प्रयोग:प्रिया
हिन्दी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन 1991 ई॰ की जनगणना के अनुसार, 23.342 करोड़ भारतीय हिन्दी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 33.727 करोड़ लोग इसकी लगभग 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। इसकी कुछ बोलियाँ, मैथिली और राजस्थानी अलग भाषा होने का दावा करती हैं। हिंदी की प्रमुख बोलियों में अवधी, भोजपुरी, ब्रज भाषा, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरियाणवी, कुमांऊनी, मागधी और मारवाड़ी शामिल हैं।
हिन्दी भाषा का विकास
वर्गीकरण
- हिन्दी विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।
- आकृति या रूप के आधार पर हिन्दी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।
- भाषा–परिवार के आधार पर हिन्दी भारोपीय (Indo–European) परिवार की भाषा है।
- भारत में 4 भाषा–परिवार—भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनी–तिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलने वालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा परिवार है।
भाषा–परिवार | भारत में बोलने वालों का % |
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भारोपीय | 73% |
द्रविड़ | 25% |
आस्ट्रिक | 1.3% |
चीनी–तिब्बती | 0.7% |
- हिन्दी भारोपीय/ भारत यूरोपीय भारतीय–ईरानी (Indo–Iranian) शाखा के भारतीय आर्य (Indo–Aryan) उपशाखा से विकसित एक भाषा है।
- भारतीय आर्यभाषा (भा. आ.) को तीन कालों में विभक्त किया जाता है।
नाम | प्रयोग काल | उदाहरण |
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प्राचीन भारतीय आर्यभाषा | 1500 ई॰ पू॰– 500 ई॰ पू॰ | वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत |
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा | 500 ई॰ पू॰– 1000 ई॰ | पालि, प्राकृत, अपभ्रंश |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा | 1000 ई॰– अब तक | हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएँ – बांग्ला, उड़ीया, मराठी, सिंधी, असमिया, गुजराती, पंजाबी आदि। |
नाम | प्रयोग काल | अन्य नाम |
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वैदिक संस्कृत | 1500 ई॰ पू॰– 1000 ई॰ पू॰ | छान्दस् (यास्क, पाणिनी) |
लौकिक संस्कृत | 1000 ई॰ पू॰- 500 ई॰ पू॰ | संस्कृत भाषा (पाणिनी) |
नाम | प्रयोग काल | विशेष टिप्पणी |
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प्रथम प्राकृत काल– पालि | 500 ई॰ पू॰– 1 ली ई॰ | भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं। |
द्वितीय प्राकृत काल– प्राकृत | 1 ली ई॰– 500 ई॰ | भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही हैं। |
तृतीय प्राकृत काल– अपभ्रंश
अवहट्ट |
500 ई॰– 1000 ई॰
900 ई॰ – 1100 ई॰ |
संक्रमणकालीन/संक्रान्तिकालीन भाषा |
नाम | प्रयोग काल |
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प्राचीन हिन्दी | 1100 ई॰ पू॰– 1400 ई॰ पू॰ |
मध्यकालीन हिन्दी | 1400 ई॰ पू॰- 1850 ई॰ पू॰ |
आधुनिक हिन्दी | 1850– अब तक |
हिन्दी की आदि जननि संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी का रूप लेती है। विशुद्धतः, हिन्दी भाषा के इतिहास का आरम्भ अपभ्रंश से माना जाता है। हिन्दी का विकास क्रम—
संस्कृत—पालि—प्राकृत—अपभ्रंश—अवहट्ट—प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी
अपभ्रंश
- अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई0 से लेकर 1000 ई0 के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरम्भ 8वीं सदी ई0 (स्वयंभू कवि) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा।
- अपभ्रंश (अप+भ्रंश+घञ्) शब्द का यों तो शाब्दिक अर्थ है 'पतन', किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है—प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य।
- प्रमुख रचनाकार – स्वयंभू—अपभ्रंश का वाल्मीकि ('पउम चरिउ' अर्थात् राम काव्य), धनपाल ('भविस्सयत कहा'–अपभ्रंश का पहला प्रबन्ध काव्य), पुष्पदंत ('महापुराण', 'जसहर चरिउ'), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ ('चरिया पद', 'दोहाकोशी') आदि।
अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विकास—
अवहट्ट
- अवहट्ट 'अपभ्रंष्ट' शब्द का विकृप रूप है। इसे 'अपभ्रंश का अपभ्रंश' या 'परवर्ती अपभ्रंश' कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रांतिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई0 से 1100 ई0 तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है।
- अब्दुर रहमान, दामोदर पंडित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को ' अवहट्ट' या 'अवहट्ठ' कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं। 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ते तैसन जम्पञो अवहट्ठा' अर्थात् देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है। इसे अवहट्ठा कहा जाता है।
- प्रमुख रचनाकारः अद्दहमाण/अब्दुर रहमान ('संनेह रासय'/'संदेश रासक'), दामोदर पंडित ('उक्ति–व्यक्ति–प्रकरण'), ज्योतिरीश्वर ठाकुर ('वर्ण रत्नाकर'), विद्यापति ('कीर्तिलता') आदि।
प्राचीन हिन्दी
- मध्यदेशीय भाषा परम्परा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिन्दी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरी है।
- प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय है— अपभ्रंश– अवहट्ट के बाद की भाषा।
- हिन्दी का आदिकाल हिन्दी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था, जब अपभ्रंश–अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था और हिन्दी की बोलियों के निश्चित् व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।
हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति
हिन्दी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तर–पश्चिम में प्रवहमान सिंधु नदी से सम्बन्धित है। विदित है कि अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर–पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह 'सिंधु' का देश था। ईरान (फ़ारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दू' कहते थे। (सिंधु—हिन्दू, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन—पहलवी भाषा प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन)। हिन्द से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में फ़ारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय 'ई' लगने से 'हिन्दी' बन गया। 'हिन्दी' का अर्थ है—'हिन्द का'। इस प्रकार हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिन्दी की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं—
- 'हिन्दी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ—
सिंधु—हिन्दू—हिन्द+ई—हिन्दी।
- 'हिन्दी' शब्द मूलतः फ़ारसी का है न कि 'हिन्दी' भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालाँकि कुछ कट्टर हिन्दी प्रेमी 'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे—हिन (हनन करनेवाला)+दु (दुष्ट)=हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा 'हिन्दी'; हीन (हीनों)+दु (दलन)=हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा 'हिन्दी'। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
- 'हिन्दी' शब्द के दो अर्थ हैं—'हिन्द देश के निवासी' (यथा—'हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा'—इकबाल) और 'हिन्दी की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिन्दी नहीं कहता, बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इर देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब 'हिन्दी' नहीं कहलाती हैं। बेशक ये सभी 'हिन्दी' की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल 'हिन्दी' नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए 'हिन्दी' की इन सब भाषाओं के लिए 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता।
- प्रमुख रचनाकार- 'हिन्दी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा–समूह का नाम है, उसमें आज के हिन्दी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
- ब्रजभाषा- प्राचीन हिन्दी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश–अवहट्ट से ही जीवन रस लेती रही। अपभ्रंश–अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई0) है।
- अवधी- अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की 'चंद्रायन' या 'लोरकहा' (1370 ई0) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया।
- खड़ी बोली- प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर ख़ुसरो जैसे सूफ़ियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश–अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।
मध्यकालीन हिन्दी
मध्यकाल में हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गईं। इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आए—ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली। ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ पर इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली। प्रमुख रचनाकार
ब्रजभाषा
हिन्दी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परम्परा के उत्तरादायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात् भक्तिकाल) में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्ग/शुद्धाद्वैत सम्प्रदायं के सूरदास (सूरसागर), नंददास, निम्बार्क सम्प्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य सम्प्रदाय के गदाधर भट्ट, राधा–वल्लभ सम्प्रदाय के हित हरिवंश (श्रीकृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं सम्प्रदाय–निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है, जिन्हें 'अष्टछाप का जहाज़' कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात् रीतिकाल) में अनेक आचार्यों एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं। (ब्रजबुलि—बंगाल में कृष्णभक्त कवियों के द्वारा प्रचारित भाषा का नाम।)
अवधी
अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफ़ी/प्रेममार्गी कवियों को है। कुत्बन ('मृगावती'), जायसी ('पद्मावत'), मंझन ('मधुमालती'), आलम ('माधवानल कामकंदला'), उसमान ('चित्रावली'), नूर मुहम्मद ('इन्द्रावती'), कासिमशाह ('हंस जवाहिर'), शेख निसार ('यूसुफ़ जुलेखा'), अलीशाह ('प्रेम चिंगारी') आदि सूफ़ी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदार ने 'रामचरितमानस' की रचना बैसवाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया, वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है, जायसी और तुलसीदास में। जायसी के यहाँ जहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप मिलता है, वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप। (गोहारी/गोयारी—बंगाल में सूफ़ियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम।)
खड़ी बोली
मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कन में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए—उत्तरी हिन्दी व दक्कनी हिन्दी। खड़ी बोली मध्यकाल रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतों; गंग की 'चन्द छन्द वर्णन की महिमा', रहीम के 'मदनाष्टक', आलम के 'सुदामा चरित', जटमल की 'गोरा बादल की कथा', वली, सौदा, इन्शा, नज़ीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, 'कुतुबशतम' (17वी सदी), 'भोगलू पुराण' (18वीं सदी), संत प्राणनाथ के 'कुलजमस्वरूप' आदि में मिलता है।
आधुनिककालीन हिन्दी
- हिन्दी के आधुनिक काल तक आते–आते ब्रजभाषा जनभाषा से काफ़ी दूर हट चुकी थी और अवधी ने तो बहुत पहले से ही साहित्य से मुँह मोड़ लिया था। 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेज़ी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिन्दी पर भी पड़ा। नवीन राजनीतिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया। जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया तब उनका स्थान खड़ी बोली धीरे–धीरे लेने लगी। अंग्रेज़ी सरकार ने भी इसका प्रयोग आरम्भ कर दिया।
- हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारम्भ में एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते–आते खड़ी बोली गद्य–पद्य दोनों की ही साहित्यिक भाषा बन गई।
- इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में विभिन्न धार्मिक सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी सहायता की। फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी।
खड़ी बोली
भारतेन्दु पूर्व युग
खड़ी बोली गद्य के आरम्भिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर दो रचनाकारों—सदासुख लाल 'नियाज' (सुखसागर) व इंशा अल्ला ख़ाँ (रानी केतकी की कहानी)—तथा फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के दो भाषा मुंशियों—लल्लू लालजी (प्रेम सागर) व सदल मिश्र (नासिकेतोपाख्यान)—के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिन्दी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था। इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों—राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिन्द' व राजा लक्ष्मण सिंह—ने हिन्दी के स्वरूप निर्धारण के सवाल पर दो सीमान्तों का अनुगमन किया। राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का गँवारुपन दूर कर उसे उर्दू–ए–मुअल्ला बना दिया तो राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया।
भारतेन्दु युग
(1850 ई0–1900 ई0) इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग में हुआ। हिन्दी सही मायने में भारतेन्दु के काल में 'नई चाल में ढली' और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक मंडल भी तैयार किया, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा गया। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम के रूप में अपनाकर युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया। लेकिन पद्य रचना के मसले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने के सवाल पर विवाद बना रहा, जिसका अन्त द्विवेदी के युग में जाकर हुआ।
द्विवेदी युग
(1900 ई0–1920 ई0) खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1903 ई0 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादन का भार सम्भाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे लेखकों की वर्तनी अथवा त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बुखूवी अन्जाम दिया। गद्य तो भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिषठित होनी लगी। इस प्रकार ब्रजभाषा, जिसके साथ में 'भाषा' शब्द जुड़ा हुआ है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात् 'बोली' बन गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ 'बोली' शब्द लगा है, 'भाषा बन गई', और इसका सही नाम हिन्दी हो गया। अब खड़ी बोली दिल्ली के आसपास की मेरठ–जनपदीय बोली नहीं रह गई, अपितु यह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएँ विकसित हुई।। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुन्दर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्णसिंह, चन्द्रधर शर्मा, गुलेरी आदि के अवदान विशेषतः उल्लेखनीय हैं।
