"सत्यजित राय": अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
==प्रथम दस वर्षों में से शेष वर्ष== | ==प्रथम दस वर्षों में से शेष वर्ष== | ||
पाथेर पांचाली तीनों फिल्मों में से सर्वाधिक मुखर और सार्वभौम ‘प से आकर्षक है, लेकिन अपुर संसार अपनी अधिक निजी, रूमानी लेकिन नियंत्रित भावना, अपनी दोषरहित संरचना और कुशल शिल्प के कारण त्रयी के तीसरे खंड के निर्माण से पूर्व '''पारस पत्थर''' और '''जलसा घर''' नाम की दो फिल्में बनाईं, जिन्होंने उनके शिल्प को काफी निखारा था। अपनी पूरी कामेडी के साथ '''पारस पथर''' तत्कालीन शहरी जीवन में राज की पहली दखलंदाजी है। क्लर्क परेश बाबू की उनकी समझ इतनी पूर्ण और साहित्यिक रूढ़ चरित्रों में से इतनी पूर्णता के साथ बनी है जितनी कि त्रयी के चरित्रों के बारते में। | पाथेर पांचाली तीनों फिल्मों में से सर्वाधिक मुखर और सार्वभौम ‘प से आकर्षक है, लेकिन अपुर संसार अपनी अधिक निजी, रूमानी लेकिन नियंत्रित भावना, अपनी दोषरहित संरचना और कुशल शिल्प के कारण त्रयी के तीसरे खंड के निर्माण से पूर्व '''पारस पत्थर''' और '''जलसा घर''' नाम की दो फिल्में बनाईं, जिन्होंने उनके शिल्प को काफी निखारा था। अपनी पूरी कामेडी के साथ '''पारस पथर''' तत्कालीन शहरी जीवन में राज की पहली दखलंदाजी है। क्लर्क परेश बाबू की उनकी समझ इतनी पूर्ण और साहित्यिक रूढ़ चरित्रों में से इतनी पूर्णता के साथ बनी है जितनी कि त्रयी के चरित्रों के बारते में। | ||
; | ;जलसा घर (1958) | ||
वास्तविक मार्मिकता का खूबसूरत आह्वान। फिल्म दोनों ही काम करती है, उनकी क्षमताओं का विकास करती है और उन्हें उनकी पहली दो फिल्मों के नव यथार्थवादी दायरों से बाहर भी ले जाती है। जलसा घर यथार्थ परक मुख्यत: लोकेशन शाट वाली तथा गैर पेशेवरों द्वारा अभिनीत फिल्म है। जलसा घर में उन्होंने स्टूडियों के परिवेश को अधिक महत्व दिया और बंगाली सिनेमा की एक बड़ी हस्ती छवि विश्वास को निर्देशित किया। यहाँ वे विश्रांति और नव यथार्थवाद की मान्यताओं को छोड़कर वैयक्तिक चरित्र और परिस्थिति के प्रति उनके सम्मोहन के अधिक निकट आए। जलसा घर और पारस पत्थर दोनों में अपनी पहली दो फिल्मों के विपरीत सत्यजीत राय अधिकाधिक संभावित भिन्न-भिन्न वस्तुओं को साधने की कोशिश करते हैं। वह निर्धनता के शोकाकुल नव यथार्थवादी इतिहासकार के रूप में स्वयं को रूढ़ करने से इंकार कर देते हैं। फिर भी जलसा घर उसी तरह से सामाजिक परिवर्तन की एक कहानी है जैसे कि त्रयी की पहली दो फिल्में हैं, और एक निर्धन व्यक्ति की तरह ही पारस पत्थर का क्लर्क भी हमारी सहानुभूति जीत लेता है। | वास्तविक मार्मिकता का खूबसूरत आह्वान। फिल्म दोनों ही काम करती है, उनकी क्षमताओं का विकास करती है और उन्हें उनकी पहली दो फिल्मों के नव यथार्थवादी दायरों से बाहर भी ले जाती है। जलसा घर यथार्थ परक मुख्यत: लोकेशन शाट वाली तथा गैर पेशेवरों द्वारा अभिनीत फिल्म है। जलसा घर में उन्होंने स्टूडियों के परिवेश को अधिक महत्व दिया और बंगाली सिनेमा की एक बड़ी हस्ती छवि विश्वास को निर्देशित किया। यहाँ वे विश्रांति और नव यथार्थवाद की मान्यताओं को छोड़कर वैयक्तिक चरित्र और परिस्थिति के प्रति उनके सम्मोहन के अधिक निकट आए। जलसा घर और पारस पत्थर दोनों में अपनी पहली दो फिल्मों के विपरीत सत्यजीत राय अधिकाधिक संभावित भिन्न-भिन्न वस्तुओं को साधने की कोशिश करते हैं। वह निर्धनता के शोकाकुल नव यथार्थवादी इतिहासकार के रूप में स्वयं को रूढ़ करने से इंकार कर देते हैं। फिर भी जलसा घर उसी तरह से सामाजिक परिवर्तन की एक कहानी है जैसे कि त्रयी की पहली दो फिल्में हैं, और एक निर्धन व्यक्ति की तरह ही पारस पत्थर का क्लर्क भी हमारी सहानुभूति जीत लेता है। | ||
;देवी | ;देवी | ||
पंक्ति 42: | पंक्ति 42: | ||
;चारुलता के बाद का काल | ;चारुलता के बाद का काल | ||
कापुरुष उन पूर्व फिल्मों की कमजोर पुनरावृत्ति है जिनका अंत अपनी स्वतंत्रता की खोज में बाधित और आहत तथा अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान औरत द्वारा अपने स्वच्छंदतावादी प्रेमी के अस्वीकार में होता है। नयी उभरती औरत की विषयवस्तु वाली श्रृंखला के एक भाग के रूप में ही कापुरुष का महत्व निहित है। महानगर में वह अपनी आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करती है और उसे बनाए रखने का प्रयास करती है, चारुलता में वह प्रेम का अधिकार प्राप्त करती है, कापुरुष इन दोनों को प्राप्त करने में उसकी असफलता को उजागर करती है। कापुरुष के लगभग कटुतापूर्ण अंत के बाद भी महापुरुष (फिल्म के दूसरे भाग की कहानी) की अधमनी और अनुपयुक्त खर मस्ती को स्वीकार करना कठिन है। सत्यजीत राय का व्यंग्य हमेशा प्रभावकारी होता है लेकिन उनकी विनोदप्रियता में उनके पिता की उस प्रतिभा का अभाव दिखता है जिसमें वे मौज मस्ती और मूर्खता, असंगति, कटुता और विद्रूपता का आनंददायी मिश्रण तैयार कर दिया करते थे। सत्यजीत राय का हास्य टैगोर के अपेक्षाकृत साहित्यिक और दिखावटी हास्य के अधिक नजदीक है जो आत्मसजगता की बाधाओं को पार करने में हमेशा असफल रहता है। सहज ऊष्म अट्टहास और उदासी मिला हुआ संयोगात्मक परिस्थितिजन्य हास्य, जैसा कि पारस पत्थर या समाप्ति में है, उनके काम में सहजता से आता है। लेकिन जब कभी भी वे प्रहसन शैली में अभिनय के स्तर पर हास्य पैदा करने की कोशिश करते हैं तो परिणाम एक बेतुकेपन और बचकानी समानता के रूप में सामने आता है- पारस पत्थर में तेज गति (एक्शन) के दौरान नौकर का बार-बार कपड़े बदलना, समाप्ति में भावी दूल्हे का खांस कर भोजन को दादा के गंजे सर पर गिराना इसी के उदाहरण हैं। महापुरुष में वे राजशेखर बोस, राय के पिता के अलावा बंगाल के एक अन्य महान् हास्य लेखक, के शानदार मौखिक प्रहसन के समकक्ष आने मे असफल रहते हैं। राजशेखर बोस वितंडा और वास्तविकता या भारी भरकम और पतले दुबले के बीच एक मायावी विरोधाभास रच सकते थे तथा साथ ही इसमें व्यंग्य और तीखा हास्य भी सहजता से मिला सकते थे। राय इस गुण की बराबरी कभी नहीं कर सके। प्राय: राय की फिल्म अपने साहित्यिक मूल पाठों के सुधार के रूप में ही सामने आई। टैगोर, विभूति भूषण या तारा शंकर जैसे लेखकों की रचनाओं के साथ भी यही था लेकिन राजशेखर बोस के मामले में, विशेष तौर पर महापुरुष जैसी प्रत्यक्ष और प्रभावी ठहाकेदार कहानी में, राय को अपने वाटर लू का सामना करना पड़ता है। महापुरष दरअसल उस ढलान की शुरुआत है जो चिड़ियाखाना (1967) तक पहुंचती है यानी शानदार और उत्कृष्ट फिल्मों की एक श्रृंखला के बाद भावनात्मक थकान का दौर। यह ऐसा था मानो उनके पास कहने को अब कुछ न रहा हो, एक पुराने फिल्मी गीत में जो जासूसी कहानी में सूत्र के रूप में प्रयुक्त हुआ है, वाले कुछ आकर्षक दृश्य के अलावा चिड़ियाखाना को किसी भी पहलू से राय की फिल्म के रूप में पहचानना कठिन है। | कापुरुष उन पूर्व फिल्मों की कमजोर पुनरावृत्ति है जिनका अंत अपनी स्वतंत्रता की खोज में बाधित और आहत तथा अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान औरत द्वारा अपने स्वच्छंदतावादी प्रेमी के अस्वीकार में होता है। नयी उभरती औरत की विषयवस्तु वाली श्रृंखला के एक भाग के रूप में ही कापुरुष का महत्व निहित है। महानगर में वह अपनी आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करती है और उसे बनाए रखने का प्रयास करती है, चारुलता में वह प्रेम का अधिकार प्राप्त करती है, कापुरुष इन दोनों को प्राप्त