"सदस्य वार्ता:दिनेश सिंह": अवतरणों में अंतर
Dinesh Singh (वार्ता | योगदान) (→मन की व्यथा -------दिनेश सिंह: नया विभाग) |
Dinesh Singh (वार्ता | योगदान) |
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क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - | क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - | ||
इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर | इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर | ||
== प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको---------------दिनेश सिंह == | |||
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको - | |||
था ऋतू बसंत फूलों का उपवन - | |||
छुई मुई के तरु सी लज्जित - | |||
नयनो का वो मौन मिलन | |||
कम्पित अधरों से वो कहना - | |||
नख से धरा कुदॆर रही थी - | |||
आँखों मे मादकता चितवन - | |||
साँसों का मिलता स्पंदन | |||
भटक रहा था एकाकी पथ पर - | |||
पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा - | |||
ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन - | |||
खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा . | |||
ह्रदय के गहरे अन्धकार में - | |||
मन डूबा था विरह व्यथा में - | |||
छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से - | |||
फैलाया उर में प्रकाश यौवन | |||
कितने सुख दुःख जीवन में हो - | |||
नहीं मृत्यु से किंचित भय - | |||
आँखों के सम्मुख रहो सदा जो - | |||
औ प्रीति रहे उर में चिरमय |
12:34, 18 अक्टूबर 2013 का अवतरण
फिर लिखने लगा खीच खीचकर - कल्पित जीवन की रेखा - वही कल्पना खग_पुष्पों की - वही व्यथा मन रोदन की
जब नहीं शब्द ज्ञान मुझे - तो क्यों फैलाता शब्द जाल - बिन उपमा बिन अलंकार - फिर कौन कहेगा काव्यकार
कुछ रस तो लावो तुम - अपनी ललित कलित कविताओं में - कुछ काव्य सुगन्धित फैलावो - इन बहती काव्य हवाओं में
कुछ काव्य लिखो सु-मधुर सु-राग - छवि प्रतिबिम्बित हो उत्तम सन्देश - ले बहे समीरण उस दिशि में - हो जहाँ जहाँ वर्जित प्रदेश
जरा नजर काव्य की घुमाँ वहां - जो विचरण करता अन्धकार में - जो ढूंढ़ रहा है एक कण प्रकाश - जो भटक रहा निर्जन बन में
नहीं जिनको सुख दुःख का विषाद - दुःख ही बना गया हर्षोउल्लाश - रोये अन्तःकरण भीगि पलक - क्या ऋतू वर्षा क्या ऋतू तुषार
हर नई भोर बस एक सवाल - क्या भूंख मीटेगी फिर एक बार - फिर उड़ा परिंदा दाने को - औ बच्चे करते इन्तजार
स्वाभिमान से जीना उनको - कठिन हो गया अब जग में - बंद मुट्ठियाँ साहूकार की - चित्त हथेली याचक की
जिनके जीवन का सूनापन - कभी एक पल कम न हुवा - वही कार्य प्रणाली आदिकाल की - दयनीय बनी हुई जीवन शैली
मन की व्यथा====दिनेश सिंह ==
मन की व्यथा -------दिनेश सिंह
कितना सुंदर होता की हम - एक सिर्फ इन्सां होते - न जाती पाती के लिए जगह - न धर्मो के बंधन होते
शोर मचा है धर्म धर्म का - कौम कौम का लगता नारा - इस चलती कौमी बयारी में - उन्मय उन्मय जन मानस सारा
जो घूम रहा था शहर शहर - पहुँच रहा अब गाँव गाँव में - वो कौम बयारी जहर घोलते - महकती स्वच्छ हवाओं में
क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी - क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी - क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको---------------दिनेश सिंह
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको - था ऋतू बसंत फूलों का उपवन - छुई मुई के तरु सी लज्जित - नयनो का वो मौन मिलन
कम्पित अधरों से वो कहना - नख से धरा कुदॆर रही थी - आँखों मे मादकता चितवन - साँसों का मिलता स्पंदन
भटक रहा था एकाकी पथ पर - पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा - ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन - खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा .
ह्रदय के गहरे अन्धकार में - मन डूबा था विरह व्यथा में - छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से - फैलाया उर में प्रकाश यौवन
कितने सुख दुःख जीवन में हो - नहीं मृत्यु से किंचित भय - आँखों के सम्मुख रहो सदा जो - औ प्रीति रहे उर में चिरमय