने उत्खनन और अंवेषण कार्य करवाया। नेवासा के उत्खनन में प्राप्त पुरावशेषों के विश्लेषण से यहाँ विभिन्न स्तरों में छः अलग-अलग काल की संस्कृतियों के दर्शन होते हैं। प्रथम, निम्न पुरापाषाण काल (1,50, 000ई. पू.); द्वितीय, मध्य पुरापाषाण काल (25,000 ई.पू.); तृतीय ताम्रपाषाणिक काल (1500 से 1000 ई.पू.); चतुर्थ, प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल (150 ई.पू. से 50 ई.पू.); पंचम ऐतिहासिक काल (50 ई.पू. से 200 ई. तक) तथा षष्ठम, उत्तर मध्य काल (1400-1700 ई.)। प्रवरा के तट पर नेवासा के आस-पास सर्वेक्षण से निम्न पुरापाषाण कालीन प्रस्तर उपकरण मिले हैं, जिनमें हस्त कुल्हाड़ी क्लीवर, स्क्रेपर तथा कोर फलक प्रमुख हैं। नर्मदा के अतिरिक्त नेवासा ही प्रायद्वीपीय भारत में ऐसा स्थल है, जहाँ से पुरापाषाण काल के उपकरणों के साथ ही हाथी, घोड़े एवं अन्य पशु जीवाश्म मिले हैं। 1966-69 में चिरकी-नेवासा में उत्खनन के दौरान 2,407 प्रस्तर उपकरण मिले हैं। इन उपकरणों में कुछ अर्द्ध-निर्मित हैं और कुछ निर्मीयमाण अवस्था में हैं। प्रवरा के बायें तट पर नेवासा के उत्खनन से मध्य पुरापाषाण काल के फलक प्रधान उपकरण प्राप्त हुए। इनमें मुख्यतः फलक पर बने स्क्रेपर हैं। इनके अलावा छिद्रक, वेधक और ब्यूरिन प्राप्त हुए हैं।

अवशेष

नेवासा के अन्य स्तर से तीसरी संस्कृति ताम्रपाषाणिक संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस काल में मानव ने यहाँ पर स्थायी बस्ती बना ली थी। इस काल के निवासियों के आवास बाँस-बल्ली व घासफूस के थे। इनमें मिट्टी के चूल्हे तथा पत्थर के सिल-बट्टे मिले हैं, जिनका प्रयोग खाद्यानों को पीसने में किया जाता होगा। ये लोक कृषि एवं पशुपालन से परिचित थे। ताम्र उपकरणों में यहाँ से कुल्हाड़ियाँ, चाक़ू, चूड़ियाँ मनके और अंजन शलाकाएँ मिली हैं। इस स्थल से जोर्वे टाइप के मृद्पात्र प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार के पात्र गुलाबी रंग के चाक पर बने होते हैं, जिन पर टोंटियाँ आदि हाथ से लगायी जाती थीं। इन पर ज्यामितीय एवं पशु आकृतियों का अंकन मिलता है। इन पात्रों में टोंटीदार बर्तन, कटोरे, गहरे कटोरे, तसले, मटके और घड़े आदि उल्लेखनीय हैं। मिट्टी के अण्डाकार, दीपक भी मिले हैं। स्त्री-पुरुषों के आभूषणों में ताँबे, अगेट, जैस्पर, कार्नेलियन, चाल्सेडनी और मिट्टी के मनकों के हार मिले हैं। इन्हें मृतकों के साथ भी दफनाया जाता था। मृतकों को उत्तर में सिर करके दफनाने का संकेत मिलता है। बच्चों को दो कलशों में दफनाने का रिवाज था।

ताम्रपाषाणिक काल के बाद नेवासा में एक लम्बा अंतराल आ जाता है। शायद यह बस्ती उजड़ गयी थी। आठ सौ वर्षों के अंतराल के बाद फिर यहाँ से प्रारंभिक ऐतिहासिक दौर के अवशेष प्राप्त होते हैं। इस स्तर से लौह उपकरण प्राप्त होते हैं। मकान पत्थर की नींव पर मिट्टी की ईंटों से बने हुए मिलते हैं। पात्रों में कृष्ण-लोहित तथा रक्त-लोपित परम्परा के पात्र मिलते हैं। इनमें उत्तरी काली-चमकीली पात्र परम्परा भी चलन में थी। इस सांस्कृतिक स्तर से सातवाहन राजाओं के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ व के ओलिन (चीनी मिट्टी) का बना एक बच्चे का सिर प्राप्त हुआ है। माणिक्य के मनके विशेषतः उल्लेखनीय हैं। यहाँ से हस्तनिर्मित मिट्टी का बना हुआ एक चैत्य भी प्राप्त हुआ है। परवर्ती ऐतिहासिक काल में मकान पूर्ववर्ती काल के समान ही हैं। कृष्ण-लोहित व रक्त-लेपित पात्रों के साथ ही रोमन अरेटाइन परम्परा के पात्रों के भी दर्शन इस चरण में होते हैं। इस स्तर से बहुसंख्यक मृण्मूर्तियाँ, शंख की चूड़ियाँ, पत्थर का जाँता (आटा चक्की) आदि मिले हैं। इस स्तर से एक दफनाया हुआ कंकाल भी प्राप्त हुआ है।

नेवासा में एक बार फिर तीसरी शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक मानव आवास में अंतराल आ जाता है। उत्तर मध्यकाल में नेवासा एक बार पुनः आबाद हुआ। यहाँ सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के एक राजमहल के अवशेष प्राप्त हुए हैं।


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