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'''ब्रह्मचर्य''' का मूल अर्थ है 'ब्रह्म ([[वेद]] अथवा ज्ञान) की प्राप्ति का आचरण।' इसका रूढ़ प्रयोग विद्यार्थीजीवन के अर्थ में होता है। [[आर्य]] जीवन के चार [[आश्रम|आश्रमों]] में प्रथम ब्रह्मचर्य है, जो विद्यार्थीजीवन की अवस्था का द्योतक है। प्राचीन समय से ही [[भारत]] में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्त्व रहा है। कभी-कभी प्रौढ़ और वृद्ध लोग भी छात्रजीवन का निर्वाह समय-समय पर किया करते थे, जैसा कि आरुणि<ref>(बृहदारण्यक उपनिषद 6.1.6)</ref> की कथा से ज्ञात होता है। ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ स्त्रीचिन्तन, दर्शन, स्पर्श आदि का सर्वथा त्याग है, इस प्रकार से ही पठन, भजन, ध्यान की ओर मनोनिवेश सफल होता है।
 
'''ब्रह्मचर्य''' का मूल अर्थ है 'ब्रह्म ([[वेद]] अथवा ज्ञान) की प्राप्ति का आचरण।' इसका रूढ़ प्रयोग विद्यार्थीजीवन के अर्थ में होता है। [[आर्य]] जीवन के चार [[आश्रम|आश्रमों]] में प्रथम ब्रह्मचर्य है, जो विद्यार्थीजीवन की अवस्था का द्योतक है। प्राचीन समय से ही [[भारत]] में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्त्व रहा है। कभी-कभी प्रौढ़ और वृद्ध लोग भी छात्रजीवन का निर्वाह समय-समय पर किया करते थे, जैसा कि आरुणि<ref>(बृहदारण्यक उपनिषद 6.1.6)</ref> की कथा से ज्ञात होता है। ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ स्त्रीचिन्तन, दर्शन, स्पर्श आदि का सर्वथा त्याग है, इस प्रकार से ही पठन, भजन, ध्यान की ओर मनोनिवेश सफल होता है।
 
==प्राचीनता==
 
==प्राचीनता==
[[ऋग्वेद]] के अन्तिम मण्डल में इसके अर्थों पर विवेचन हुआ है। निसंदेह विद्यार्थीजीवन का अभ्यास क्रमश: विकसित होता गया एवं समय के साथ-साथ इसके आचार कड़े होते गये, किन्तु इसका विशद विवरण परवर्ती [[वैदिक साहित्य]] में ही उपलब्ध होता है। ब्रह्मचारी की प्रशंसा में कथित [[अथर्ववेद]] (11.5) के एक सूक्त में इसके सभी गुणों पर प्रकाश डाला गया है। आचार्य के द्वारा कराये गये [[उपनयन संस्कार]] के द्वारा बटुक का नये जीवन में प्रवेश, मृगचर्म धारण करना, केशों को बढ़ाना, समिधा संग्रह करना, भिक्षावृत्ति, अध्ययन एवं तपस्या आदि उसकी साधारण चर्या वर्णित है। ये सभी विषय परवर्ती साहित्य में भी दृष्टिगत होते हैं।
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[[ऋग्वेद]] के अन्तिम मण्डल में इसके अर्थों पर विवेचन हुआ है। निसंदेह विद्यार्थीजीवन का अभ्यास क्रमश: विकसित होता गया एवं समय के साथ-साथ इसके आचार कड़े होते गये, किन्तु इसका विशद विवरण परवर्ती [[वैदिक साहित्य]] में ही उपलब्ध होता है। ब्रह्मचारी की प्रशंसा में कथित [[अथर्ववेद]]<ref>अथर्ववेद (11.5)</ref> के एक सूक्त में इसके सभी गुणों पर प्रकाश डाला गया है। आचार्य के द्वारा कराये गये [[उपनयन संस्कार]] के द्वारा बटुक का नये जीवन में प्रवेश, मृगचर्म धारण करना, केशों को बढ़ाना, समिधा संग्रह करना, भिक्षावृत्ति, अध्ययन एवं तपस्या आदि उसकी साधारण चर्या वर्णित है। ये सभी विषय परवर्ती साहित्य में भी दृष्टिगत होते हैं।
 
==समय सीमा==
 
==समय सीमा==
 
विद्यार्थी आचार्य के घर में रहता है<ref>(आचार्यकुलवासिन:, ऐतरेय ब्राह्मण, 1.23,2; अन्तेवासिन:, वही 3.11, 5)</ref>; भिक्षा माँगता है, यज्ञाग्नि की देखरेख करता है<ref>(छान्दोग्य उपनिषद, 4.10.2)</ref> तथा घर की रक्षा करता है<ref>(शतपथ ब्राह्मण, 3.62.15)</ref>। उसका छात्रजीवन काल बढ़ाया जा सकता है। साधारणतया यह काल बारह वर्षों का होता था, जो कभी-कभी बत्तीस वर्ष तक भी हो सकता था। छात्र जीवनारम्भ के काल निश्चय में भी भिन्नता है। श्वेकेतु 12 वर्ष की अवस्था में इसे आरम्भ कर 12 वर्ष तक अध्ययन करता रहा<ref>(छान्दोग्य उपनिषद, 5.1.2)</ref>।
 
