"चाणक्य नीति- अध्याय 5" के अवतरणों में अंतर
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अभ्यागत सबको गुरु, नारि गुरु पति जान । | अभ्यागत सबको गुरु, नारि गुरु पति जान । | ||
− | द्विजन अग्नि गुरु चारिहूँ, | + | द्विजन अग्नि गुरु चारिहूँ, वरन् विप्र गुरु मान ॥1॥ |
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− | ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि | + | '''अर्थ -- '''ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है। उपर्युक्त चारो वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्री का गुरु उसका पति है और संसार मात्र का गुरु अतिथि है। |
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− | आगिताप घसि काटि पिटि, | + | आगिताप घसि काटि पिटि, सुवरन् लख विधि चारि । |
− | त्यागशील गुण कर्म तिमि, चारिहि पुरुष विचारि | + | त्यागशील गुण कर्म तिमि, चारिहि पुरुष विचारि ॥2॥ |
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− | जैसे रगडने से, काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती | + | '''अर्थ -- '''जैसे रगडने से, काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है। |
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जौलौं भय आवै नहीं, तौलौं डरे विचार । | जौलौं भय आवै नहीं, तौलौं डरे विचार । | ||
− | आये शंका छाडि के, चाहिय कीन्ह प्रहार | + | आये शंका छाडि के, चाहिय कीन्ह प्रहार ॥3॥ |
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− | भय से तभी तक डरो, जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ | + | '''अर्थ -- '''भय से तभी तक डरो, जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय। और जन आ ही जाय तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भिक भाव से मार भगाने की कोशिश करो। |
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एकहि गर्भ नक्षत्र में, जायमान यदि होय । | एकहि गर्भ नक्षत्र में, जायमान यदि होय । | ||
− | नाहिं शील सम होत है, बेर काँट सम होय | + | नाहिं शील सम होत है, बेर काँट सम होय ॥4॥ |
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− | एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो | + | '''अर्थ -- '''एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता। उदाहरण स्वरूप बेर के काँटों को देखो। |
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नहि निस्पृह अधिकार गहु, भूषण नहिं निहकाम । | नहि निस्पृह अधिकार गहु, भूषण नहिं निहकाम । | ||
− | नहिं अचतुर प्रिय बोल नहिं, बंचक | + | नहिं अचतुर प्रिय बोल नहिं, बंचक साफ़ कलाम ॥5॥ |
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− | निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो | + | '''अर्थ -- '''निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता। वासना से शुन्य मनुष्य श्रृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता। जड मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और साफ-साफ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता। |
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मूरख द्वेषी पण्डितहिं, धनहीनहिं धनवान् । | मूरख द्वेषी पण्डितहिं, धनहीनहिं धनवान् । | ||
− | परकीया स्वकियाहु का, विधवा सुभगा जान | + | परकीया स्वकियाहु का, विधवा सुभगा जान ॥6॥ |
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− | मूर्खों के पण्डित शत्रु होते | + | '''अर्थ -- '''मूर्खों के पण्डित शत्रु होते हैं। दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं। कुलवती स्त्रीयों के शत्रु वेश्यायें होती हैं और सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते है। |
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आलस ते विद्या नशै, धन औरन के हाथ । | आलस ते विद्या नशै, धन औरन के हाथ । | ||
− | अल्प बीज से खेत अरु, दल दलपति बिनु साथ | + | अल्प बीज से खेत अरु, दल दलपति बिनु साथ ॥7॥ |
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− | आलस्य से विद्या, पराये हाथ में गया धन, बीज में कमी करने से खेती और सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती | + | '''अर्थ -- '''आलस्य से विद्या, पराये हाथ में गया धन, बीज में कमी करने से खेती और सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है। |
