"पर्यावरन अवनयन": अवतरणों में अंतर
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'''पर्यावरण अवनयन''' एक व्यापक शब्द है जिसका अर्थ होता है - मनुष्य के क्रिया-कलापों द्वारा [[पारिस्थितिकी तंत्र]] कर स्थिरता तथा पारिस्थितिकीय संतुलन में अव्यवस्था एवं असन्तुलन उत्पन्न हो जाना। जब पर्यावरण अवनयन नाजुक सीमा से इतना अधिक हो जाता है कि वह विभन्न जीवों के लिए सामान्य रूप से तथा मानव के लिए मुख्य रूप से घातक एवं जानलेवा सिद्ध हो जाता है, तो उसे पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण पर्यावरण अवनयन की अन्तिम सीमा है। सामान्य रूप से पर्यावरण अवनयन तथा पर्यावरण प्रदूषण समानार्थी शब्द होते हैं क्योंकि | '''पर्यावरण अवनयन''' एक व्यापक शब्द है जिसका अर्थ होता है - मनुष्य के क्रिया-कलापों द्वारा [[पारिस्थितिकी तंत्र]] कर स्थिरता तथा पारिस्थितिकीय संतुलन में अव्यवस्था एवं असन्तुलन उत्पन्न हो जाना। जब पर्यावरण अवनयन नाजुक सीमा से इतना अधिक हो जाता है कि वह विभन्न जीवों के लिए सामान्य रूप से तथा मानव के लिए मुख्य रूप से घातक एवं जानलेवा सिद्ध हो जाता है, तो उसे पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण पर्यावरण अवनयन की अन्तिम सीमा है। सामान्य रूप से पर्यावरण अवनयन तथा पर्यावरण प्रदूषण समानार्थी शब्द होते हैं क्योंकि दोनों का सम्बन्ध पर्यावरण की गुणवत्ता में ह्रास से होता है, परंतु इनके कारकों तथा प्रभाव क्षेत्र के आधार पर इनमें अन्तर स्थापित किया जा सकता है। पर्यावरण प्रदूषण स्थानीय या प्रादेशिक स्तर तक सीमित रहता है जबकि पर्यावरण अवनयन विश्वस्तरीय होता है, जैसे- [[ओजोन]] की अल्पता तथा हरित प्रभाव। पर्यावरण अवनयन के दो प्रकार हैं | ||
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प्राकृतिक कारकों अथवा मानव कार्यों द्वारा उत्पन्न उन घटनाओं जिनके द्वारा पर्यावरण में शीर्घ परिवर्तन होते हैं तथा पर्यावरण की गुणवत्ता एवं जीवधारियों की अपार क्षति होती है, को प्रकोप कहते हैं। प्रकोप को पुनः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - | प्राकृतिक कारकों अथवा मानव कार्यों द्वारा उत्पन्न उन घटनाओं जिनके द्वारा पर्यावरण में शीर्घ परिवर्तन होते हैं तथा पर्यावरण की गुणवत्ता एवं जीवधारियों की अपार क्षति होती है, को प्रकोप कहते हैं। प्रकोप को पुनः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - | ||
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प्राकृतिक प्रकोपों को उन्हें उत्पन्न करने वाले कारकों के आधार पर पुनः तीन उप प्रकारों मे विभाजित किया जा सकता है- | प्राकृतिक प्रकोपों को उन्हें उत्पन्न करने वाले कारकों के आधार पर पुनः तीन उप प्रकारों मे विभाजित किया जा सकता है- | ||
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यह प्राकृतिक प्रकोप [[पृथ्वी]] के अन्तर्जात बलों द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा इनका प्रभाव क्षेत्र पृथ्वी का स्थलीय सतह होता है, जैसे - भूमि स्खलन, भ्रंशन, [[भूकम्प]], धरातलीय सतह का उत्थान एवं अवतलन, ज्वालामुखी उद्भेदन आदि। | यह प्राकृतिक प्रकोप [[पृथ्वी]] के अन्तर्जात बलों द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा इनका प्रभाव क्षेत्र पृथ्वी का स्थलीय सतह होता है, जैसे - भूमि स्खलन, भ्रंशन, [[भूकम्प]], धरातलीय सतह का उत्थान एवं अवतलन, ज्वालामुखी उद्भेदन आदि। | ||