विद्यार्थी आचार्य के घर में रहता है<ref>(आचार्यकुलवासिन:, ऐतरेय ब्राह्मण, 1.23,2; अन्तेवासिन:, वही 3.11, 5)</ref>; भिक्षा माँगता है, यज्ञाग्नि की देखरेख करता है<ref>(छान्दोग्य उपनिषद, 4.10.2)</ref> तथा घर की रक्षा करता है<ref>(शतपथ ब्राह्मण, 3.62.15)</ref>। उसका छात्रजीवन काल बढ़ाया जा सकता है। साधारणतया यह काल बारह वर्षों का होता था, जो कभी-कभी बत्तीस वर्ष तक भी हो सकता था। छात्र जीवनारम्भ के काल निश्चय में भी भिन्नता है। श्वेकेतु 12 वर्ष की अवस्था में इसे आरम्भ कर 12 वर्ष तक अध्ययन करता रहा<ref>(छान्दोग्य उपनिषद, 5.1.2)</ref>।

10:52, 6 नवम्बर 2011 का अवतरण

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ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ है 'ब्रह्म (वेद अथवा ज्ञान) की प्राप्ति का आचरण।' इसका रूढ़ प्रयोग विद्यार्थीजीवन के अर्थ में होता है। आर्य जीवन के चार आश्रमों में प्रथम ब्रह्मचर्य है, जो विद्यार्थीजीवन की अवस्था का द्योतक है। प्राचीन समय से ही भारत में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्त्व रहा है। कभी-कभी प्रौढ़ और वृद्ध लोग भी छात्रजीवन का निर्वाह समय-समय पर किया करते थे, जैसा कि आरुणि[1] की कथा से ज्ञात होता है। ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ स्त्रीचिन्तन, दर्शन, स्पर्श आदि का सर्वथा त्याग है, इस प्रकार से ही पठन, भजन, ध्यान की ओर मनोनिवेश सफल होता है।

प्राचीनता

ऋग्वेद के अन्तिम मण्डल में इसके अर्थों पर विवेचन हुआ है। निसंदेह विद्यार्थीजीवन का अभ्यास क्रमश: विकसित होता गया एवं समय के साथ-साथ इसके आचार कड़े होते गये, किन्तु इसका विशद विवरण परवर्ती वैदिक साहित्य में ही उपलब्ध होता है। ब्रह्मचारी की प्रशंसा में कथित अथर्ववेद[2] के एक सूक्त में इसके सभी गुणों पर प्रकाश डाला गया है। आचार्य के द्वारा कराये गये उपनयन संस्कार के द्वारा बटुक का नये जीवन में प्रवेश, मृगचर्म धारण करना, केशों को बढ़ाना, समिधा संग्रह करना, भिक्षावृत्ति, अध्ययन एवं तपस्या आदि उसकी साधारण चर्या वर्णित है। ये सभी विषय परवर्ती साहित्य में भी दृष्टिगत होते हैं।

समय सीमा

विद्यार्थी आचार्य के घर में रहता है[3]; भिक्षा माँगता है, यज्ञाग्नि की देखरेख करता है[4] तथा घर की रक्षा करता है[5]। उसका छात्रजीवन काल बढ़ाया जा सकता है। साधारणतया यह काल बारह वर्षों का होता था, जो कभी-कभी बत्तीस वर्ष तक भी हो सकता था। छात्र जीवनारम्भ के काल निश्चय में भी भिन्नता है। श्वेकेतु 12 वर्ष की अवस्था में इसे आरम्भ कर 12 वर्ष तक अध्ययन करता रहा[6]

वर्ण विभाजन

गृह्यसूत्रों में कहा गया है कि प्रथम तीन वर्णों को ब्रह्मचर्य आश्रम में रहना चाहिए। किन्तु इसका पालन ब्राह्मणों के द्वारा विशेषकर, क्षत्रियों के द्वारा उससे कम तथा वैश्यों द्वारा सबसे कम होता था। दूसरे और तीसरे वर्ण के लोग ब्रह्मचर्य (विद्यार्थीजीवन) के एक अंश का ही पालन करते थे और सभी विद्याओं का अध्ययन न कर केवल अपने वर्ण के योग्य विद्याभ्यास करने के बाद ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर जाते थे। क्षत्रियकुमार विशेष कर युद्ध विद्या का ही अध्ययन करते थे। राजकुमार युद्धविद्या, राजनीति, धर्म तथा अन्यान्य विद्याओं में भी पाण्डित्य प्राप्त करते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 453 |

  1. (बृहदारण्यक उपनिषद 6.1.6)
  2. अथर्ववेद (11.5)
  3. (आचार्यकुलवासिन:, ऐतरेय ब्राह्मण, 1.23,2; अन्तेवासिन:, वही 3.11, 5)
  4. (छान्दोग्य उपनिषद, 4.10.2)
  5. (शतपथ ब्राह्मण, 3.62.15)
  6. (छान्दोग्य उपनिषद, 5.1.2)

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