छायावाद युग
(1920 ई॰–1936 ई॰ एवं उसके बाद) साहित्यिक खड़ी बोली के विकास में छायावाद युग का योगदान काफ़ी महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा और राम कुमार आदि ने महती योगदान किया। इनकी रचनाओं को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम समर्थ है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यजंना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएँ हैं। हिन्दी काव्य में छायावाद युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई0–1946 ई0) प्रयोगवाद युग (1943) आदि आए। इस दौर खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता गया। पद्य के ही नहीं, गद्य के सन्दर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो भाषा–शैलियाँ और मर्यादाएँ स्थापित कीं, उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य–साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर ही किया गया है। जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद–पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग, नाटक के इतिहास में प्रसाद–पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग, आलोचना के इतिहास में शुक्ल–पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।
हिन्दी के विभिन्न नाम या रूप
हिन्दवी
इन्हें हिन्दुई, जबान–ए–हिन्द, देहलवी नामों से भी जाना जाता है। मध्यकाल में मध्यदेश के हिन्दुओं की भाषा, जिसमें अरबी–फ़ारसी शब्दों का अभाव है। (सर्वप्रथम अमीर ख़ुसरो (1253-1325) ने मध्य देश की भाषा के लिए हिन्दवी, हिन्दी शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने देशी भाषा हिन्दवी, हिन्दी के प्रचार–प्रसार के लिए एक फ़ारसी–हिन्दी कोश 'ख़ालिक बारी' की रचना की, जिसमें हिन्दवी शब्द 30 बार, हिन्दी शब्द 5 बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है।)
भाषा
भाषा को भाखा भी कहा जाता है। विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशवदास आदि ने भाषा शब्द का प्रयोग हिन्दी के लिए किया है। (19वीं सदी के प्रारम्भ तक इस शब्द का प्रयोग होता रहा। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्त हिन्दी अध्यापकों को 'भाषा मुंशी' के नाम से अभिहित करना इसी बात का सूचक है।)
रेख्ता
मध्यकाल में मुसलमानों में प्रचलित अरबी–फ़ारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा। (जैसे–मीर, गालिब की रचनाएँ)
दक्खिनी
इसे दक्कनी नाम से भी जाना जाता है। मध्यकाल में दक्कन के मुसलमानों के द्वारा फ़ारसी लिपि में लिखी जानेवाली भाषा। (हिन्दी में गद्य रचना परम्परा की शुरूआत करने का श्रेय दक्कनी हिन्दी के रचनाकारों को ही है। दक्कनी हिन्दी को उत्तर भारत में लाने का श्रेय प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी (1688-1741) को है। वह मुग़ल शासक मुहम्मद शाह 'रंगीला' के शासन काल में दिल्ली पहुँचा और उत्तरी भारत में दक्कनी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया।)
खड़ी बोली
खड़ी बोली की तीन शैलियाँ हैं—
- हिन्दी, शुद्ध हिन्दी, उच्च हिन्दी, नागरी हिन्दी, आर्यभाषा– नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली (जैसे—जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ)।
2.उर्दू, जबान–ए–उर्दू, जबान–ए–उर्दू–मुअल्ला— फ़ारसी लिपि में लिखित अरबी—फ़ारसी बहुल खड़ी बोली। 3.हिन्दुस्तानी— हिन्दी और उर्दू का मिश्रित रूप व आमजन द्वारा प्रयुक्त (जैसे–प्रेमचंद की रचनाएँ)। [1]
हिन्दी के विभिन्न अर्थ
भाषा शास्त्रीय अर्थ
नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली।
संवैधानिक/क़ानूनी अर्थ
संविधान के अनुसार हिन्दी भारत संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है।
सामान्य अर्थ
समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की परिनिष्ठित भाषा अर्थात् शासन, शिक्षा, साहित्य, व्यापार आदि की भाषा।
व्यापक अर्थ
आधुनिक युग में हिन्दी को केवल खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता। हिन्दी की सभी उपभाषाएँ और बोलियाँ हिन्दी के व्यापक अर्थ में आ जाती हैं।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास
राष्ट्रभाषा क्या है
- राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है—समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आमजन की भाषा (जनभाषा)। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन–जन के विचार–विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
- राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं, किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यकम उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
- स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के सन्दर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ती हिन्दी ने किया। यही कारण है कि हिन्दी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान (विशेषतः 1900 ई0-1947 ई0) राष्ट्रभाषा बनी।
- राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है, बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है।
- राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
- राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क–भाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है।
- राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
- राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
अंग्रेज़ों का योगदान
- राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क भाषा होती है। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश में जन–जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तरी भारत की नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों—वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानन्द आदि—ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त–संत कवियों (जैसे—असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।
- यही कारण था कि जनता और सरकार के बीच संवाद स्थापना के क्रम में फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कम्पनी सरकार ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न–भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।
- सी0 टी0 मेटकाफ़ ने 1806 ई0 में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा—'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा तक........मैंने उस भाषा का आम व्यावहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है।.........मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दस्तानी बोल लेते होंगे।'
- टॉमस रोबक ने 1807 ई0 में लिखा—'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी–फ़ारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
- विलियम केरी ने 1816 ई0 में लिखा—'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
- एच0 टी0 कोलब्रुक ने लिखा—'जिस भाषा का व्यावहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े–लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'
- जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को 'आम बोलचाल की महाभाषा' (Great Lingua Franca) कहा है।
- इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसाद एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेज़ों ने हिन्दी को अपनाया। उस समय हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था। अंग्रेज़ों ने हिन्दी को प्रयोग में लाकर हिन्दी की महती संम्भावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।
धर्म/समाज सुधारकों का योगदान
- धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिन्दी के महत्व को भाँपा और हिन्दी की हिमायत की।
- ब्रह्मा समाज (1828 ई0) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा, "इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है।" ब्रह्मसमाजी केशव चंद्र सेन ने 1875 ई0 में एक लेख लिखा, "भारतीय एकता कैसे हो, 'जिसमें उन्होंने लिखा—'उपाय है सारे भाषा में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है'। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिन्दी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।
- आर्य समाज (1875 ई0) के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक–से–अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिन्दी में ही लिखा। उनका कहना था कि "हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।" वे इस 'आर्यभाषा' को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, 'मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएँगे।
- अरविन्द दर्शन के प्रणेता अरविन्द घोष की सलाह थी कि 'लोग अपनी–अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को ग्रहण करें।'
- थियोसोफिकल सोसायटी (1875 ई0) की संचालिका एनी बेसेंट ने कहा था, "भारतवर्ष के भिन्न–भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलने वाले मिल सकते हैं।.............भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।"
- उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाज (स्थापना 1867 ई0, संस्थापक—आत्मारंग पाण्डुरंग), सनातन धर्म सभा (स्थापना 1895 ई0, संस्थापक—पंडित दीनदयाल), रामकृष्ण मिशन (स्थापना 1897 ई0, संस्थापक—स्वामी विवेकानंद) आदि ने हिन्दी के प्रचार में योग दिया।
- इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिन्दी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से सिर्फ इस भाषा में ही विचारों का आदान–प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/समाज सुधारकों ने किया।
कांग्रेस के नेताओं का योगदान
- 1885 ई0 में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे–जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया, वैसे–वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झंण्डा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता ही गया।
- 1917 ई0 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा, "यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।" तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिन्दी सीखें।
- महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यकम मानते थे। उनका कहना था, "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे—"हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।" उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 1917 ई0 में भड़ौंच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा,
"राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए—
- अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
- यह ज़रूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
- उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
- राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
- उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर ज़ोर नहीं देना चाहिए।"
वर्ष 1918 ई0 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया, "मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।" इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिन्दी सीखने को प्रयाग भेजें जाएँ और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएँ सीखने तथा हिन्दी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिन्दी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में मद्रास भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई0) एवं वर्धा (1936 ई0) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित की गईं।
- वर्ष 1925 ई0 में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि 'कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम–काज आमतौर पर हिन्दी में चलाया जाएगा।' इस प्रस्ताव में हिन्दी–आंदोलन को बड़ा बल मिला।
- वर्ष 1927 ई0 में गाँधीजी ने लिखा, "वास्तव में ये अंग्रेज़ी में बोलनेवाले नेता हैं, जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिन्दी सीखने से इंकार करते हैं, जबकि हिन्दी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अन्दर सीखी जा सकती है।
- वर्ष 1927 ई0 में सी0 राजागोपालाचारी ने दक्षिणवालों को हिन्दी सीखने की सलाह दी और कहा, "हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी।"
- वर्ष 1928 ई0 में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा सम्बन्धी सिफ़ारिश में कहा गया था, "देवनागरी अथवा फ़ारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राष्ट्रभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग ज़ारी रहेगा।" सिवाय 'देवनागरी या फ़ारसी' की जगह 'देवनागरी' तथा 'हिन्दुस्तानी' की जगह 'हिन्दी' रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।
- वर्ष 1929 ई0 में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, "प्रान्तीय ईर्ष्या–द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।"
- वर्ष 1931 ई0 में गाँधीजी ने लिखा, "यदि स्वराज्य अंगेज़ी–पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो सम्पर्क भाषा अवश्य अंग्रेज़ी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अछूतों के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिन्दी हो सकती है।" गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।
- वर्ष 1936 ई0 में गाँधीजी ने कहा, "अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है, वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता है।"
- वर्ष 1937 ई0 में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया।
- जैसे–जैसे स्वतंत्रता संग्राम तीव्रतम होता गया वैसे–वैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया। 20वीं सदी के चौथे दशक तक हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत–प्रोत जितनी रचनाएँ हिन्दी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेज़ी भारत छोड़ता पड़ा।
नाम | मुख्यालय | स्थापना | संस्थापक |
---|---|---|---|
ब्रह्म समाज | कलकत्ता | 1828 ई0 | राजा राम मोहन राय |
प्रार्थना समाज | बंबई | 1867 ई0 | आत्मारंग पाण्डुरंग |
आर्य समाज | बंबई | 1875 ई0 | दयानन्द सरस्वती |
थियोसोफिकल | अडयार | 1882 ई0 | कर्नल एच0 एस0 |
सोसाइटी | मद्रास | आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी | |
सनातन धर्म सभा | वाराणसी | 1895 ई0 | पं0 दीनदयाल शर्मा |
(भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) रामकृष्ण मिशन | बेलूर | 1897 ई0 | विवेकानंद |
हिन्दी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन 1991 ई॰ की जनगणना के अनुसार, 23.342 करोड़ भारतीय हिन्दी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 33.727 करोड़ लोग इसकी लगभग 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। इसकी कुछ बोलियाँ, मैथिली और राजस्थानी अलग भाषा होने का दावा करती हैं। हिंदी की प्रमुख बोलियों में अवधी, भोजपुरी, ब्रज भाषा, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरियाणवी, कुमांऊनी, मागधी और मारवाड़ी शामिल हैं।
