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! घनत्व
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|+ पदार्थों का घनत्व
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! पदार्थ
! अवस्था
! ताप
! दाब
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| जल (वाष्प)
| गैस
| 100° सेंटीग्रेड
| 760 मिलीमीटर
| 5.81' 10-4
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| वायु
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| जल (शुद्ध)
| द्रव
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| 760 मिलीमीटर
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| लकड़ी (सूखी)
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| काग़ज़
| ठोस
| 20° सेंटीग्रेड
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| बर्फ़
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| 0° सेंटीग्रेड
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| स्टील
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| ताँबा
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! अन्य
! ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर
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| नाभिक
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| 22.8
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| पृथ्वी (औसत)
| 5.517
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| चंद्रमा (औसत)
| 3.341
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| सूर्य (औसत)
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==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://helpebook.wetpaint.com/page/Eye+Injuries+-+%E0%A4%86%E0%A4%81%E0%A4%96+%E0%A4%95%E0%A5%80+%E0%A4%9A%E0%A5%8B%E0%A4%9F]
*[http://helpebook.wetpaint.com/page/Eye+Injuries+-+%E0%A4%86%E0%A4%81%E0%A4%96+%E0%A4%95%E0%A5%80+%E0%A4%9A%E0%A5%8B%E0%A4%9F]

09:40, 5 मई 2011 का अवतरण

घनत्व
पदार्थों का घनत्व
पदार्थ अवस्था ताप दाब घनत्व (ग्राम प्रति घन सेंमी.)
जल (वाष्प) गैस 100° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 5.81' 10-4
वायु गैस 37° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 1.93' 10-3
जल (शुद्ध) द्रव 4° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 0.999
जल (समुद्री) द्रव 0° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 1.03 to 1.07
लकड़ी (सूखी) ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 0.4-0.8
काग़ज़ ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 0.7-1.15
बर्फ़ ठोस 0° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 0.917
शीशा (साधारण) ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 2.4-2.8
कार्क ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 0.22 to 0.26
स्टील ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 6.9-8.9
ऐल्यूमिनियम ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 2.64-2.82
ताँबा ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 8.96
पीतल ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 8.67-8.80
चाँदी ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 10.5
पारा ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 13.546
सोना ठोस 20° सेंटीग्रेड 760 मिलीमीटर 19.3
अन्य ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर
नाभिक 2*1014
सबसे अधिक घना तत्व ठोस ऑसमियम 22.8
पृथ्वी (औसत) 5.517
चंद्रमा (औसत) 3.341
सूर्य (औसत) 1.41



बाहरी कड़ियाँ


कठपुतली

यूरोप में अनेक नाटकों की भाँति कठपुतलियों के नाटक भी होते हैं। विशेषत: फ्रांस में तो इस खेल के लिए स्थायी रंगमंच भी बने हुए हैं जहाँ नियमित रूप से इनके खेल खेले जाते हैं। वे चलती हैं, नाचती हैं और प्रत्येक काम ऐसी सफाई से करती हैं मानों वे सजीव हों। यह तनिक भी नहीं जान पड़ता कि ये डोर द्वारा चलाई जा रही हैं। इन कठपुतलियों से जो मंतव्य प्रकट कराना है उसको परदे के पीछे हुए छिपे हुए आदमी माइक्रोफ़ोन द्वारा इस खूबी से कहते हैं मानों ये गुडियाँ अपने आप ही बोल रही हों। चलनेवाली डोर बहुत पतली और काली होती है, पृष्ठभूमि का परदा भी काला रहता है, इसलिए डोर दिखलाई नहीं पड़ती। एक व्यक्ति साधारणत: छह डोरें चलाता है (द्र. चित्र ४)। अधिक से अधिक वह आठ चला सकता है। जब रंगमंच पर कठपुतलियों की संख्या अधिक होती है तब उनको चलाने के लिए कई व्यक्ति रहते हैं (द्र. चित्र ५)।

कठपुतलियाँ चार प्रकार की होती हैं। एक ऐसी जिनको हाथ से पहनकर चलाया जाता है। ये भीतर से खोखली होती हैं जिसमें चलानेववला अपना हाथ उनके भीतर डाल सके और अपनी अँगुलियों से कठपुतली का सिर तथा हाथ हिला सके (द्र. चित्र १.)। भारत में अधिकतर ऐसी ही कठपुतलियाँ होती हैं। राजस्थान के पेशेवर कठपुतली चलानेवाले खुले स्थान में बच्चों के सामने ही खड़े होकर उनको चलाते हैं और बोलते भी जाते हैं। परंतु यूरोप में इनके लिए भी रंगमंच होता है। चलानेवाले इन कठपुतलियों को अपने सिर से ऊँचा उठाकर नचाते हैं और रंगमंच का फर्श बहुत नीचा होने के कारण वे स्वयं दिखाई नहीं पड़ते। ऐसा जान पड़ता है कि कठपुतलियाँ आप ही चल फिर और बोल रही हैं (द्र. चित्र २.)

