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'''मीमांसा''' शब्द का अर्थ किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन है। [[वेद]] के मुख्यत: दो भाग हैं। प्रथम भाग में 'कर्मकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। द्वितीय भाग में 'ज्ञानकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की निवृत्ति होती है।
'''मीमांसा''' शब्द का अर्थ किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन है। [[वेद]] के मुख्यत: दो भाग हैं। प्रथम भाग में 'कर्मकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। द्वितीय भाग में 'ज्ञानकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की निवृत्ति होती है। कर्म तथा ज्ञान के विषय में कर्ममीमांसा और [[वेदान्त]] की दृष्टि में अन्तर है। वेदान्त के अनुसार कर्मत्याग के बाद ही आत्मज्ञान संभव है। कर्म तो केवल चित्तशुद्धि का साधन है। मोक्ष की प्राप्ति तो ज्ञान से ही हो सकती है। परन्तु कर्ममीमांसा के अनुसार मुमुक्षुजन को भी कर्म करना चाहिए।
==प्रकार==
==प्रकार==
मीमांसा के दो प्रकारों की व्याख्या की गई है-
मीमांसा के दो प्रकारों की व्याख्या की गई है-
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*सम्पूर्ण अंगों के सहित विधि को 'प्रकृति' और समग्र अंगरहित विधि को 'विकृति' कहा गया है। इन दोनों से भिन्न प्रकार की विधि को 'दर्वीहोम' कहा गया है।
*सम्पूर्ण अंगों के सहित विधि को 'प्रकृति' और समग्र अंगरहित विधि को 'विकृति' कहा गया है। इन दोनों से भिन्न प्रकार की विधि को 'दर्वीहोम' कहा गया है।
==विधि के स्वरूप==
अपूर्वविधि, नियमविधि, परिसंख्याविधि के भेद से विधि के तीन प्रकार दृष्टिगोचर होते हैं। कर्मों के अंगांगिभाव का बोध छह प्रमाणों से होता है। उन छह प्रमाणों में पूर्व-पूर्व प्रमाण प्रबल माना जाता है। जो परार्थ होता है, उसे 'अंग' कहते हैं। अतएव दर्शपूर्णमास याग की पूर्ति के लिए 'प्रयाज' की प्रवृत्ति होने से प्रयाज को दर्शपूर्णमास का 'अंग' कहा जाता है। 'प्रयाज' की प्रवृत्ति 'स्वतंत्र' नहीं होती है। ये अंग भी दो प्रकार के होते हैं-
#संनिपत्योपकारक
#आरादुपकारक
जो अंग साक्षात या परंपरया प्रधानयाग के शरीर को निष्पन्न कर उसके द्वारा तदुत्पत्त्यपूर्व के उपयोग में आता है, उसे 'संनिपत्योपकारक अंग' कहा जाता है। जैसे ब्रीहि आदि द्रव्य, तत्संयुक्त, अवहनन-प्रोक्षणादि कार्य, [[अग्नि]] आदि [[देवता]], तत्संयुक्त याज्यानुवाक्यावचनादि- ये सब संनिपत्योपकारक अंग हैं।
स्वसंबद्ध अपूर्व के उत्पादक अंगों को 'आरादुपकारक अंग' कहते हैं। जैसे- प्रयाज, अनुयाज, आज्यभाग, आदि। ये आरादुपकारक अंग, '[[द्रव्य]] या देवता' के संस्कारक नहीं हैं, अपितु स्वयं अपने में ही 'अदृष्ट' उत्पन्न करते हैं।
==कर्म==
साधारणतया अर्थकर्म और गुणकर्म के भेद से 'कर्म' के दो प्रकार बताये गये हैं। जो 'कर्म', आत्मगत अपूर्व उत्पन्न करते हैं, उन्हें 'अर्थकर्म' कहते हैं। जैसे- अग्निहोत्रकर्म, दर्शपूर्णमासकर्म, प्रयाजकर्म आदि। जिन कर्मों से [[संस्कार]] उत्पन्न होता है, उन कर्मों को 'गुणकर्म' कहते हैं। यह गुणकर्म भी 'उपयुक्तसंस्कारक' और 'उपयोक्ष्यमाणसंस्कारक' भेद से दो प्रकार का बताया गया है।
