दिव्या (उपन्यास)

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'दिव्या' यशपाल के श्रेष्ठ उपन्यासों में एक से है। इस उपन्यास में युग-युग की उस दलित-पीड़ित नारी की करुण कथा है, जो अनेकानेक संघर्षों से गुज़रती हुई अपना स्वस्थ मार्ग पहचान लेती है।  'दिव्या' उपन्यास 'अमिता'  की भाँति ऐतिहासिक उपन्यास है ।

कथानक

इतिहास के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक प्रयत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है। सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीड़ा है। इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था-‘‘न मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित् !’’ मनुष्य से बड़ा है- केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान। अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है। इसी सत्य को अपने चित्रमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न ‘दिव्या’ है। दिव्या’ का कथानक बौद्धकाल की घटनाओं पर आधारित है। इस युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का कुछ ऐसा सजीव चित्रण इन्होंने किया है कि सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी यथार्थ-सा प्रतीत होता है। उपन्यास में वर्णित घटनाएँ पाठक के हृदय को गहराई से प्रभावित करती हैं। ‘दिव्या’ जीवन की आसक्ति का प्रतीक है।[1]

ऐतिहासिक कल्पना

‘दिव्या’ इतिहास नहीं, ऐतिहासिक कल्पना मात्र है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर व्यक्ति और समाज की प्रवृत्ति और गति का चित्र है। लेखक ने कला के अनुराग से काल्पनिक चित्र में ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रयत्न किया है। चित्र में त्रुटि रह जाना सम्भव है। उस समय का हमारा इतिहास यथेष्ट प्राप्य नहीं। जो प्राप्य है, उस पर लेखक का विशेष अधिकार नहीं। अपनी यह न्यूनता जान कर भी लेखक ने कल्पना का आधार उसी समय को बनाया; कारण है-उस समय के चित्रमय ऐतिहासिक काल के प्रति लेखक का मोह। सूक्ष्मदर्शी पाठक के प्रति इनसे अन्याय हो सकता है। असंगति देख कर उन्हें विरक्ति हो सकती है।

भाषा शैली

अतीत के रंग-रूप की रक्षा के लिए 'दिव्या' में कुछ असाधारण भाषा और शब्दों का प्रयोग आवश्यक हुआ है। इन शब्दों की अर्थसहित तालिका पुस्तक के अंत में दे दी गई है।

यशपाल के अनुसार

"अपने ऐतिहासिक ज्ञान की न्यूनता को स्वीकार करता हूँ। यदि लखनऊ म्यूजियम के अध्यक्ष श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, पी.एच.डी. और बम्बई प्रिंस-आफ वेल्स म्यूजियम, पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष 'श्री मोतीचन्द', पी.एच.डी. तथा 'श्री भगवतशरण उपाध्याय' का उदार सहयोग मुझे प्राप्त न होता तो पुस्तक सम्भवतः असह्य रूप से त्रटिपूर्ण होती। लखनऊ बौद्ध-विहार के वयोवृद्ध 'महास्थविर भदन्त बोधानन्द' के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ। उनकी कृपा से बौद्ध परिपाटी के विषय में जानने की सुविधा हुई।

बौद्धकालीन वेश-भूषा और वातावरण को हृदयंगम करने में विशेष सहायता अजन्ता और एलोरा की यात्रा से मिली। अजन्ता और एलोरा के कलाकारों के प्रति कलाप्रेमी संसार सदा आभारी रहेगा, परन्तु इस कला के दर्शन के लिए मैं अपने मित्र और चिकित्सक 'डॉक्टर प्रेमलाल शाह' का कृतज्ञ हूँ। बहुत समय से यह पुस्तक लिखने के लिये इस यात्रा का विचार था परन्तु कठिन समय में असुविधाओं के विचार से शैथिल्य और निरुत्साह रहा। डॉक्टर ने घसीट कर कर्तव्य पूरा कराया। इसी से यह काल्पनिक चित्र पुस्तक का रूप ले पाया है।

सबसे अधिक आभारी हूँ मैं अपनी प्रेरणा के स्रोत अपने पाठकों का जिनके बिना कला की साधना सम्भव नहीं। - -यशपाल (19 मई, 1945)[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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