१. सिरवाली डोर के चिपकाने का स्थान; सिर (इसके लिए पिंग पांग की गेंद प्रयुक्त की जा सकती है); ३. नाक के लिए दियासलाई की तीली; ४. गले के लिए काठ का टुकड़ा; ५. गोल अँकुड़ा; ६. कपड़े की बनी ऊपरी बाँह; ७. कील; ८. फीते का टुकड़ा; ९. पाँव की रचना (काट बड़ी करके दिखाई है)।

दूसरे प्रकार की कठपुतलियाँ, जो यूरोप में बहुत प्रचलित हैं, डोर द्वारा नचाई जाती हैं। कठपुतली नाचनेवाले रंगमंच से बहुत ऊपर दर्शकों से छिपकर बैठते हैं और उनके कठपुतलियों की डोरें रहती हैं जिनसे वे रंगमंच पर लटकी रहती हैं। एक कठपुतली में कई डोरें बंधी रहती हैं, जिनके द्वारा उनके सिर, हाथ, पैर हिलाए जा सकते हैं। कठपुतलियों की इन छोटी-मोटी नाट्यशालाओं में संपूर्ण नाटक अभिनीत होते हैं और स्त्री, पुरुष और पशु सभी काम करते हैं। वे नाचते हैं, गाते हैं, घोड़ा चलाते हैं, मोटर चलाते हैं, तात्पर्य यह कि प्रत्येक काम, जो मनुष्य कर सकता हैं, ये भी कर सकते हैं। बच्चे बूढ़े सभी उनके नाटकों से बहुत प्रसन्न होते हैं।

१. नियंत्रण के लिए पट्ट।

तीसरे प्रकार की कठपुतलियाँ डोर से नहीं वरन्‌ तीलियों से चलाई जाती हैं। डोरीवाली कठपुतलियाँ ऊपर से नीचे लटकाई जाती हैं, तीलीवाली कठपुतलियाँ नीचे से ऊपर उठाई जाती हैं। चलानेवालों के लिए बना बहुत नीचा होता है जिससे वे दिखाई न दें। ऐसी कठपुत्तलियाँ चीन तथा जापान में अधिक प्रचलित हैं।

चौथे प्रकार की कठपुतलियाँ छायारूपकों में काम आती हैं। ये गत्ते (कार्डबोर्ड) से काटकर बनाई जाती हैं, इसलिए चिपटी होती हैं। ये भी तीलियों द्वारा नचाई जाती हैं। इनका नाच एक सफेद परदे के पीछे होता है जिसपर पीछे से प्रकाश डाला जाता है। कठपुतलियाँ प्रकाश और परदे की बीच में रहती हैं और उनकी परछाइयाँ परदे पर पड़ती हैं। सामने बैठे हुए लोग यह छायानाटक देखते हैं। यद्यपि छायानाटक में केवल परछाइयाँ काम करती हैं तथापि यह बड़ा प्रभावशाली होता है। इसमें बोलनेवालों के संलाप कला की दृष्टि से बहुत उच्च स्तर के हाते हैं।

यूरोप में एक अन्य विधि भी कठपुतली के खेलों में जहाँ-तहाँ प्रयुक्त होती है-चुंबक की विधि। चुंबक के संयोग से पुतलियाँ अपने आप संचालित भावावेगों को प्रकट करती हुई, चलती-फिरती नाचती जाती हैं। इसमें सूत्रधार की अपेक्षा नहीं होती।

पुत्तलिकाओं के रागविन्यास, हाव भाव, कथोपकथन आदि प्रकट करने के लिए पृष्ठभूमि में रहकर सूत्रधार सूत्रों अथवा लकड़ियों (तीलियों) द्वारा उनका संचालन करते हैं। पुतलियों के परस्पर स्नेह, संघर्ष, वादविवाद आदि सूत्रधार ही ध्वनित करते हैं। जहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष के लिए सूत्रधार नहीं होते, वहाँ एक ही व्यक्ति अपना स्वर बदलकर दोनों पक्षों का कार्य संपन्न करता है, जो स्वाभाविक ही बड़े अभ्यास और कौशल द्वारा ही संपादित हो सकता है।

व्यक्ति एक साथ काम करते हैं।

भारतीय कठपुतलियों का यूरोपीय कठपुतलियों की अपेक्षा बहुत अधिक प्राचीन इतिहास है, किंतु संचालनतंत्र की दृष्टि से वे यूरोपीय कठपुतलयों की तुलना में प्राथमिक और सरल हैं। भारत में कठपुतलियों के खेल का सबसे प्राणवंत और वैविध्यपूर्ण प्रदर्शन राजस्थानी नट ही करते हैं। वे स्वयं चलते-फिरते रंचमंच हैं और देश के विभिन्न प्रांतों में घूमकर अपने खेलों का प्रदर्शन करते हैं।