'''उपयुक्तसंस्कारक''' कर्म को ही 'प्रतिपत्तिकर्म' कहते हैं। यह प्रतिपत्तिकर्म भी प्रधानयाग के पश्चात, प्रधानयाग के समय और प्रधान-याग के पूर्व होने से तीन प्रकार का होता है।
'''उपयोक्ष्यमाणसंस्कार''' भी अनेक प्रकार का होता है-
#साक्षात् विनियुक्त पदार्थ का संस्कार
#साक्षात विनियुक्त पदार्थ पर उपकार करने वाले पदार्थ का संस्कार
#जिसका विनियोग किया जा रहा है, उसका संस्कार
निष्कर्ष यह है कि 'अर्थकर्म' में द्रव्य की अपेक्षया 'कर्म' का प्राधान्य रहता है, और द्रव्य में गुणत्व रहता है तथा 'गुणकर्म' में द्रव्य की प्रधानता और 'कर्म' की गौणता होती है। 'गुणकर्म' के भी उत्पत्ति, आपत्ति, विकृति और [[संस्कृति]] के भेद से चार प्रकार होते हैं-
#'''अग्नि का आधान''' - उत्पत्ति संस्कार है।
(2)'''स्वाध्यायोऽध्येतव्य:'' '- इस विधि से प्राप्त हुए अध्ययन के द्वारा 'स्वाध्याय' की प्राप्ति होती है, अत: यह 'आप्ति' संस्कार है।
(3)'''व्रीहीन् प्रोक्षति''' - इस विधि के कारण व्रीहियों के तुषों का विमोक होता है, अर्थात तुषविमोकरूप विकार उत्पन्न होता है, उस कारण 'अवहनन'-यह विकृति संस्कार है।
(4)'''व्रीहीन प्रोक्षति''' - इस विधि से विहित 'प्रोक्षण' से 'व्रीहियों' का संस्कार होता है। इसीलिये 'प्रोक्षण' को संस्कृतिरूप गुणकर्म कहा जाता है। उपरि निर्दिष्ट चार उदाहरणों में से 'आधान' और 'अध्ययन' ये दोनों स्वतंत्र गुणकर्म हैं। ये किसी 'क्रतु' के अंग नहीं हैं। किन्तु 'प्रोक्षणादि', क्रत्वंग गुणकर्म हैं। नित्य-नैमित्तिक और काम्य-के भेद से यह अर्थ कर्म भी तीन प्रकार का है।
लौकिक वाक्यों की अपेक्षा [[वैदिक]] वाक्यों में कुछ विशेषता रहती है। लौकिक व्यवहार में किसी को किसी कार्य में प्रवृत्त कराने के लिए कोई अन्य पुरुष प्रवर्तक रहता है। किन्तु '[[वेद]]', अपौरुषेय रहने से वेद के द्वारा प्रवृत्ति कराने में किसी 'पुरुष' की कल्पना नहीं की जा सकती। तथापि विध्यर्थक शब्द से प्रेरणा (प्रवर्तना) तो प्राप्त होती ही है। यह वैदिक प्रेरणा, विध्यर्थक शब्द में ही रहती है। इसीलिये इस प्रेरणा को 'शाब्दी भावना' के नाम से कहा जाता है। प्रेरणारूप शाब्दी भावना के पश्चात् 'प्रवृत्ति' रूप आर्थी भावना होती है। दोनों भावनाओं में साध्य, साधन और इतिकर्तव्यता नामक तीन अंश हुआ करते हैं। यागादिकर्मों का नाम-निर्धारण भी शास्त्रोक्त तत्प्रख्यादि हेतुओं के आधार पर ही किया जाता है। वेद का अर्थवाद भाग, विधेय का प्राशस्त्य बताकर उसके साथ जुड़ जाता है। कहीं-कहीं सन्दिग्ध अर्थ का निर्णय भी कर देता है। [[मन्त्र|मन्त्रों]] को भी दृष्टार्थ माना गया है, किन्तु उनके 'उच्चारण नियम' को अदृष्टार्थ माना जाता है।
निष्कर्ष यह है कि 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:' के अनुसार सृष्टि-रचना, कर्म पर ही आधारित है। 'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:' सफलता सर्वदा कर्म से प्राप्त होती है। मीमांसादर्शन के अनुसार 'जगत् को मिथ्या नहीं माना जाता, अपितु वह सत्य' है। यह दर्शन बाह्यार्थसत्तावादी है।