हिन्दी भाषा का विकास
वर्गीकरण
- हिन्दी विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।
- आकृति या रूप के आधार पर हिन्दी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।
- भाषा–परिवार के आधार पर हिन्दी भारोपीय (Indo–European) परिवार की भाषा है।
- भारत में 4 भाषा–परिवार—भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनी–तिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलने वालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा परिवार है।
भाषा–परिवार | भारत में बोलने वालों का % |
---|---|
भारोपीय | 73% |
द्रविड़ | 25% |
आस्ट्रिक | 1.3% |
चीनी–तिब्बती | 0.7% |
- हिन्दी भारोपीय/ भारत यूरोपीय भारतीय–ईरानी (Indo–Iranian) शाखा के भारतीय आर्य (Indo–Aryan) उपशाखा से विकसित एक भाषा है।
- भारतीय आर्यभाषा (भा. आ.) को तीन कालों में विभक्त किया जाता है।
नाम | प्रयोग काल | उदाहरण |
---|---|---|
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा | 1500 ई॰ पू॰– 500 ई॰ पू॰ | वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत |
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा | 500 ई॰ पू॰– 1000 ई॰ | पालि, प्राकृत, अपभ्रंश |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा | 1000 ई॰– अब तक | हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएँ – बांग्ला, उड़ीया, मराठी, सिंधी, असमिया, गुजराती, पंजाबी आदि। |
नाम | प्रयोग काल | अन्य नाम |
---|---|---|
वैदिक संस्कृत | 1500 ई॰ पू॰– 1000 ई॰ पू॰ | छान्दस् (यास्क, पाणिनी) |
लौकिक संस्कृत | 1000 ई॰ पू॰- 500 ई॰ पू॰ | संस्कृत भाषा (पाणिनी) |
नाम | प्रयोग काल | विशेष टिप्पणी |
---|---|---|
प्रथम प्राकृत काल– पालि | 500 ई॰ पू॰– 1 ली ई॰ | भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं। |
द्वितीय प्राकृत काल– प्राकृत | 1 ली ई॰– 500 ई॰ | भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही हैं। |
तृतीय प्राकृत काल– अपभ्रंश
अवहट्ट |
500 ई॰– 1000 ई॰
900 ई॰ – 1100 ई॰ |
संक्रमणकालीन/संक्रान्तिकालीन भाषा |
नाम | प्रयोग काल |
---|---|
प्राचीन हिन्दी | 1100 ई॰ पू॰– 1400 ई॰ पू॰ |
मध्यकालीन हिन्दी | 1400 ई॰ पू॰- 1850 ई॰ पू॰ |
आधुनिक हिन्दी | 1850– अब तक |
हिन्दी की आदि जननि संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी का रूप लेती है। विशुद्धतः, हिन्दी भाषा के इतिहास का आरम्भ अपभ्रंश से माना जाता है। हिन्दी का विकास क्रम—
संस्कृत—पालि—प्राकृत—अपभ्रंश—अवहट्ट—प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी
अपभ्रंश
- अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई0 से लेकर 1000 ई0 के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरम्भ 8वीं सदी ई0 (स्वयंभू कवि) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा।
- अपभ्रंश (अप+भ्रंश+घञ्) शब्द का यों तो शाब्दिक अर्थ है 'पतन', किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है—प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य।
- प्रमुख रचनाकार – स्वयंभू—अपभ्रंश का वाल्मीकि ('पउम चरिउ' अर्थात् राम काव्य), धनपाल ('भविस्सयत कहा'–अपभ्रंश का पहला प्रबन्ध काव्य), पुष्पदंत ('महापुराण', 'जसहर चरिउ'), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ ('चरिया पद', 'दोहाकोशी') आदि।
अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विकास—
अवहट्ट
- अवहट्ट 'अपभ्रंष्ट' शब्द का विकृप रूप है। इसे 'अपभ्रंश का अपभ्रंश' या 'परवर्ती अपभ्रंश' कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रांतिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई0 से 1100 ई0 तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है।
- अब्दुर रहमान, दामोदर पंडित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को ' अवहट्ट' या 'अवहट्ठ' कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं। 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ते तैसन जम्पञो अवहट्ठा' अर्थात् देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है। इसे अवहट्ठा कहा जाता है।
- प्रमुख रचनाकारः अद्दहमाण/अब्दुर रहमान ('संनेह रासय'/'संदेश रासक'), दामोदर पंडित ('उक्ति–व्यक्ति–प्रकरण'), ज्योतिरीश्वर ठाकुर ('वर्ण रत्नाकर'), विद्यापति ('कीर्तिलता') आदि।
प्राचीन हिन्दी
- मध्यदेशीय भाषा परम्परा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिन्दी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरी है।
- प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय है— अपभ्रंश– अवहट्ट के बाद की भाषा।
- हिन्दी का आदिकाल हिन्दी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था, जब अपभ्रंश–अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था और हिन्दी की बोलियों के निश्चित् व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।
हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति
हिन्दी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तर–पश्चिम में प्रवहमान सिंधु नदी से सम्बन्धित है। विदित है कि अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर–पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह 'सिंधु' का देश था। ईरान (फ़ारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दू' कहते थे। (सिंधु—हिन्दू, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन—पहलवी भाषा प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन)। हिन्द से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में फ़ारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय 'ई' लगने से 'हिन्दी' बन गया। 'हिन्दी' का अर्थ है—'हिन्द का'। इस प्रकार हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिन्दी की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं—
- 'हिन्दी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ—
सिंधु—हिन्दू—हिन्द+ई—हिन्दी।
- 'हिन्दी' शब्द मूलतः फ़ारसी का है न कि 'हिन्दी' भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालाँकि कुछ कट्टर हिन्दी प्रेमी 'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे—हिन (हनन करनेवाला)+दु (दुष्ट)=हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा 'हिन्दी'; हीन (हीनों)+दु (दलन)=हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा 'हिन्दी'। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
- 'हिन्दी' शब्द के दो अर्थ हैं—'हिन्द देश के निवासी' (यथा—'हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा'—इकबाल) और 'हिन्दी की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिन्दी नहीं कहता, बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इर देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब 'हिन्दी' नहीं कहलाती हैं। बेशक ये सभी 'हिन्दी' की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल 'हिन्दी' नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए 'हिन्दी' की इन सब भाषाओं के लिए 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता।
- प्रमुख रचनाकार- 'हिन्दी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा–समूह का नाम है, उसमें आज के हिन्दी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
- ब्रजभाषा- प्राचीन हिन्दी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश–अवहट्ट से ही जीवन रस लेती रही। अपभ्रंश–अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई0) है।
- अवधी- अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की 'चंद्रायन' या 'लोरकहा' (1370 ई0) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया।
- खड़ी बोली- प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर ख़ुसरो जैसे सूफ़ियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश–अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।
मध्यकालीन हिन्दी
मध्यकाल में हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गईं। इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आए—ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली। ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ पर इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली। प्रमुख रचनाकार
ब्रजभाषा
हिन्दी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परम्परा के उत्तरादायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात् भक्तिकाल) में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्ग/शुद्धाद्वैत सम्प्रदायं के सूरदास (सूरसागर), नंददास, निम्बार्क सम्प्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य सम्प्रदाय के गदाधर भट्ट, राधा–वल्लभ सम्प्रदाय के हित हरिवंश (श्रीकृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं सम्प्रदाय–निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है, जिन्हें 'अष्टछाप का जहाज़' कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात् रीतिकाल) में अनेक आचार्यों एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं। (ब्रजबुलि—बंगाल में कृष्णभक्त कवियों के द्वारा प्रचारित भाषा का नाम।)
अवधी
अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफ़ी/प्रेममार्गी कवियों को है। कुत्बन ('मृगावती'), जायसी ('पद्मावत'), मंझन ('मधुमालती'), आलम ('माधवानल कामकंदला'), उसमान ('चित्रावली'), नूर मुहम्मद ('इन्द्रावती'), कासिमशाह ('हंस जवाहिर'), शेख निसार ('यूसुफ़ जुलेखा'), अलीशाह ('प्रेम चिंगारी') आदि सूफ़ी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदार ने 'रामचरितमानस' की रचना बैसवाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया, वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है, जायसी और तुलसीदास में। जायसी के यहाँ जहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप मिलता है, वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप। (गोहारी/गोयारी—बंगाल में सूफ़ियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम।)
खड़ी बोली
मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कन में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए—उत्तरी हिन्दी व दक्कनी हिन्दी। खड़ी बोली मध्यकाल रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतों; गंग की 'चन्द छन्द वर्णन की महिमा', रहीम के 'मदनाष्टक', आलम के 'सुदामा चरित', जटमल की 'गोरा बादल की कथा', वली, सौदा, इन्शा, नज़ीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, 'कुतुबशतम' (17वी सदी), 'भोगलू पुराण' (18वीं सदी), संत प्राणनाथ के 'कुलजमस्वरूप' आदि में मिलता है।
आधुनिककालीन हिन्दी
- हिन्दी के आधुनिक काल तक आते–आते ब्रजभाषा जनभाषा से काफ़ी दूर हट चुकी थी और अवधी ने तो बहुत पहले से ही साहित्य से मुँह मोड़ लिया था। 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेज़ी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिन्दी पर भी पड़ा। नवीन राजनीतिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया। जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया तब उनका स्थान खड़ी बोली धीरे–धीरे लेने लगी। अंग्रेज़ी सरकार ने भी इसका प्रयोग आरम्भ कर दिया।
- हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारम्भ में एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते–आते खड़ी बोली गद्य–पद्य दोनों की ही साहित्यिक भाषा बन गई।
- इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में विभिन्न धार्मिक सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी सहायता की। फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी।
खड़ी बोली
भारतेन्दु पूर्व युग
खड़ी बोली गद्य के आरम्भिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर दो रचनाकारों—सदासुख लाल 'नियाज' (सुखसागर) व इंशा अल्ला ख़ाँ (रानी केतकी की कहानी)—तथा फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के दो भाषा मुंशियों—लल्लू लालजी (प्रेम सागर) व सदल मिश्र (नासिकेतोपाख्यान)—के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिन्दी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था। इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों—राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिन्द' व राजा लक्ष्मण सिंह—ने हिन्दी के स्वरूप निर्धारण के सवाल पर दो सीमान्तों का अनुगमन किया। राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का गँवारुपन दूर कर उसे उर्दू–ए–मुअल्ला बना दिया तो राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया।
भारतेन्दु युग
(1850 ई0–1900 ई0) इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग में हुआ। हिन्दी सही मायने में भारतेन्दु के काल में 'नई चाल में ढली' और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक मंडल भी तैयार किया, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा गया। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम के रूप में अपनाकर युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया। लेकिन पद्य रचना के मसले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने के सवाल पर विवाद बना रहा, जिसका अन्त द्विवेदी के युग में जाकर हुआ।
द्विवेदी युग
(1900 ई0–1920 ई0) खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1903 ई0 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादन का भार सम्भाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे लेखकों की वर्तनी अथवा त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बुखूवी अन्जाम दिया। गद्य तो भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिषठित होनी लगी। इस प्रकार ब्रजभाषा, जिसके साथ में 'भाषा' शब्द जुड़ा हुआ है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात् 'बोली' बन गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ 'बोली' शब्द लगा है, 'भाषा बन गई', और इसका सही नाम हिन्दी हो गया। अब खड़ी बोली दिल्ली के आसपास की मेरठ–जनपदीय बोली नहीं रह गई, अपितु यह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएँ विकसित हुई।। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुन्दर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्णसिंह, चन्द्रधर शर्मा, गुलेरी आदि के अवदान विशेषतः उल्लेखनीय हैं।
छायावाद युग
