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अकबर का युग

हुमायूँ जब बीकानेर से लौट रहा था तो अमरकोट के राणा ने साहस करके उसे सहारा और सहायता दी। अमरकोट में ही 1542 में मुग़लों में महानतम शासक अकबर का जन्म हुआ। जब हुमायूँ ईरान की ओर भागा तो उसके बच्चे अकबर को उसके चाचा कामरान ने पकड़ लिया। उसने बच्चे का भली-भाँति पालन-पोषण किया। कन्धार पर फिर से हुमायूँ का अधिकार हो जाने पर अकबर फिर अपने माता-पिता से मिला। हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर पंजाब में कलानौर में था, और अफ़ग़ान विद्रोहियों से निपटने में व्यस्त था। 1556 में कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी हुई। उस समय वह तेरह वर्ष और चार महीने का था।

अकबर को कठिन परिस्थितियाँ विरासत में मिली। आगरा के पार अफ़ग़ान अभी भी सबल थे और हेमू के नेतृत्व में अन्तिम लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। क़ाबुल पर आक्रमण करके घेरा डाला जा चुका था। पराजित अफगान सरदार सिकन्दर सूर शिवालिक की पहाड़ियों में घूम रहा था। लेकिन अकबर के उस्ताद और हुमायूँ के स्वामिभक्त और योग्य अधिकारी बैरमखाँ ने परिस्थिति का कुशलता से सामना किया। वह खान-ए-खानाँ की उपाधि धारण करके राज्य का वकील बन गया और उसने मुगल सेनाओं का पुनर्गठन किया। हेमू की ओर से खतरे को सबसे गंभीर समझा गया। उस समय चुनार से लेकर बंगाल की सीमा तक प्रदेश शेरशाह के एक भतीजे आदिलशाह के शासन में था। हेमू ने अपना जीवन इस्लामशाह के राज्यकाल में बाजारों के अधीक्षक के रूप में शुरू किया था और आदिलशाह के काल में उसने यकायक उन्नति की थी। उसने बाईस लड़ाईयों में से एक भी नहीं हारी थी। आदिलशाह ने उसे विक्रमजीत की उपाधि प्रदान करके वजीर नियुक्त कर लिया था। उसने उसे मुगलों को खदेड़ने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और 50,000 घुड़सवार, 500 हाथी और विशाल तोपखाना लेकर दिल्ली की ओर बढ़ दौड़ा। एक संघर्षपूर्ण लड़ाई में हेमू ने मुगलों को पराजित कर दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। लेकिन परिस्थिति का सामना करने के लिए बैरमखाँ ने साहस पूर्ण कदम उठाये। उसके इस साहसिक कदम से मुगल सेना में एक नयी शक्ति का संचार हुआ और उसने हेमू की अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर दिए बिना दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। हेमू के नेतृत्व में अफगान फौज और मुगलों के बीच पानीपत के मैदान में एक बार फिर लड़ाई हुई (5 नवम्बर 1556)। मुगलों की एक टुकड़ी ने हेमू के तोपखाने पर पहले अधिकार कर लिया लेकिन पलड़ा हेमू का ही भारी था। लेकिन तभी एक तीर हेमू की आंख में लगा और वह बेहोश हो गया। नेतृत्वहीन अफगान सेना पराजित हो गई। हेमू को पकड़कर मार डाला गया। इस प्रकार अकबर को साम्राज्य पुनः लड़कर लेना पड़ा। प्रारम्भिक दौर – सरदारों के साथ संघर्ष (1556-67) बैरमखाँ लगभग चार वर्षों तक साम्राज्य का सरगना रहा। इस दौरान उसने सरदारों को काबू में रखा। काबुल पर खतरा टल गया था और साम्राज्य की सीमा का विस्तार काबुल से पूर्व में स्थित जौनपुर तक और पश्चिम में अजमेर तक हो गया था। ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया गया था और रणथम्भोर और मालवा को जीतने का भी भरसक प्रयास किया गया। इधर अकबर भी परिपक्व हो रहा था। बैरमखाँ ने बहुत से प्रभावशाली व्यक्तियों को नाराज कर लिया था। उन्होंने शिकायत की कि बैरमखाँ शिया है और वह अपने समर्थकों और शियाओं को उच्च पदों पर नियुक्त कर रहा है। ये दोषारोपण अपने आप में बहुत गंभीर नहीं थे लेकिन बैरमखाँ बहुत उद्धत हो गया था और इस बात को भूल रहा था अकबर बड़ा हो रहा है। छोटी-छोटी बातों पर दोनों में मतभेद हो गया और अकबर को यह अनुभव हुआ कि लम्बे समय तक राज्य कार्य किसी दूसरे के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता। अकबर ने बहुत ही होशियारी से काम लिया। वह शिकार के बहाने आगरा से निकला और दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली से उसने बैरमखाँ को अपदस्थ करते हुए एक फरमान जारी किया और सब सरदारों को व्यक्तिगत रूप से अपने सामने हाजिर होने का आदेश दिया। बैरमखाँ ने जब यह महसूस किया कि अकबर सारे अधिकार अपने हाथ में लेना चाहता है, वह इसके लिए तैयार था। लेकिन उसके विराधी उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे। उन्होंने उसे इतना जलील किया कि वह विद्रोह पर उतारू हो गया। इस विद्रोह के कारण साम्राज्य में छः महीने तक अव्यवस्था रही। अन्ततः बैरमखाँ समर्पण करने पर विवश हो गया। अकबर ने विनम्रता से उसका स्वागत किया और उसके सामने दो विकल्प रखे कि या तो वह उसके दरबार में कार्य करता रहे या मक्का चला जाये। बैरमखाँ ने मक्का चला जाना बेहतर समझा लेकिन रास्ते में अहमदाबाद के निकट पाटन में अफगानों ने व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण उसकी हत्या कर दी। बैरमखाँ की पत्नी और उसके छोटे बच्चे को अकबर के पास लाया गया। अकबर ने बैरम की विधवा के साथ जो उसकी रिश्ते में बहन लगती थी, विवाह कर लिया और बच्चे को बेटे की तरह पाला। यह बच्चा बाद में अब्दुर रहीम खान-ए-खाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ और साम्राज्य के महत्वपूर्ण पद और सैनिक पद भी उसके पास रहे। बैरमखाँ के साथ अकबर के चरित्र की कुछ विलक्षणताएं स्पष्ट होती हैं। एक बार रास्ता निर्धारित कर लेने पर वह झुकता नहीं था लेकिन किसी प्रतिद्वन्दी के समर्पण कर देने पर वह उसके प्रति बहुत दयालु भी हो उठता था। बैरमखाँ के विद्रोह के दौरान सरदारों में बहुत से व्यक्ति और दल राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे। इनमें अकबर की धाय माँ महम अनगा और उसके संबंधी भी थे। यद्यपि महम अनगा ने शीघ्र ही सन्यास ले लिया परन्तु उसका पुत्र आधमखाँ एक महत्वाकांक्षी नौजवान था। उसे मालवा के विरुद्ध एक अभियान का सेनापति बनाकर भेजा गया। लेकिन जब उसे अपदस्थ कर दिया गया तो उसने वजीर के पद की मांग की और जब उसकी मांग स्वीकार नहीं की गई तो उसने कार्यवाहक वजीर को छुरा घोंप दिया। इससे अकबर बहुत क्रोधित हुआ और आधमखाँ को किले की दीवार से फिकवा देने का आदेश दिया। इस प्रकार आधमखाँ 1561 में मर गया। परन्तु अकबर को सम्पूर्ण अधिकार स्थापित करने में बहुत वर्ष लगे। उजबेकों ने सरदारों में एक अपना शक्तिशाली दल बना लिया था। उनके पास पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार और मालवा में महत्वपूर्ण पद थे। यद्यपि उन्होंने उन क्षेत्रों में शक्तिशाली अफगान दलों को दबाये रखकर साम्राज्य की बहुत सेवा की परन्तु वे बहुत उद्धत हो गये थे और तरुण शासक की हुकमउदूली करने लगे थे। 