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गुरु हनुमान

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==शीर्षक उदाहरण 1==गुरु हनुमान भारत के महान कुश्ती प्रशिक्षक (कोच) थे। वे स्वयं भी महान पहलवान थे उन्‍होने सम्‍पूर्ण विश्‍व मे भारतीय कुश्‍ती को महत्‍वपूर्ण स्‍थान दिलाया है। उनकी कश्‍ती के क्षेत्र विशेष उपलब्धी के कारण उन्हें द्रोणाचार्य अवार्ड से १९८७ मे और पद्माश्री से १९८३ में सम्मानित किया गया।

===जन्म=== उनका जन्म राजस्थान के झुंझुनू जिला के चिडावा तहसील में १९०१ हुआ था। उनका बचपन का नाम विजय पाल था।

====पहलवानी का शौक एवं आजादी की लड़ाई में योगदान==== बचपन में कमजोर सेहत का होने के कारण अक्सर ताकतवर लड़के इन्हें तंग करते थे. इसलिए उन्होंने सेहत बनाने के लिए बचपन में ही पहलवानी को अपना लिया था. कुश्ती के प्रति अपने आगाध प्रेम के चलते इन्होने २० साल की उम्र में दिल्ली की और प्रस्थान किया. भारतीय मल्लयुद्ध के भगवान हनुमान से प्ररित होकर इन्होने अपना नाम हनुमान रख लिया और ताउम्र ब्रह्मचारी रहने का प्राण कर लिया. उनके अनुसार उनकी शादी तो कुश्ती से ही हुई थी. ये बात कोई अतिश्योक्ति भी नहीं थी क्योंकि जितने पहलवान उनके सानिध्य में आगे निकले है शायद किसी और गुरु को इतना सम्मान मिल पाया है. कुश्ती के प्रति उनके प्रेम के चलते मशहूर भारतीय उद्योगपति के.के बिरला ने उन्हें दिल्ली में अखाडा चलने के लिए जमीन दान में दे दी थी. सन १९४० में वो आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये. १९४७ में भारत विभाजन के समय पाकिस्तान से शरणार्थियों की उन्होंने खूब सेवा की. १९४७ के बाद हनुमान अखाडा दिल्ली पहलवानों का मंदिर हो गया. १९८० में इनको पदमश्री से सम्मानित किया गया. इस प्रकार १९२० ई० में दिल्ली में "बिरला व्ययामशाला" का जन्म हुआ. इन्होने मीडिया वालो से कुश्ती कवरेज के लिए भी प्रार्थना की.

=====कुश्ती के हनुमान एवं शिष्यों के द्रोणाचार्य===== गुरु हनुमान एक गुरु ही नहीं बल्कि अपने शिष्यों के लिए पिता तुल्य थे. कुश्ती का जितना सूक्षम ज्ञान उन्हें था शायद ही किसी को हो! गुरु हनुमान ने जब ये देखा की उनके पहलवानों को बुढ़ापे में आर्थिक तंगी होती है तो उन्होंने सरकार से पहलवानों के लिए रोजगार के लिए सिफारिश की परिणामस्वरुप आज बहोत से राष्ट्रीय प्रतियोगिता जितने वाले पहलवानों को भारतीय रेलवे में हाथो हाथ लिया जाता है. इस तरह उन्होंने हमेशा अपने शिष्यों की सहायता अपने बच्चो के सामान की. उनका रहन सहन बिलकुल गाँव वालो की तरह ही था. उन्होंने अपने जीवन के तमाम वर्ष एक धोती कुरते में ही गुजर दिए. भारतीय स्टाइल की कुश्ती के वे माहिर थे, उन्होंने भारतीय स्टाइल और अन्तराष्ट्रीय स्टाइल का मेल कराकर अनेक एशियाई चैम्पियन दिए. पहलवानों को कुश्ती की गुर सिखाने के लिए उनकी लाठी कुश्ती जगत मशहूर थी जिसके प्रहार से उन्होंने महाबली सतपाल, करतार सिंह, १९७२ के ओल्य्म्पियन प्रेमनाथ, सैफ विजेता वीरेंदर ठाकरान (धीरज पहलवान), सुभाष पहलवान, हंसराम पहलवान जैसे अनगिनत पहलवान कुश्ती की मिसाल बने. ये उनकी लाठी का ही कमाल था जो अखाड़े के पहलवानों को ३ बजे ही कसरत करने के लिए जगा देता था. उनके अखाड़े में रहकर खिलाडी केवल पहलवानी ही नहीं बल्कि ब्रह्मचारी, आत्मनिर्भर और शाकाहार की ताकत सीखते थे. अपने यहाँ आने वालो को भी वो चाय के स्थान पर बादाम की लस्सी पिलाते थे. उनके शिष्य महाबली सतपाल छत्रसाल स्टेडियम में पहलवानों को अत्याधुनिक तरीके से मैट पर पर्शिक्षण देते है जिसके परिणामस्वरूप पहलवान सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त एवं नरसिंह यादव जैसे पहलवान राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर रहे है. गुरु के रूप में उनका योगदान यादगार है, कुश्ती के प्रति अपने प्रेम के चलते वो जीवन भर प्रात: ३ बजे ही उठ जाते थे.कुश्ती के प्रति उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें सन १९८८ में "द्रोणाचार्य पुरुस्कार" से सम्मानित किया गया. उनके तीन चेले सुदेश कुमार, प्रेम नाथ, वेदप्रकाश ने १९७२ कार्दिफ्फ़ कॉमनवेल्थ खेल में स्वर्ण पदक जीता था।सतपाल पहलवान और करतार सिंह ने १९८२ और १९८६ के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता। उनके ८ चेलों ने भारत का सर्वोच खेल सम्मान अर्जुन पुरस्कार जीता है। वे कुँवारे थे और उन्होनें ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। वे २४ मई, १९९९ को कार दुर्घटना में हरिद्वार में उनकी मृत्यु हो गयी.




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