(1920 ई॰–1936 ई॰ एवं उसके बाद) साहित्यिक खड़ी बोली के विकास में छायावाद युग का योगदान काफ़ी महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा और राम कुमार आदि ने महती योगदान किया। इनकी रचनाओं को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम समर्थ है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यजंना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएँ हैं। हिन्दी काव्य में छायावाद युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई0–1946 ई0) प्रयोगवाद युग (1943) आदि आए। इस दौर खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता गया। पद्य के ही नहीं, गद्य के सन्दर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो भाषा–शैलियाँ और मर्यादाएँ स्थापित कीं, उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य–साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर ही किया गया है। जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद–पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग, नाटक के इतिहास में प्रसाद–पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग, आलोचना के इतिहास में शुक्ल–पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।
हिन्दी के विभिन्न नाम या रूप
हिन्दवी
इन्हें हिन्दुई, जबान–ए–हिन्द, देहलवी नामों से भी जाना जाता है। मध्यकाल में मध्यदेश के हिन्दुओं की भाषा, जिसमें अरबी–फ़ारसी शब्दों का अभाव है। (सर्वप्रथम अमीर ख़ुसरो (1253-1325) ने मध्य देश की भाषा के लिए हिन्दवी, हिन्दी शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने देशी भाषा हिन्दवी, हिन्दी के प्रचार–प्रसार के लिए एक फ़ारसी–हिन्दी कोश 'ख़ालिक बारी' की रचना की, जिसमें हिन्दवी शब्द 30 बार, हिन्दी शब्द 5 बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है।)
भाषा
भाषा को भाखा भी कहा जाता है। विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशवदास आदि ने भाषा शब्द का प्रयोग हिन्दी के लिए किया है। (19वीं सदी के प्रारम्भ तक इस शब्द का प्रयोग होता रहा। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्त हिन्दी अध्यापकों को 'भाषा मुंशी' के नाम से अभिहित करना इसी बात का सूचक है।)
रेख्ता
मध्यकाल में मुसलमानों में प्रचलित अरबी–फ़ारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा। (जैसे–मीर, गालिब की रचनाएँ)
दक्खिनी
इसे दक्कनी नाम से भी जाना जाता है। मध्यकाल में दक्कन के मुसलमानों के द्वारा फ़ारसी लिपि में लिखी जानेवाली भाषा। (हिन्दी में गद्य रचना परम्परा की शुरूआत करने का श्रेय दक्कनी हिन्दी के रचनाकारों को ही है। दक्कनी हिन्दी को उत्तर भारत में लाने का श्रेय प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी (1688-1741) को है। वह मुग़ल शासक मुहम्मद शाह 'रंगीला' के शासन काल में दिल्ली पहुँचा और उत्तरी भारत में दक्कनी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया।)
खड़ी बोली
खड़ी बोली की तीन शैलियाँ हैं—
- हिन्दी, शुद्ध हिन्दी, उच्च हिन्दी, नागरी हिन्दी, आर्यभाषा– नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली (जैसे—जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ)।
2.उर्दू, जबान–ए–उर्दू, जबान–ए–उर्दू–मुअल्ला— फ़ारसी लिपि में लिखित अरबी—फ़ारसी बहुल खड़ी बोली। 3.हिन्दुस्तानी— हिन्दी और उर्दू का मिश्रित रूप व आमजन द्वारा प्रयुक्त (जैसे–प्रेमचंद की रचनाएँ)। [2]
हिन्दी के विभिन्न अर्थ
भाषा शास्त्रीय अर्थ
नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली।
संवैधानिक/क़ानूनी अर्थ
संविधान के अनुसार हिन्दी भारत संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है।
सामान्य अर्थ
समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की परिनिष्ठित भाषा अर्थात् शासन, शिक्षा, साहित्य, व्यापार आदि की भाषा।
व्यापक अर्थ
आधुनिक युग में हिन्दी को केवल खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता। हिन्दी की सभी उपभाषाएँ और बोलियाँ हिन्दी के व्यापक अर्थ में आ जाती हैं।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास
राष्ट्रभाषा क्या है
- राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है—समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आमजन की भाषा (जनभाषा)। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन–जन के विचार–विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
- राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं, किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यकम उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
- स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के सन्दर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ती हिन्दी ने किया। यही कारण है कि हिन्दी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान (विशेषतः 1900 ई0-1947 ई0) राष्ट्रभाषा बनी।
- राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है, बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है।
- राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
- राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क–भाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है।
- राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
- राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
अंग्रेज़ों का योगदान
- राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क भाषा होती है। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश में जन–जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तरी भारत की नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों—वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानन्द आदि—ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त–संत कवियों (जैसे—असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।
- यही कारण था कि जनता और सरकार के बीच संवाद स्थापना के क्रम में फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कम्पनी सरकार ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न–भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।
- सी0 टी0 मेटकाफ़ ने 1806 ई0 में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा—'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा तक........मैंने उस भाषा का आम व्यावहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है।.........मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दस्तानी बोल लेते होंगे।'
- टॉमस रोबक ने 1807 ई0 में लिखा—'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी–फ़ारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
- विलियम केरी ने 1816 ई0 में लिखा—'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
- एच0 टी0 कोलब्रुक ने लिखा—'जिस भाषा का व्यावहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े–लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'
- जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को 'आम बोलचाल की महाभाषा' (Great Lingua Franca) कहा है।
- इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसाद एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेज़ों ने हिन्दी को अपनाया। उस समय हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था। अंग्रेज़ों ने हिन्दी को प्रयोग में लाकर हिन्दी की महती संम्भावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।
धर्म/समाज सुधारकों का योगदान
- धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिन्दी के महत्व को भाँपा और हिन्दी की हिमायत की।
- ब्रह्मा समाज (1828 ई0) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा, "इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है।" ब्रह्मसमाजी केशव चंद्र सेन ने 1875 ई0 में एक लेख लिखा, "भारतीय एकता कैसे हो, 'जिसमें उन्होंने लिखा—'उपाय है सारे भाषा में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है'। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिन्दी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।
- आर्य समाज (1875 ई0) के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक–से–अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिन्दी में ही लिखा। उनका कहना था कि "हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।" वे इस 'आर्यभाषा' को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, 'मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएँगे।
- अरविन्द दर्शन के प्रणेता अरविन्द घोष की सलाह थी कि 'लोग अपनी–अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को ग्रहण करें।'
- थियोसोफिकल सोसायटी (1875 ई0) की संचालिका एनी बेसेंट ने कहा था, "भारतवर्ष के भिन्न–भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलने वाले मिल सकते हैं।.............भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।"
- उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाज (स्थापना 1867 ई0, संस्थापक—आत्मारंग पाण्डुरंग), सनातन धर्म सभा (स्थापना 1895 ई0, संस्थापक—पंडित दीनदयाल), रामकृष्ण मिशन (स्थापना 1897 ई0, संस्थापक—स्वामी विवेकानंद) आदि ने हिन्दी के प्रचार में योग दिया।
- इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिन्दी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से सिर्फ इस भाषा में ही विचारों का आदान–प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/समाज सुधारकों ने किया।
कांग्रेस के नेताओं का योगदान
- 1885 ई0 में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे–जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया, वैसे–वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झंण्डा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता ही गया।
- 1917 ई0 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा, "यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।" तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिन्दी सीखें।
- महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यकम मानते थे। उनका कहना था, "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे—"हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।" उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 1917 ई0 में भड़ौंच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा,
"राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए—
- अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
- यह ज़रूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
- उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
- राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
- उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर ज़ोर नहीं देना चाहिए।"
वर्ष 1918 ई0 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया, "मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।" इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिन्दी सीखने को प्रयाग भेजें जाएँ और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएँ सीखने तथा हिन्दी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिन्दी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में मद्रास भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई0) एवं वर्धा (1936 ई0) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित की गईं।
- वर्ष 1925 ई0 में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि 'कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम–काज आमतौर पर हिन्दी में चलाया जाएगा।' इस प्रस्ताव में हिन्दी–आंदोलन को बड़ा बल मिला।
- वर्ष 1927 ई0 में गाँधीजी ने लिखा, "वास्तव में ये अंग्रेज़ी में बोलनेवाले नेता हैं, जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिन्दी सीखने से इंकार करते हैं, जबकि हिन्दी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अन्दर सीखी जा सकती है।
- वर्ष 1927 ई0 में सी0 राजागोपालाचारी ने दक्षिणवालों को हिन्दी सीखने की सलाह दी और कहा, "हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी।"
- वर्ष 1928 ई0 में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा सम्बन्धी सिफ़ारिश में कहा गया था, "देवनागरी अथवा फ़ारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राष्ट्रभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग ज़ारी रहेगा।" सिवाय 'देवनागरी या फ़ारसी' की जगह 'देवनागरी' तथा 'हिन्दुस्तानी' की जगह 'हिन्दी' रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।
- वर्ष 1929 ई0 में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, "प्रान्तीय ईर्ष्या–द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।"
- वर्ष 1931 ई0 में गाँधीजी ने लिखा, "यदि स्वराज्य अंगेज़ी–पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो सम्पर्क भाषा अवश्य अंग्रेज़ी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अछूतों के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिन्दी हो सकती है।" गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।
- वर्ष 1936 ई0 में गाँधीजी ने कहा, "अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है, वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता है।"
- वर्ष 1937 ई0 में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया।
- जैसे–जैसे स्वतंत्रता संग्राम तीव्रतम होता गया वैसे–वैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया। 20वीं सदी के चौथे दशक तक हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत–प्रोत जितनी रचनाएँ हिन्दी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेज़ी भारत छोड़ता पड़ा।
नाम | मुख्यालय | स्थापना | संस्थापक |
---|---|---|---|
ब्रह्म समाज | कलकत्ता | 1828 ई0 | राजा राम मोहन राय |
प्रार्थना समाज | बंबई | 1867 ई0 | आत्मारंग पाण्डुरंग |
आर्य समाज | बंबई | 1875 ई0 | दयानन्द सरस्वती |
थियोसोफिकल | अडयार | 1882 ई0 | कर्नल एच0 एस0 |
सोसाइटी | मद्रास | आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी | |
सनातन धर्म सभा | वाराणसी | 1895 ई0 | पं0 दीनदयाल शर्मा |
(भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) रामकृष्ण मिशन | बेलूर | 1897 ई0 | विवेकानंद |
हिन्दी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन 1991 ई॰ की जनगणना के अनुसार, 23.342 करोड़ भारतीय हिन्दी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 33.727 करोड़ लोग इसकी लगभग 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। इसकी कुछ बोलियाँ, मैथिली और राजस्थानी अलग भाषा होने का दावा करती हैं। हिंदी की प्रमुख बोलियों में अवधी, भोजपुरी, ब्रज भाषा, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरियाणवी, कुमांऊनी, मागधी और मारवाड़ी शामिल हैं।
हिन्दी भाषा का विकास
वर्गीकरण
- हिन्दी विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।
- आकृति या रूप के आधार पर हिन्दी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।
- भाषा–परिवार के आधार पर हिन्दी भारोपीय (Indo–European) परिवार की भाषा है।
- भारत में 4 भाषा–परिवार—भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनी–तिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलने वालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा परिवार है।
भाषा–परिवार | भारत में बोलने वालों का % |
---|---|