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कुल शीलहिं ते धारिये, विद्या करि अभ्यास । | कुल शीलहिं ते धारिये, विद्या करि अभ्यास । | ||
− | गुणते जानहिं श्रेष्ठ कहँ, नयनहिं कोप निवास | + | गुणते जानहिं श्रेष्ठ कहँ, नयनहिं कोप निवास ॥8॥ |
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− | अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती | + | '''अर्थ -- '''अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती है। गुण से मनुष्य पहिचाना जाता है और आँखें देखने से क्रोध का पता लग जाता है। |
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विद्या रक्षित योग ते, मृदुता से भूपाल । | विद्या रक्षित योग ते, मृदुता से भूपाल । | ||
− | रक्षित गेह सुतीय ते, धन ते धर्म विशाल | + | रक्षित गेह सुतीय ते, धन ते धर्म विशाल ॥9॥ |
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− | धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता से राजा की और अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती | + | '''अर्थ -- '''धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता से राजा की और अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती है। |
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वेद शास्त्र आचार औ, शास्त्रहुँ और प्रकार । | वेद शास्त्र आचार औ, शास्त्रहुँ और प्रकार । | ||
− | जो कहते लहते वृथा, लोग कलेश अपार | + | जो कहते लहते वृथा, लोग कलेश अपार ॥10॥ |
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− | वेद को, पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और अशान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहता हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते | + | '''अर्थ -- '''वेद को, पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और अशान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहता हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते हैं। |
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दारिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत । | दारिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत । | ||
− | बुध्दि नाश अज्ञा, भय नाशत है भावना | + | बुध्दि नाश अज्ञा, भय नाशत है भावना ॥11॥ |
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− | दान दरिद्रता को नष्ट करता है, शील दुरवस्था को नष्ट कर देता है, बुध्दि अज्ञान को नष्ट कर देती है और विचार भय को नष्ट कर दिया करता | + | '''अर्थ -- '''दान दरिद्रता को नष्ट करता है, शील दुरवस्था को नष्ट कर देता है, बुध्दि अज्ञान को नष्ट कर देती है और विचार भय को नष्ट कर दिया करता है। |
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व्याधि न काम समान, रिपु नहिं दूजो मोह सम । | व्याधि न काम समान, रिपु नहिं दूजो मोह सम । | ||
− | अग्नि कोप से आन, नहीं ज्ञान से सुख परे | + | अग्नि कोप से आन, नहीं ज्ञान से सुख परे ॥12॥ |
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− | काम के समान कोई रोग नहीं है, मोह (अज्ञान) के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है और ज्ञान से बढकर और कोई सुख नहीं | + | '''अर्थ -- '''काम के समान कोई रोग नहीं है, मोह (अज्ञान) के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है और ज्ञान से बढकर और कोई सुख नहीं है। |
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जन्म मृत्यु लहु एक, भोगै है इक शुभ अशुभ । | जन्म मृत्यु लहु एक, भोगै है इक शुभ अशुभ । | ||
− | नरक जात है एक, लहत एक ही मुक्तिपद | + | नरक जात है एक, लहत एक ही मुक्तिपद ॥13॥ |
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− | संसार के मनुष्यों में से एक मनुष्य जन्म मरण के चक्कर में पडता है, एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है एक नरक में जा गिरता है और एक परम पद को प्राप्त कर लेता | + | '''अर्थ -- '''संसार के मनुष्यों में से एक मनुष्य जन्म मरण के चक्कर में पडता है, एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है एक नरक में जा गिरता है और एक परम पद को प्राप्त कर लेता है। |
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− | ब्रह्मज्ञानिहिं स्वर्गतृन, | + | ब्रह्मज्ञानिहिं स्वर्गतृन, ज़िद इन्द्रिय तृणनार । |
− | शूरहिं तृण है जीवनी, निस्पृह कहँ संसार | + | शूरहिं तृण है जीवनी, निस्पृह कहँ संसार ॥14॥ |
