|
|
पंक्ति 1: |
पंक्ति 1: |
| ==रश्मिरथी तृतीय सर्ग==
| |
| मैत्री की राह बताने को,
| |
|
| |
|
| सबको सुमार्ग पर लाने को,
| |
|
| |
| दुर्योधन को समझाने को,
| |
|
| |
| भीषण विध्वंस बचाने को,
| |
|
| |
| भगवान् हस्तिनापुर आये,
| |
|
| |
| पांडव का संदेशा लाये।
| |
|
| |
|
| |
| 'दो न्याय अगर तो आधा दो,
| |
|
| |
| पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
| |
|
| |
| तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
| |
|
| |
| रक्खो अपनी धरती तमाम।
| |
|
| |
| हम वहीं ख़ुशी से खायेंगे,
| |
|
| |
| परिजन पर असि न उठायेंगे!
| |
|
| |
|
| |
| दुर्योधन वह भी दे ना सका,
| |
|
| |
| आशिष समाज की ले न सका,
| |
|
| |
| उलटे, हरि को बाँधने चला,
| |
|
| |
| जो था असाध्य, साधने चला।
| |
|
| |
| जब नाश मनुज पर छाता है,
| |
|
| |
| पहले विवेक मर जाता है।
| |
|
| |
|
| |
| हरि ने भीषण हुंकार किया,
| |
|
| |
| अपना स्वरूप-विस्तार किया,
| |
|
| |
| डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
| |
|
| |
| भगवान् कुपित होकर बोले-
| |
|
| |
| 'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
| |
|
| |
| हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
| |
|
| |
|
| |
| यह देख, गगन मुझमें लय है,
| |
|
| |
| यह देख, पवन मुझमें लय है,
| |
|
| |
| मुझमें विलीन झंकार सकल,
| |
|
| |
| मुझमें लय है संसार सकल।
| |
|
| |
| अमरत्व फूलता है मुझमें,
| |
|
| |
| संहार झूलता है मुझमें।
| |
|
| |
|
| |
| 'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
| |
|
| |
| भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
| |
|
| |
| भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
| |
|
| |
| मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
| |
|
| |
| दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
| |
|
| |
| सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
| |
|
| |
|
| |
| 'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
| |
|
| |
| मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
| |
|
| |
| चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
| |
|
| |
| नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
| |
|
| |
| शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
| |
|
| |
| शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
| |
|
| |
| 'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
| |
|
| |
| शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
| |
|
| |
| शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
| |
|
| |
| शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
| |
|
| |
|
| |
| जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
| |
|
| |
| हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
| |
|
| |
|
| |
| 'भूलोक, अतल, पाताल देख,
| |
|
| |
| गत और अनागत काल देख,
| |
|
| |
| यह देख जगत का आदि-सृजन,
| |
|
| |
| यह देख, महाभारत का रण,
| |
|
| |
| मृतकों से पटी हुई भू है,
| |
|
| |
| पहचान, कहाँ इसमें तू है।
| |
|
| |
|
| |
| 'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
| |
|
| |
| पद के नीचे पाताल देख,
| |
|
| |
| मुट्ठी में तीनों काल देख,
| |
|
| |
| मेरा स्वरूप विकराल देख।
| |
|
| |
| सब जन्म मुझी से पाते हैं,
| |
|
| |
| फिर लौट मुझी में आते हैं।
| |
|
| |
|
| |
| 'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
| |
|
| |
| साँसों में पाता जन्म पवन,
| |
|
| |
| पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
| |
|
| |
| हँसने लगती है सृष्टि उधर!
| |
|
| |
| मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
| |
|
| |
| छा जाता चारों ओर मरण।
| |
|
| |
|
| |
| 'बाँधने मुझे तो आया है,
| |
|
| |
| जंजीर बड़ी क्या लाया है?
| |
|
| |
| यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
| |
|
| |
| पहले तो बाँध अनन्त गगन।
| |
|
| |
| सूने को साध न सकता है,
| |
|
| |
| वह मुझे बाँध कब सकता है?
| |
|
| |
|
| |
| 'हित-वचन नहीं तूने माना,
| |
|
| |
| मैत्री का मूल्य न पहचाना,
| |
|
| |
| तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
| |
|
| |
| अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
| |
|
| |
| याचना नहीं, अब रण होगा,
| |
|
| |
| जीवन-जय या कि मरण होगा।
| |
|
| |
|
| |
| 'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
| |
|
| |
| बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
| |
|
| |
| फण शेषनाग का डोलेगा,
| |
|
| |
| विकराल काल मुँह खोलेगा।
| |
|
| |
| दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
| |
|
| |
| फिर कभी नहीं जैसा होगा।
| |
|
| |
|
| |
| 'भाई पर भाई टूटेंगे,
| |
|
| |
| विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
| |
|
| |
| वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
| |
|
| |
| सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
| |
|
| |
| आख़िर तू भूशायी होगा,
| |
|
| |
| हिंसा का पर, दायी होगा।'
| |
|
| |
|
| |
| थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
| |
|
| |
| चुप थे या थे बेहोश पड़े।
| |
|
| |
| केवल दो नर ना अघाते थे,
| |
|
| |
| धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
| |
|
| |
| कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
| |
|
| |
| दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
| |