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ये प्रकोप वायुमण्डलीय प्रक्रमों द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा इनका प्रभाव [[पारिस्थितिक तंत्र]] के [[जैविक संघटक|जैविक]] तथा [[अजैविक संघटक|अजैविक]] संघटकों पर पड़ता है, जैसे टाइफून, टारनेडो, दावानल आदि। | ये प्रकोप वायुमण्डलीय प्रक्रमों द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा इनका प्रभाव [[पारिस्थितिक तंत्र]] के [[जैविक संघटक|जैविक]] तथा [[अजैविक संघटक|अजैविक]] संघटकों पर पड़ता है, जैसे टाइफून, टारनेडो, दावानल आदि। | ||
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ये प्राकृतिक प्रकोप कतिपय वायुमण्डलीय | ये प्राकृतिक प्रकोप कतिपय वायुमण्डलीय दशाओं के लम्बी अवधि तक संचय होने के कारण उत्पन्न होते हैं जैसे- बाढ़, सूखा। | ||
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मानव जनित प्रकोपों को भी पुनः तीन उप प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है | मानव जनित प्रकोपों को भी पुनः तीन उप प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है- | ||
#मानव जनित भौतिक प्रकोप, जैसे - बृहद्स्तरीय भूमिस्खलन, सोद्देश्य वनों में आग लगाना आदि। | #मानव जनित भौतिक प्रकोप, जैसे - बृहद्स्तरीय भूमिस्खलन, सोद्देश्य वनों में आग लगाना आदि। | ||
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समाज के शैशवकाल में मानव तथा प्रकृति के मध्य एकात्मकता थी। मानव पूर्णरूप से प्रकृति पर निर्भर था और अपनी | समाज के शैशवकाल में मानव तथा प्रकृति के मध्य एकात्मकता थी। मानव पूर्णरूप से प्रकृति पर निर्भर था और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से करता था। उस समय प्रकृति मानव की मित्र थी और मानव प्रकृति का। जैसे-जैसे मनुष्य अपने तथा अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना दायित्व समझने लगा, उसने स्वयं के अस्तित्व के लिए दूसरों की उपेक्षा करना प्रारंभ किया, जिससे दुश्मनी, स्वार्थ, वैमनस्य तथा प्रलोभन ने उसके जीवन में प्रवेश किया। उसने भूख एवं आत्मरक्षा के लिए विभिन्न तरीक़े खोज निकाले। बाद के समय में मानव भूख और आत्मरक्षा के अतिरिक्त सुख-सुविधा तथा आमोद प्रमोद के लिए भी प्रयत्न करने लगा। यहीं से उसके भ्रष्ट होने की शुरुआत हुई और वह प्रकृति तथा [[पर्यावरण]] की उपेक्षा करने लगा। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वह पर्यावरण को हानि पहुंचाने से भी नहीं झिझका, किन्तु उस दौर में भी मानव जो दूषित घटक पर्यावरण में छोड़ता था, वह उसकी आवश्यक प्रतिक्रिया थी। जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ उसने आस-पास के वातावरण को प्रदूषित करने में कोई कमी नहीं की। | ||
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पर्यावरण अवनयन एक व्यापक शब्द है जिसका अर्थ होता है - मनुष्य के क्रिया-कलापों द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र कर स्थिरता तथा पारिस्थितिकीय संतुलन में अव्यवस्था एवं असन्तुलन उत्पन्न हो जाना। जब पर्यावरण अवनयन नाजुक सीमा से इतना अधिक हो जाता है कि वह विभन्न जीवों के लिए सामान्य रूप से तथा मानव के लिए मुख्य रूप से घातक एवं जानलेवा सिद्ध हो जाता है, तो उसे पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण पर्यावरण अवनयन की अन्तिम सीमा है। सामान्य रूप से पर्यावरण अवनयन तथा पर्यावरण प्रदूषण समानार्थी शब्द होते हैं क्योंकि दोनों का सम्बन्ध पर्यावरण की गुणवत्ता में ह्रास से होता है, परंतु इनके कारकों तथा प्रभाव क्षेत्र के आधार पर इनमें अन्तर स्थापित किया जा सकता है। पर्यावरण प्रदूषण स्थानीय या प्रादेशिक स्तर तक सीमित रहता है जबकि पर्यावरण अवनयन विश्वस्तरीय होता है, जैसे- ओजोन की अल्पता तथा हरित प्रभाव। पर्यावरण अवनयन के दो प्रकार हैं