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06:25, 17 मार्च 2012 का अवतरण

मीमांसा शब्द का अर्थ किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन है। वेद के मुख्यत: दो भाग हैं। प्रथम भाग में 'कर्मकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। द्वितीय भाग में 'ज्ञानकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की निवृत्ति होती है। कर्म तथा ज्ञान के विषय में कर्ममीमांसा और वेदान्त की दृष्टि में अन्तर है। वेदान्त के अनुसार कर्मत्याग के बाद ही आत्मज्ञान संभव है। कर्म तो केवल चित्तशुद्धि का साधन है। मोक्ष की प्राप्ति तो ज्ञान से ही हो सकती है। परन्तु कर्ममीमांसा के अनुसार मुमुक्षुजन को भी कर्म करना चाहिए।

प्रकार

मीमांसा के दो प्रकारों की व्याख्या की गई है-

  1. कर्ममीमांसा
  2. ज्ञानमीमांसा
  • कर्ममीमांसा तथा पूर्वमीमांसा के नाम से अभिहित दर्शन 'मीमांसा' कहा जाता है।
  • ज्ञानमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा के नाम से प्रसिद्ध दर्शन 'वेदान्त' कहलाता है।

मीमांसा दर्शन पूर्णतया वैदिक है। 'मीमांसते' क्रियापद तथा 'मीमांसा' संज्ञापद, दोनों का प्रयोग ब्राह्मण तथा उपनिषद ग्रन्थों में मिलता है। अत: मीमांसा दर्शन का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल से सिद्ध होता है।

मीमांसा दर्शन का विषय

मीमांसा का प्रतिपाद्य विषय धर्म का विवेचन है- 'धर्माख्यं विषयं वस्तु मीमांसाया: प्रयोजनम्'।[1] वेदविहित इष्टसाधन धर्म है और वेदविपरीत अनिष्टसाधन अधर्म है। इस जगत में कर्म ही सर्वेश्रेष्ठ है। कर्म करने से फल अवश्यमेव उत्पन्न होता है। भगवान बादरायण ईश्वर को कर्मफल का दाता मानते हैं, किन्तु मीमांसा दर्शन के आदि आचार्य जैमिनि कर्म को फलदाता मानते हैं। उनके अनुसार यज्ञकर्म से ही तत्तत् फल उत्पन्न होते हैं। मीमांसा दर्शन में 'अपूर्व' नामक सिद्धान्त प्रतिपादित है। कर्म से उत्पन्न होता है फल। इस प्रकार अपूर्व ही कर्म और कर्मफल को बांधने वाली श्रृंखला है। मीमांसा दर्शन वेद को सत्य मानता है।

पूर्वमीमांसा दर्शन में वेद के कर्मकाण्ड भाग पर विचार किया गया है और उत्तरमीमांसा अर्थात् वेदान्तशास्त्र में वेद के ज्ञानकाण्ड भाग पर विचार किया गया है। कर्मकाण्ड भाग पर महर्षि जैमिनि ने विचार किया है और ज्ञानकाण्ड भाग पर महर्षि बादरायण व्यास ने विचार किया है। पूर्वमीमांसा दर्शन में अनुष्ठानोपयोगी धर्म तथा अधर्म का विविध दृष्टिकोणों से विचार किया गया है। सभी को अभीष्ट प्रतीत होने वाले स्वर्गादिफल के साधन को 'धर्म' कहा गया है। अतएव 'याग' आदि को धर्म की कोटी में माना जाता है और कलञ्जादि भक्षण को मरणादि अनिष्टरूप दु:ख का साधन होने से 'अधर्म' माना जाता है।

वेद तथा स्मृति

इन धर्म-अधर्मों का ज्ञान, 'वेद, स्मृति' शिष्टाचार से होता है। मन्त्र तथा ब्राह्मण दोनों को ही 'वेद' शब्द से कहा जाता है- 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्'। मन्त्रों से अनुष्ठानकालीन पदार्थों का स्मरण होता है तथा विधायक वाक्य को 'ब्राह्मण' कहा जाता है। ब्राह्मणवाक्य अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे-