करने में उसकी असफलता को उजागर करती है। कापुरुष के लगभग कटुतापूर्ण अंत के बाद भी महापुरुष (फिल्म के दूसरे भाग की कहानी) की अधमनी और अनुपयुक्त खर मस्ती को स्वीकार करना कठिन है। सत्यजीत राय का व्यंग्य हमेशा प्रभावकारी होता है लेकिन उनकी विनोदप्रियता में उनके पिता की उस प्रतिभा का अभाव दिखता है जिसमें वे मौज मस्ती और मूर्खता, असंगति, कटुता और विद्रूपता का आनंददायी मिश्रण तैयार कर दिया करते थे। सत्यजीत राय का हास्य टैगोर के अपेक्षाकृत साहित्यिक और दिखावटी हास्य के अधिक नजदीक है जो आत्मसजगता की बाधाओं को पार करने में हमेशा असफल रहता है। सहज ऊष्म अट्टहास और उदासी मिला हुआ संयोगात्मक परिस्थितिजन्य हास्य, जैसा कि पारस पत्थर या समाप्ति में है, उनके काम में सहजता से आता है। लेकिन जब कभी भी वे प्रहसन शैली में अभिनय के स्तर पर हास्य पैदा करने की कोशिश करते हैं तो परिणाम एक बेतुकेपन और बचकानी समानता के रूप में सामने आता है- पारस पत्थर में तेज गति (एक्शन) के दौरान नौकर का बार-बार कपड़े बदलना, समाप्ति में भावी दूल्हे का खांस कर भोजन को दादा के गंजे सर पर गिराना इसी के उदाहरण हैं। महापुरुष में वे राजशेखर बोस, राय के पिता के अलावा बंगाल के एक अन्य महान् हास्य लेखक, के शानदार मौखिक प्रहसन के समकक्ष आने मे असफल रहते हैं। राजशेखर बोस वितंडा और वास्तविकता या भारी भरकम और पतले दुबले के बीच एक मायावी विरोधाभास रच सकते थे तथा साथ ही इसमें व्यंग्य और तीखा हास्य भी सहजता से मिला सकते थे। राय इस गुण की बराबरी कभी नहीं कर सके। प्राय: राय की फिल्म अपने साहित्यिक मूल पाठों के सुधार के रूप में ही सामने आई। टैगोर, विभूति भूषण या तारा शंकर जैसे लेखकों की रचनाओं के साथ भी यही था लेकिन राजशेखर बोस के मामले में, विशेष तौर पर महापुरुष जैसी प्रत्यक्ष और प्रभावी ठहाकेदार कहानी में, राय को अपने वाटर लू का सामना करना पड़ता है। महापुरष दरअसल उस ढलान की शुरुआत है जो चिड़ियाखाना (1967) तक पहुंचती है यानी शानदार और उत्कृष्ट फिल्मों की एक श्रृंखला के बाद भावनात्मक थकान का दौर। यह ऐसा था मानो उनके पास कहने को अब कुछ न रहा हो, एक पुराने फिल्मी गीत में जो जासूसी कहानी में सूत्र के रूप में प्रयुक्त हुआ है, वाले कुछ आकर्षक दृश्य के अलावा चिड़ियाखाना को किसी भी पहलू से राय की फिल्म के रूप में पहचानना कठिन है। | ||
==फ़िल्म कृतियों का सजीव वर्णन== | |||
अपनी कार्य यात्रा के अधोबिंदु तक पहुंचने से पूर्व सत्यजीत राय ने नायक (1966) का निर्माण किया, इसकी कहानी स्वयं उन्होंने लिखी थी और इसमें नायक के रूप में [[बंगाल]] के प्रतिभाशाली सिने अभिनेता उत्तम कुमार को लिया गया था। कंचनजंघा की तरह वे एक बार फिर श्रेष्ठ सम्मिति पूर्ण कसे हुए और वर्गाकार ढांचे का निर्माण करते हैं। फिल्म का समूचा अभिनय नायक का अपनी एक भूमिका के लिए पुरस्कार लेने जाने की दिल्ली की एक रात की रेल यात्रा के दौराना घटित होता है। उत्तम कुमार जो समुचित बौद्धिकता, विनम्रता और लोकप्रियता वाले [[अभिनेता]] हैं, एक तरह से स्वयं अपने आपको ही अभिनीत कर रहे हैं। [[शर्मिला टैगोर]] जो बाद में अखिल भारतीय हिंदी फिल्मों की एक बड़ी स्टार बनी, यहाँ एक पत्रकार की भूमिका में है जो उसी रेलगाड़ी में यात्रा कर रही है और फिल्म अभिनेता का साक्षात्कार लेती है।<br /> | |||
'''नायक''' और '''कंचनजंघा''' में गहरी समानता है। पहाड़ की भव्यता को फिल्मी नायक की भव्यता से स्थानांतरित किया गया है। फिल्म के पात्रों की दृष्टि से और दर्शकों की दृष्टि से फिल्मी अभिनेता को वैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त है जैसी कि कंचनजंघा में। स्थान दार्जिलिंग की जगह रेलगाड़ी, दोनों ही स्थान पात्रों को नियमित दैनिक जीवन से काटते हैं और संक्षिप्त अवधि के लिए उन्हें एक साथ कर देते हैं। दैनिक जीवन से अलगाव दोनों ही मामलों में उनकी निजी समस्याओं को सतह पर लाने में मदद करता है। [[रंग]] और निरंतर परिवर्तित प्रकाश के स्थान पर यहाँ रेलगाड़ी की स्थायी गति है। इसका अतिरिक्त पहलू इसकी बदलती ध्वनियां हैं। महापुरुष के साथ-साथ, चिड़ियाखाना (1967) ऐसी फिल्म है जिसे राय की कृति के रूप में स्वीकार करना किसी के लिए भी कठिन हो सकता है। इसको राय के एक सहायक द्वारा निर्देशित किया जाना था लेकिन निर्माता के दबाव के कारण सत्यजीत राय को स्वयं इसे अपने हाथ में लेना पड़ा था। एक दृश्य को छोड़कर जैसा कि पहले कहा गया है समूची फिल्म एक सामान्य औसत बंगाली फिल्म के स्तर पर चलती है, यदि नायक में इसके खूबसूरत शिल्प और मानवीय पहलुओं के पीछे सामान्य स्तरीयता है तो इसके बाद आने वाली फिल्म इनसे भी वंचित है। एक शताब्दी से भी अधिक तक फैले कालखंड में आए सामाजिक परिवर्तन के वे महान इतिहासकार थे। उन्होंने इसे संपूर्णता में देखा क्योंकि यह देखना एक फासले से था। लेकिन इस फासले ने उन्हें वस्तुओं की तात्कालिक वास्तविकता खासतौर से तत्कालीन समाज की वास्तविकता से दूर रखा। स्वयं अपने लिखे हुए का उद्धरण (साइट एंड साउंड, विंटर 1966-67)- जलती हुई ट्रामों, सांप्रदायिक दंगों, बेरोजगारी, बढ़ती हुई कीमतों, खाद्य की कमी वाला कलकत्ता राय की फिल्मों में मौजूद नहीं है, हालांकि राय इस शहर में रह रहे होते हैं लेकिन उनके और ‘पीड़ा का काव्य’ के बीच जो कि पिछले दस वर्षों से बंग्ला साहित्य पर छाया हुआ है, कोई संबंध नहीं है। जैसे जैसे वक्त गुजरता गया राय के प्रति यह शिकायत एक फुसफुसाहट के स्तर से बढ़कर कर्ण कटु शोर में बदल गयी। <br /> | |||
'''कापुरुष और महापुरुष''' को महत्वहीन मानकर नकार दिया गया: नायक बाक्स आफिस पर सफल नहीं हुई और चिड़ियाखाना टिप्पणी के योग्य नहीं मानी गयी। बंगाल तथा अन्य स्थानों के कुछ समूहों ने ऋत्विक घटक के काम में अधिक जीवंत समसामयिकता को देखना शुरु कर दिया। '''घटक की अजांत्रिक (1958)''' अपने बहुत ही (अभियान के ड्राइवर की तुलना में) विश्वनीय टैक्सी ड्राइवर के साथ, मेघे ढाका तारा (1960) पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के जीवन की तीखी तस्वीर और अंत में ‘मैं जीना चाहता हूं’ की ऊँची आवाज के साथ और अंतत: '''स्वर्ण रेखा (1965)'''ने अपनी प्रबल स्पष्टता और पतित क्रांतिकारियों की तीखी विडंबना के साथ, बंग्ला मानस पर गहरा प्रभाव छोड़ा। जब राय की प्रेरणा धीमी हो रही थी तब घटक को बंगाली सिनेमा के वास्तविक भविष्य का प्रतिनिधित्व करने वाले कहीं अधिक महान व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने के जोरदार दावे किए गए। विदेशों में घटक की पहचान बहुत कम थी जबकि राय अपनी पूर्व फिल्मों के बल पर, भारत की तुलना में कहीं अधिक विदेशों में कद ऊंचा बना रहे थे। मृणाल सेन '''भुवन शोम (1969)''' हिंदी में, के साथ अखिल भारतीय परिदृश्य पर रोशनी में आए। उनके नव-फ्रांसीसी सिनेमा के प्रति लगाव ने अंतत: एक ऐसी शैली का विकास किया जो सत्यजीत राय की शैली से भिन्न थी। इन सब ने राय को कितना प्रभावित किया यह कहना कठिन है और इसका अनुमान लगाना निरर्थक है। इसका परिणाम '''गोपी गायने बाघा बायने (1968)''' के निर्माण में हुआ। यह उपेन्द्र किशोर राय चौधरी द्वारा लिखित मनोरंजक फंतासी पर आधारित थी। बच्चों की दुनिया में वे मूल्य, जो सत्यजीत राय ने टैगोरवादी आदर्शों से बनी पहले की दुनिया से प्राप्त किए थे, पूरी तरह समाप्त नहीं हुए थे। सत्यजीत राय की बाल फिल्मों में वह निर्दोषिता और अपने होने का वह श्रेष्ठ भाव है जो उनकी प्रारंभिक वयस्क फिल्मों में था। आत्म सजगता का भाव प्राय: अपु और परेश बाबू, विश्वंभर राय और काली किंकर राय, आरती और चारुलता में समान रूप से मौजूद प्रवृत्ति है। वे सब बच्चों और जानवरों की तरह अपने आप में तल्लीन हैं, पूरी तरह अपने अपने भाग्य विधानों से जुड़े रहे। बच्चों की फिल्मों में मनुष्येतर जो भी प्राणी मिलते हैं वे परी कथा रूप में मिलते हैं, राय की इन फिल्मों में अनंद की एक गोपन अनुभूति छिपी रहती है। इनमें मौजाटवादी संगीत का गुण है जहां बच्चे बुराई से प्रभावित नहीं होते, वहाँ अगर बादल हैं तो इसलिए कि उनमें से चमकता हुआ सूर्य बाहर आ सके। | |||