भारोपीय | 73% |
द्रविड़ | 25% |
आस्ट्रिक | 1.3% |
चीनी–तिब्बती | 0.7% |
- हिन्दी भारोपीय/ भारत यूरोपीय भारतीय–ईरानी (Indo–Iranian) शाखा के भारतीय आर्य (Indo–Aryan) उपशाखा से विकसित एक भाषा है।
- भारतीय आर्यभाषा (भा. आ.) को तीन कालों में विभक्त किया जाता है।
नाम | प्रयोग काल | उदाहरण |
---|---|---|
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा | 1500 ई॰ पू॰– 500 ई॰ पू॰ | वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत |
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा | 500 ई॰ पू॰– 1000 ई॰ | पालि, प्राकृत, अपभ्रंश |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा | 1000 ई॰– अब तक | हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएँ – बांग्ला, उड़ीया, मराठी, सिंधी, असमिया, गुजराती, पंजाबी आदि। |
नाम | प्रयोग काल | अन्य नाम |
---|---|---|
वैदिक संस्कृत | 1500 ई॰ पू॰– 1000 ई॰ पू॰ | छान्दस् (यास्क, पाणिनी) |
लौकिक संस्कृत | 1000 ई॰ पू॰- 500 ई॰ पू॰ | संस्कृत भाषा (पाणिनी) |
नाम | प्रयोग काल | विशेष टिप्पणी |
---|---|---|
प्रथम प्राकृत काल– पालि | 500 ई॰ पू॰– 1 ली ई॰ | भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं। |
द्वितीय प्राकृत काल– प्राकृत | 1 ली ई॰– 500 ई॰ | भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही हैं। |
तृतीय प्राकृत काल– अपभ्रंश
अवहट्ट |
500 ई॰– 1000 ई॰
900 ई॰ – 1100 ई॰ |
संक्रमणकालीन/संक्रान्तिकालीन भाषा |
नाम | प्रयोग काल |
---|---|
प्राचीन हिन्दी | 1100 ई॰ पू॰– 1400 ई॰ पू॰ |
मध्यकालीन हिन्दी | 1400 ई॰ पू॰- 1850 ई॰ पू॰ |
आधुनिक हिन्दी | 1850– अब तक |
हिन्दी की आदि जननि संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी का रूप लेती है। विशुद्धतः, हिन्दी भाषा के इतिहास का आरम्भ अपभ्रंश से माना जाता है। हिन्दी का विकास क्रम—
संस्कृत—पालि—प्राकृत—अपभ्रंश—अवहट्ट—प्राचीन/प्रारम्भिक हिन्दी
अपभ्रंश
- अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई0 से लेकर 1000 ई0 के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरम्भ 8वीं सदी ई0 (स्वयंभू कवि) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा।
- अपभ्रंश (अप+भ्रंश+घञ्) शब्द का यों तो शाब्दिक अर्थ है 'पतन', किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है—प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य।
- प्रमुख रचनाकार – स्वयंभू—अपभ्रंश का वाल्मीकि ('पउम चरिउ' अर्थात् राम काव्य), धनपाल ('भविस्सयत कहा'–अपभ्रंश का पहला प्रबन्ध काव्य), पुष्पदंत ('महापुराण', 'जसहर चरिउ'), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ ('चरिया पद', 'दोहाकोशी') आदि।
अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विकास—
अवहट्ट
- अवहट्ट 'अपभ्रंष्ट' शब्द का विकृप रूप है। इसे 'अपभ्रंश का अपभ्रंश' या 'परवर्ती अपभ्रंश' कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रांतिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई0 से 1100 ई0 तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है।
- अब्दुर रहमान, दामोदर पंडित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को ' अवहट्ट' या 'अवहट्ठ' कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं। 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ते तैसन जम्पञो अवहट्ठा' अर्थात् देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है। इसे अवहट्ठा कहा जाता है।
- प्रमुख रचनाकारः अद्दहमाण/अब्दुर रहमान ('संनेह रासय'/'संदेश रासक'), दामोदर पंडित ('उक्ति–व्यक्ति–प्रकरण'), ज्योतिरीश्वर ठाकुर ('वर्ण रत्नाकर'), विद्यापति ('कीर्तिलता') आदि।
प्राचीन हिन्दी
- मध्यदेशीय भाषा परम्परा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिन्दी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरी है।
- प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय है— अपभ्रंश– अवहट्ट के बाद की भाषा।
- हिन्दी का आदिकाल हिन्दी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था, जब अपभ्रंश–अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था और हिन्दी की बोलियों के निश्चित् व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।
हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति
हिन्दी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तर–पश्चिम में प्रवहमान सिंधु नदी से सम्बन्धित है। विदित है कि अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर–पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह 'सिंधु' का देश था। ईरान (फ़ारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दू' कहते थे। (सिंधु—हिन्दू, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन—पहलवी भाषा प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन)। हिन्द से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में फ़ारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय 'ई' लगने से 'हिन्दी' बन गया। 'हिन्दी' का अर्थ है—'हिन्द का'। इस प्रकार हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिन्दी की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं—
- 'हिन्दी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ—
सिंधु—हिन्दू—हिन्द+ई—हिन्दी।
- 'हिन्दी' शब्द मूलतः फ़ारसी का है न कि 'हिन्दी' भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालाँकि कुछ कट्टर हिन्दी प्रेमी 'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे—हिन (हनन करनेवाला)+दु (दुष्ट)=हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा 'हिन्दी'; हीन (हीनों)+दु (दलन)=हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा 'हिन्दी'। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
- 'हिन्दी' शब्द के दो अर्थ हैं—'हिन्द देश के निवासी' (यथा—'हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा'—इकबाल) और 'हिन्दी की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिन्दी नहीं कहता, बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इर देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब 'हिन्दी' नहीं कहलाती हैं। बेशक ये सभी 'हिन्दी' की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल 'हिन्दी' नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए 'हिन्दी' की इन सब भाषाओं के लिए 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता।
- प्रमुख रचनाकार- 'हिन्दी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा–समूह का नाम है, उसमें आज के हिन्दी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
- ब्रजभाषा- प्राचीन हिन्दी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश–अवहट्ट से ही जीवन रस लेती रही। अपभ्रंश–अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई0) है।
- अवधी- अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की 'चंद्रायन' या 'लोरकहा' (1370 ई0) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया।
- खड़ी बोली- प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर ख़ुसरो जैसे सूफ़ियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश–अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।
मध्यकालीन हिन्दी
मध्यकाल में हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गईं। इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आए—ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली। ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ पर इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली। प्रमुख रचनाकार
ब्रजभाषा
हिन्दी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परम्परा के उत्तरादायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात् भक्तिकाल) में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्ग/शुद्धाद्वैत सम्प्रदायं के सूरदास (सूरसागर), नंददास, निम्बार्क सम्प्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य सम्प्रदाय के गदाधर भट्ट, राधा–वल्लभ सम्प्रदाय के हित हरिवंश (श्रीकृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं सम्प्रदाय–निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है, जिन्हें 'अष्टछाप का जहाज़' कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात् रीतिकाल) में अनेक आचार्यों एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं। (ब्रजबुलि—बंगाल में कृष्णभक्त कवियों के द्वारा प्रचारित भाषा का नाम।)
अवधी
अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफ़ी/प्रेममार्गी कवियों को है। कुत्बन ('मृगावती'), जायसी ('पद्मावत'), मंझन ('मधुमालती'), आलम ('माधवानल कामकंदला'), उसमान ('चित्रावली'), नूर मुहम्मद ('इन्द्रावती'), कासिमशाह ('हंस जवाहिर'), शेख निसार ('यूसुफ़ जुलेखा'), अलीशाह ('प्रेम चिंगारी') आदि सूफ़ी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदार ने 'रामचरितमानस' की रचना बैसवाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया, वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है, जायसी और तुलसीदास में। जायसी के यहाँ जहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप मिलता है, वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप। (गोहारी/गोयारी—बंगाल में सूफ़ियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम।)
खड़ी बोली
मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कन में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए—उत्तरी हिन्दी व दक्कनी हिन्दी। खड़ी बोली मध्यकाल रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतों; गंग की 'चन्द छन्द वर्णन की महिमा', रहीम के 'मदनाष्टक', आलम के 'सुदामा चरित', जटमल की 'गोरा बादल की कथा', वली, सौदा, इन्शा, नज़ीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, 'कुतुबशतम' (17वी सदी), 'भोगलू पुराण' (18वीं सदी), संत प्राणनाथ के 'कुलजमस्वरूप' आदि में मिलता है।
आधुनिककालीन हिन्दी
- हिन्दी के आधुनिक काल तक आते–आते ब्रजभाषा जनभाषा से काफ़ी दूर हट चुकी थी और अवधी ने तो बहुत पहले से ही साहित्य से मुँह मोड़ लिया था। 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेज़ी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिन्दी पर भी पड़ा। नवीन राजनीतिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया। जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया तब उनका स्थान खड़ी बोली धीरे–धीरे लेने लगी। अंग्रेज़ी सरकार ने भी इसका प्रयोग आरम्भ कर दिया।
- हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारम्भ में एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते–आते खड़ी बोली गद्य–पद्य दोनों की ही साहित्यिक भाषा बन गई।
- इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में विभिन्न धार्मिक सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी सहायता की। फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी।
खड़ी बोली
भारतेन्दु पूर्व युग
खड़ी बोली गद्य के आरम्भिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर दो रचनाकारों—सदासुख लाल 'नियाज' (सुखसागर) व इंशा अल्ला ख़ाँ (रानी केतकी की कहानी)—तथा फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के दो भाषा मुंशियों—लल्लू लालजी (प्रेम सागर) व सदल मिश्र (नासिकेतोपाख्यान)—के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिन्दी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था। इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों—राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिन्द' व राजा लक्ष्मण सिंह—ने हिन्दी के स्वरूप निर्धारण के सवाल पर दो सीमान्तों का अनुगमन किया। राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का गँवारुपन दूर कर उसे उर्दू–ए–मुअल्ला बना दिया तो राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया।
भारतेन्दु युग
(1850 ई0–1900 ई0) इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग में हुआ। हिन्दी सही मायने में भारतेन्दु के काल में 'नई चाल में ढली' और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक मंडल भी तैयार किया, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा गया। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम के रूप में अपनाकर युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया। लेकिन पद्य रचना के मसले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने के सवाल पर विवाद बना रहा, जिसका अन्त द्विवेदी के युग में जाकर हुआ।
द्विवेदी युग
(1900 ई0–1920 ई0) खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1903 ई0 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादन का भार सम्भाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे लेखकों की वर्तनी अथवा त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बुखूवी अन्जाम दिया। गद्य तो भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिषठित होनी लगी। इस प्रकार ब्रजभाषा, जिसके साथ में 'भाषा' शब्द जुड़ा हुआ है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात् 'बोली' बन गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ 'बोली' शब्द लगा है, 'भाषा बन गई', और इसका सही नाम हिन्दी हो गया। अब खड़ी बोली दिल्ली के आसपास की मेरठ–जनपदीय बोली नहीं रह गई, अपितु यह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएँ विकसित हुई।। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुन्दर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्णसिंह, चन्द्रधर शर्मा, गुलेरी आदि के अवदान विशेषतः उल्लेखनीय हैं।
छायावाद युग
(1920 ई॰–1936 ई॰ एवं उसके बाद) साहित्यिक खड़ी बोली के विकास में छायावाद युग का योगदान काफ़ी महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा और राम कुमार आदि ने महती योगदान किया। इनकी रचनाओं को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम समर्थ है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यजंना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएँ हैं। हिन्दी काव्य में छायावाद युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई0–1946 ई0) प्रयोगवाद युग (1943) आदि आए। इस दौर खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता गया। पद्य के ही नहीं, गद्य के सन्दर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो भाषा–शैलियाँ और मर्यादाएँ स्थापित कीं, उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य–साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर ही किया गया है। जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद–पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग, नाटक के इतिहास में प्रसाद–पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग, आलोचना के इतिहास में शुक्ल–पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।
हिन्दी के विभिन्न नाम या रूप
हिन्दवी
