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{{सूचना बक्सा प्रसिद्ध व्यक्तित्व
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|चित्र का नाम=गीजू भाई
|पूरा नाम=गिरिजा शंकर बढेका
|अन्य नाम=मोछाई माँ
|जन्म=[[15 नवम्बर]], [[1885]]
|जन्म भूमि=चित्तल, [[सौराष्ट्र]]
|मृत्यु= [[23 जून]], [[1939]]
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|कर्म-क्षेत्र=लेखक, शिक्षाशास्त्री
|मुख्य रचनाएँ='आनन्दी कौआ', 'चालाक खरगोश','बुढ़िया और बंदरिया
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|भाषा=[[गुजराती भाषा]]
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|अन्य जानकारी=गीजू भाई अपनी संस्था में हरिजनों को प्रवेश दिया और बारदोली सत्याग्रह के समय लोगों की सहायता के लिए बच्चों की 'वानर सेना' संगठित की।
|बाहरी कड़ियाँ=
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}}
'''गीजू भाई''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Giju Bhai'', जन्म-[[15 नवम्बर]], [[1885]], [[सौराष्ट्र]]; मृत्यु- [[23 जून]], [[1939]]) [[गुजराती भाषा]] के लेखक और महान शिक्षाशास्त्री थे। छोटे बच्चों की शिक्षा को नई दिशा देने ने इनका अत्याधिक योगदान रहा है। गीजू भाई समाज सुधार और राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य कामों में भी पूरी रुचि लेते थे।
==परिचय==
गीजू भाई का जन्म [[15 नवम्बर]], [[1885]] को सौराष्ट्र के चित्तल नामक स्थान में हुआ था। उनका असली नाम 'गिरिजा शंकर बढेका' था, लेकिन वे गीजू के नाम से ही प्रसिद्ध हुए। बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के कारण लोग उन्हें 'मोछाई माँ' अर्थात मूछों वाली माँ भी कहते थे। छोटे बच्चों की शिक्षा को नई दिशा देने ने इनका अत्याधिक योगदान रहा है।


गीजू भाई को कॉलेज की शिक्षा बीच में छोड़ कर आजीविका के लिए [[1907]] में पूर्वी अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ से वापस आने पर उन्होंने कानून की शिक्षा पूरी की और वकालत करने लगे थे।
==शिक्षा का नया रूप==
गीजू भाई अपने [[पुत्र]] की शिक्षा के सिलसिले में जब वे छोटे बच्चों के विद्यालय में गए तो उन्हें मांटेसरी पद्धति की एक पुस्तक मिली। उसका गीजू भाई पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उस पद्धति को तथा पश्चिम की कुछ अन्य शिक्षा पद्धतियों को मिलाकर भारतीय परिस्थितियों के अनुसार बच्चों की आरंभिक शिक्षा को नया रूप देने का काम उन्होंने हाथ में लिया। सर्वप्रथम भावनगर में 'दक्षिणमूर्ति' नाम से एक छात्रावास की स्थापना हुई। अपनी वकालत छोड़कर गीजू भाई इसी काम में जुट गए। नाना भाई भट्ट इसमें उनके सहयोगी थे।
शिक्षा की नई पद्धति के प्रयोग के लिए शिक्षकों का प्रशिक्षण आवश्यक समझ कर गीजू भाई के आचार्यत्व में 'दक्षिणमूर्ति' को अध्यापक प्रशिक्षण केन्द्र का रूप दे दिया गया।
;बाल मंदिर की स्थापना
इन्होंने [[1920]] में एक बाल मंदिर की स्थापना हुई। साथ ही यह भी आवश्यक था कि बच्चों के लिए रोचक ढंग की उपयुक्त पाठ्य-सामग्री तैयार की जाए। गीजू भाई ने यह काम भी अपने हाथ में ले लिया। इसके लिए उन्होंने विभिन्न शैलियों में एक सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की। उनकी इन पुस्तकों में से अनेक आज भी काम में आ रही हैं।
'दक्षिणामूर्ति' संस्था से गीजू भाई [[1936]] तक जुड़े रहे। बाद में उन्होंने राजकोट में 'अध्यापक मंदिर' की स्थापना की। बच्चों की शिक्षा उनका मुख्य क्षेत्र था, पर समाज सुधार और राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य कामों में भी वे पूरी रुचि लेते थे। उन्होंने अपनी संस्था में हरिजनों को प्रवेश दिया और बारदोली सत्याग्रह के समय लोगों की सहायता के लिए बच्चों की 'वानर सेना' संगठित की।
==बालकथाएँ==
#आनन्दी कौआ
#चालाक खरगोश
#बुढ़िया और बंदरिया
#मां-जाया भाई
#सौ के साठ<ref>{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%97%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%88_%E0%A4%AC%E0%A4%A7%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE|title=गिजुभाई बधेका, बालकथाएँ |accessmonthday=23 अक्टूबर|accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=गद्य कोश |language=हिंदी}}</ref>
==निधन==
23 जून, 1939 ई. को गीजू भाई का देहांत हो गया।
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
{{समाज सुधारक}}
[[Category:लेखक]][[Category:चरित कोश]]
[[Category:आधुनिक लेखक]]
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12:21, 28 दिसम्बर 2016 का अवतरण