====आठवाँ दशक==== | |||
जब तक सत्यजीत राय ने वयस्क दुनिया में नयी समझ और नयी पहचान शुरु की तब तक आठवां दशक शुरू हो चुका था। सन् 1969 में जब अरण्येर दिनरात्रि बनाई गई, बंगाल का वयस्क विश्व लपटों से घिर चुका था। ‘जलती ट्रामों वाला कलकत्ता’ जो सत्यजीत राय की फिल्मों में कभी नहीं देखा गया, एक अग्निपुंज में बदल चुका था। हर रोज हत्याएं हो रही थीं, देसी बम और बंदूकें आम दृश्य और ध्वनियों के हिस्से बन गए थे, युवकों का तीखा असंतोष नक्सलवादी आंदोलन में उभर रहा था जिसमें बहुत से प्रतिभावान विश्वविद्यालयीन युवक शामिल हो गए थे। न केवल इस नयी परिघटना को ही बल्कि पुनर्जागरण के अवशिष्ट गौरव को पीछे छोड़ आई थी और उन्हें लेकर अधीर होने लगी थी। लेकिन जिम्मेदारी का पाठ अरण्येर दिनरात्रि के मनोरंजन का सबसे छोटा अंश है। चारुलता से हर तरीके से भिन्न होने के बावजूद इस फिल्म में संरचना और संगीतात्मक लय में वैसी ही परिपूर्णता है। इसमें वैसी ही गीतात्मकता, पुनरावृत्तियों और अनुगूंजों का वैविध्य और वैसी ही स्वरानुक्रम की सटीकता मौजूद है। फिल्म का रूप अनेक प्रकार से ज्यां रेनेवां की फिल्म ‘रूल्स आफ द गेम्स’ की याद दिलाता है। भारतीय खाततौर पर बंगाली बुद्धिजीवीयों की दृष्टि में विषयवस्तु स्वयं को विधान से आसानी से अलग कर लेती है, भारतीय बुद्धिजीवी संरचना और विवरण के अवलोकन को विषयवस्तु की तरह ही कला के आवश्यक तत्त्व के रूप में मुश्किल से ही देख पाता है। बर्गमैन की द सेवेन सील को वह पसंद करता है और स्माइल आफ ए समर नाइट के जादुई आकर्षण को वह महसूस नहीं कर पाता। जब अरण्येर दिनरात्रि को पहले पहल प्रदर्शित किया गया था तो इसे बहुत लोगों ने अतिसामान्य बताकर खारिज कर दिया था। प्राय: राय के दर्शक ही अधिक साहित्यिक सिद्ध होते हैं, उनकी इस फिल्म में चरण दर चरण निर्मिति इतनी परिपूर्ण है जितनी कि चारुलता में थी। इसकी लय में अधिक वैविध्य है, इस पात्र के पास संचालन की अपनी गति और शैली है जो इस गुट की लापरवाह तथा अलग अलग प्रवृत्ति, आंतरिक दायित्व बोध की कमी को उजागर करती है। पात्रों की ये भिन्नाएं उन गुणों के बावजूद हैं जो उनमें समान रूप में मौजूद हैं। | |||
==समकालीन वास्तविकता से साक्षात्कार== | |||
सत्यजीत राय की पेशेवर जिंदगी में प्रतिद्वंद्वी कई मायनों में प्रथम मुकाम है। पहली दफा इस फिल्म में वे उस तकनीक का प्रयोग करते हैं जिसे वे कभी मृणाल सेन के साथ हुए एक तीखे सार्वजनिक विवाद में चालू लटका कहकर खारिज कर चुके थे। कहानी एक नकार से शुरू होती है, नकार से ही अनेक बिंदुओं को पकड़ती हैं, खासकर उस दृश्य में यह नकार अपनी पराकाष्ठा पर है जहां नर्स वेश्या अपनी कंचुकी खोलने को उद्यत दिखाई पड़ती है। बीच बीच में सिद्धार्थ की मेडिकल शिक्षा की छवियां अचानक और संक्षिप्त रूप में दिखती हैं उदाहरण के लिए जब सुगठित काया वाली एक लडकी गली से गुजरती है तो पर्दे पर ‘स्त्री वक्षस्थल’ का डायग्राम उभरता है जिसकी तकनीकी व्याख्या एक शिक्षक कर रहा होता है। फिर काल्पनिक कामनापूर्ति के दृश्यों की झांकियां भी हैं, जैसे एक दृश्य में सिद्धार्थ द्वारा अपनी बहन के बॉस को पीटते हुए दिखाया जाता है। यहाँ ऐसा लगता है मानो राय यह सिद्ध करने के लिए कृतसंकल्प हों कि अगर लटकों-झटकों की बात है, तो उनके प्रयोग में भी वे उतने ही सिद्धहस्त हैं जितने की दूसरे या संभवत: उनसे बेहतर।<br /> | |||
सत्यजीत राय की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति शांतिनिकेतन के अपने पूर्व शिक्षक-चित्रकार विनोद बिहारी मुखोपाध्याय पर बना वृत्तपूर्ण है। दृष्टि खो देने के बाद भी श्री मुखोपाध्याय सक्रिय चित्रकारी में लगे रहे थे। बीस मिनट के इस वृत्तचित्र दि इनर आइ (1972) में राय मने चित्रकार के जीवन और कृतियों के बारे में तथ्यपरक जानकारी अपनी विशिष्ट शैली में दी है। यहां चित्रकार के नेत्रहीन होने के साथ व्यर्थ की भावुकता कहीं भी नहीं दिखती। नतीजतन, तथ्यों की बारीक प्रस्तुति तब अत्यंत मार्मिक हो उठती है जब चित्रकार को हम उसके अंधेपन के दौर में पाते हैं और देखते हैं कि कैसे यह नेत्रहीन चित्रकार घर के इर्द-गिर्द घूम लेता है, कैसे बिना किसी की सहायता के अपने लिए चाय बना लेता है आदि आदि। | |||
====हिन्दी फ़िल्म==== | |||
सत्यजीत राय वर्षों तक हिंदी में फिल्म बनाने के प्रस्तावों की अनसुनी करते रहे। हिंदी भाषा की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी और इसीलिए वे जानते थे कि भाषा की यह गैरजानकारी फिल्म-निर्माण की उनकी निजी शैली को रास नहीं आएगी। अभी तक उनकी फिल्मों में एक भी संवाद नहीं था, जिसे उन्होंने खुद न लिखा हो। लेकिन शतरंज के खिलाड़ी में वे ऐसा नहीं कर सके। अंशत: रंगीन माध्यम में काम करने की जरूरत से तो शायद अंशत उस विशिष्ट कालावधि और परिदृश्य की व्यापकता के आकर्षण से अनुप्राणित होकर राय ने न केवल हिंदी वनर वाजिद अली शाह के जमाने की शिष्ट [[उर्दू]] में फिल्म बनाना स्वीकार किया। [[मुंशी प्रेमचंद]] की यह मशहूर कहानी अपने कलेवर में अत्यंत संक्षिप्त है। कहानी एक महत्त्वपूर्ण विरोधाभास का महज रेखांकन करती है कि कैसे, तब [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] द्वारा [[लखनऊ]] पददलित किया जा रहा था, दो नवाबों ने शतरंज के खेल में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी। भाषा की जानकारी नहीं होने का ही नतीजा था कि सत्यजीत राय को इस फिल्म में दूसरों की सहायता लेनी पड़ी, तथापि उन्होंने इस फिल्म में ख्यातिलब्ध और निपुण कलाकारों को ही भूमिकाएं सौंपी थीं। नवाब की भूमिका में [[अमजद खान]] जो कि समकालीन लोकप्रिय हिंदी फिल्मों के ठप्पेदार खलनायक के रूप में मशहूर थे तथा जिनसे दर्शक स्नेहित घृणा करते थे, खासे उम्दा लगे। दोनों नवाबों की भूमिकाओं में जिन्हें क्रमश: [[संजीव कुमार]] तथा [[सईद जाफ़री]] ने निभाया है, भी अभिनय की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। फिर भी जाफ़री के अभिनय में लखनऊ की शिष्ट वाक्पटुता तथा संस्कार (परिष्करण) की ज्यादा सच्ची अभिव्यक्ति हुई है। हालांकि यह सत्यजीत राय की किसी भी अन्य फिल्म से ज्यादा बजट की फिल्म थी जिसमें हिंदी फिल्मों के अति लोकप्रिय सितारों ने भूमिकाएं की थीं, फिर भी [[कलकत्ता]] को छोड़कर जहाँ इसने कमोबेश अच्छा व्यवसाय दिया था, शतरंज के खिलाड़ी कहीं भी एकमुश्त बड़े माने पर रिलीज नहीं हो पाई। ढेर सारी आलोचनाएं भी मिलीं, खासकर उन लोगों की जो वाजिद अली शाह को ‘भारत का अंतिम स्वायत्त शासक’ के रूप में महिमामंडित होते देखना चाहते थे। इस विषय पर एक साक्षात्कार के दौनार अपनी राय जाहिर करते हुए सत्यजीत राय ने कहा था: | |||