इतिहास-कठपुतलियों का यह खेल कलाओं की उन विधाओं में से है जिन्होंने अन्य कलाओं को जन्म भी दिया है और जो स्वयं भी समानांतर रूप से जीवित रहती हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि नाटक का आरंभ कठपुतली के खेल से ही हुआ। डा. पिशेल इन विद्वानों में अग्रणी हैं और उनका विचार है कि कठपुतली के खेल की उत्पत्ति भारत में ही हुई जहाँ से वह बाद में पाश्चात्य देशों में फैला। अपने 'थ्येरी ऑव पपेट शो' में उन्होंने संस्कृत नाटक की आदि उत्पत्ति इसी खेल से मानी है। इसमें संदेह नहीं कि नर्तन और गायन के अतिरिक्त कठपुतलियों का प्रधान कार्य कथोपकथन अथवा 'डायलाग' प्रस्तुत करना है। नाटकों का केंद्र अथवा प्रधान पक्ष भी 'डायलाग' द्वारा ही संपन्न होता है जिससे उनका आदि रूप 'डायलाग' ही माना गया है। ऋग्वेद में सरमा और पणियों, यम और यमी, पुरूरवा और उर्वशी, इंद्र और शची, वृषाकपि और इंद्राणी के संवाद इसी प्रकार के डायलाग हैं जो प्राथमिक नाट्यभूमि प्रस्तुत करते हैं। कुछ आश्चर्य नहीं यदि कठपुतली का खेल वेदों का समकालीन रहा हो। उसके आदिम रंगमंच पर भी इसी प्रकार के अथवा इन्हीं डायलागों की पहले अभिव्यक्ति हुई होगी। पुत्तलिका शब्द का प्रयोग निस्संदेह अत्यंत प्राचीन है क्योंकि वेदों में भी इसका उपयोग हुआ है। अथर्ववेद में शत्रु का पुतला बनाकर मंत्र द्वारा जलाने और इस विधि से परुश्चरण कर उसका विनाश संपन्न करने का उल्लेख हुआ है और ऋग्वेद में इंद्राणी का अपनी सपत्नी का 'उपनिषत्सपत्नीवाधनम्‌' मंत्र द्वारा मारक प्रसंग भी इसी दिशा में संकेत करता है। मध्यकाल की सिंहासनबत्तीसी और सिंहासनपचीसी की पुतलियों का प्रश्न करना कठपुतली के खेल से, अपनी अलौकिक क्षमता के बावजूद, बहुत दूर नहीं है। संस्कृत के प्रसिद्ध समीक्षक, नाटककार और कवि राजशेखर ने सीता की नाचती और कथोपकथन करती पुत्तलिका का उल्लेख किया है जिससे प्रकट है कि कठपुतली का खेल केवल लोकसम्मत ही नहीं था बल्कि उसका साहित्य में भी प्रसंगत: वर्णन प्राय: हुआ करता था। आज भी वह खेल समूचे देश में पूर्ववत्‌ लोकप्रिय है।

कुछ पाश्चात्य विद्वानों का यह मत है कि कठपुतली के खेल का समारंभ संभवत: यूरोप में ही हुआ जहाँ से पहले वह चीन और वहाँ से बेयरिंग स्ट्रेट की राह अमरीका पहुँचा। अमरीकी इंडियनों में निस्संदेह कोलंबस के वहाँ पहुँचने से पूर्व ही यह खेल प्रचलित था। इसमें संदेह नहीं कि प्राय: ३०० ई.पू. के लगभग ग्रीक साहित्य में सूत्र द्वारा संचालित पुतलियों का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष उल्लेख हुआ है। पहली सदी ई. के आसपास के ग्रीस और इटली के बच्चों की समाधियों में भी डोरियों से संचालित पुतलियों के नमूने मिले हैं। कठपुतली का खेल पश्चिम में मूलत: आविष्कृत होकर पीछे पूर्व के देशों में गया अथवा पूर्व के देशों में आविष्कृत होकर यूरोपीय देशों में गया-यह प्रसंग निश्चित ही विवादास्पद है, पर इसमें संदेह नहीं कि कम से कम कठपुतलियों का यह खेल, जिसे अंग्रेजी में 'पपेट शैडो प्ले' कहते हैं, उसका आरंभ एशिया में ही हुआ जहाँ से वह यूरोप और अमरीका पहुँचा। १७वीं सदी से जिन छायाचित्रों के प्रदर्शन में कठपुतलियों का उपयोग होने लगा, वह इसी सांस्कृतिक संक्रमण का परिणाम था। जहाँ तक सूत्रसंचालित पुत्तलिकाओं का नाटक से संबंध है, यह प्राय: निर्विवाद है कि वह प्रसंग जितना भारतीय वातावरण द्वारा प्रमाणित है, उतना और कहीं नहीं। संस्कृत नाटकों के आरंभ में जिन 'सूत्रधार' और 'स्थापक' नामक दो पात्रों का उपयोग होता है, वे निस्संदेह कठपुतली के खेल से भी प्रथमत: संबंधित रहे थे। सूत्रधार का अर्थ है डोरी को पकड़नेवाला, डोरियों द्वारा पुतलियों का संचालन करनेवाला, स्थापक उसका सहायक होता था जो पुतलियों और आनुषंगिक वस्तुओं को मंच पर प्रस्तुत करता था। इन दोनों पात्रों का कठपुतली के खेल और संस्कृत नाटक में एकश: प्रयोग, दोनों ही, रंगभूमि की एकता को प्रमाणित करते हैं।

