छायावादी युग
छायावादी युग प्राय: द्विवेदी युग के बाद के समय को कहा जाता है। इस युग में हिन्दी साहित्य में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। सन 1916 ई. के आस-पास हिन्दी में कल्पनापूर्ण, स्वच्छंद और भावुकता की एक लहर उमड़ पड़ी। भाषा, भाव, शैली, छंद, अलंकार इन सब दृष्टियों से पुरानी कविता से इसका कोई मेल नहीं था। आलोचकों ने इसे 'छायावाद' या 'छायावादी कविता' का नाम दिया।
छायावादी कविता
आधुनिक हिन्दी कविता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि इस काल की कविता में मिलती है। लाक्षणिकता, चित्रमयता, नूतन प्रतीक विधान, व्यंग्यात्मकता, मधुरता तथा सरसता आदि गुणों के कारण छायावादी कविता ने धीरे-धीरे अपना एक प्रशंसक वर्ग खड़ा कर दिया। मुकुटधर पांडेय ने सर्वप्रथम 'छायावाद' शब्द का प्रयोग किया। शब्द चयन और कोमलकांत पदावली के कारण 'इतिवृत्तात्मक'[1] युग की खुरदरी खड़ी बोली सौंदर्य, प्रेम और वेदना के गहन भावों को वहन करने योग्य बनी। हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रमुखता मिली। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया।
मुख्य साहित्यकार
छायावादी युग के प्रमुख साहित्यकार हैं-
- रायकृष्ण दास
- वियोगी हरि
- डॉ. रघुवीर सहाय
- माखनलाल चतुर्वेदी
- जयशंकर प्रसाद
- महादेवी वर्मा
- नन्द दुलारे वाजपेयी
- डॉ. शिवपूजन सहाय
- सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
- रामचन्द्र शुक्ल
- पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
- बाबू गुलाबराय
|
|
|
|
|