<blockquote>बहुत ही संभव है कि अवध के अतिक्रमण की घटना कोई ऐसा चित्रण करे जिसमें वाजिद अली शाह का महिमामंडन हो तथा आटरैम की भर्त्सना। ऐसे चित्रण से, जाहिर है, फिल्म की लोकप्रियता में स्वत: इजाफा हो जाता। मेरी फिल्म इस अयथार्थवादी चित्रण से मुक्त है। यह फिल्म उस प्रवृत्ति को भी हतोत्साहित करती है जो सामंतवाद और उपनिवेशवाद के प्रति मायूस किंतु ‘स्वीकृत प्रक्रिया’ के रूप में अक्सर उनकी कमियों को नजरअंदाज कर देती है या फिर उनकी बुराइयों को समझने के साथ-साथ उनके चरित्रों में ख़ास मानवीय प्रवृत्तियाँ देखने का आग्रह करती है। इन मानवीय प्रवृत्तियों का अन्वेषण नहीं किया जाता, बल्कि ऐतिहासिक साक्ष्य से उन्हें पुष्ट किया जाता है। मैं जानता था कि ऐसे चित्रण से मनोवृत्ति का द्वैध पैदा होगा तथापि शतरंज के खिलाड़ी को मैं ऐसी कहानी नहीं मानता जिसमें आसानी से किसी एक पक्ष का हिमायती बना जा सके। यह कहानी मेरे लिए विचारोत्तेजक ज्यादा है जिसमें दो संस्कृतियों की टकराहट है- एक निष्प्राण और अप्रभावी संस्कृति है तो दूसरी अमंगलकारी किंतु ऊर्ज्वसित। इन दो धुर छोरों की उन अर्द्ध अर्थच्छायाओं को भी पकडने की कोशिश की है जो इन दोनों छोरों के बीच झलकती हैं।</blockquote> | |||
प्रेमचन्द की यह कहानी आजादी से बहुत पहले लिखी गई थी। सत्यजीत राय की फिल्म भी उसी यथार्थ को दर्शाती है जो तब से लेकर अब तक अपरिवर्तित रही है। सच ही, आज के इस दौर में जब पुनरुत्थानवादी हिंदू कट्टरता तथा हरिजनों के विरुद्ध दमन की वारदातें बढ़ रही हैं, फिल्म नए रूप में प्रासंगिक हो जाती है। सत्यजीत राय प्रेमचंद की कहानी में कोई भी परिवर्तन नहीं करते, शीर्षक से लेकर पंक्ति-दर-पंक्ति वे प्रेमचन्द का अनुसरण करते हैं और कहना न होगा कि राय के लिए यह प्रविधि अस्वाभाविक है। तथापि सत्यजीत राय इस फिल्म को प्रभावित कर देने वाली विश्वसनीयता से लैस कर देते हैं- एक ऐसी विश्वसनीयता जिसे कोई सिद्धाहस्त व्यक्ति ही चलचित्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है। शतरंज के खिलाड़ी की अनुवर्ती राय की फिल्में या तो उल्लासकारी हैं। या बच्चों के लिए उपदेशात्मक कहानियां, (जय बाबा फेलुनाथ, हीरक राजार देशे) या फिर [[दूरदर्शन]] के लिए बनाई गई लघु फिल्में (पिकू, सद्गति) जबकि लोग उनसे यह आस लगाए बैठे थे कि वे मानव मन की गहरी अनुभूतियों पर आधारित कोई महती कृति लेकर उपस्थित होंगे। | |||
==अंतिम चरण== | |||
'''घरे बाहरे (1984)''' के निर्माण के साथ सत्यजीत राय की जो बीमारी शुरू हुई उससे वे पूर्ण रूप से कभी भी निजात नहीं पा सके और उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता रहा। अपने पिता पर बनाए गए आधे घंटे की लघु फिल्म को छोड़ दें तो वे पूरे पांच साल तक फिल्म निर्माण से अलग रहे। गणशत्रु और उसके बाद की फिल्मों का निर्देशक डाक्टरों और नर्सों से घिरा रहता था, दरवाजे पर एम्बुलेंस गहन चिकित्सा कक्ष के बतौर खड़ी रहती थी। '''‘अब मेरा डाक्टर- मुझे फिल्म निर्माण की विधि बता रहा है और मुझे आदेश है कि मैं स्टूडियों के अंदर ही कार्य करूं।’''' किंतु साथ में उनका यह भी कहना था कि कैमरे के पीछे आकर काम करना उन्हें प्रफुल्लित कर देता था। और दवाइयों से जितनी राहत मिली उससे कहीं अधिक राहत उन्हें कैमरे से मिली। | |||
गणशत्रु (1989) अंधविश्वास पर देवी से भी कहीं ज्यादा करारी चोट करती है। इसके दुष्परिणामों का भोक्ता यहां कोई एक व्यक्ति नहीं है, न ही समाज का कोई एक ख़ास तबका है। शाखा-प्रशाखा (1990) अपने दूरदर्शन प्रसारण पर भी कहीं से कमजोर नहीं दिखी और जैसा कि हम जानते हैं, राय की कृतियों के संदर्भ में यह एक अजूबी बात थी। स्पष्ट ही, गणशत्रु की तुलना में यह फिल्म बहुत ज्यादा विकसित है, रंगमंचीय दृष्टि से सशक्त है, इसकी रचना में कसाव है और इसमें ऐसे सिनेमाई क्षण हैं जिनकी अपेक्षा हम केवल महान फिल्म निर्माताओं से ही कर सकते हैं। | |||
{{लेख प्रगति | {{लेख प्रगति |
09:18, 25 जनवरी 2011 का अवतरण
![]() सूचना साँचा लगाने का समय → 16:22, 24 जनवरी 2011 (IST) |
---|
सत्यजीत रे

- विश्व में भारतीय फिल्मों को नई पहचान दिलाने वाले सत्यजीत राय (जन्म- 2 मई, 1921 कलकत्ता - मृत्यु- 23 अप्रॅल, 1992 कोलकाता) 20वीं सदी की विश्व की महानतम फिल्मी हस्तियों में एक थे, जिन्होंने यथार्थवादी धारा की फिल्मों को नई दिशा देने के अलावा साहित्य, चित्रकला जैसी अन्य विधाओं में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।
- सत्यजित राय प्रमुख रूप से फ़िल्मों में निर्देशक के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन लेखक और साहित्यकार के रूप में भी उन्होंने फ़िल्मों और साहित्य में ख्याति अर्जित की है।
- कोलकाता के एक जाने-माने बंगाली परिवार में 2 मई, 1921 को जन्मे सत्यजीत राय फिल्म निर्माण से संबंधित कई काम खुद ही करते थे। इनमें निर्देशन, छायांकन, पटकथा, पार्श्व संगीत, कला निर्देशन, संपादन आदि शामिल हैं।
- फिल्मकार के अलावा वह कहानीकार, चित्रकार, फिल्म आलोचक भी थे। सत्यजीत राय कथानक लिखने को निर्देशन का अभिन्न अंग मानते थे।
जीवन परिचय
अपने माता-पिता की इकलौती संतान सत्यजीत राय के पिता सुकुमार राय की मृत्यु सन 1923 में हुई जब सत्यजीत राय मुश्किल से दो वर्ष के थे। उनका पालन-पोषण उनकी माँ सुप्रभा राय ने अपने भाई के घर में ममेरे भाई-बहनों, मामा-मामियों वाले एक भरे-पूरे और फैले हुए कुनबे के बीच किया। उनकी मां जो लंबे सधे व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं, रवीन्द्र संगीत की मंजी हुई गायिका थीं और उनकी आवाज़ काफी दमदार थी। उनके द्वारा निर्मित बुद्ध और बोधिसत्व की मिट्टी की मूर्तियों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इनके दादाजी उपेन्द्रकिशोर राय एक लेखक एवं चित्रकार थे और इनके पिताजी भी बांग्ला में बच्चों के लिए रोचक कविताएँ लिखते थे और वह एक चित्रकार भी थे। यह परिवार अपरिहार्य रूप से टैगोर घराने के नजदीक था। प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता से स्नातक होने के बाद राय पेंटिंग के अध्ययन के लिए जिसमें वे प्रारंभिक अवस्था में ही अपनी योग्यता प्रदर्शित कर चुके थे, रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन चले गए।
शांतिनिकेतन में शिक्षा
शांतिनिकेतन में सत्यजीत राय ने नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय जैसे सिद्धहस्त कलाकारों से शिक्षा प्राप्त की जिन पर बाद में उन्होंने ‘इनर आई’ फिल्म बनाई। उन दिनों शांतिनिकेतन साहित्य और कला की नयी भारतीय चेतना के केंद्र के रूप में न केवल देश में बल्कि विश्व भर में चर्चित था। टैगोर के प्रति आकर्षण समूचे भारत से छात्र और अध्यायकों को यहाँ खींच लाता था। अन्य देशों से भी छात्र यहाँ आते थे और इस तरह एक ऐसी नयी भारतीय संस्कृति के विकास की परिस्थितियां निर्मित हो रही थीं जो अपनी स्वयं की परंपराओं पर आधारित थीं लेकिन विश्व परंपराएं जिनमें टैगोर के व्यक्तित्व और कृतित्व का योगदान हो रहा था, से वह समृद्ध हो रही थीं।
प्रेस और प्रकाशन संस्थान
सन 1942 में मध्य भारत के कला स्मारकों के भ्रमण के बाद राय ने शांतिनिकेतन छोड़ दिया। शीघ्र ही उन्हें एक ब्रिटिश विज्ञापन एजेंसी 'डी .जे. केमर एंड कंपनी' में वाणिज्यिक कलाकार (कमर्शियल आर्टिस्ट) के रूप में रोजगार मिल गया जहाँ काम करते हुए उन्होंने पुस्तकों के आवरण पृष्ठों की डिजाइनिंग और रेखांकन कार्य पर्याप्त मात्रा में किया। यह काम उन्होंने भारतीय पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में नए मानक स्थापित करने वाले अग्रणी प्रकाशन संस्थान साइनेट प्रेस के लिए किया। जिन पुस्तकों का उन्होंने रेखांकन किया उनमें से एक 'विभूति भूषण बंद्योपाध्याय' की पाथेर पांचाली का संक्षिप्त संस्करण भी था।