इन्हें हिन्दुई, जबान–ए–हिन्द, देहलवी नामों से भी जाना जाता है। मध्यकाल में मध्यदेश के हिन्दुओं की भाषा, जिसमें अरबी–फ़ारसी शब्दों का अभाव है। (सर्वप्रथम अमीर ख़ुसरो (1253-1325) ने मध्य देश की भाषा के लिए हिन्दवी, हिन्दी शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने देशी भाषा हिन्दवी, हिन्दी के प्रचार–प्रसार के लिए एक फ़ारसी–हिन्दी कोश 'ख़ालिक बारी' की रचना की, जिसमें हिन्दवी शब्द 30 बार, हिन्दी शब्द 5 बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है।)
भाषा
भाषा को भाखा भी कहा जाता है। विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशवदास आदि ने भाषा शब्द का प्रयोग हिन्दी के लिए किया है। (19वीं सदी के प्रारम्भ तक इस शब्द का प्रयोग होता रहा। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्त हिन्दी अध्यापकों को 'भाषा मुंशी' के नाम से अभिहित करना इसी बात का सूचक है।)
रेख्ता
मध्यकाल में मुसलमानों में प्रचलित अरबी–फ़ारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा। (जैसे–मीर, गालिब की रचनाएँ)
दक्खिनी
इसे दक्कनी नाम से भी जाना जाता है। मध्यकाल में दक्कन के मुसलमानों के द्वारा फ़ारसी लिपि में लिखी जानेवाली भाषा। (हिन्दी में गद्य रचना परम्परा की शुरूआत करने का श्रेय दक्कनी हिन्दी के रचनाकारों को ही है। दक्कनी हिन्दी को उत्तर भारत में लाने का श्रेय प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी (1688-1741) को है। वह मुग़ल शासक मुहम्मद शाह 'रंगीला' के शासन काल में दिल्ली पहुँचा और उत्तरी भारत में दक्कनी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया।)
खड़ी बोली
खड़ी बोली की तीन शैलियाँ हैं—
- हिन्दी, शुद्ध हिन्दी, उच्च हिन्दी, नागरी हिन्दी, आर्यभाषा– नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली (जैसे—जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ)।
2.उर्दू, जबान–ए–उर्दू, जबान–ए–उर्दू–मुअल्ला— फ़ारसी लिपि में लिखित अरबी—फ़ारसी बहुल खड़ी बोली। 3.हिन्दुस्तानी— हिन्दी और उर्दू का मिश्रित रूप व आमजन द्वारा प्रयुक्त (जैसे–प्रेमचंद की रचनाएँ)। [3]
हिन्दी के विभिन्न अर्थ
भाषा शास्त्रीय अर्थ
नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली।
संवैधानिक/क़ानूनी अर्थ
संविधान के अनुसार हिन्दी भारत संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है।
सामान्य अर्थ
समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की परिनिष्ठित भाषा अर्थात् शासन, शिक्षा, साहित्य, व्यापार आदि की भाषा।
व्यापक अर्थ
आधुनिक युग में हिन्दी को केवल खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता। हिन्दी की सभी उपभाषाएँ और बोलियाँ हिन्दी के व्यापक अर्थ में आ जाती हैं।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास
राष्ट्रभाषा क्या है
- राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है—समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आमजन की भाषा (जनभाषा)। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन–जन के विचार–विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
- राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं, किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यकम उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
- स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के सन्दर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ती हिन्दी ने किया। यही कारण है कि हिन्दी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान (विशेषतः 1900 ई0-1947 ई0) राष्ट्रभाषा बनी।
- राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है, बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है।
- राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
- राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क–भाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है।
- राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
- राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
अंग्रेज़ों का योगदान
- राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क भाषा होती है। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश में जन–जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तरी भारत की नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों—वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानन्द आदि—ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त–संत कवियों (जैसे—असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।
- यही कारण था कि जनता और सरकार के बीच संवाद स्थापना के क्रम में फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कम्पनी सरकार ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न–भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।
- सी0 टी0 मेटकाफ़ ने 1806 ई0 में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा—'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा तक........मैंने उस भाषा का आम व्यावहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है।.........मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दस्तानी बोल लेते होंगे।'
- टॉमस रोबक ने 1807 ई0 में लिखा—'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी–फ़ारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
- विलियम केरी ने 1816 ई0 में लिखा—'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
- एच0 टी0 कोलब्रुक ने लिखा—'जिस भाषा का व्यावहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े–लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'
- जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को 'आम बोलचाल की महाभाषा' (Great Lingua Franca) कहा है।
- इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसाद एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेज़ों ने हिन्दी को अपनाया। उस समय हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था। अंग्रेज़ों ने हिन्दी को प्रयोग में लाकर हिन्दी की महती संम्भावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।
धर्म/समाज सुधारकों का योगदान
- धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिन्दी के महत्व को भाँपा और हिन्दी की हिमायत की।
- ब्रह्मा समाज (1828 ई0) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा, "इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है।" ब्रह्मसमाजी केशव चंद्र सेन ने 1875 ई0 में एक लेख लिखा, "भारतीय एकता कैसे हो, 'जिसमें उन्होंने लिखा—'उपाय है सारे भाषा में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है'। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिन्दी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।
- आर्य समाज (1875 ई0) के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक–से–अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिन्दी में ही लिखा। उनका कहना था कि "हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।" वे इस 'आर्यभाषा' को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, 'मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएँगे।
- अरविन्द दर्शन के प्रणेता अरविन्द घोष की सलाह थी कि 'लोग अपनी–अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को ग्रहण करें।'
- थियोसोफिकल सोसायटी (1875 ई0) की संचालिका एनी बेसेंट ने कहा था, "भारतवर्ष के भिन्न–भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलने वाले मिल सकते हैं।.............भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।"
- उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाज (स्थापना 1867 ई0, संस्थापक—आत्मारंग पाण्डुरंग), सनातन धर्म सभा (स्थापना 1895 ई0, संस्थापक—पंडित दीनदयाल), रामकृष्ण मिशन (स्थापना 1897 ई0, संस्थापक—स्वामी विवेकानंद) आदि ने हिन्दी के प्रचार में योग दिया।
- इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिन्दी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से सिर्फ इस भाषा में ही विचारों का आदान–प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/समाज सुधारकों ने किया।
कांग्रेस के नेताओं का योगदान
- 1885 ई0 में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे–जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया, वैसे–वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झंण्डा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता ही गया।
- 1917 ई0 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा, "यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।" तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिन्दी सीखें।
- महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यकम मानते थे। उनका कहना था, "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे—"हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।" उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 1917 ई0 में भड़ौंच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा,
"राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए—
- अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
- यह ज़रूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
- उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
- राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
- उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर ज़ोर नहीं देना चाहिए।"
वर्ष 1918 ई0 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया, "मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।" इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिन्दी सीखने को प्रयाग भेजें जाएँ और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएँ सीखने तथा हिन्दी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिन्दी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में मद्रास भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई0) एवं वर्धा (1936 ई0) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित की गईं।
- वर्ष 1925 ई0 में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि 'कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम–काज आमतौर पर हिन्दी में चलाया जाएगा।' इस प्रस्ताव में हिन्दी–आंदोलन को बड़ा बल मिला।
- वर्ष 1927 ई0 में गाँधीजी ने लिखा, "वास्तव में ये अंग्रेज़ी में बोलनेवाले नेता हैं, जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिन्दी सीखने से इंकार करते हैं, जबकि हिन्दी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अन्दर सीखी जा सकती है।
- वर्ष 1927 ई0 में सी0 राजागोपालाचारी ने दक्षिणवालों को हिन्दी सीखने की सलाह दी और कहा, "हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी।"
- वर्ष 1928 ई0 में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा सम्बन्धी सिफ़ारिश में कहा गया था, "देवनागरी अथवा फ़ारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राष्ट्रभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग ज़ारी रहेगा।" सिवाय 'देवनागरी या फ़ारसी' की जगह 'देवनागरी' तथा 'हिन्दुस्तानी' की जगह 'हिन्दी' रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।
- वर्ष 1929 ई0 में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, "प्रान्तीय ईर्ष्या–द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।"
- वर्ष 1931 ई0 में गाँधीजी ने लिखा, "यदि स्वराज्य अंगेज़ी–पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो सम्पर्क भाषा अवश्य अंग्रेज़ी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अछूतों के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिन्दी हो सकती है।" गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।
- वर्ष 1936 ई0 में गाँधीजी ने कहा, "अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है, वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता है।"
- वर्ष 1937 ई0 में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया।
- जैसे–जैसे स्वतंत्रता संग्राम तीव्रतम होता गया वैसे–वैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया। 20वीं सदी के चौथे दशक तक हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत–प्रोत जितनी रचनाएँ हिन्दी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेज़ी भारत छोड़ता पड़ा।
नाम | मुख्यालय | स्थापना | संस्थापक |
---|---|---|---|
ब्रह्म समाज | कलकत्ता | 1828 ई0 | राजा राम मोहन राय |
प्रार्थना समाज | बंबई | 1867 ई0 | आत्मारंग पाण्डुरंग |
आर्य समाज | बंबई | 1875 ई0 | दयानन्द सरस्वती |
थियोसोफिकल | अडयार | 1882 ई0 | कर्नल एच0 एस0 |
सोसाइटी | मद्रास | आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी | |
सनातन धर्म सभा | वाराणसी | 1895 ई0 | पं0 दीनदयाल शर्मा |
(भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) रामकृष्ण मिशन | बेलूर | 1897 ई0 | विवेकानंद |
(तीसरा भाग)
संसद द्वारा पारित संकल्प (Resolution), 1968
(1)राजभाषा हिन्दी एवं प्रादेशिक भाषाओं की प्रगति को सुनिश्चित करना। (2)त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) को लागू करना—एक की भावना के संवर्द्धन हेतु भारत सरकार राज्यों के सहयोग से त्रिभाषा सूत्र को लागू करेगी। त्रिभाषा सूत्र के अंतर्गत यह प्रस्तावित किया गया कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी व अंग्रेज़ी के अतिरिक्त दक्षिणी भारतीय भाषाओं में से किसी एक को तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषा व अंग्रेज़ी के साथ–साथ हिन्दी को पढ़ाने की व्यवस्था की जाए। टिप्पणी—त्रिभाषा सूत्र का प्रयोग सफल नहीं हुआ। न तो हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने किसी दक्षिण भारतीय भाषा का अध्ययन किया और न ही ग़ैर–हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी का।
राजभाषा नियम, 1976
इन नियमों की संख्या 12 है। जिनमें हिन्दी के प्रयोग के सन्दर्भ में भारत के क्षेत्रों का 3 वर्गीय विभाजन किया गया है और प्रधान राजभाषा हिन्दी और सह राजभाषा अंग्रेज़ी एवं प्रादेशिक भाषाओं के प्रयोग हेतु नियम दिए गए हैं। आज भी इन्हीं नियमों के अनुसार सरकार की द्विभाषिक नीति का अनुपालन हो रहा है।
राजभाषा के विकास से सम्बन्धित संस्थाएँ
संस्था का नाम स्थापना कार्य केन्द्रीय हिन्दी समिति 1967 भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा हिन्दी के प्रचार–प्रसार के सम्बन्ध में चालू कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित करना; अध्यक्ष—प्रधानमंत्री
(A) शिक्षा मंत्रालय के अधीन