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− | ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके के समान | + | '''अर्थ -- '''ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके के समान है। बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है जितेन्द्रिय को नारी और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है। |
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विद्या मित्र विदेश में, घर तिय मीत सप्रीत । | विद्या मित्र विदेश में, घर तिय मीत सप्रीत । | ||
− | रोगिहि औषध अरु मरे, धर्म होत है मीत | + | रोगिहि औषध अरु मरे, धर्म होत है मीत ॥15॥ |
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− | परदेश में विद्या मित्र है, घर में स्त्री मित्र | + | '''अर्थ -- '''परदेश में विद्या मित्र है, घर में स्त्री मित्र है। रोगी को औषधि मित्र है और मरे हुए मनुष्य का धर्म मित्र है। |
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व्यर्थहिं वृष्टि समुद्र में, तृप्तहिं भोजन दान । | व्यर्थहिं वृष्टि समुद्र में, तृप्तहिं भोजन दान । | ||
− | धनिकहिं देनों व्यर्थ है, व्यर्थ दीप दीनमान | + | धनिकहिं देनों व्यर्थ है, व्यर्थ दीप दीनमान ॥16॥ |
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− | समुद्र में वर्षा व्यर्थ | + | '''अर्थ -- '''समुद्र में वर्षा व्यर्थ है। तृप्त को भोजन व्यर्थ है। धनाढ्य को दान देना व्यर्थ और दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है। |
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दूजो जल नहिं मेघ सम, बल नहिं आत्म समान । | दूजो जल नहिं मेघ सम, बल नहिं आत्म समान । | ||
− | नहिं प्रकाश है नैन सम, प्रिय अनाज सम आन | + | नहिं प्रकाश है नैन सम, प्रिय अनाज सम आन ॥17॥ |
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
− | मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं | + | '''अर्थ -- '''मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं होता। आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है। नेत्र के समान किसी में तेज नहीं है और अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है। |
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अधनी धन को चाहते, पशु चाहे वाचाल । | अधनी धन को चाहते, पशु चाहे वाचाल । | ||
− | नर चाहत है स्वर्ग को,सुरगण मुक्ति विशाल | + | नर चाहत है स्वर्ग को, सुरगण मुक्ति विशाल ॥18॥ |
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− | दरिद्र मनुष्य धन चाहते | + | '''अर्थ -- '''दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं। चौपाये वाणी चाहते हैं। मनुष्य स्वर्ग चाहतें हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं। |
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सत्यहि ते रवि तपत हैं, सत्यहिं पर भुवभार । | सत्यहि ते रवि तपत हैं, सत्यहिं पर भुवभार । | ||
− | चले पवनहू सत्य ते, सत्यहिं सब आधार | + | चले पवनहू सत्य ते, सत्यहिं सब आधार ॥19॥ |
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− | सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी | + | '''अर्थ -- '''सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी है। सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं। सत्य के ही बल पर वायु वहता है। कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है। |
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चल लक्ष्मी औ प्राणहू, और जीविका धाम । | चल लक्ष्मी औ प्राणहू, और जीविका धाम । | ||
− | मह चलाचल | + | मह चलाचल जगत् में, अचल धर्म अभिराम ॥20॥ |
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− | लक्ष्मी चंचल है, प्राण भी चंचल ही है, जीवन तथा घर द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है, बस धर्म केवल अचल और अटल | + | '''अर्थ -- '''लक्ष्मी चंचल है, प्राण भी चंचल ही है, जीवन तथा घर द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है, बस धर्म केवल अचल और अटल है। |
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नर में नाई धूर्त है, मालिन नारि लखाहिं । | नर में नाई धूर्त है, मालिन नारि लखाहिं । | ||
− | चौपायन में स्यार है, वायस पक्षिन माहिं | + | चौपायन में स्यार है, वायस पक्षिन माहिं ॥21॥ |
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− | मनुष्यों में नाऊ, पक्षियों में कौआ, चौपायों में स्यार और स्त्रियों में मालिन, ये सब धूर्त होते | + | '''अर्थ -- '''मनुष्यों में नाऊ, पक्षियों में [[कौआ]], चौपायों में स्यार और स्त्रियों में मालिन, ये सब धूर्त होते हैं। |
