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दर्शनीय स्थल

कल्याणपुर

कल्याणपुर मंदिर उदयपुर के दक्षिण में ७७ किलोमीटर दूरी पर स्थित है तथा यह मंदिर शैवपीठ के रुप में लोकप्रिय रहा है। वर्त्तमान में यह मंदिर अत्यंत जीर्ण अवस्था में है। मंदिर में प्राप्त अभिलेखों के आधार पर इसे ७वीं शताब्दी में निर्मित किया गया है। इस मंदिर की मूर्तियाँ कुछ हरापन लिए हुए काले परेवा पत्थर की बनी हुयी हैं।

आहड़ मंदिर

आहड़ मंदिर मेवाड़ क्षेत्र का मूर्तिकला की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण मंदिर है। इसका प्राचीन नाम आघाटपुर, आटपुर तथा गंगोद्भेद तीर्थ है। यह मंदिर ९वीं व १०वीं शताब्दी में वैष्णव संप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र था।

आहड़ से प्राप्त एक अभिलेख , जो ९५३ ई. (संवत् १०१०) का था, उससे एक विष्णु जी के मंदिर का उल्लेख किया गया था, यहाँ पर एक वैष्णव भक्त द्वारा आदि वराह की प्रतिमा को स्थापित करवाया गया था। यहाँ पर एक सूर्य मंदिर भी था। इसका प्रमाण १४ द्रम्मों के दान का उल्लेख करने वाले एक अन्य अभिलेख से मिलता है।

यहाँ एक अन्य मंदिर में विष्णु के लक्ष्मीनारायण रुप की अर्चना होती थी, जिसे अब मीराबाई मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर के बाह्य ताखों में ब्रम्हा-सावित्री, गरुड़ पर बैठे लक्ष्मी-नारायण, नंदी पर आसीन उमा-माहेश्वर आदि की प्रतिमाओं के अतिरिक्त मेवाड़ के तत्कालीन सामाजिक जीवन के दृश्यों को भी प्रस्तुत किया गया है, जो उल्लेखनीय है।

उनवास मंदिर

उनवास, जो उदयपुर से ४८ किलोमीटर की दू्री पर हल्दी घाटी के निकट स्थित हैं, यह दुर्गा मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर पिप्पलादमाता के नाम से विख्यात है। १०वीं सदी में निर्मित यह मंदिर जगत के अम्बिका मंदिर का समकालीन है तथा यह एक गुहिल शासक अल्लट के राज्यकाल में निर्मित हुआ था। इस मंदिर की गणना मातृपूजा परंपरा के अंतर्गत बने झालरापाटन तथा जगत के मंदिर समूहों में की जाती है, जहाँ पर एकान्तिक रुप से शक्ति के किसी रुप की ही अर्चना की जाती थी। इसमें दुर्गा देवी के महिषमर्दिनी स्वरुप को शांत व वरद रुप की दिव्यता को प्रस्तुत किया गया है। मूर्तिकला की अपेक्षा वास्तुकला के अभिप्रायों के विकास के अध्ययन के लिए उनवास का मंदिर अधिक महत्वपूर्ण है। मंदिर की पीठिका के अलंकरणात्मक अभिप्रायों का इस मंदिर में अभाव है।

जगत मंदिर

जगत ऐतिहासिक अंबिका मंदिर उदयपुर से ४२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मातृदेवी के इस मंदिर में मातृदेवताओं तथा दिक्पालों के अतिरिक्त किसी भी अन्य देव की प्रतिमा का न होना, इसे अन्य मंदिरों से अलग करता है। यहाँ से प्राप्त स्तंभ अभिलेख, अंकन शैली तथा बनावट यह स्पष्ट करती है कि इस मंदिर को १०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाया गया था। यहाँ से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार ९६१ ई. (संवत् १०१७) में वल्लकपुत्र साम्वपुर ने इसका जीर्णोद्धार किया था। इस मंदिर समुह के तीन प्रमुख अंग है-

सभामंडप सभामंडप का उपयोग देवी के उपलक्ष्य में नृत्यगीतादि सभाओं के लिए होता है। प्रवेश द्वार के दोनों स्तंभ भी समाप्त प्रायः है। इन स्तंभों के ऊपरी भाग पर कमल के फूल पर खड़ी एक अलसकन्या की प्रतिमा अंकित थी। यहाँ पीठिका के उत्कीर्ण अभिप्राय अभी भी सुरक्षित है। यह अंकन शैली, जो सरल कही जा सकती है, इस दिशा में एक नयी शैली के प्रारंभ की परिचायक है। इस समय तक इन विषयों में कोई निश्चित नियम तो नहीं था, परंतु इन्हें अलंकृत करने का प्रयास ११वीं शताब्दी में इसके विकास में सहायक हुआ है।

मुख्य मंदिर इस मंदिर में एक प्रवेश-द्वार-मंडप, सभामंडप तथा एक गर्भगृह है। इनको मातृदेवी दुर्गा के शांत, अभय एवं वरद रुप की एकान्तिक उपासना का उदाहरण माना जाता है, जहाँ पर दुर्गा के सभी रुपों में महिषमर्दिनी रुप को प्रमुख माना जाता है। गर्भगृह की पूजा प्रतिमा क्षेमकरी विग्रह की थी, जो प्रतिमा के अवशिष्ट परिकर से प्रतीत होता है।

मुख्य मंदिर की जल प्रणालिका पर बना छोटा मंदिर मंदिर में महिषमर्दिनी कथा के विभिन्न दृश्यों का अंकन किया गया है। महिषासुर का वर्णन भी विविध रुपों में किया गया है, लेकिन चामुण्डा तथा भैरवी देवी के अतिरिक्त देवी का कोई भी वीभत्स रुप प्रस्तुत नहीं किया गया है। मंदिर की बाह्य भित्तियों, स्तंभों, ताखों आदि में कई रुपों में अप्सराओं का रुपांकन तथा उनकी विविध भाव- भंगिमाओं एवं मुद्राओं की प्रस्तुति की गई है। देवी प्रतिमा के शीर्ष पर स्थित एक शुक का अंकन देवी माहात्म्य जैसे समकालीन साहित्यिक स्रोतों से प्रेरित लगता है।