यूरोप के मध्यकालीन धार्मिक नाटकों का भी कठपुतली के खेल से घना संबंध था। धार्मिक नाटकों को सूत्रों द्वारा संचालित कठपुतलियों के माध्यम से ही प्रस्तुत किया जाता था। इन पुत्तलिका-नाटकों को फ्ऱेच में 'मारियोनेत' (ग्aद्धत्दृदड्ढद्यद्यड्ढद्म) कहते थे, क्योंकि उसमें ईसा की माता कुमारी मेरी की भी एक कठपुतली के रूप में भूमिका हुआ करती थी। 'मारियोनेत' का अर्थ ही है 'नन्हीं मेरी'।

मध्यपूर्व के इस्लामी देशों में मूर्तियों का विरोध होने के कारण कठपुतलियों की छाया आकृतियों के खेल बड़े लोकप्रिय हुए और वे उस अभाव की भी पूर्ति कर लिया करते थे। उनसे पूर्व रोमनों ने तो कुठपुतलियों के खेल के लिए अपना रंगमंच ही साजा था जो रोमन साम्राज्य के पतन के बाद भी अपनी अनेक परंपराओं के साथ सदियों जीवित रहा। इटली के पुनर्जागरण काल में कठपुतलियों का जो खेल फिर लोकप्रिय हुआ उसकी संज्ञा 'पोर्चिनेला' (घ्दृद्धड़त्दड्ढथ्थ्a) थी जिसे फ्रांस में 'पोर्चिनेल' कहते थे। फ्रांस से वह खेल १६६० ई. के लगभग इंग्लैंड पहुँचा और वहाँ उसकी संज्ञा सक्षिप्त होकर 'पंच' रह गई। अंग्रेजी का जगद्विख्यात कार्टूनपत्र 'पंच' का नामकरण उसी का परिणाम था।

यूरोप में तो यह रंगमंच इतना लोकप्रिय हुआ कि उसे लिए महान्‌ नाटककारों ने वहाँ खेले जाने के लिए स्वतंत्र नाटक लिखे। इस प्रकार एक नाटक स्वयं गेटे ने अपने १२वें जन्मदिन पर लिखा था। इसी प्रकार लेविस कैरो, हांस क्रिश्चियन हैंडर्सन और लिंकन ने कठपुतली नंगमंचों के लिए अपने-अपने नाटक लिखे। लंदन में कठपुतली कला के जितने लेखक हैं, उतने कम देशों में हैं। पेरिस में जो स्थायी रंगमंच हैं उनमें कठपुतलियों के नाटक बड़ी सफलता से खेले जाते हैं और उनमें दर्शकों की भीड़ भी खासी हुआ करती है। व्यंग्य नाटककार लमसिए द नविल के नाटक इस दिशा में बड़ी संख्या में दर्शकों को आकृष्ट करते हैं और वहाँ के अन्य कठपुतलियों संबंधी रंगमंच, थियात्र औरकैबरे भी, असाधारण रूप से इन खेलों को प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। जर्मनों के ड्रेसडन नगर में कठपुतलियों का एक बड़ संग्रहालय भी है और चेकोस्लोवाकिया के प्राग नगर में कठपुतली-प्रशिक्षण-केंद्र भी हें जहाँ विश्व भर से आए हुए छात्रों को तीन वर्ष के कोर्स के अनुसार कठपुतली कला की सैद्धांतिक और व्यावहारिक शिक्षा दी जाती है। यूरोप में कठपुतली कला में निरंतर प्रयोग हो रहे हैं और यह आज वहाँ की सूक्ष्म और प्राणवान्‌ कलाओं में मानी जाती हैं। (भ.श.उ.)