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पितु आचारज जन्म पद, भय रक्षक जो कोय । | पितु आचारज जन्म पद, भय रक्षक जो कोय । | ||
− | विद्या दाता पाँच यह, मनुज पिता सम होय | + | विद्या दाता पाँच यह, मनुज पिता सम होय ॥22॥ |
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− | संसार में पिता पाँच प्रकार के होते | + | '''अर्थ -- '''संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं। ऎसे कि जन्म देने वाला, विद्यादाता, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करने वाला, अन्न देनेवाला और भय से बचानेवाला। |
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रजतिय औ गुरु तिय, मित्रतियाहू जान । | रजतिय औ गुरु तिय, मित्रतियाहू जान । | ||
− | निजमाता और सासु ये, पाँचों मातु समान | + | निजमाता और सासु ये, पाँचों मातु समान ॥23॥ |
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− | उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती | + | '''अर्थ -- '''उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं। जैसे राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी ख़ास माता। |
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− | ;इति चाणक्ये पञ्चमोऽध्यायः | + | ;इति चाणक्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥5॥ |
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[[चाणक्यनीति - अध्याय 6]] | [[चाणक्यनीति - अध्याय 6]] | ||
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07:38, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
अध्याय 5
- दोहा --
अभ्यागत सबको गुरु, नारि गुरु पति जान ।
द्विजन अग्नि गुरु चारिहूँ, वरन् विप्र गुरु मान ॥1॥
अर्थ -- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है। उपर्युक्त चारो वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्री का गुरु उसका पति है और संसार मात्र का गुरु अतिथि है।
- दोहा --
आगिताप घसि काटि पिटि, सुवरन् लख विधि चारि ।
त्यागशील गुण कर्म तिमि, चारिहि पुरुष विचारि ॥2॥
अर्थ -- जैसे रगडने से, काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है।
- दोहा --
जौलौं भय आवै नहीं, तौलौं डरे विचार ।
आये शंका छाडि के, चाहिय कीन्ह प्रहार ॥3॥
अर्थ -- भय से तभी तक डरो, जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय। और जन आ ही जाय तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भिक भाव से मार भगाने की कोशिश करो।
- दोहा --
एकहि गर्भ नक्षत्र में, जायमान यदि होय ।
नाहिं शील सम होत है, बेर काँट सम होय ॥4॥
अर्थ -- एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता। उदाहरण स्वरूप बेर के काँटों को देखो।
- दोहा --
नहि निस्पृह अधिकार गहु, भूषण नहिं निहकाम ।
नहिं अचतुर प्रिय बोल नहिं, बंचक साफ़ कलाम ॥5॥
अर्थ -- निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता। वासना से शुन्य मनुष्य श्रृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता। जड मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और साफ-साफ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।
- दोहा --
मूरख द्वेषी पण्डितहिं, धनहीनहिं धनवान् ।
परकीया स्वकियाहु का, विधवा सुभगा जान ॥6॥
अर्थ -- मूर्खों के पण्डित शत्रु होते हैं। दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं। कुलवती स्त्रीयों के शत्रु वेश्यायें होती हैं और सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते है।
- दोहा --
आलस ते विद्या नशै, धन औरन के हाथ ।
अल्प बीज से खेत अरु, दल दलपति बिनु साथ ॥7॥
अर्थ -- आलस्य से विद्या, पराये हाथ में गया धन, बीज में कमी करने से खेती और सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है।
- दोहा --
कुल शीलहिं ते धारिये, विद्या करि अभ्यास ।
गुणते जानहिं श्रेष्ठ कहँ, नयनहिं कोप निवास ॥8॥
अर्थ -- अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती है। गुण से मनुष्य पहिचाना जाता है और आँखें देखने से क्रोध का पता लग जाता है।
- दोहा --
विद्या रक्षित योग ते, मृदुता से भूपाल ।
रक्षित गेह सुतीय ते, धन ते धर्म विशाल ॥9॥
अर्थ -- धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता से राजा की और अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती है।