  1. कर्मोत्पत्तिवाक्य
  2. गुणवाक्य
  3. फलवाक्य
  4. फलार्थ गुणवाक्य
  5. सगुण कर्मोत्पत्तिवाक्य

विहित-निषिद्ध कर्मों की नश्वरता को देखकर कालान्तर में मिलने वाले फल के साथ उनके सम्बन्ध को जोड़ने के लिए कर्म और फल के मध्य 'अपूर्व' की कल्पना की गई है। उस अपूर्व के द्वारा ही यागादिकर्मों में स्वर्गफलसाधनता उत्पन्न होती है, यागादिकों में साक्षात स्वर्गफल साधनता नहीं है। इसी 'अपूर्व' को 'फलापूर्व' शब्द से कहा गया है। उस 'फलापूर्व' की उत्पत्ति, 'सर्वांगविशिष्ट प्रधानकर्म' से ही होती है। द्रव्य और देवता दोनों का सम्बन्ध 'याग' के अतिरिक्त अन्य किसी भी क्रिया में सम्भव नहीं है। अतएव 'देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागो याग:' कहकर 'याग' का परिचय दिया जाता है।

  • सम्पूर्ण अंगों के सहित विधि को 'प्रकृति' और समग्र अंगरहित विधि को 'विकृति' कहा गया है। इन दोनों से भिन्न प्रकार की विधि को 'दर्वीहोम' कहा गया है।

विधि के स्वरूप

अपूर्वविधि, नियमविधि, परिसंख्याविधि के भेद से विधि के तीन प्रकार दृष्टिगोचर होते हैं। कर्मों के अंगांगिभाव का बोध छह प्रमाणों से होता है। उन छह प्रमाणों में पूर्व-पूर्व प्रमाण प्रबल माना जाता है। जो परार्थ होता है, उसे 'अंग' कहते हैं। अतएव दर्शपूर्णमास याग की पूर्ति के लिए 'प्रयाज' की प्रवृत्ति होने से प्रयाज को दर्शपूर्णमास का 'अंग' कहा जाता है। 'प्रयाज' की प्रवृत्ति 'स्वतंत्र' नहीं होती है। ये अंग भी दो प्रकार के होते हैं-

  1. संनिपत्योपकारक
  2. आरादुपकारक

जो अंग साक्षात या परंपरया प्रधानयाग के शरीर को निष्पन्न कर उसके द्वारा तदुत्पत्त्यपूर्व के उपयोग में आता है, उसे 'संनिपत्योपकारक अंग' कहा जाता है। जैसे ब्रीहि आदि द्रव्य, तत्संयुक्त, अवहनन-प्रोक्षणादि कार्य, अग्नि आदि देवता, तत्संयुक्त याज्यानुवाक्यावचनादि- ये सब संनिपत्योपकारक अंग हैं।

स्वसंबद्ध अपूर्व के उत्पादक अंगों को 'आरादुपकारक अंग' कहते हैं। जैसे- प्रयाज, अनुयाज, आज्यभाग, आदि। ये आरादुपकारक अंग, 'द्रव्य या देवता' के संस्कारक नहीं हैं, अपितु स्वयं अपने में ही 'अदृष्ट' उत्पन्न करते हैं।

कर्म

साधारणतया अर्थकर्म और गुणकर्म के भेद से 'कर्म' के दो प्रकार बताये गये हैं। जो 'कर्म', आत्मगत अपूर्व उत्पन्न करते हैं, उन्हें 'अर्थकर्म' कहते हैं। जैसे- अग्निहोत्रकर्म, दर्शपूर्णमासकर्म, प्रयाजकर्म आदि। जिन कर्मों से संस्कार उत्पन्न होता है, उन कर्मों को 'गुणकर्म' कहते हैं। यह गुणकर्म भी 'उपयुक्तसंस्कारक' और 'उपयोक्ष्यमाणसंस्कारक' भेद से दो प्रकार का बताया गया है।

उपयुक्तसंस्कारक कर्म को ही 'प्रतिपत्तिकर्म' कहते हैं। यह प्रतिपत्तिकर्म भी प्रधानयाग के पश्चात, प्रधानयाग के समय और प्रधान-याग के पूर्व होने से तीन प्रकार का होता है।