1.साहित्य अकादमी, नई दिल्ली 1954 साहित्य को बढ़ावा देने वाली शीर्षस्थ संस्था 2.नेशनल बुक ट्रस्ट (National Book Trust-N.B.T.) 1957 शिक्षा, विज्ञान व साहित्य की उच्च कोटि की पुस्तकों का प्रकाशन कम मूल्यों पर जनता को उपलब्ध कराना। 3.केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय 1960 शब्दकोशों, विश्वकोशों, अहिन्दी भाषियों के लिए पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन। 4.वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग 1961 विज्ञान व तकनीक से सम्बन्धित शब्दाविलियों का प्रकाशन।
(B) गृह मंत्रालय के अधीन
1.राजभाषा विधायी आयोग 1965-75 केन्द्रीय अधिनियमों के हिन्दी पाठ का निर्माण 2.केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो 1971 देश में अनुवाद की सबसे बड़ी संस्था 3.राजभाषा विभाग 1975 संघ के विभिन्न शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रगामी प्रयोग से सम्बन्धित सभी मामले
(C) विधि/क़ानून मंत्रालय के अधीन
राजभाषा विधायी आयोग 1975 यह आयोग पहले गृह मंत्रालय के अधीन था। प्रमुख क़ानूनों के हिन्दी पाठ का निर्माण
(D) सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन
1.प्रकाशन विभाग (Publication Division) 1944 2.फ़िल्म प्रभाग (Films Division) 1948 3.पत्र सूचना कार्यालय (Press Information Bureau), नई दिल्ली 1956 4.आकाशवाणी 1957 5.दूरदर्शन 1976
राष्ट्रभाषा व राजभाषा सम्बन्धी कुछ विविध तथ्य
- प्रताप नारायण मिश्र ने 'हिन्दी–हिन्दू–हिन्दुस्तान' का नारा दिया।
- हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार सर्वप्रथम बंगाल में उदित हुआ।
- कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन (1936 ई0) एवं हरिपुरा अधिवेशन (1938 ई0) में कांग्रेस के विराट मण्डप में 'राष्ट्रभाषा सम्मेलन' आयाजित किए गए, जिनकी अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद (फैजपुर) एवं जमना लाल बजाज (हरिपुरा) ने की।
- संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा।
- संविधान सभा में राजभाषा के नाम पर हुए मतदान में हिन्दुस्तानी के 77 वोट तथा हिन्दी को 78 वोट मिले।
- आज़ादी पूर्व हिन्दी का समर्थन करने वाले व आज़ादी बाद हिन्दी का विरोध करने वाले व्यक्तित्व—सी0 राजगोपालाचारी, सुनीति कुमार चटर्जी, हुमायूँ कबीर, अनंत शयनम आय्यंगार आदि।
- "मैं कभी भी हिन्दी का विरोधी नहीं हूँ। मैं उन हिन्दी वालों का विरोध करता हूँ, जो कि वस्तु स्थिति को नहीं समझकर, अपने स्वार्थ के कारण हिन्दी को लादने की बात सोचते हैं।"
—सी0 राजगोपालाचारी
- "हिन्दी अहिन्दी लोगों के लिए ठीक उतनी हि विदेशी है, जितनी कि हिन्दी समर्थकों के लिए अंग्रेज़ी।"
—सी0 राजगोपालाचारी (1958)
- 1952 में जब एक विख्यात स्वतंत्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामालु ने तेलुगु भाषी लोगों के लिए एक पृथक राज्य आंध्र प्रदेश बनाने की माँग पर आमरण अनशन करते हुए अपनी जान दे दी।
- पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात राज्य अपने शासन में क्रमशः पंजाबी, मराठी और गुजराती भाषा के साथ–साथ हिन्दी को 'सहभाषा' के रूप में घोषित कर रखा है।
4. हिन्दी की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ
- हिन्दी भाषी क्षेत्र/हिन्दी क्षेत्र/हिन्दी पट्टी (Hindi Belt)—हिन्दी पश्चिम में अम्बाला (हरियाणा) से लेकर पूर्व में पूर्णिया (बिहार) तक तथा उत्तर में बद्रीनाथ–केदारनाथ (उत्तराखंड) से लेकर दक्षिण में खंडवा (मध्य प्रदेश) तक बोली जाती है। इसे हिन्दी भाषी क्षेत्र या हिन्दी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र के अंतर्गत 9 राज्य—उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश—तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र)—दिल्ली—आते हैं। इस क्षेत्र में भारत की कुल जनसंख्या के 43% लोग रहते हैं।
हिन्दी की उपभाषाएँ व बोलियाँ
- बोली—एक छोटे क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा बोली कहलाती है। बोली में साहित्य रचना नहीं होती है।
- उपभाषा—अगर किसी बोली में साहित्य रचना होने लगती है और क्षेत्र का विकास हो जाता है तो वह बोली न रहकर उपभाषा बन जाती है।
- भाषा—साहित्यकार जब उस भाषा को अपने साहित्य के द्वारा परिनिष्ठित सर्वमान्य रूप प्रदान कर देते हैं तथा उसका और क्षेत्र विस्तार हो जाता है तो वह भाषा कहलाने लगती है।
- एक भाषा के अंतर्गत कई उपभाषाएँ होती हैं तथा एक उपभाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ होती हैं।
- सर्वप्रथम एक अंग्रेज़ प्रशासनिक अधिकारी जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1927 ई0 में अपनी पुस्तक 'भारतीय भाषा सर्वेक्षण (A Linguistic Survey of India)' में हिन्दी का उपभाषाओं व बोलियों में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। चटर्जी ने पहाड़ी भाषाओं को छोड़ दिया है। वह इन्हें भाषाएँ नहीं मानते।
- धीरेन्द्र वर्मा का वर्गीकरण मुख्यतः सुनीति कुमार चटर्जी के वर्गीकरण पर ही आधारित है। केवल उसमें कुछ ही संशोधन किए गए हैं। जैसे—उसमें पहाड़ी भाषाओं को शामिल किया गया है।
- इनके अलावा कई विद्वानों ने अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। आज इस बात को लेकर आम सहमति है कि हिन्दी जिस भाषा–समूह का नाम है, उसमें 5 उपभाषाएँ वर 17 बोलियाँ हैं।
हिन्दी क्षेत्र की समस्त बोलियों को 5 वर्गों में बाँटा गया है। इन वर्गों को उपभाषा कहा जाता है। इन उपभाषाओं के अंतर्गत ही हिन्दी की 17 बोलियाँ आती हैं।
हिन्दी की उपभाषाएँ व बोलियाँ
कुछ टेक्ट्स लिखा जाना है। पेज नं0 14 पर से नोट—एक भाषा विद्वान के अनुसार, शुद्ध भाषा–वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी की दो मुख्य उपभाषाएँ हैं—पश्चिमी हिन्दी व पूर्वी हिन्दी।
बोली, विभाषा एवं भाषा
- विभिन्न बोलियाँ राजनीतिक–सांस्कृतिक आधार पर अपना क्षेत्र बढ़ा सकती हैं और साहित्य रचना के आधार पर वे अपना स्थान 'बोली' से उच्च करते हुए 'विभाषा' तक पहुँच सकती हैं।
- विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा अधिक विस्तृत होती है। यह एक प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। इसमें साहित्यिक रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। जैसे—हिन्दी की विभाषाएँ हैं—ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली, भोजपुरी व मैथिली।
- विभाषा स्तर पर प्रचलित होने पर ही राजनीतिक, साहित्यिक या सांस्कृतिक गौरव के कारण भाषा का स्थान प्राप्त कर लेती है। जैसे—खड़ी बोली मेरठ, बिजनौर आदि की विभाषा होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत होने के कारण राष्ट्रभाषा के पद पर अधिष्ठित हुई है।
- इस प्रकार दो बातें स्पष्ट होती हैं—
- बोली का विकास विभाषा में और विभाषा का विकास भाषा में होता है।
बोली—विभाषा—भाषा (पेज नं0 15 पर)
- उदाहरण
भाषा — खड़ी बोली हिन्दी विभाषा — हिन्दी क्षेत्र की प्रमुख बोलियाँ–ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली, भोजपुरी व मैथिली बोली — हिन्दी क्षेत्र की शेष बोलियाँ
प्रमुख खड़ी बोलियों का संक्षिप्त परिचय
कौरवी या खड़ी बोली
- मूल नाम—कौरवी
- साहित्यिक भाषा बनने के बाद पड़ा नाम—खड़ी बोली
- अन्य नाम—बोलचाल की हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्यूलर खड़ी बोली आदि।
- केन्द्र—कुरु जनपद अर्थात् मेरठ–दिल्ली के आसपास का क्षेत्र। खड़ी बोली एक बड़े भूभाग में बोली जाती है। अपने ठेठ रूप में यह मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, सहारनपुर, देहरादून और अम्बाला ज़िलों में बोली जाती है। इनमें मेरठ की खड़ी बोली आदर्श और मानक मानी जाती है।
- बोलने वालों की संख्या—1.5 से 2 करोड़
- साहित्य—मूल कौरवी में लोक–साहित्य उपलब्ध है, जिसमें गीत, गीत–नाटक, लोक कथा, गप्प, पहेली आदि हैं।
- विशेषता—आज की हिन्दी मूलतः कौरवी पर ही आधारित है।
- नमूना—कोई बादसा था। साब उसके दो राण्याँ थीं। वो एक रोज़ अपनी रान्नी से केने लगा मेरे समान ओर कोइ बादसा है बी? तो बड़ी बोल्ले के राजा तुम समान ओर कोन होगा। छोटी से पुच्छा तो किह्या कि एक बिजाण सहर हे उसके उसके क़िल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईंट लगी है। ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाइए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। ओर बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
ब्रजभाषा
- केन्द्र—मथुरा
- बोलने वालों की संख्या—3 करोड़
- देश के बाहर ताज्जुबेकिस्तान में ब्रजभाषा बोली जाती है, जिसे 'ताज्जुबेकी ब्रजभाषा' कहा जाता है।
- साहित्य—कृष्ण भक्ति काव्य की एकमात्र भाषा, लगभग सारा रीतिकाल साहित्य। साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी भाषा की सबसे महत्वपूर्ण बोली। साहित्यिक महत्व के कारण ही इसे ब्रजबोली नहीं ब्रजभाषा की संज्ञा दी जाती है। मध्यकाल में इस भाषा ने अखिल भारतीय विस्तार पाया। बंगाल में इस भाषा से बनी भाषा का नाम 'ब्रज बुलि' पड़ा। आधुनिक काल तक इस भाषा में साहित्य सृजन होता रहा। पर परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि ब्रजभाषा साहित्यिक सिंहासन से उतार दी गई और उसका स्थान खड़ी बोली ने ले लिया।
- रचनाकार—भक्तिकालीन–सूरदास, नन्ददास आदि।
रीतिकाल—बिहारी, मतिराम, भूषण, देव आदि। आधुनिक कालीन—भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' आदि।
- नमूना—एक मथुरा जी के चौबे हे (थे), जो डिल्ली सैहर कौ चलै। गाड़ी वारे बनिया से चौबेजी की भेंट है गई। तो वे चौबे बोले, अर भइया सेठ, कहाँ जायगो। वौ बोलो, महराजा डिल्ली जाऊँगो। तो चौबे बोले, भइया हमऊँ बैठाल्लेय। बनिया बोलो, चार रूपा चलिंगे भाड़े के। चौबे बोले, अच्छा भइया चारी दिंगे।
अवधी
- केन्द्र—अयोध्या/अवध
- बोलने वालों की संख्या—2 करोड़
- देश के बाहर फीजी में अवधी बोलने वाले लोग हैं।
- साहित्य—सूफ़ी काव्य, रामभक्ति काव्य। अवधी में प्रबन्ध काव्य परम्परा विशेषतः विकसित हुई।
- रचनाकार—सूफ़ी कवि—मुल्ला दाउद ('चंदायन'), जायसी ('पद्मावत'), क़ुत्बन ('मृगावती'), उसमान ('चित्रावली'), रामभक्त कवि—तुलसीदास ('रामचरित मानस')।
- नमूना—एक गाँव मा एक अहिर रहा। ऊ बड़ा भोंग रहा। सबेरे जब सोय के उठै तो पहले अपने महतारी का चार टन्नी धमकाय दिये तब कौनो काम करत रहा। बेचारी बहुत पुरनिया रही नाहीं तौ का मज़ाल रहा केऊ देहिं पै तिरिन छुआय देत।
भोजपुरी
- केन्द्र—भोजपुर
- बोलने वालों की संख्या—3.5 करोड़ (बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी प्रदेश की बोलियों में सबसे अधिक बोली जानेवाली बोली)।
- इस बोली का प्रसार भारत के बाहर सूरीनाम, फिजी, मारिशस, गयाना, त्रिनिडाड में है। इस दृष्टि से भोजपुरी अंतर्राष्ट्रीय महत्व की बोली है।
- साहित्य—भोजपुरी में लिखित साहित्य नहीं के बराबर है। मूलतः भोजपुरी भाषी साहित्यकार मध्यकाल में ब्रजभाषा व अवधी में तथा आधुनिक काल में हिन्दी में लेखन करते रहे हैं। लेकिन अब स्थिति में परिवर्तन आ रहा है।
- रचनाकार—भिखारी ठाकुर (उपनाम—'भोजपुरी का शेक्सपीयर', 'भोजपुरी का भारतेन्दु')।
- सिनेमा—सिनेमा जगत में भोजपुरी ही हिन्दी की वह बोली है, जिसमें सबसे अधिक फ़िल्में बनती हैं।
- नमूना—काहे दस–दस पनरह–पनरह हज़ार के भीड़ होला ई नाटक देखें ख़ातिर। मालूम होतआ कि एही नाटक में पबलिक के रस आवेला।
मैथिली
- लिपि—तिरहुता व देवनागरी
- केन्द्र—मिथिला या विदेह या तिरहुत
- बोलने वालों की संख्या—1.5 करोड़
- साहित्य—साहित्य की दृष्टि से मैथिली बहुत सम्पन्न है।
- रचनाकार—विद्यापति (पदावली)—यदि ब्रजभाषा को सूरदास ने, अवधी को तुलसीदास ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया तो मैथिली को विद्यापति ने, हरिमोहन झा (उपन्यास—कन्यादान, द्विरागमन, कहानी संग्रह—एकादशी, 'खट्टर काकाक तरंग'), नागार्जुन (मैथिली में 'यात्री' नाम से लेखन; उपन्यास—पारो, कविता संग्रह—'कविक स्वप्न', 'पत्रहीन नग्न गाछ'), राजकमल चौधरी ('स्वरगंघा') आदि।
- आठवीं अनुसूची में स्थान—92वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा संविधान की 8वीं अनुसूची में 4 भाषाओं को स्थान दिया गया। मैथिली हिन्दी क्षेत्र की बोलियों में से 8वीं अनुसूची में स्थान पाने वाली एकमात्र बोली है।
- नमूना—पटना किए एलऽह? पटना एलिअइ नोकरी करैले।
भेटलह नोकरी? नाकरी कत्तौ नइ भेटल। गाँ में काज नइ भेटइ छलऽह? भेटै छलै, रूपैयाबला नइ, अऽनबला। तखन एलऽ किऐ? रिनियाँ तङ केलकइ, तै। कत्ते रीन छऽह? चाइर बीस। सूद कत्ते लइ छऽह? दू पाइ महिनबारी।
5. देवनागरी लिपि
देवनागरी लिपि का विकास
- उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति 'भाषा' कहलाती है। जबकि लिखित वर्ण संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति लिपि। भाषा श्रव्य होती है, जबकि लिपि दृश्य।
- भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से ही निकली हैं।
- ब्राह्मी लिपि का प्रयोग वैदिक आर्यों ने शुरू किया।
- ब्राह्मी लिपि का प्राचीनतम नमूना 5वीं सदी BC का है जो कि बौद्धकालीन है।
- गुप्तकाल के प्रारम्भ में ब्राह्मी के दो भेद हो गए, उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्राह्मी। दक्षिणी ब्राह्मी से तमिल लिपि/कलिंग लिपि, तेलुगु–कन्नड़ लिपि, ग्रंथ लिपि (तमिलनाडु), मलयालम लिपि (ग्रंथ लिपि से विकसित) का विकास हुआ।
- उत्तरी ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास
कुछ टेक्ट्स लिखा जाना है। पेज नं0 16 पर से
- नागरी लिपि का प्रयोग काल 8वीं–9वीं सदी ई0 से आरम्भ हुआ। 10वीं से 12वीं सदी के बीच इसी प्राचीन नागरी से उत्तरी भारत की अधिकांश आधुनिक लिपियों का विकास हुआ। इसकी दो शाखाएँ मिली हैं, पश्चिमी व पूर्वी। पश्चिमी शाखा की सर्वप्रमुख/प्रतिनिधि लिपि देवनागरी लिपि है।
कुछ टेक्ट्स लिखा जाना है। पेज नं0 17 पर से
देवनागरी लिपि का हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के रूप में विकास
- देवनागरी लिपि को हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि बनने में बड़ी कठिनाठयों का सामना करना पड़ा है। अंग्रेज़ों की भाषानीति फ़ारसी की ओर अधिक झुकी हुई थी। इसीलिए हिन्दी को भी फ़ारसी लिपि में लिखने का षड़यंत्र किया गया।
- जॉन गिलक्राइस्ट—हिन्दी भाषा और फ़ारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54) की देन थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग के सर्वप्रथम अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ थीं—दरबारी या फ़ारसी शैली, हिन्दुस्तानी शैली व हिन्दवी शैली। वे फ़ारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था, किन्तु उसमें अरबी–फ़ारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फ़ारसी लिपि में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही प्रचार किया।
- विलियम प्राइस—1823 ई0 में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में विलियम प्राइस की नियुक्ति हुई। उन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर हिन्दी (नागरी लिपि में लिखित) पर बल दिया। प्राइस ने गिलक्राइस्ट द्वारा जनित भाषा–सम्बन्धी भ्राँन्ति को दूर करने का प्रयास किया। लेकिन प्राइस के बाद कॉलेज की गतिविधियों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