- दोहा --
वेद शास्त्र आचार औ, शास्त्रहुँ और प्रकार ।
जो कहते लहते वृथा, लोग कलेश अपार ॥10॥
अर्थ -- वेद को, पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और अशान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहता हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते हैं।
- सोरठा --
दारिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत ।
बुध्दि नाश अज्ञा, भय नाशत है भावना ॥11॥
अर्थ -- दान दरिद्रता को नष्ट करता है, शील दुरवस्था को नष्ट कर देता है, बुध्दि अज्ञान को नष्ट कर देती है और विचार भय को नष्ट कर दिया करता है।
- सोरठा --
व्याधि न काम समान, रिपु नहिं दूजो मोह सम ।
अग्नि कोप से आन, नहीं ज्ञान से सुख परे ॥12॥
अर्थ -- काम के समान कोई रोग नहीं है, मोह (अज्ञान) के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है और ज्ञान से बढकर और कोई सुख नहीं है।
- सोरठा --
जन्म मृत्यु लहु एक, भोगै है इक शुभ अशुभ ।
नरक जात है एक, लहत एक ही मुक्तिपद ॥13॥
अर्थ -- संसार के मनुष्यों में से एक मनुष्य जन्म मरण के चक्कर में पडता है, एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है एक नरक में जा गिरता है और एक परम पद को प्राप्त कर लेता है।
- दोहा --
ब्रह्मज्ञानिहिं स्वर्गतृन, ज़िद इन्द्रिय तृणनार ।
शूरहिं तृण है जीवनी, निस्पृह कहँ संसार ॥14॥
अर्थ -- ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके के समान है। बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है जितेन्द्रिय को नारी और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है।
- दोहा --
विद्या मित्र विदेश में, घर तिय मीत सप्रीत ।
रोगिहि औषध अरु मरे, धर्म होत है मीत ॥15॥
अर्थ -- परदेश में विद्या मित्र है, घर में स्त्री मित्र है। रोगी को औषधि मित्र है और मरे हुए मनुष्य का धर्म मित्र है।
- दोहा --
व्यर्थहिं वृष्टि समुद्र में, तृप्तहिं भोजन दान ।
धनिकहिं देनों व्यर्थ है, व्यर्थ दीप दीनमान ॥16॥
अर्थ -- समुद्र में वर्षा व्यर्थ है। तृप्त को भोजन व्यर्थ है। धनाढ्य को दान देना व्यर्थ और दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है।
- दोहा --
दूजो जल नहिं मेघ सम, बल नहिं आत्म समान ।
नहिं प्रकाश है नैन सम, प्रिय अनाज सम आन ॥17॥
अर्थ -- मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं होता। आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है। नेत्र के समान किसी में तेज नहीं है और अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है।
- दोहा --
अधनी धन को चाहते, पशु चाहे वाचाल ।
नर चाहत है स्वर्ग को, सुरगण मुक्ति विशाल ॥18॥
अर्थ -- दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं। चौपाये वाणी चाहते हैं। मनुष्य स्वर्ग चाहतें हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं।
- दोहा --
सत्यहि ते रवि तपत हैं, सत्यहिं पर भुवभार ।
चले पवनहू सत्य ते, सत्यहिं सब आधार ॥19॥
अर्थ -- सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी है। सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं। सत्य के ही बल पर वायु वहता है। कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है।
- दोहा --
चल लक्ष्मी औ प्राणहू, और जीविका धाम ।
मह चलाचल जगत् में, अचल धर्म अभिराम ॥20॥
अर्थ -- लक्ष्मी चंचल है, प्राण भी चंचल ही है, जीवन तथा घर द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है, बस धर्म केवल अचल और अटल है।
- दोहा --
नर में नाई धूर्त है, मालिन नारि लखाहिं ।
चौपायन में स्यार है, वायस पक्षिन माहिं ॥21॥
अर्थ -- मनुष्यों में नाऊ, पक्षियों में कौआ, चौपायों में स्यार और स्त्रियों में मालिन, ये सब धूर्त होते हैं।
- दोहा --
पितु आचारज जन्म पद, भय रक्षक जो कोय ।
विद्या दाता पाँच यह, मनुज पिता सम होय ॥22॥
अर्थ -- संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं। ऎसे कि जन्म देने वाला, विद्यादाता, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करने वाला, अन्न देनेवाला और भय से बचानेवाला।
- दोहा --
रजतिय औ गुरु तिय, मित्रतियाहू जान ।
निजमाता और सासु ये, पाँचों मातु समान ॥23॥
अर्थ -- उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं। जैसे राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी ख़ास माता।
- इति चाणक्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥5॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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