उपयोक्ष्यमाणसंस्कार भी अनेक प्रकार का होता है-

  1. साक्षात् विनियुक्त पदार्थ का संस्कार
  2. साक्षात विनियुक्त पदार्थ पर उपकार करने वाले पदार्थ का संस्कार
  3. जिसका विनियोग किया जा रहा है, उसका संस्कार

निष्कर्ष यह है कि 'अर्थकर्म' में द्रव्य की अपेक्षया 'कर्म' का प्राधान्य रहता है, और द्रव्य में गुणत्व रहता है तथा 'गुणकर्म' में द्रव्य की प्रधानता और 'कर्म' की गौणता होती है। 'गुणकर्म' के भी उत्पत्ति, आपत्ति, विकृति और संस्कृति के भेद से चार प्रकार होते हैं-

  1. अग्नि का आधान - उत्पत्ति संस्कार है।

(2)'स्वाध्यायोऽध्येतव्य: '- इस विधि से प्राप्त हुए अध्ययन के द्वारा 'स्वाध्याय' की प्राप्ति होती है, अत: यह 'आप्ति' संस्कार है। (3)व्रीहीन् प्रोक्षति - इस विधि के कारण व्रीहियों के तुषों का विमोक होता है, अर्थात तुषविमोकरूप विकार उत्पन्न होता है, उस कारण 'अवहनन'-यह विकृति संस्कार है। (4)व्रीहीन प्रोक्षति - इस विधि से विहित 'प्रोक्षण' से 'व्रीहियों' का संस्कार होता है। इसीलिये 'प्रोक्षण' को संस्कृतिरूप गुणकर्म कहा जाता है। उपरि निर्दिष्ट चार उदाहरणों में से 'आधान' और 'अध्ययन' ये दोनों स्वतंत्र गुणकर्म हैं। ये किसी 'क्रतु' के अंग नहीं हैं। किन्तु 'प्रोक्षणादि', क्रत्वंग गुणकर्म हैं। नित्य-नैमित्तिक और काम्य-के भेद से यह अर्थ कर्म भी तीन प्रकार का है।

लौकिक वाक्यों की अपेक्षा वैदिक वाक्यों में कुछ विशेषता रहती है। लौकिक व्यवहार में किसी को किसी कार्य में प्रवृत्त कराने के लिए कोई अन्य पुरुष प्रवर्तक रहता है। किन्तु 'वेद', अपौरुषेय रहने से वेद के द्वारा प्रवृत्ति कराने में किसी 'पुरुष' की कल्पना नहीं की जा सकती। तथापि विध्यर्थक शब्द से प्रेरणा (प्रवर्तना) तो प्राप्त होती ही है। यह वैदिक प्रेरणा, विध्यर्थक शब्द में ही रहती है। इसीलिये इस प्रेरणा को 'शाब्दी भावना' के नाम से कहा जाता है। प्रेरणारूप शाब्दी भावना के पश्चात् 'प्रवृत्ति' रूप आर्थी भावना होती है। दोनों भावनाओं में साध्य, साधन और इतिकर्तव्यता नामक तीन अंश हुआ करते हैं। यागादिकर्मों का नाम-निर्धारण भी शास्त्रोक्त तत्प्रख्यादि हेतुओं के आधार पर ही किया जाता है। वेद का अर्थवाद भाग, विधेय का प्राशस्त्य बताकर उसके साथ जुड़ जाता है। कहीं-कहीं सन्दिग्ध अर्थ का निर्णय भी कर देता है। मन्त्रों को भी दृष्टार्थ माना गया है, किन्तु उनके 'उच्चारण नियम' को अदृष्टार्थ माना जाता है।

निष्कर्ष यह है कि 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:' के अनुसार सृष्टि-रचना, कर्म पर ही आधारित है। 'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:' सफलता सर्वदा कर्म से प्राप्त होती है। मीमांसादर्शन के अनुसार 'जगत् को मिथ्या नहीं माना जाता, अपितु वह सत्य' है। यह दर्शन बाह्यार्थसत्तावादी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्लोकवार्तिक, श्लोक 11

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