प्रयोग:कविता बघेल 2
रामकृष्ण गोपाल भंडारकर (अंग्रेज़ी: R. G. Bhandarkar जन्म: 6 जुलाई, 1837 मालवन ज़िला रत्नागिरि; मृत्यु: 24 अगस्त, 1925) भारत के प्रसिद्ध इतिहासविद् , समाज सुधारक और शिक्षाशास्त्री थे। ऑल इण्डिया सोशल कांफ़्रेंस (अखिल भारतीय सामाजिक सम्मलेन) के सक्रिय सदस्य रहे भण्डारकर ने अपने समय के सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाते हुए अपने शोध आधारित निष्कर्षों के आधार पर विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही उन्होंने जाति-प्रथा एवं बाल विवाह की कुप्रथा का खण्डन भी किया। प्राचीन संस्कृत साहित्य के विद्वान की हैसियत से भण्डारकर ने संस्कृत की प्रथम पुस्तक और संस्कृत की द्वितीय पुस्तक की रचना भी की, जो अंग्रेज़ी माध्यम से संस्कृत सीखने की सबसे आरम्भिक पुस्तकों में से एक हैं।
जन्म एवं शिक्षा
रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का जन्म 6 जुलाई 1837 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले के मालवण में एक साधारण परिवार में हुआ था उनके पिता मालवण के मामलेदार के अधीनस्थ मुंशी (क्लर्क) थे। शुरुआती शिक्षा में आयी कठिनाई के बाद जब उनके पिता का स्थानांतरण रत्नागिरी ज़िले के राजस्व विभाग में हुआ तो इन्हें अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने का मौका मिला। इसी विद्यालय से इनके समकालीन मांडलिक ने शिक्षा प्राप्त की थी।
रत्नागिरी से स्कूली शिक्षा पूरी करके 1853 में भण्डारकर ने मुम्बई के एल्फ़िंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया जहाँ उन्होंने जिन जानी मानी हस्तियों से शिक्षा प्राप्त की उनमें प्रथम राष्ट्रवादी चिंतक और 'ड्रेन थियरी' के प्रतिपादक दादाभाई नौरोज़ी प्रमुख थे। दादाभाई नौरोज़ी के प्रोत्साहन के कारण ही अंग्रेज़ी साहित्य, प्राकृतिक विज्ञान और गणित के प्रति रुचि के बावजूद भण्डारकर ने संस्कृत और पालि के ज्ञान के सहारे गौरवशाली अतीत के पुनर्निर्माण हेतु इतिहास-लेखन को अपनाया। 1862 में भण्डारकर एल्फ़िंस्टन कॉलेज के पहले बैच से ग्रेजुअट होने वालों में से एक थे। वहाँ पर बी. ए. तथा एम. ए. की परीक्षाओं में आपने सर्वोत्तम अंक प्राप्त किए। 1863 में ही उन्होंने परास्नातक की उपाधि अर्जित की। कुछ समय तक सिंध के हैदराबाद और रत्नागिरी के राजकीय विद्यालयों में हेडमास्टर के तौर पर कार्य करने के बाद वे एल्फ़िंस्टन कॉलेज में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए और आगे चल कर पुणे के डेक्कन कॉलेज में संस्कृत के प्रथम भारतीय प्रोफ़ेसर हुए। 1894 में अपनी सेवानिवृत्ति से पूर्व भण्डारकर मुम्बई विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। 1885 में जर्मनी की गोतिन्गे युनिवर्सिटी ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। प्राच्यवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन मे शामिल होने के लिए वे लंदन (1874) और वियना (1886) भी गये।
शिक्षाशास्त्री के रूप में
शिक्षाशास्त्री के तौर पर भण्डारकर 1903 में भारतीय परिषद् के अनाधिकारिक सदस्य चुने गये। गोपाल कृष्ण गोखले भी उस परिषद् के सदस्य थे। 1911 में रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर को नाइट की उपाधि से सम्मानित किया गया। सामाजिक रूढ़िवादी माहौल के बावजूद भण्डारकर ने अपनी पुत्रियों और पौत्रियों को विश्वविद्यालयी शिक्षा दिलायी और अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने की परिपक्वता प्राप्ति तक उनका विवाह नहीं किया। उन्होंने अपनी विधवा पुत्री के पुनर्विवाह के लिए भी अनुमति दी।
कार्य
भंडारकर की सबसे बड़ी देन लुप्तप्राय इतिहास के तत्वों को प्रकाश में आना है। उस समय तक भारत में इस विषय की ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। आपने ब्राह्मी, खरोष्ठी आदि प्राकृत भाषाओं का अध्ययन करके शोध के इस क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक का काम किया। सरकार ने इन्हें हस्तलिखित ग्रंथों की खोज और प्रकाशन का कार्य सौंपा था। शोध के बाद जो पांच विशाल खंड प्रकाशित किए वे पुरातत्व के इतिहासकारों के लिए आज भी मार्गदर्शक हैं। 1883 के वियना के प्राच्य भाषा सम्मेलन में इनकी विद्वता से विदेशी विद्वान चकित रह गए थे। इनके सम्मान में 1917 में पूना में 'भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की गई। भंडारकर समाजसुधारक और सार्वजनिक नेता के रूप में भी प्रसिद्ध थे। वे 'प्रार्थना समाज' के सक्रिय सदस्य थे। राजनीति में वे भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत बनाए रखने के पक्षधर थे। उन दिनों अपनी विधवा पुत्री का पुनर्विवाह करके उन्होंने एक उदाहरण प्रस्तुत किया था।
निधन
रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का 24 अगस्त 1925 को निधन हो गया।