प्रयोग:प्रिया
हिन्दी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन 1991 ई॰ की जनगणना के अनुसार, 23.342 करोड़ भारतीय हिन्दी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 33.727 करोड़ लोग इसकी लगभग 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। इसकी कुछ बोलियाँ, मैथिली और राजस्थानी अलग भाषा होने का दावा करती हैं। हिंदी की प्रमुख बोलियों में अवधी, भोजपुरी, ब्रज भाषा, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरियाणवी, कुमांऊनी, मागधी और मारवाड़ी शामिल हैं।
हिन्दी भाषा– मुख्य तथ्य
हिन्दी भाषा का विकास
वर्गीकरण
- हिन्दी विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।
- आकृति या रूप के आधार पर हिन्दी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।
- भाषा–परिवार के आधार पर हिन्दी भारोपीय (Indo–European) परिवार की भाषा है।
- भारत में 4 भाषा–परिवार—भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनी–तिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलने वालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा परिवार है।
भाषा–परिवार | भारत में बोलने वालों का % |
---|---|
भारोपीय | 73% |
द्रविड़ | 25% |
आस्ट्रिक | 1.3% |
चीनी–तिब्बती | 0.7% |
- हिन्दी भारोपीय/ भारत यूरोपीय भारतीय–ईरानी (Indo–Iranian) शाखा के भारतीय आर्य (Indo–Aryan) उपशाखा से विकसित एक भाषा है।
- भारतीय आर्यभाषा (भा. आ.) को तीन कालों में विभक्त किया जाता है।
नाम प्रयोग काल उदाहरण प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.) 1500 ई0 पू0 – 500 ई0 पू0 वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.) 500 ई0 पू0 – 1000 ई0 पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.) 1000 ई0 – अब तक हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएँ – बांग्ला, उड़ीया, मराठी, सिंधी, असमिया, गुजराती, पंजाबी आदि।
- प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.)
नाम प्रयोग काल अन्य नाम वैदिक संस्कृत 1500 ई0 पू0 –1000 ई0 पू0 छान्दस् (यास्क, पाणिनी) लौकिक संस्कृत 1000 ई0 पू0 –500 ई0 पू0 संस्कृत भाषा (पाणिनी)
- मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.)
नाम प्रयोग काल विशेष टिप्पणी प्रथम प्राकृत काल – पालि 500 ई0 पू0 – 1 ली ई0 भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं। द्वितीय प्राकृत काल – प्राकृत 1 ली ई0 – 500 ई0 भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही हैं। तृतीय प्राकृत काल– अपभ्रंश 500 ई0 – 1000 ई0 –अवहट्ट 900 ई0 – 1100 ई0 संक्रमणकालीन/संक्रान्तिकालीन भाषा
- आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.)
हिन्दी प्राचीन हिन्दी – 1100 ई0 — 1400 ई0 मध्यकालीन हिन्दी – 1400 ई0 — 1850 ई0 आधुनिक हिन्दी – 1850 – अब तक हिन्दी की आदि जननि संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी का रूप लेती है। विशुद्धतः, हिन्दी भाषा के इतिहास का आरम्भ अपभ्रंश से माना जाता है। हिन्दी का विकास क्रम—
संस्कृत—पालि—प्राकृत—अपभ्रंश—अवहट्ट—प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी
अपभ्रंश
- अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई0 से लेकर 1000 ई0 के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरम्भ 8वीं सदी ई0 (स्वयंभू कवि) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा।
- अपभ्रंश (अप+भ्रंश+घञ्) शब्द का यों तो शाब्दिक अर्थ है 'पतन', किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है—प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य।
- प्रमुख रचनाकार – स्वयंभू—अपभ्रंश का वाल्मीकि ('पउम चरिउ' अर्थात् राम काव्य), धनपाल ('भविस्सयत कहा'–अपभ्रंश का पहला प्रबन्ध काव्य), पुष्पदंत ('महापुराण', 'जसहर चरिउ'), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ ('चरिया पद', 'दोहाकोशी') आदि।
अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विकास— (कुछ टैक्स लिखा जाना बाक़ी है) उसे लिखें, पेज नं0 2 पर
अवहट्ट
- अवहट्ट 'अपभ्रंष्ट' शब्द का विकृप रूप है। इसे 'अपभ्रंश का अपभ्रंश' या 'परवर्ती अपभ्रंश' कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रांतिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई0 से 1100 ई0 तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है।
- अब्दुर रहमान, दामोदर पंडित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को ' अवहट्ट' या 'अवहट्ठ' कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं। 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ते तैसन जम्पञो अवहट्ठा' अर्थात् देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है। इसे अवहट्ठा कहा जाता है।
- प्रमुख रचनाकारः अद्दहमाण/अब्दुर रहमान ('संनेह रासय'/'संदेश रासक'), दामोदर पंडित ('उक्ति–व्यक्ति–प्रकरण'), ज्योतिरीश्वर ठाकुर ('वर्ण रत्नाकर'), विद्यापति ('कीर्तिलता') आदि।
प्राचीन या पुरानी हिन्दी/प्रारम्भिक या आरम्भिक हिन्दी/आदिकालीन हिन्दी
- मध्यदेशीय भाषा परम्परा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिन्दी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरी है।
- प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय है— अपभ्रंश– अवहट्ट के बाद की भाषा।
- हिन्दी का आदिकाल हिन्दी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था, जब अपभ्रंश–अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था और हिन्दी की बोलियों के निश्चित् व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।
हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति
हिन्दी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तर–पश्चिम में प्रवहमान सिंधु नदी से सम्बन्धित है। विदित है कि अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर–पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह 'सिंधु' का देश था। ईरान (फ़ारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दू' कहते थे। (सिंधु—हिन्दू, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन—पहलवी भाषा प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन)। हिन्द से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में फ़ारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय 'ई' लगने से 'हिन्दी' बन गया। 'हिन्दी' का अर्थ है—'हिन्द का'। इस प्रकार हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिन्दी की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं—
- 'हिन्दी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ—
सिंधु—हिन्दू—हिन्द+ई—हिन्दी।
- 'हिन्दी' शब्द मूलतः फ़ारसी का है न कि 'हिन्दी' भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालाँकि कुछ कट्टर हिन्दी प्रेमी 'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे—हिन (हनन करनेवाला)+दु (दुष्ट)=हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा 'हिन्दी'; हीन (हीनों)+दु (दलन)=हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा 'हिन्दी'। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
- 'हिन्दी' शब्द के दो अर्थ हैं—'हिन्द देश के निवासी' (यथा—'हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा'—इकबाल) और 'हिन्दी की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिन्दी नहीं कहता, बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इर देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब 'हिन्दी' नहीं कहलाती हैं। बेशक ये सभी 'हिन्दी' की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल 'हिन्दी' नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए 'हिन्दी' की इन सब भाषाओं के लिए 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता।
- प्रमुख रचनाकार- 'हिन्दी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा–समूह का नाम है, उसमें आज के हिन्दी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
- ब्रजभाषा- प्राचीन हिन्दी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश–अवहट्ट से ही जीवन रस लेती रही। अपभ्रंश–अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई0) है।
- अवधी- अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की 'चंद्रायन' या 'लोरकहा' (1370 ई0) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया।
- खड़ी बोली- प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर ख़ुसरो जैसे सूफ़ियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश–अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।
मध्यकालीन हिन्दी
मध्यकाल में हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गईं। इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आए—ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली। ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ पर इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली। प्रमुख रचनाकार
- ब्रजभाषा—हिन्दी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परम्परा के उत्तरादायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात् भक्तिकाल) में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्ग/शुद्धाद्वैत सम्प्रदायं के सूरदास (सूरसागर), नंददास, निम्बार्क सम्प्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य सम्प्रदाय के गदाधर भट्ट, राधा–वल्लभ सम्प्रदाय के हित हरिवंश (श्रीकृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं सम्प्रदाय–निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है, जिन्हें 'अष्टछाप का जहाज़' कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात् रीतिकाल) में अनेक आचार्यों एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं। (ब्रजबुलि—बंगाल में कृष्णभक्त कवियों के द्वारा प्रचारित भाषा का नाम।)
- अवधी—अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफ़ी/प्रेममार्गी कवियों को है। कुत्बन ('मृगावती'), जायसी ('पद्मावत'), मंझन ('मधुमालती'), आलम ('माधवानल कामकंदला'), उसमान ('चित्रावली'), नूर मुहम्मद ('इन्द्रावती'), कासिमशाह ('हंस जवाहिर'), शेख निसार ('यूसुफ़ जुलेखा'), अलीशाह ('प्रेम चिंगारी') आदि सूफ़ी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदार ने 'रामचरितमानस' की रचना बैसवाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया, वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है, जायसी और तुलसीदास में। जायसी के यहाँ जहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप मिलता है, वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप। (गोहारी/गोयारी—बंगाल में सूफ़ियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम।)
