"बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-2 ब्राह्मण-4" के अवतरणों में अंतर

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*[[बृहदारण्यकोपनिषद]] के [[बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-2|अध्याय प्रथम]] का यह चौथा ब्राह्मण है।
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*[[बृहदारण्यकोपनिषद]] के [[बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-2|अध्याय द्वितीय]] का यह चौथा ब्राह्मण है।
 
*इस ब्राह्मण में, महर्षि [[याज्ञवल्क्य]] व उनकी धर्मपत्नी [[मैत्रेयी]] में 'आत्मतत्त्व' को लेकर संवाद है।  
 
*इस ब्राह्मण में, महर्षि [[याज्ञवल्क्य]] व उनकी धर्मपत्नी [[मैत्रेयी]] में 'आत्मतत्त्व' को लेकर संवाद है।  
 
*एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें और अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं।  
 
*एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें और अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं।  

07:31, 5 सितम्बर 2011 का अवतरण

  • बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय द्वितीय का यह चौथा ब्राह्मण है।
  • इस ब्राह्मण में, महर्षि याज्ञवल्क्य व उनकी धर्मपत्नी मैत्रेयी में 'आत्मतत्त्व' को लेकर संवाद है।
  • एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें और अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं।
  • इस पर मैत्रेयी ने उनसे पूछा कि क्या इस धन-सम्पत्ति से अमृत्व की आशा की जा सकत है? क्या वे उसे अमृत्व-प्राप्ति का उपाय बतायेंगे?
  • इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा-'हे देवी! धन-सम्पत्ति से अमृत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता।
  • अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य है; क्योंकि आत्मा द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है।
  • 'उन्होंने कहा-'हे मैत्रेयी! पति की आकांक्षा-पूर्ति के लिए, पति को पत्नी प्रिय होती है।
  • इसी प्रकार पिता की आकांक्षा के लिए पुत्रों की, अपने स्वार्थ के लिए धन की, ज्ञान की, शक्ति की, देवताओं की, लोकों, की और परिजनों की आवश्यकता होती है।
  • इसी प्रकार, 'आत्म-दर्शन' के लिए श्रवण, मनन और ज्ञान की आवश्यकता होती है।
  • कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता।
  • इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।'
  • उन्होंने अनेक दृष्टान्त देकर इसे समझाया-'हे देवी! जिस प्रकार 'जल' का आश्रय समुद्र है, 'स्पर्श' का आश्रय त्वचा है, 'गन्ध' का आश्रय नासिका है, 'रस' का आश्रय जिह्वा है, 'रूपों' का आश्रय चक्षु हैं, 'शब्द' का आश्रय श्रोत्र (कान) हैं, सभी 'संकल्पों' का आश्रय मन है, 'विद्याओं का आश्रय हृदय है, 'कर्मों' का आश्रय हाथ हैं, समस्त 'आनन्द' का आश्रय उपस्थ (इन्द्री) है, 'विसर्जन' का आश्रय पायु (गुदा) है, समस्त 'मार्गो' का आश्रय चरण हैं और समस्त 'वेदों' काक आश्रय वाणी है, उसी प्रकार सभी 'आत्माओं' का आश्रय 'परमात्मा' है।'
  • उन्होंने आगे बताया-'हे मैत्रेयी! जिस प्रकार जल में घुले हुए नमक को नहीं निकाला जा सकता, उसी प्रकार उस महाभूत, अन्तहीन, विज्ञानघन परमात्मा में सभी आत्मांए समाकर विलुप्त हो जाती हैं।
  • जब तक 'द्वैत' का भाव बना रहता है, तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, किन्तु 'अद्वैत' भाव के आते ही आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाता है, अर्थात उसे अपनी आत्मा से ही जानने का प्रयत्न करो।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


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