- प्रकोप
- प्रदूषण
प्रकोप
प्राकृतिक कारकों अथवा मानव कार्यों द्वारा उत्पन्न उन घटनाओं जिनके द्वारा पर्यावरण में शीर्घ परिवर्तन होते हैं तथा पर्यावरण की गुणवत्ता एवं जीवधारियों की अपार क्षति होती है, को प्रकोप कहते हैं। प्रकोप को पुनः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -
- प्राकृतिक प्रकोप
जैसे- हरीकेन, टाइफून, टारनेडो, भूकम्प, बाढ़, सूखा, ज्वालामुखी उद्भेदन आदि।
- मानव जनित प्रकोप
जैसे- नाभिकीय सर्वनाश, रासायनिक युद्ध, रोगाणु युद्ध आदि।
प्राकृतिक प्रकोप
प्राकृतिक प्रकोपों को उन्हें उत्पन्न करने वाले कारकों के आधार पर पुनः तीन उप प्रकारों मे विभाजित किया जा सकता है-
- पार्थिव प्राकृतिक प्रकोप
- वायुमण्डलीय प्राकृतिक प्रकोप
- संचयी वायुमण्डलीय प्राकृतिक प्रकोप
पार्थिव प्राकृतिक प्रकोप
यह प्राकृतिक प्रकोप पृथ्वी के अन्तर्जात बलों द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा इनका प्रभाव क्षेत्र पृथ्वी का स्थलीय सतह होता है, जैसे - भूमि स्खलन, भ्रंशन, भूकम्प, धरातलीय सतह का उत्थान एवं अवतलन, ज्वालामुखी उद्भेदन आदि।
वायुमण्डलीय प्राकृतिक प्रकोप
ये प्रकोप वायुमण्डलीय प्रक्रमों द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा इनका प्रभाव पारिस्थितिक तंत्र के जैविक तथा अजैविक संघटकों पर पड़ता है, जैसे टाइफून, टारनेडो, दावानल आदि।
संचयी वायुमण्डलीय प्राकृतिक प्रकोप
ये प्राकृतिक प्रकोप कतिपय वायुमण्डलीय दशाओं के लम्बी अवधि तक संचय होने के कारण उत्पन्न होते हैं जैसे- बाढ़, सूखा।
मानव जनित प्रकोप
मानव जनित प्रकोपों को भी पुनः तीन उप प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है-
- मानव जनित भौतिक प्रकोप, जैसे - बृहद्स्तरीय भूमिस्खलन, सोद्देश्य वनों में आग लगाना आदि।
- रासायनिक एवं नाभिकीय प्रकोप, जैसे - वायुमण्डल में जहरीले पदार्थों का विमोचन, कारखानों से जानलेवा गैसों का अचानक प्रस्फोट एवं नाभिकीय विस्फोट आदि।
- मानव जनित जैविकीय प्रकोप, जैसे किसी भी स्थान पर जीवों की जातियों में अचानक वृद्धि, मानव जनसंख्या का प्रस्फोट, युद्ध में रोग के रोगाणुओं का प्रयोग आदि।
प्रदूषण
समाज के शैशवकाल में मानव तथा प्रकृति के मध्य एकात्मकता थी। मानव पूर्णरूप से प्रकृति पर निर्भर था और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से करता था। उस समय प्रकृति मानव की मित्र थी और मानव प्रकृति का। जैसे-जैसे मनुष्य अपने तथा अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना दायित्व समझने लगा, उसने स्वयं के अस्तित्व के लिए दूसरों की उपेक्षा करना प्रारंभ किया, जिससे दुश्मनी, स्वार्थ, वैमनस्य तथा प्रलोभन ने उसके जीवन में प्रवेश किया। उसने भूख एवं आत्मरक्षा के लिए विभिन्न तरीक़े खोज निकाले। बाद के समय में मानव भूख और आत्मरक्षा के अतिरिक्त सुख-सुविधा तथा आमोद प्रमोद के लिए भी प्रयत्न करने लगा। यहीं से उसके भ्रष्ट होने की शुरुआत हुई और वह प्रकृति तथा पर्यावरण की उपेक्षा करने लगा। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वह पर्यावरण को हानि पहुंचाने से भी नहीं झिझका, किन्तु उस दौर में भी मानव जो दूषित घटक पर्यावरण में छोड़ता था, वह उसकी आवश्यक प्रतिक्रिया थी। जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ उसने आस-पास के वातावरण को प्रदूषित करने में कोई कमी नहीं की।
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