- खड़ी बोली—मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कन में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए—उत्तरी हिन्दी व दक्कनी हिन्दी। खड़ी बोली मध्यकाल रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतों; गंग की 'चन्द छन्द वर्णन की महिमा', रहीम के 'मदनाष्टक', आलम के 'सुदामा चरित', जटमल की 'गोरा बादल की कथा', वली, सौदा, इन्शा, नज़ीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, 'कुतुबशतम' (17वी सदी), 'भोगलू पुराण' (18वीं सदी), संत प्राणनाथ के 'कुलजमस्वरूप' आदि में मिलता है।
आधुनिककालीन हिन्दी
- हिन्दी के आधुनिक काल तक आते–आते ब्रजभाषा जनभाषा से काफ़ी दूर हट चुकी थी और अवधी ने तो बहुत पहले से ही साहित्य से मुँह मोड़ लिया था। 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेज़ी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिन्दी पर भी पड़ा। नवीन राजनीतिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया। जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया तब उनका स्थान खड़ी बोली धीरे–धीरे लेने लगी। अंग्रेज़ी सरकार ने भी इसका प्रयोग आरम्भ कर दिया।
- हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारम्भ में एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते–आते खड़ी बोली गद्य–पद्य दोनों की ही साहित्यिक भाषा बन गई।
- इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में विभिन्न धार्मिक सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी सहायता की। फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी।
खड़ी बोली
भारतेन्दु पूर्व युग
खड़ी बोली गद्य के आरम्भिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर दो रचनाकारों—सदासुख लाल 'नियाज' (सुखसागर) व इंशा अल्ला ख़ाँ (रानी केतकी की कहानी)—तथा फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के दो भाषा मुंशियों—लल्लू लालजी (प्रेम सागर) व सदल मिश्र (नासिकेतोपाख्यान)—के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिन्दी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था। इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों—राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिन्द' व राजा लक्ष्मण सिंह—ने हिन्दी के स्वरूप निर्धारण के सवाल पर दो सीमान्तों का अनुगमन किया। राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का गँवारुपन दूर कर उसे उर्दू–ए–मुअल्ला बना दिया तो राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया।
भारतेन्दु युग (1850 ई0–1900 ई0)
इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग में हुआ। हिन्दी सही मायने में भारतेन्दु के काल में 'नई चाल में ढली' और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक मंडल भी तैयार किया, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा गया। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम के रूप में अपनाकर युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया। लेकिन पद्य रचना के मसले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने के सवाल पर विवाद बना रहा, जिसका अन्त द्विवेदी के युग में जाकर हुआ।
द्विवेदी युग (1900 ई0–1920 ई0)
खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1903 ई0 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादन का भार सम्भाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे लेखकों की वर्तनी अथवा त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बुखूवी अन्जाम दिया। गद्य तो भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिषठित होनी लगी। इस प्रकार ब्रजभाषा, जिसके साथ में 'भाषा' शब्द जुड़ा हुआ है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात् 'बोली' बन गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ 'बोली' शब्द लगा है, 'भाषा बन गई', और इसका सही नाम हिन्दी हो गया। अब खड़ी बोली दिल्ली के आसपास की मेरठ–जनपदीय बोली नहीं रह गई, अपितु यह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएँ विकसित हुई।। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुन्दर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्णसिंह, चन्द्रधर शर्मा, गुलेरी आदि के अवदान विशेषतः उल्लेखनीय हैं।
छायावाद युग (1920 ई॰–1936 ई॰) एवं उसके बाद
साहित्यिक खड़ी बोली के विकास में छायावाद युग का योगदान काफ़ी महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा और राम कुमार आदि ने महती योगदान किया। इनकी रचनाओं को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम समर्थ है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यजंना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएँ हैं। हिन्दी काव्य में छायावाद युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई0–1946 ई0) प्रयोगवाद युग (1943) आदि आए। इस दौर खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता गया। पद्य के ही नहीं, गद्य के सन्दर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो भाषा–शैलियाँ और मर्यादाएँ स्थापित कीं, उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य–साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर ही किया गया है। जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद–पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग, नाटक के इतिहास में प्रसाद–पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग, आलोचना के इतिहास में शुक्ल–पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।