1561 और 1567 के बीच उन्होंने कई बार विद्रोह किय जिससे विवश होकर अकबर को उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। प्रत्येक बार अकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया लेकिन जब 1565 में उन्होंने फिर विद्रोह किया तो अकबर इतना उत्तेजित हुआ कि उसने निर्णय किया कि जब तक वह उन्हें मिटा नहीं देगा तब तक जौनपुर को राजधानी बनाये रखेगा। इसी बीच मिर्जाओं के विद्रोह ने अकबर को उलझा लिया। मिर्जा अकबर के संबंधी थे और तैमूरवंशी थे। इन्होंने आधुनिक उत्तर प्रदेश के पश्चिम में पड़ने वाले क्षेत्रों में गड़बड़ मचाई। अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हकीम ने काबुल पर अधिकार करके पंजाब की ओर कूच किया और लाहौर पर घेरा डाल दिया। लेकिन उजबेक विद्रोहियों ने अकबर को औपचारिक रूप से अपना शासक स्वीकार कर लिया। हेमू के दिल्ली पर अधिकार करने के बाद अकबर के सामने यह गंभीर संकट था। परन्तु अकबर की कुशलता और भाग्य ने उसे विजय दिलाई। वह जौनपुर से लाहौर की ओर बढ़ा जिससे मिर्जा हकीम पीछे हटने को मजबूर हो गया। इस बीच मिर्जाओं के विद्रोह को कुचल दिया गया और वे मालवा और गुजरात की ओर भाग गये। अकबर लाहौर से जौनपुर लौटा। वर्षा ऋतु में इलाहाबाद के निकट यमुना पार करके उजबेक सरदारों के नेतृत्व ने विद्रोह करने वालों को आश्चर्यचकित कर दिया और उन्हें पूरी तरह से पराजित किया। उजबेक नेता लड़ाई में मारे गये और इस प्रकार यह लम्बा विद्रोह समाप्त हो गया। उन सरदारों सहित जो स्वतंत्रता का सपना देख रहे थे, सभी विद्रोही सरदार पस्त पड़ गये। अब अकबर अपने साम्राज्य के विस्तार की ओर ध्यान देने के लिये मुक्त था। साम्राज्य का प्रारम्भिक विस्तार (1567-76) बैरमखाँ के संरक्षण में साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ था। अजमेर के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण विजय थीः मालवा और गढ़-कटंगा। उस समय मालवा पर एक युवा राजकुमार बाजबहादुर का शासन था। वह संगीत और काव्य में प्रवीण था। बाजबहादुर और सुंदरी रूपमती की प्रेम गाथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। सुंदर होने के साथ-साथ रूपमती संगीत और काव्य में भी सिद्धहस्त थी। बाजबहादुर के समय में माँडू संगीत का केन्द्र था। लेकिन बाजबहादुर ने सेना की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। मालवा के विरुद्ध अभियान का सेनापति अकबर की धाय माँ महम अनगा का पुत्र आधमखाँ था। बाजबहादुर बुरी तरह पराजित हुआ (1561) और मुगलों के हाथ रूपमती सहित बहुत कीमती सामान हाथ लगा। लेकिन रूपमती ने आधमखाँ के हरम में जाने की बजाय आत्महत्या करना उचित समझा। आधमखाँ और उसके उत्तराधिकारियों के अविवेकपूर्ण जुल्मों के कारण मुगलों के विरुद्ध वहाँ प्रतिक्रिया हुई। जिससे बाजबहादुर को पुनः राज्य प्राप्त करने का अवसर मिला। बैरमखाँ के विद्रोह से निपटने के पश्चात अकबर ने मालवा के विरुद्ध एक और अभियान छेड़ा। बाजबहादुर को वहाँ से भागना पड़ा। उसने कुछ समय के लिए मेवाड़ के राणा के पास शरण ली। एक के बाद एक दूसरे इलाके में भटकने के बाद बाजबहादुर अकबर के दरबार में पहुँचा और उस मनसबदार बना दिया गया। कालांतर में वह दो हजारी के मनसब (पद) तक बढ़ा। परम्परा के अनुसार रूपमती की समाधि के निकट उज्जैन में उसकी भी समाधि बनाई गई थी। इस प्रकार मालवा का विस्तृत क्षेत्र मुगलों के शासन में आ गया। इसी समय के लगभग मुगल सेनाओं ने गढ़-कटंगा पर विजय प्राप्त की। गढ़-कटंगा के राज्य में नर्मदा घाटी और आधुनिक मध्य प्रदेश के उत्तरी इलाके सम्मिलित थे। इस राज्य की स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अमन दास ने की थी। अमनदास ने रायसेन को जीतने में गुजरात के बहादुरशाह की सहायता की थी और उसे इससे संग्रामशाह की उपाधि प्राप्त हुई।