पटौला साड़ी

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पटौला साड़ी

पटौला साड़ी स्त्रियों द्वारा धारण की जाने वाली प्रमुख साड़ियों में से एक है। यह साड़ी मुख्य रूप से हथकरघे से बनी होती है। यह दोनों ओर से बनायी जाती है। पटौला साड़ी में बहुत ही महीन काम किया जाता है। पूर्णत: रेशम से बनी इस साड़ी को वेजिटेबल डाई या कलर डाई किया जाता है।

निर्माण कार्य

पटौला साड़ी के निर्माण का कार्य लगभग सात सौ वर्ष पुराना है। हथकरघे से बनी इस साड़ी को बनाने में क़रीब एक वर्ष का समय लग जाता है। यह साड़ी बाज़ार में बड़ी मुश्किल से मिलती है। इस साड़ी को बनाने के लिए रेशम के धागों पर डिज़ाइन के मुताबिक वेजीटेबल और रासायनिक रंगों से रंगाई का काम किया जाता है। इसके बाद हैंडलूम पर बुनाई का कार्य किया जाता है। सम्पूर्ण साड़ी की बुनाई में एक धागा डिज़ाइन के अनुसार विभिन्न रंगों के रूप में पिरोया जाता है। यही कला क्रास धागे में भी अपनाई जाती है। इस कार्य में बहुत अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है।

क़ीमत

अलग-अलग क़ीमतों की साड़ियों को दो बुनकर कम से कम पन्द्रह से बीस दिन या फिर एक वर्ष में पूरा कर पाते है। पटौला साड़ियों की क़ीमत भी बुनकरों के परिश्रम व माल की लागत के हिसाब से पांच हज़ार रुपये से लेकर दो लाख रुपये तक हो सकती है। वे साड़ियाँ जो सस्ती होती हैं, उनमें केवल एक साइड के बाने में ही बुनाई की जाती है। महंगी साड़ी के ताने-बाने में दोनों ओर के धागों पर डिज़ाइन करके बुनाई का काम किया जाता है। दोनों तरफ़ वाली महंगी साड़ियाँ 80 हज़ार से दो लाख रुपये तक की क़ीमत में तैयार होती हैं।

लुप्त होती कला

डबल इकत पटौला साड़ी के रूप में जानी जाने वाली बुनकरों की यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है। भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध मुग़ल काल के समय गुजरात में इस कला को जितने परिवारों ने अपनाया था, उनकी संख्या लगभग 250 थी। पटौला साड़ी के निर्माण में लागत के हिसाब से बाज़ार में क़ीमत नहीं मिल पाती, जिस कारण यह कला सिमटती जा रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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