सिनेमा में रुचि और प्रशिक्षण
इस समय तक, फिल्मों में उनकी रुचि पर्याप्त रूप से उजागर हो चुकी थी। सन 1947 में उन्होंने अन्य लोगों के साथ 'कलकत्ता फिल्म सोसायटी' की स्थापना की और भारतीय सिनेमा की समस्याओं तथा सिनेमा किस तरह का चाहिए, विषय पर लेख लिखे। कलकत्ता फिल्म सोसायटी ने बड़ी संख्या में सिने प्रेमियों को जुटाया जिनमें से कुछ प्रमुख फिल्म निर्माता बने। राय की पहल ने न केवल उन्हें फिल्म शिक्षण प्रदान किया बल्कि अन्य को भी फिल्मी शिक्षा प्रदान की, क्योंकि कलकत्ता फिल्म सोसायटी ने विश्व सिनेमा की बहुत सी ऐसी प्रमुख कृतियों का प्रदर्शन किया जो इससे पूर्व भारत में कभी नहीं दिखाई गई थीं।
विदेश में प्रशिक्षण
सन 1950 में उनके नियोक्ताओं ने उन्हें अग्रिम प्रशिक्षण के लिए लंदन भेजा। यह उनकी लिंड्से एंडर्सन और गाविन लम्बर्ट से मित्रता हुई और उन्होंने अपने साढ़े चार माह के प्रवास के दौरान लगभग सौ फिल्में देखीं जिनमें बाइसिकिल थीवस तथा अन्य इतालवी नव-यथार्थवादी फिल्में शामिल थीं, जिन्होंने सत्यजीत राय के ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा। जलयान द्वारा भारत वापस लौटते समय ही उन्होंने पाथेर पांचाली की पटकथा लिखना शुरू किया। सन 1952 में भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन हुआ जिसमें उन्होंने एक बार फिर इतालवी नव-यथार्थवादी फिल्मों से साक्षात्कार किया। साथ ही जापान सहित अन्य देशों की फिल्मों भी उन्होंने देखीं।
प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फिल्मों से
सत्यजीत राय का सिनेमा का प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फिल्मों के अध्यायन के रूप में हुआ- वास्तव में आज़ादी से पूर्व वे ये ही फिल्में देख सकते थे। जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा- उन्होंने फिल्म निर्माण मुख्यत: अमरीकी फिल्मों को बार-बार देखकर सीखा। तार्किक और (कम से कम सतह पर) यथार्थवादी वर्णन की हॉलीवुड शैली ने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा।
- पाथेर पांचाली की सफलता;
पाथेर पांचाली की निर्विवाद सफलता के बाद ही हुआ कि सत्यजीत राय ने, जिन्हें फिल्म निर्माण के दौरान कुछ महीनों की छुट्टी सवेतन प्रदान की गई थी, अंतत: डी.जे. केमर एवं कंपनी की अपनी नौकरी छोड़ दी। विज्ञापन में उनकी रुचि पूरी तरह कभी भी समाप्त नहीं हुई, अपनी प्राथमिक फिल्मों के लिए प्रचार सामग्री खुद ही तैयार करने के अलावा वे कई वर्षों तक क्लेरियन एडवरटाइजिंग सर्विसेज (डी.जे. केमर के उत्तराधिकारी, और कर्मचारियों के स्वामित्व वाली) के एक निदेशक के रूप में कार्य करते रहे। यहाँ उनके कई पुराने साथी अभी कार्य करते हैं।
- त्रयी
पाथेर पांचाली के बाद राय अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने फिल्म निर्माण फिल्में देखकर सीखा। जो बातें फिल्में नहीं सिखा पाईं वे उन्होंने काम के दौरान सीखीं। यद्यपि 'पाथेर पांचाली' को सन 1956 में केन्स में एक पुरस्कार दिया गया था, पर वास्तव में सन 1957 में 'वेनिस महोत्सव' में 'अपराजितो' को मिला ग्रांड प्राइस पुरस्कार ही था जो पाथेर पांचाली को अंतर्राष्ट्रीय आलोक में लाया। न्यूयार्क में पाथेर पांचाली सितंम्बर सन 1958 से पहले रिलीज नहीं हो पाई।
- अपराजितो (1956)
अपराजितो में अपनी पूर्ववर्ती फिल्म के तात्विक गुण नहीं हैं, न इसकी संरचना इसे वैसी ही संतोषकारी पूर्ण कृति बना पाती है। यह फिल्म अपेक्षाकृत तीन भागों में बंट जाती है, संरचनात्मक रूप से अपराजितो मुख्यत: पाथेर पांचाली और 'अपुर संसार' के बीच पुल के रूप में अर्थपूर्ण है। स्वयं अपने आप में यह पर्याप्त संतुलित नहीं है, बनारस जीवंत हो उठता है अपनी दार्शनिक गहराई और भावनात्मक प्रत्यक्षता में अपराजितो राय की फिल्मों में असाधारण हे, खासतौर पर बनारस के दृश्यों में।
- अपुर संसार (1959)
सत्यजीत राय के संरचनात्मक दृढ़ता के गुण की ओर वापस मुड़ती है और अपराजितो की दृष्टिकोण की शुद्धता को जारी रखती है और उससे आगे भी पहुंचती हैं फिल्म एक ऐसे दृढ़ प्राकृतिक तर्क के साथ आगे बढ़ती है जो इसके काव्य को पूरी तरह औचित्यपूर्ण ठहराता है, स्वयं घटनाओं में से उभरता हुआ जैसा कि वह है न कि घटनाओं के ऊपर फिल्म निर्माता द्वारा थोपा हुआ।
प्रथम दस वर्षों में से शेष वर्ष
पाथेर पांचाली तीनों फिल्मों में से सर्वाधिक मुखर और सार्वभौम ‘प से आकर्षक है, लेकिन अपुर संसार अपनी अधिक निजी, रूमानी लेकिन नियंत्रित भावना, अपनी दोषरहित संरचना और कुशल शिल्प के कारण त्रयी के तीसरे खंड के निर्माण से पूर्व पारस पत्थर और जलसा घर नाम की दो फिल्में बनाईं, जिन्होंने उनके शिल्प को काफी निखारा था। अपनी पूरी कामेडी के साथ पारस पथर तत्कालीन शहरी जीवन में राज की पहली दखलंदाजी है। क्लर्क परेश बाबू की उनकी समझ इतनी पूर्ण और साहित्यिक रूढ़ चरित्रों में से इतनी पूर्णता के साथ बनी है जितनी कि त्रयी के चरित्रों के बारते में।
- जलसा घर (1958)
वास्तविक मार्मिकता का खूबसूरत आह्वान। फिल्म दोनों ही काम करती है, उनकी क्षमताओं का विकास करती है और उन्हें उनकी पहली दो फिल्मों के नव यथार्थवादी दायरों से बाहर भी ले जाती है। जलसा घर यथार्थ परक मुख्यत: लोकेशन शाट वाली तथा गैर पेशेवरों द्वारा अभिनीत फिल्म है। जलसा घर में उन्होंने स्टूडियों के परिवेश को अधिक महत्व दिया और बंगाली सिनेमा की एक बड़ी हस्ती छवि विश्वास को निर्देशित किया। यहाँ वे विश्रांति और नव यथार्थवाद की मान्यताओं को छोड़कर वैयक्तिक चरित्र और परिस्थिति के प्रति उनके सम्मोहन के अधिक निकट आए। जलसा घर और पारस पत्थर दोनों में अपनी पहली दो फिल्मों के विपरीत सत्यजीत राय अधिकाधिक संभावित भिन्न-भिन्न वस्तुओं को साधने की कोशिश करते हैं। वह निर्धनता के शोकाकुल नव यथार्थवादी इतिहासकार के रूप में स्वयं को रूढ़ करने से इंकार कर देते हैं। फिर भी जलसा घर उसी तरह से सामाजिक परिवर्तन की एक कहानी है जैसे कि त्रयी की पहली दो फिल्में हैं, और एक निर्धन व्यक्ति की तरह ही पारस पत्थर का क्लर्क भी हमारी सहानुभूति जीत लेता है।
- देवी
फिल्म देवी ने रूढ़िवादियों में अपने प्रति कुछ विरोध पैदा किया और साथ ही उदारपंथियों को भी विचलित किया, पर यह फिल्म ‘प्रगति’ का पक्ष नहीं लेती। सन 1960 का वर्ष रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म शताब्दी वर्ष था। सत्यजीत राय ने इसको एक फीचर फिल्म और एक दीर्घ वृत्तचित्र के साथ मनाया। यह उस व्यक्ति के पति एक श्रद्धांजलि थी जो भारतीयों, विशेष रूप से बंगालियों की कुछ पीढ़ियों का पथ-प्रदर्थक रहा था। बड़ी संख्या में लिखी गई टैगोर की कहानियों में से बहुत-सी कहानियां उत्कृष्ट शिल्पबद्ध हैं, फिर भी उनमें सहजता, मानवता है जो उन्हें एक विशाल पाठक वर्ग में लोकप्रिय बना देती है।
- पोस्ट मास्टर
पोस्ट मास्टर में सत्यजीत राय एक बार फिर अपने रूप में दिखाई देते हैं। चालीस मिनट की यह फिल्म अपने संक्षिप्त लेकिन कुशलता से शिल्पबद्ध किए गए अपने रूपाकार के भीतर मानवीय गरिमा से आप्लावित है।
- कंचनजंघा (1962)