- अदालत सम्बन्धी विज्ञप्ति—(1837 ई0)—वर्ष 1830 ई0 में अंग्रेज़ कम्पनी के द्वारा अदालतों में फ़ारसी के साथ–साथ देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया। वास्तव में, इस विज्ञप्तिका पालन 1837 ई0 में ही शुरू हो सका। इसके बाद बंगाल में बांग्ला भाषा और बांग्ला लिपि पचलित हुई। संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश), बिहार व मध्य प्रान्त (मध्य प्रदेश) में भाषा के रूप में तो हिन्दी का प्रचलन हुआ, लेकिन लिपि के मामले में नागरी लिपि के स्थान पर उर्दू लिपि का प्रचार किया जाने लगा। इसका मुख्य कारण अदालती अमलों की कृपा तो थी ही, साथ ही मुसलमानों ने भी धार्मिक आधार पर जी–जान से उर्दू का समर्थन किया और हिन्दी को कचहरी से ही नहीं शिक्षा से भी निकाल बाहर करने का आंदोलन चालू किया।
- 1857 के विद्रोह के बाद हिन्दू–मुसलमानों के पारस्परिक विरोध में ही सरकार अपनी सुरक्षा समझने लगी। अतः भाषा के क्षेत्र में उनकी नीति भेदभावपूर्ण हो गई। अंग्रेज़ विद्वानों के दो दल हो गए। दोनों ओर से पक्ष–विपक्ष में अनेक तर्क–वितर्क प्रस्तुत किए गए। बीम्स साहब उर्दू का और ग्राउस साहब हिन्दी का समर्थन करने वालों में प्रमुख थे।
- नागरी लिपि और हिन्दी तथा फ़ारसी लिपि और उर्दू का अभिन्न सम्बन्ध हो गया। अतः दोनों के पक्ष–विपक्ष में काफ़ी विवाद हुआ।
- राजा शिव प्रसाद 'सितारे–हिन्द' का लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन (1868 ई0)—फ़ारसी लिपि के स्थान पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के लिए पहला प्रयास राजा शिवप्रसाद का 1868 ई0 में उनके लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन 'मेमोरण्डम कोर्ट कैरेक्टर इन द अपर प्रोविन्स आफ इंडिया' से आरम्भ हुआ।
- जॉन शोर—एक अंग्रेज़ अधिकारी फ्रेडरिक़ जॉन शोर ने फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त की थी और न्यायलय में हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी लिपि का समर्थन किया था।
- बंगाल के गवर्नर ऐशले के आदेश (1870 ई0 व 1873 ई0)—वर्ष 1870 ई0 में गवर्नर ऐशले ने देवनागरी के पक्ष में एक आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि फ़ारसी–पूरित उर्दू नहीं लिखी जाए। बल्कि ऐसी भाषा लिखी जाए जो एक कुलीन हिन्दुस्तानी फ़ारसी से पूर्णतया अनभिज्ञ रहने पर भी बोलता है। वर्ष 1873 ई0 में बंगाल सरकार ने यह आदेश जारी किया कि पटना, भागलपुर तथा छोटानागपुर डिविजनों (संभागों) के न्यायलयों व कार्यालयों में सभी विज्ञप्तियाँ तथा घोषणाएँ हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि में ही की जाएँ।
- वर्ष 1881 ई0 तक आते–आते उत्तर प्रदेश के पड़ोसी प्रान्तों बिहार, मध्य प्रदेश में नागरी लिपि और हिन्दी प्रयोग की सरकारी आज्ञा जारी हो गई तो उत्तर प्रदेश में नागरी आंदोलन को बड़ा नैतिक प्रोत्साहन मिला।
- प्रचार की दृष्टि से वर्ष 1874 ई0 में मेरठ में 'नागरी प्रकाश' पत्रिका प्रकाशित हुई। वर्ष 1881 ई0 में 'देवनागरी प्रचारक' तथा 1888 ई0 में 'देवनागरी गजट' पत्र प्रकाशित हुए।
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र—भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नागरी आंदोलन को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की और वे इसके प्रतीक और नेता माने जाने लगे। उन्होंने 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्न–पत्र का जवाब देते हुए कहा—'सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है, जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की।'
- प्रताप नारायण मिश्र—पं0 प्रताप नारायण मिश्र ने 'हिन्दी–हिन्दू–हिन्दूस्तान' का नारा लगाना शुरू कर दिया।
- 1893 ई0 में अंग्रेज़ सरकार ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
- नागरी प्रचारिणी सभा, काशी (स्थापना–1893 ई0) व मदन मोहन मालवीय—नागरी प्रचारिणी सभी की स्थापना—वर्ष 1893 में नागरी प्रचार एवं हिन्दी भाषा के संवर्द्धन के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना की गई। सर्वप्रथम इस सभा ने कचहरी में नागरी लिपि का प्रवेश कराना ही अपना मुख्य कर्तव्य निश्चित् किया। सभा ने 'नागरी कैरेक्टर' नामक एक पुस्तक अंग्रेज़ी में तैयार की, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की अनुपयुक्तता पर प्रकाश डाला गया था।
मानवीय के नेतृत्व में 17 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा लेफ्टिनेंट गवर्नर एण्टोनी मैकडानल को याचिका या मेमोरियल देना (1898 ई0)—मानवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका 'कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ–वेस्टर्न प्रोविन्सेज' (1897 ई0) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1898 ई0 में प्रान्त के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के नेतृत्व में उनसे मिला और हज़ारों हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया। यह मालवीय जी का ही अथक प्रयास था, जिसके परिणामस्वरूप अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका। इसीलिए अदालतों में नागरी के प्रवेश का श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।
- गौरी दत्त—व्यक्तिगत रूप से मेरठ के गौरी दत्त को नागरी प्रचार के लिए की गई सेवाएँ अविस्मरणीय हैं।
- इन तमाम प्रयत्नों का शुभ परिणाम यह हुआ कि 18 अप्रैल 1900 ई0 को गवर्नर साहब ने फ़ारसी के साथ नागरी को भी अदालतों/कचहरियों में समान अधिकार दे दिया। सरकार का यह प्रस्ताव हिन्दी के स्वाभीमान के लिए संतोषप्रद नहीं था। इससे हिन्दी को अधिकारपूर्ण सम्मान नहीं दिया गया था। बल्कि हिन्दी के प्रति दया दिखलाई गई थी। केवल हिन्दी भाषी जनता के लिए सुविधा का प्रबन्ध किया गया था। फिर भी, इसे इतना श्रेय तो है ही कि कचहरियों में स्थान दिला सका और यह मजबूत आधार प्रदान किया, जिसके बल पर वह 20वीं सदी में राष्ट्रलिपि के रूप में उभरकर सामने आ सकी।
देवनागरी लिपि का नामकरण
- देवनागरी लिपि को 'हिन्दी लिपि' भी कहा जाता है।
- देवनागरी का नामकरण विवादास्पद है। ज्यादातर विद्वान गुजरात के नागर ब्राह्मण से इसका सम्बन्ध जोड़ते हैं। उनका मानना है कि गुजरात में सर्वप्रथम प्रचलित होने से वहाँ के पंडित वर्ग अर्थात् नागर ब्राह्मणों के नाम से इसे 'नागरी' कहा गया है। अपने अस्तित्व में आने के तुरन्त बाद इसने देवभाषा संस्कृत को लिपिबद्ध किया, इसलिए 'नागरी' में 'देव' शब्द जुड़ गया और बन गया "देवनागरी"।
देवनागरी लिपि का स्वरूप
- यह लिपि बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है।
- यह न तो शुद्ध रूप से अक्षरात्मक लिपि है और न ही वर्णात्मक लिपि।
देवनागरी लिपि के गुण
- एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत।
- एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि व्यक्त।
- जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम।
- मूक वर्ण नहीं।
- जो बोला जाता है वही लिखा जाता है।
- एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं।
- उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता।
- वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप।
- प्रयोग बहुत व्यापक (संस्कृत, हिन्दी, मराठी, नेपाली की एकमात्र लिपि)।
- भारत की अनेक लिपियों के निकट।
देवनागरी लिपि के दोष
- कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुंद्रण में कठिनाई।
- शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए।
- अनावश्यक वर्ण (ऋ, ॠ, लृ, ॡ, ङ्, ञ्, ष)— आज इन्हें कोई शुद्ध उच्चारण के साथ उच्चारित नहीं कर पाता।
- द्विरूप वर्ण (ञ्प्र अ, ज्ञ, क्ष, त, त्र, छ, झ, रा ण, श )–कुछ शब्द लिखने हैं, पेज नं0 18 पर से
- समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)।
- वर्णों के संयुक्त करने की कोई नश्चित् व्यवस्था नहीं।
- अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।
- त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार–बार उठाना पड़ता है।
- वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति।
- इ की मात्रा (ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद।
देवनागरी लिपि में किए गए सुधार
- बाल गंगाधर का 'तिलक फ़ांट' (1904-26)।
- सावरकर बंधुओं का 'अ की बारहखड़ी'।
- श्यामसुन्दर दास का पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग का सुझाव।
- गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ़ अलग रखने का सुझाव।
- श्रीनिवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्प्रमाण के नीचे ऽ चिह्न लगाने का सुझाव।
- हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर अधिवेशन और काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन (1935) और उसकी सिफ़ारिशें।
- काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्रीनिवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय (1945)।
- उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित आचार्य नरेन्द्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफ़ारिशें।
- शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि सम्बन्धी पकाशन—'मानक देवनागरी वर्णमाला' (1966 ई0), 'हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1967 ई0), 'देवनागरी लिपि तथा हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण' (1983 ई0) आदि।
6. हिन्दी का मानकीकरण
मानक भाषा (Standard Language)
- मानक का अभिप्राय है—आदर्श, श्रेष्ठ अथवा परिनिष्ठित। भाषा का जो रूप उस भाषा के प्रयोक्ताओं के अलावा अन्य भाषा–भाषियों के लिए आदर्श होता है, जिसके माध्यम से वे उस भाषा को सीखते हैं, जिस भाषा–रूप का व्यवहार पत्राचार, शिक्षा, सरकारी काम–काज एवं सामाजिक–सांस्कृतिक आदान–प्रदान में समान स्तर पर होता है, वह उस भाषा का मानक रूप कहलाता है।
- मानक भाषा किसी देश अथवा राज्य की वह प्रतिनिधि तथा आदर्श भाषा होती है, जिसका प्रयोग वहाँ के शिक्षित वर्ग के द्वारा अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, व्यापारिक व वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है।
- मानकीकरण (मानक भाषा के विकास) के तीन सोपान—
बोली—भाषा—मानक भाषा किसी भाषा का बोलचाल के स्तर से ऊपर उठकर मानक रूप ग्रहण कर लेना, उसका मानकीकरण कहलाता है।
प्रथम सोपान—'बोली'
पहले स्तर पर भाषा का मूल रूप एक सीमित क्षेत्र में आपसी बोलचाल के रूप में प्रयुक्त होने वाली बोली का होता है, जिसे स्थानीय, आंचलिक अथवा क्षेत्रीय बोली कहा जा सकता है। इसका शब्द भंडार सीमित होता है। कोई नियमित व्याकरण नहीं होता। इसे शिक्षा, आधिकारिक कार्य–व्यवहार अथवा साहित्य का माध्यम नहीं बनाया जा सकता।
द्वितीय सोपान—'भाषा'
वही बोली कुछ भौगोलिक, सामाजिक–सांस्कृतिक, राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से अपना क्षेत्र विस्तार कर लेती है, उसका लिखित रूप विकसित होने लगता है और इसी कारण से वह व्याकरणिक साँचे में ढलने लगती है, उसका पत्राचार, शिक्षा, व्यापार, प्रशासन आदि में प्रयोग होने लगता है, तब वह बोली न रहकर 'भाषा' की संज्ञा प्राप्त कर लेती है।
तृतीय सोपान—'मानक भाषा'
यह वह स्तर है जब भाषा के प्रयोग का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जाता है। वह एक आदर्श रूप ग्रहण कर लेती है। उसका परिनिष्ठित रूप होता है। उसकी अपनी शैक्षणिक, वाणिज्यिक, साहित्यिक, शास्त्रीय, तकनीकी एवं क़ानूनी शब्दावली होती है। इसी स्थिति में पहुँचकर भाषा 'मानक भाषा' बन जाती है। उसी को 'शुद्ध', 'उच्च–स्तरीय', 'परिमार्जित' आदि भी कहा जाता है।
- मानक भाषा के तत्व
- ऐतिहासिकता
- स्वायत्तता
- केन्द्रोन्मुखता
- बहुसंख्यक प्रयोगशीलता
- सहजता/बोधगम्यता
- व्याकरणिक साम्यता
- सर्वविध एकरूपता
- मानकीकरण का एक प्रमुख दोष यह है कि मानकीकरण करने से भाषा में स्थिरता आने लगती है। जिससे भाषा की गति अवरुद्ध हो जाती है।
हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दिशा में उठाये गए महत्वपूर्ण क़दम
- राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिन्द' ने क़ ख़ ग़ ज़ फ़ पाँच अरबी–फ़ारसी ध्वनियों के लिए चिह्नों के नीचे नुक्ता लगाने का रिवाज़ आरम्भ किया।
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 'हरिश्चन्द्र मैंगज़ीन' के जरिये खड़ी बोली को व्यावहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया।
- अयोध्या प्रसाद खत्री ने प्रचलित हिन्दी को 'ठेठ हिन्दी' की संज्ञा दी और ठेठ हिन्दी का प्रचार किया। उन्होंने खड़ी बोली को पद्य की भाषा बनाने के लिए आंदोलन चलाया।
- हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से द्विवेदी युग (1900-20) सर्वाधिक महत्वपूर्ण युग था। 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली के मानकीकरण का सवाल सक्रिय रूप से और एक आंदोलन के रूप में उठाया। युग निर्माता द्विवेदीजी ने 'सरस्वती' पत्रिका के जरिये खड़ी बोली हिन्दी के प्रत्येक अंग को गढ़ने–सँवारने का कार्य खुद तो बहुत लगन से किया ही, साथ ही अन्य भाषा–साधकों को भी इस कार्य की ओर प्रवृत्त किया। द्विवेदीजी की प्रेरणा से कामता प्रसाद गुरू ने 'हिन्दी व्याकरण' के नाम से एक वृहद व्याकरण लिखा।
- छायावादी युग (1920-36) व छायावादोत्तर युग (1936 के बाद) में हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में कोई आंदोलनात्मक प्रयास तो नहीं हुआ, किन्तु भाषा का मानक रूप अपने आप स्पष्ट होता चला गया।
- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद (1947 के बाद) हिन्दी के मानकीकरण पर नये सिरे से विचार–विमर्श शुरू हुआ, क्योंकि संविधान ने इसे राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया, जिससे हिन्दी पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ पड़ा। इस दिशा में दो संस्थाओं का विशेष योगदान रहा—इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के माध्यम से 'भारतीय हिन्दी परिषद' का तथा शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का।
भारतीय हिन्दी परिषद
भाषा के सर्वागीण मानकीकरण का प्रश्न सबसे पहले 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने ही उठाया। डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई, जिसमें डॉ0 हरदेव बाहरी, डॉ0 ब्रजेश्वर शर्मा, डॉ0 माता प्रसाद गुप्त आदि सदस्य थे। धीरेन्द्र वर्मा ने 'देवनागरी लिपि चिह्नों में एकरूपता', हरदेव बाहरी ने 'वर्ण विन्यास की समस्या', ब्रजेश्वर शर्मा ने 'हिन्दी व्याकरण' तथा माता प्रसाद गुप्त ने 'हिन्दी शब्द–भंडार का स्थिरीकरण' विषय पर अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किए।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने लिपि के मानकीकरण पर अधिक ध्यान दिया और 'देवनागरी लिपि' तथा 'हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1983 ई0) का प्रकाशन किया।
विश्व हिन्दी सम्मेलन
उद्देश्य—UNO की भाषाओं में हिन्दी को स्थान दिलाना व हिन्दी का प्रचार–प्रसार करना। क्रम तिथि आयोजन स्थल पहला 10-14 जन0, 1975 नागपुर (भारत); अध्यक्ष–शिवसागर राम गुलाम (मॉरिशस के तत्कालीन राष्ट्रपति), उदघाटन–इंदिरा गाँधी। दूसरा 28-30 अग0, 1976 पोर्ट लुई (मॉरिशस) तीसरा 28-30 अक्तू0, 1983 नई दिल्ली (भारत) चौथा 02-04 दिस0, 1993 पोर्ट लुई (मॉरिशस) पाँचवाँ 04-08 अप्रैल, 1996 पोर्ट आफ स्पेन (ट्रिनिडाड एवं टोबैगो) छठा 14-18 सित0, 1999 लंदन (ब्रिटन) सातवाँ 05-09 जून, 2003 पारामारिबो (सूरीनाम) आठवाँ 13-15 जुलाई, 2007 न्यूयार्क (अमेरिका) .........................................................समाप्त...........................................................
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