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मनुष्य के इस स्वभाव पर शोध होते रहते हैं, जैसे कि लगातार इक्कीस मिनट तक कोई एक ही चीज़ को सुनते या देखते रहने से हमारा ध्यान उसकी ओर से हटने लगता है। | मनुष्य के इस स्वभाव पर शोध होते रहते हैं, जैसे कि लगातार इक्कीस मिनट तक कोई एक ही चीज़ को सुनते या देखते रहने से हमारा ध्यान उसकी ओर से हटने लगता है। | ||
इसी बात को ध्यान में रखकर टेलीविज़न धारावाहिक इक्कीस मिनट के ही बनाये जाते हैं। स्कूल, कॉलजों में एक विषय के लिए जो समय सामान्यत: रखा जाता है वो 45 मिनट का होता है। पुराने वक्त में इस 45 मिनट के 'पीरियड' को लगभग 20 मिनट बाद रुककर 5 मिनट का एक अंतराल रखा जाता था। इस तरह 45 मिनट के एक पीरीयड में 3 से 5 मिनट का मंध्यातर भी होता था जिसका चलन अब नहीं है। फीचर फ़िल्मों में भी बीच-बीच में गाने डाले जाने का कारण बीस मिनट से अधिक चलने वाली समरसता को भंग करने के लिए होता था और आज भी इन्हीं आँकड़ों का ध्यान रखकर व्याख्यान, धारावाहिक, फ़िल्म, नाटक आदि तैयार किये जाते हैं। | इसी बात को ध्यान में रखकर टेलीविज़न धारावाहिक इक्कीस मिनट के ही बनाये जाते हैं। स्कूल, कॉलजों में एक विषय के लिए जो समय सामान्यत: रखा जाता है वो 45 मिनट का होता है। पुराने वक्त में इस 45 मिनट के 'पीरियड' को लगभग 20 मिनट बाद रुककर 5 मिनट का एक अंतराल रखा जाता था। इस तरह 45 मिनट के एक पीरीयड में 3 से 5 मिनट का मंध्यातर भी होता था जिसका चलन अब नहीं है। फीचर फ़िल्मों में भी बीच-बीच में गाने डाले जाने का कारण बीस मिनट से अधिक चलने वाली समरसता को भंग करने के लिए होता था और आज भी इन्हीं आँकड़ों का ध्यान रखकर व्याख्यान, धारावाहिक, फ़िल्म, नाटक आदि तैयार किये जाते हैं। | ||
− | + | महान् दार्शनिक [[जे. कृष्णमूर्ति]] से किसी ने सुख से जीवन बिताने का तरीक़ा पूछा तो उन्होंने बताया कि जो भी काम हम करें उसे पूरे मन से करें तो हम पूरे जीवन सुखी और आनंदित रह सकते हैं। कृष्णमूर्ति के कथन में भी एक 'लेकिन' लगाया जा सकता है... लेकिन ये होगा कैसे ?। ऐसा कैसे हो कि जो भी हम कर रहे हैं उसे हम पूरे मन से करें ? एक तरीक़ा है इसका भी, वो ये कि आप काम करते हुए ख़ुद पर 'निगाह' रखें... अपने आप को अपनी ही निगरानी में रखें... यह निगरानी आपके काम का मूल्याँकन भी करती चलेगी। इससे अपने काम से ऊब होने की संभावना कम हो जाती है। अपने कार्य को लगन के साथ करने की बात तो सब कहते हैं लेकिन इसका तरीक़ा क्या है ? कैसे पैदा होती है ये लगन ? | |
दिल्ली में एक लड़का मेरे बाल काटता था। मैं अक्सर उसी से बाल कटवाता था। बाल काटने की प्रक्रिया में वो मुझसे कुछ न कुछ पूछता भी रहता था। एक बार उसने पूछा कि मैं कैसे बड़ा आदमी बन सकता हूँ ? मैंने कहा कि जो भी तुमसे बाल कटवाने आए तुम उसे [[अमिताभ बच्चन]] या [[सचिन तेन्दुलकर]] समझो और बाल काटो, बस और कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। | दिल्ली में एक लड़का मेरे बाल काटता था। मैं अक्सर उसी से बाल कटवाता था। बाल काटने की प्रक्रिया में वो मुझसे कुछ न कुछ पूछता भी रहता था। एक बार उसने पूछा कि मैं कैसे बड़ा आदमी बन सकता हूँ ? मैंने कहा कि जो भी तुमसे बाल कटवाने आए तुम उसे [[अमिताभ बच्चन]] या [[सचिन तेन्दुलकर]] समझो और बाल काटो, बस और कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। | ||
इसके बाद मैं बहुत समय तक वहाँ नहीं जा पाया। शायद दो-तीन साल गुज़र गए। एक बार जब मैं गया तो वहाँ का नज़ारा बदला हुआ था। वो लड़का मालिक की कुर्सी पर बैठा था। पूछने पर पता चला कि उस सैलून का ठेका अब होटल वालों ने उसी को दे दिया है। लड़का भी ख़ासा मोटा हो गया था और क़ीमती कपड़े पहने हुए था। इस सब का राज़ पूछने पर उसने बताया कि उसने मेरी बात गांठ बाँध ली थी और एक साल के अंदर ही बदलाव सामने आने लगा। | इसके बाद मैं बहुत समय तक वहाँ नहीं जा पाया। शायद दो-तीन साल गुज़र गए। एक बार जब मैं गया तो वहाँ का नज़ारा बदला हुआ था। वो लड़का मालिक की कुर्सी पर बैठा था। पूछने पर पता चला कि उस सैलून का ठेका अब होटल वालों ने उसी को दे दिया है। लड़का भी ख़ासा मोटा हो गया था और क़ीमती कपड़े पहने हुए था। इस सब का राज़ पूछने पर उसने बताया कि उसने मेरी बात गांठ बाँध ली थी और एक साल के अंदर ही बदलाव सामने आने लगा। |
14:18, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
काम की खुन्दक -आदित्य चौधरी "ये प्याज़ कमबख़्त ऐसी चीज़ है जो ज़्यादा नहीं खाई जा सकती... और हम तो भैया प्याज़ का एक टुकड़ा भी नहीं खा सकते !" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