सत्यजीत राय की पहली रंगीन फिल्म थी, जो उनकी अपनी कहानी पर आधारित थी और इस दृष्टि से भी पहली कि इसमें तत्कालीन समाज को साधा गया था। पारस पत्थर में कलकत्ता के जीवन की झलकियां हैं लेकिन यथार्थ और फैंटेसी का मिश्रण इसे किनारे कर देता है, और उसे तत्कालीन सामाजिक रीति-रीवाजों पर टिप्पणी के रूप में मुश्किल से ही व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन पारस पत्थर के कुछ दृश्यों की तरह कंचनजंघा में भी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की, भले ही यह सौम्य क्यों न हो, टकराहट को उजागर किया गया है।
- अभियान (1962)
सत्यजीत राय के कैरियर में एक ऐसे विचलन का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी व्याख्या इसी रूप में की जा सकती है कि सत्यजीत राय जिस काम के लिए प्रशंसित होते हैं, कुछ समय बाद वे उस काम की सीमाओं को तोड़कर बाहर आना चाहते हैं और किसी नए और अहप्रचलित पर हाथ आजमाना चाहते हैं, टैक्सी ड्राइवरों, तस्करों और रखैल औरतों की दुनिया राय के मध्यवर्गीय अनुभव से उतनी ही दूर है जितनी कि कोई भी वस्तु हो सकती है।
सत्यजीत राय की अगली तीन फिल्मों- महानगर (1963), चारुलता (1964) और लघु फीचर फिल्म कापुरुष (1965)- में औरत के प्रति एक नया बोध दिखाई देता है, पुरुष की परछाईं के रूप में नहीं बल्कि उसकी अपनी निजता के रूप में। महानगर में पहली बार ऐसा होता है कि हम ऐसी औरत को सामने पाते हैं जो अपनी स्वयं की जिंदगी की दिशा निर्धारित करने की संभावनाओं के प्रति जागरूक है। विशिष्टता यह है कि जागृति का यह स्पर्श पति की ओर से आता है, क्योंकि पारंपरिक रूप से पुरुष स्वतंत्र है ठीक उसी तरह जैसे कि वे स्त्रियों को गुलाम बनाए हुए हैं। सत्यजीत राय का विश्लेषणात्मक तरीका और कम शब्दों तथा सटीकता के साथ मानसिक घटना को अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता चारुलता में अपने शिखर पर पहुंचती है। उनका तरीका इस कथन को उचित ठहराता है कि भारतीय परंपरा में सज्जा और अभिव्यक्ति दो अलग अलग वस्तुएं न होकर एक हैं। उनका शिल्प विवरण की ऐसी उत्कृष्टता तक पहुंचता है जो कौशल को कला में, मात्रा को गुण में और सज्जा को भावनात्मक अभिव्यक्ति में बदल देता है। इस फिल्म में जो पूरी दोषरहित है, कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण दृश्य भी हैं जिनका उल्लेख किया जाना चाहिए। चारु के अकेलेपन को दर्शाने वाला प्रारंभिक दृश्य शब्दरहित चरित्र चित्रण का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसकी तुलना जलसा घर के दृश्य से की जा सकती है। यहाँ इस दृश्य को एक दूरबीन (ओपेरा ग्लास) की विकसित तकनीक द्वारा संपन्न किया गया है। फिल्म का झूले का दृश्य फिल्म का सर्वाधिक प्रभावशाली दृश्य है और रेनेवां जैसे प्रकाश छाया चित्रण से रोशन है, इस दृश्य को सूक्ष्मता से तराशा गया है जहाँ हर बार क्षणांश के लिए चारु का पैर जमीन का स्पर्श करता है ताकि झूले की गति को अतिरिक्त बल दिया जा सके। फिर वह क्षण है जब चारु झूले की गति को धीमा करती है अपनी दूरबीन अमल पर स्थिर करती है और, स्याह होते चेहरे के साथ, अनव करती है कि वह उससे प्रेम करने लगी है। सत्यजीत राय की शब्दरहित संप्रेषण की शैली में यह एक बड़ी उपलब्धि है, बचपन के दिनों को उसके स्मृत करने के लंबे दृश्यों में, जिसमें एक खूबसूरत लय है जिसे झूले के मंददोलन के साथ उस नाव के दोलन को मिलाकर गढ़ा गया है जिसका पाल कुशलता से तैयार किया गया है और जिसमें उसका चेहरा धीरे से विलीन हो जाता है। यह एक लयात्मक स्थानांतरण है जो हमें चारु की उस मन:स्थिति के समांतर खड़ा कर देता है जिसमें वह अतीत की ललक से भरी हुई है और जिस बारे में वह लिखना चाहती है। वर्णन का यह श्रेष्ठ गुण ही राय की फिल्म को साधरण रूप रेखा के साथ कही गई कहानी से सौंदर्य की दृष्टि से ऊपर उठा देता है।
अनिश्चय और एक नयी खोज
- चारुलता के बाद का काल
कापुरुष उन पूर्व फिल्मों की कमजोर पुनरावृत्ति है जिनका अंत अपनी स्वतंत्रता की खोज में बाधित और आहत तथा अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान औरत द्वारा अपने स्वच्छंदतावादी प्रेमी के अस्वीकार में होता है। नयी उभरती औरत की विषयवस्तु वाली श्रृंखला के एक भाग के रूप में ही कापुरुष का महत्व निहित है। महानगर में वह अपनी आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करती है और उसे बनाए रखने का प्रयास करती है, चारुलता में वह प्रेम का अधिकार प्राप्त करती है, कापुरुष इन दोनों को प्राप्त करने में उसकी असफलता को उजागर करती है। कापुरुष के लगभग कटुतापूर्ण अंत के बाद भी महापुरुष (फिल्म के दूसरे भाग की कहानी) की अधमनी और अनुपयुक्त खर मस्ती को स्वीकार करना कठिन है। सत्यजीत राय का व्यंग्य हमेशा प्रभावकारी होता है लेकिन उनकी विनोदप्रियता में उनके पिता की उस प्रतिभा का अभाव दिखता है जिसमें वे मौज मस्ती और मूर्खता, असंगति, कटुता और विद्रूपता का आनंददायी मिश्रण तैयार कर दिया करते थे। सत्यजीत राय का हास्य टैगोर के अपेक्षाकृत साहित्यिक और दिखावटी हास्य के अधिक नजदीक है जो आत्मसजगता की बाधाओं को पार करने में हमेशा असफल रहता है। सहज ऊष्म अट्टहास और उदासी मिला हुआ संयोगात्मक परिस्थितिजन्य हास्य, जैसा कि पारस पत्थर या समाप्ति में है, उनके काम में सहजता से आता है। लेकिन जब कभी भी वे प्रहसन शैली में अभिनय के स्तर पर हास्य पैदा करने की कोशिश करते हैं तो परिणाम एक बेतुकेपन और बचकानी समानता के रूप में सामने आता है- पारस पत्थर में तेज गति (एक्शन) के दौरान नौकर का बार-बार कपड़े बदलना, समाप्ति में भावी दूल्हे का खांस कर भोजन को दादा के गंजे सर पर गिराना इसी के उदाहरण हैं। महापुरुष में वे राजशेखर बोस, राय के पिता के अलावा बंगाल के एक अन्य महान् हास्य लेखक, के शानदार मौखिक प्रहसन के समकक्ष आने मे असफल रहते हैं। राजशेखर बोस वितंडा और वास्तविकता या भारी भरकम और पतले दुबले के बीच एक मायावी विरोधाभास रच सकते थे तथा साथ ही इसमें व्यंग्य और तीखा हास्य भी सहजता से मिला सकते थे। राय इस गुण की बराबरी कभी नहीं कर सके। प्राय: राय की फिल्म अपने साहित्यिक मूल पाठों के सुधार के रूप में ही सामने आई। टैगोर, विभूति भूषण या तारा शंकर जैसे लेखकों की रचनाओं के साथ भी यही था लेकिन राजशेखर बोस के मामले में, विशेष तौर पर महापुरुष जैसी प्रत्यक्ष और प्रभावी ठहाकेदार कहानी में, राय को अपने वाटर लू का सामना करना पड़ता है। महापुरष दरअसल उस ढलान की शुरुआत है जो चिड़ियाखाना (1967) तक पहुंचती है यानी शानदार और उत्कृष्ट फिल्मों की एक श्रृंखला के बाद भावनात्मक थकान का दौर। यह ऐसा था मानो उनके पास कहने को अब कुछ न रहा हो, एक पुराने फिल्मी गीत में जो जासूसी कहानी में सूत्र के रूप में प्रयुक्त हुआ है, वाले कुछ आकर्षक दृश्य के अलावा चिड़ियाखाना को किसी भी पहलू से राय की फिल्म के रूप में पहचानना कठिन है।
फ़िल्म कृतियों का सजीव वर्णन
अपनी कार्य यात्रा के अधोबिंदु तक पहुंचने से पूर्व सत्यजीत राय ने नायक (1966) का निर्माण किया, इसकी कहानी स्वयं उन्होंने लिखी थी और इसमें नायक के रूप में बंगाल के प्रतिभाशाली सिने अभिनेता उत्तम कुमार को लिया गया था। कंचनजंघा की तरह वे एक बार फिर श्रेष्ठ सम्मिति पूर्ण कसे हुए और वर्गाकार ढांचे का निर्माण करते हैं। फिल्म का समूचा अभिनय नायक का अपनी एक भूमिका के लिए पुरस्कार लेने जाने की दिल्ली की एक रात की रेल यात्रा के दौराना घटित होता है। उत्तम कुमार जो समुचित बौद्धिकता, विनम्रता और लोकप्रियता वाले अभिनेता हैं, एक तरह से स्वयं अपने आपको ही अभिनीत कर रहे हैं। शर्मिला टैगोर जो बाद में अखिल भारतीय हिंदी फिल्मों की एक बड़ी स्टार बनी, यहाँ एक पत्रकार की भूमिका में है जो उसी रेलगाड़ी में यात्रा कर रही है और फिल्म अभिनेता का साक्षात्कार लेती है।
नायक और कंचनजंघा में गहरी समानता है। पहाड़ की भव्यता को फिल्मी नायक की भव्यता से स्थानांतरित किया गया है। फिल्म के पात्रों की दृष्टि से और दर्शकों की दृष्टि से फिल्मी अभिनेता को वैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त है जैसी कि कंचनजंघा में। स्थान दार्जिलिंग की जगह रेलगाड़ी, दोनों ही स्थान पात्रों को नियमित दैनिक जीवन से काटते हैं और संक्षिप्त अवधि के लिए उन्हें एक साथ कर देते हैं। दैनिक जीवन से अलगाव दोनों ही मामलों में उनकी निजी समस्याओं को सतह पर लाने में मदद करता है। रंग और निरंतर परिवर्तित प्रकाश के स्थान पर यहाँ रेलगाड़ी की स्थायी गति है। इसका अतिरिक्त पहलू इसकी बदलती ध्वनियां हैं। महापुरुष के साथ-साथ, चिड़ियाखाना (1967) ऐसी फिल्म है जिसे राय की कृति के रूप में स्वीकार करना किसी के लिए भी कठिन हो सकता है। इसको राय के एक सहायक द्वारा निर्देशित किया जाना था लेकिन निर्माता के दबाव के कारण सत्यजीत राय को स्वयं इसे अपने हाथ में लेना पड़ा था। एक दृश्य को छोड़कर जैसा कि पहले कहा गया है समूची फिल्म एक सामान्य औसत बंगाली फिल्म के स्तर पर चलती है, यदि नायक में इसके खूबसूरत शिल्प और मानवीय पहलुओं के पीछे सामान्य स्तरीयता है तो इसके बाद आने वाली फिल्म इनसे भी वंचित है। एक शताब्दी से भी अधिक तक फैले कालखंड में आए सामाजिक परिवर्तन के वे महान इतिहासकार थे। उन्होंने इसे संपूर्णता में देखा क्योंकि यह देखना एक फासले से था। लेकिन इस फासले ने उन्हें वस्तुओं की तात्कालिक वास्तविकता खासतौर से तत्कालीन समाज की वास्तविकता से दूर रखा। स्वयं अपने लिखे हुए का उद्धरण (साइट एंड साउंड, विंटर 1966-67)- जलती हुई ट्रामों, सांप्रदायिक दंगों, बेरोजगारी, बढ़ती हुई कीमतों, खाद्य की कमी वाला कलकत्ता राय की फिल्मों में मौजूद नहीं है, हालांकि राय इस शहर में रह रहे होते हैं लेकिन उनके और ‘पीड़ा का काव्य’ के बीच जो कि पिछले दस वर्षों से बंग्ला साहित्य पर छाया हुआ है, कोई संबंध नहीं है। जैसे जैसे वक्त गुजरता गया राय के प्रति यह शिकायत एक फुसफुसाहट के स्तर से बढ़कर कर्ण कटु शोर में बदल गयी।
कापुरुष और महापुरुष को महत्वहीन मानकर नकार दिया गया: नायक बाक्स आफिस पर सफल नहीं हुई और चिड़ियाखाना टिप्पणी के योग्य नहीं मानी गयी। बंगाल तथा अन्य स्थानों के कुछ समूहों ने ऋत्विक घटक के काम में अधिक जीवंत समसामयिकता को देखना शुरु कर दिया। घटक की अजांत्रिक (1958) अपने बहुत ही (अभियान के ड्राइवर की तुलना में) विश्वनीय टैक्सी ड्राइवर के साथ, मेघे ढाका तारा (1960) पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के जीवन की तीखी तस्वीर और अंत में ‘मैं जीना चाहता हूं’ की ऊँची आवाज के साथ और अंतत: स्वर्ण रेखा (1965)ने अपनी प्रबल स्पष्टता और पतित क्रांतिकारियों की तीखी विडंबना के साथ, बंग्ला मानस पर गहरा प्रभाव छोड़ा। जब राय की प्रेरणा धीमी हो रही थी तब घटक को बंगाली सिनेमा के वास्तविक भविष्य का प्रतिनिधित्व करने वाले कहीं अधिक महान व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने के जोरदार दावे किए गए। विदेशों में घटक की पहचान बहुत कम थी जबकि राय अपनी पूर्व फिल्मों के बल पर, भारत की तुलना में कहीं अधिक विदेशों में कद ऊंचा बना रहे थे। मृणाल सेन भुवन शोम (1969) हिंदी में, के साथ अखिल भारतीय परिदृश्य पर रोशनी में आए। उनके नव-फ्रांसीसी सिनेमा के प्रति लगाव ने अंतत: एक ऐसी शैली का विकास किया जो सत्यजीत राय की शैली से भिन्न थी। इन सब ने राय को कितना प्रभावित किया यह कहना कठिन है और इसका अनुमान लगाना निरर्थक है। इसका परिणाम गोपी गायने बाघा बायने (1968) के निर्माण में हुआ। यह उपेन्द्र किशोर राय चौधरी द्वारा लिखित मनोरंजक फंतासी पर आधारित थी। बच्चों की दुनिया में वे मूल्य, जो सत्यजीत राय ने टैगोरवादी आदर्शों से बनी पहले की दुनिया से प्राप्त किए थे, पूरी तरह समाप्त नहीं हुए थे। सत्यजीत राय की बाल फिल्मों में वह निर्दोषिता और अपने होने का वह श्रेष्ठ भाव है जो उनकी प्रारंभिक वयस्क फिल्मों में था। आत्म सजगता का भाव प्राय: अपु और परेश बाबू, विश्वंभर राय और काली किंकर राय, आरती और चारुलता में समान रूप से मौजूद प्रवृत्ति है। वे सब बच्चों और जानवरों की तरह अपने आप में तल्लीन हैं, पूरी तरह अपने अपने भाग्य विधानों से जुड़े रहे। बच्चों की फिल्मों में मनुष्येतर जो भी प्राणी मिलते हैं वे परी कथा रूप में मिलते हैं, राय की इन फिल्मों में अनंद की एक गोपन अनुभूति छिपी रहती है। इनमें मौजाटवादी संगीत का गुण है जहां बच्चे बुराई से प्रभावित नहीं होते, वहाँ अगर बादल हैं तो इसलिए कि उनमें से चमकता हुआ सूर्य बाहर आ सके।
आठवाँ दशक
जब तक सत्यजीत राय ने वयस्क दुनिया में नयी समझ और नयी पहचान शुरु की तब तक आठवां दशक शुरू हो चुका था। सन् 1969 में जब अरण्येर दिनरात्रि बनाई गई, बंगाल का वयस्क विश्व लपटों से घिर चुका था। ‘जलती ट्रामों वाला कलकत्ता’ जो सत्यजीत राय की फिल्मों में कभी नहीं देखा गया, एक अग्निपुंज में बदल चुका था। हर रोज हत्याएं हो रही थीं, देसी बम और बंदूकें आम दृश्य और ध्वनियों के हिस्से बन गए थे, युवकों का तीखा असंतोष नक्सलवादी आंदोलन में उभर रहा था जिसमें बहुत से प्रतिभावान विश्वविद्यालयीन युवक शामिल हो गए थे। न केवल इस नयी परिघटना को ही बल्कि पुनर्जागरण के अवशिष्ट गौरव को पीछे छोड़ आई थी और उन्हें लेकर अधीर होने लगी थी। लेकिन जिम्मेदारी का पाठ अरण्येर दिनरात्रि के मनोरंजन का सबसे छोटा अंश है। चारुलता से हर तरीके से भिन्न होने के बावजूद इस फिल्म में संरचना और संगीतात्मक लय में वैसी ही परिपूर्णता है। इसमें वैसी ही गीतात्मकता, पुनरावृत्तियों और अनुगूंजों का वैविध्य और वैसी ही स्वरानुक्रम की सटीकता मौजूद है। फिल्म का रूप अनेक प्रकार से ज्यां रेनेवां की फिल्म ‘रूल्स आफ द गेम्स’ की याद दिलाता है। भारतीय खाततौर पर बंगाली बुद्धिजीवीयों की दृष्टि में विषयवस्तु स्वयं को विधान से आसानी से अलग कर लेती है, भारतीय बुद्धिजीवी संरचना और विवरण के अवलोकन को विषयवस्तु की तरह ही कला के आवश्यक तत्त्व के रूप में मुश्किल से ही देख पाता है। बर्गमैन की द सेवेन सील को वह पसंद करता है और स्माइल आफ ए समर नाइट के जादुई आकर्षण को वह महसूस नहीं कर पाता। जब अरण्येर दिनरात्रि को पहले पहल प्रदर्शित किया गया था तो इसे बहुत लोगों ने अतिसामान्य बताकर खारिज कर दिया था। प्राय: राय के दर्शक ही अधिक साहित्यिक सिद्ध होते हैं, उनकी इस फिल्म में चरण दर चरण निर्मिति इतनी परिपूर्ण है जितनी कि चारुलता में थी। इसकी लय में अधिक वैविध्य है, इस पात्र के पास संचालन की अपनी गति और शैली है जो इस गुट की लापरवाह तथा अलग अलग प्रवृत्ति, आंतरिक दायित्व बोध की कमी को उजागर करती है। पात्रों की ये भिन्नाएं उन गुणों के बावजूद हैं जो उनमें समान रूप में मौजूद हैं।
समकालीन वास्तविकता से साक्षात्कार
सत्यजीत राय की पेशेवर जिंदगी में प्रतिद्वंद्वी कई मायनों में प्रथम मुकाम है। पहली दफा इस फिल्म में वे उस तकनीक का प्रयोग करते हैं जिसे वे कभी मृणाल सेन के साथ हुए एक तीखे सार्वजनिक विवाद में चालू लटका कहकर खारिज कर चुके थे। कहानी एक नकार से शुरू होती है, नकार से ही अनेक बिंदुओं को पकड़ती हैं, खासकर उस दृश्य में यह नकार अपनी पराकाष्ठा पर है जहां नर्स वेश्या अपनी कंचुकी खोलने को उद्यत दिखाई पड़ती है। बीच बीच में सिद्धार्थ की मेडिकल शिक्षा की छवियां अचानक और संक्षिप्त रूप में दिखती हैं उदाहरण के लिए जब सुगठित काया वाली एक लडकी गली से गुजरती है तो पर्दे पर ‘स्त्री वक्षस्थल’ का डायग्राम उभरता है जिसकी तकनीकी व्याख्या एक शिक्षक कर रहा होता है। फिर काल्पनिक कामनापूर्ति के दृश्यों की झांकियां भी हैं, जैसे एक दृश्य में सिद्धार्थ द्वारा अपनी बहन के बॉस को पीटते हुए दिखाया जाता है। यहाँ ऐसा लगता है मानो राय यह सिद्ध करने के लिए कृतसंकल्प हों कि अगर लटकों-झटकों की बात है, तो उनके प्रयोग में भी वे उतने ही सिद्धहस्त हैं जितने की दूसरे या संभवत: उनसे बेहतर।
सत्यजीत राय की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति शांतिनिकेतन के अपने पूर्व शिक्षक-चित्रकार विनोद बिहारी मुखोपाध्याय पर बना वृत्तपूर्ण है। दृष्टि खो देने के बाद भी श्री मुखोपाध्याय सक्रिय चित्रकारी में लगे रहे थे। बीस मिनट के इस वृत्तचित्र दि इनर आइ (1972) में राय मने चित्रकार के जीवन और कृतियों के बारे में तथ्यपरक जानकारी अपनी विशिष्ट शैली में दी है। यहां चित्रकार के नेत्रहीन होने के साथ व्यर्थ की भावुकता कहीं भी नहीं दिखती। नतीजतन, तथ्यों की बारीक प्रस्तुति तब अत्यंत मार्मिक हो उठती है जब चित्रकार को हम उसके अंधेपन के दौर में पाते हैं और देखते हैं कि कैसे यह नेत्रहीन चित्रकार घर के इर्द-गिर्द घूम लेता है, कैसे बिना किसी की सहायता के अपने लिए चाय बना लेता है आदि आदि।
हिन्दी फ़िल्म
सत्यजीत राय वर्षों तक हिंदी में फिल्म बनाने के प्रस्तावों की अनसुनी करते रहे। हिंदी भाषा की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी और इसीलिए वे जानते थे कि भाषा की यह गैरजानकारी फिल्म-निर्माण की उनकी निजी शैली को रास नहीं आएगी। अभी तक उनकी फिल्मों में एक भी संवाद नहीं था, जिसे उन्होंने खुद न लिखा हो। लेकिन शतरंज के खिलाड़ी में वे ऐसा नहीं कर सके। अंशत: रंगीन माध्यम में काम करने की जरूरत से तो शायद अंशत उस विशिष्ट कालावधि और परिदृश्य की व्यापकता के आकर्षण से अनुप्राणित होकर राय ने न केवल हिंदी वनर वाजिद अली शाह के जमाने की शिष्ट उर्दू में फिल्म बनाना स्वीकार किया। मुंशी प्रेमचंद की यह मशहूर कहानी अपने कलेवर में अत्यंत संक्षिप्त है। कहानी एक महत्त्वपूर्ण विरोधाभास का महज रेखांकन करती है कि कैसे, तब अंग्रेज़ों द्वारा लखनऊ पददलित किया जा रहा था, दो नवाबों ने शतरंज के खेल में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी। भाषा की जानकारी नहीं होने का ही नतीजा था कि सत्यजीत राय को इस फिल्म में दूसरों की सहायता लेनी पड़ी, तथापि उन्होंने इस फिल्म में ख्यातिलब्ध और निपुण कलाकारों को ही भूमिकाएं सौंपी थीं। नवाब की भूमिका में अमजद खान जो कि समकालीन लोकप्रिय हिंदी फिल्मों के ठप्पेदार खलनायक के रूप में मशहूर थे तथा जिनसे दर्शक स्नेहित घृणा करते थे, खासे उम्दा लगे। दोनों नवाबों की भूमिकाओं में जिन्हें क्रमश: संजीव कुमार तथा सईद जाफ़री ने निभाया है, भी अभिनय की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। फिर भी जाफ़री के अभिनय में लखनऊ की शिष्ट वाक्पटुता तथा संस्कार (परिष्करण) की ज्यादा सच्ची अभिव्यक्ति हुई है। हालांकि यह सत्यजीत राय की किसी भी अन्य फिल्म से ज्यादा बजट की फिल्म थी जिसमें हिंदी फिल्मों के अति लोकप्रिय सितारों ने भूमिकाएं की थीं, फिर भी कलकत्ता को छोड़कर जहाँ इसने कमोबेश अच्छा व्यवसाय दिया था, शतरंज के खिलाड़ी कहीं भी एकमुश्त बड़े माने पर रिलीज नहीं हो पाई। ढेर सारी आलोचनाएं भी मिलीं, खासकर उन लोगों की जो वाजिद अली शाह को ‘भारत का अंतिम स्वायत्त शासक’ के रूप में महिमामंडित होते देखना चाहते थे। इस विषय पर एक साक्षात्कार के दौनार अपनी राय जाहिर करते हुए सत्यजीत राय ने कहा था:
बहुत ही संभव है कि अवध के अतिक्रमण की घटना कोई ऐसा चित्रण करे जिसमें वाजिद अली शाह का महिमामंडन हो तथा आटरैम की भर्त्सना। ऐसे चित्रण से, जाहिर है, फिल्म की लोकप्रियता में स्वत: इजाफा हो जाता। मेरी फिल्म इस अयथार्थवादी चित्रण से मुक्त है। यह फिल्म उस प्रवृत्ति को भी हतोत्साहित करती है जो सामंतवाद और उपनिवेशवाद के प्रति मायूस किंतु ‘स्वीकृत प्रक्रिया’ के रूप में अक्सर उनकी कमियों को नजरअंदाज कर देती है या फिर उनकी बुराइयों को समझने के साथ-साथ उनके चरित्रों में ख़ास मानवीय प्रवृत्तियाँ देखने का आग्रह करती है। इन मानवीय प्रवृत्तियों का अन्वेषण नहीं किया जाता, बल्कि ऐतिहासिक साक्ष्य से उन्हें पुष्ट किया जाता है। मैं जानता था कि ऐसे चित्रण से मनोवृत्ति का द्वैध पैदा होगा तथापि शतरंज के खिलाड़ी को मैं ऐसी कहानी नहीं मानता जिसमें आसानी से किसी एक पक्ष का हिमायती बना जा सके। यह कहानी मेरे लिए विचारोत्तेजक ज्यादा है जिसमें दो संस्कृतियों की टकराहट है- एक निष्प्राण और अप्रभावी संस्कृति है तो दूसरी अमंगलकारी किंतु ऊर्ज्वसित। इन दो धुर छोरों की उन अर्द्ध अर्थच्छायाओं को भी पकडने की कोशिश की है जो इन दोनों छोरों के बीच झलकती हैं।
प्रेमचन्द की यह कहानी आजादी से बहुत पहले लिखी गई थी। सत्यजीत राय की फिल्म भी उसी यथार्थ को दर्शाती है जो तब से लेकर अब तक अपरिवर्तित रही है। सच ही, आज के इस दौर में जब पुनरुत्थानवादी हिंदू कट्टरता तथा हरिजनों के विरुद्ध दमन की वारदातें बढ़ रही हैं, फिल्म नए रूप में प्रासंगिक हो जाती है। सत्यजीत राय प्रेमचंद की कहानी में कोई भी परिवर्तन नहीं करते, शीर्षक से लेकर पंक्ति-दर-पंक्ति वे प्रेमचन्द का अनुसरण करते हैं और कहना न होगा कि राय के लिए यह प्रविधि अस्वाभाविक है। तथापि सत्यजीत राय इस फिल्म को प्रभावित कर देने वाली विश्वसनीयता से लैस कर देते हैं- एक ऐसी विश्वसनीयता जिसे कोई सिद्धाहस्त व्यक्ति ही चलचित्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है। शतरंज के खिलाड़ी की अनुवर्ती राय की फिल्में या तो उल्लासकारी हैं। या बच्चों के लिए उपदेशात्मक कहानियां, (जय बाबा फेलुनाथ, हीरक राजार देशे) या फिर दूरदर्शन के लिए बनाई गई लघु फिल्में (पिकू, सद्गति) जबकि लोग उनसे यह आस लगाए बैठे थे कि वे मानव मन की गहरी अनुभूतियों पर आधारित कोई महती कृति लेकर उपस्थित होंगे।
अंतिम चरण
घरे बाहरे (1984) के निर्माण के साथ सत्यजीत राय की जो बीमारी शुरू हुई उससे वे पूर्ण रूप से कभी भी निजात नहीं पा सके और उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता रहा। अपने पिता पर बनाए गए आधे घंटे की लघु फिल्म को छोड़ दें तो वे पूरे पांच साल तक फिल्म निर्माण से अलग रहे। गणशत्रु और उसके बाद की फिल्मों का निर्देशक डाक्टरों और नर्सों से घिरा रहता था, दरवाजे पर एम्बुलेंस गहन चिकित्सा कक्ष के बतौर खड़ी रहती थी। ‘अब मेरा डाक्टर- मुझे फिल्म निर्माण की विधि बता रहा है और मुझे आदेश है कि मैं स्टूडियों के अंदर ही कार्य करूं।’ किंतु साथ में उनका यह भी कहना था कि कैमरे के पीछे आकर काम करना उन्हें प्रफुल्लित कर देता था। और दवाइयों से जितनी राहत मिली उससे कहीं अधिक राहत उन्हें कैमरे से मिली।
गणशत्रु (1989) अंधविश्वास पर देवी से भी कहीं ज्यादा करारी चोट करती है। इसके दुष्परिणामों का भोक्ता यहां कोई एक व्यक्ति नहीं है, न ही समाज का कोई एक ख़ास तबका है। शाखा-प्रशाखा (1990) अपने दूरदर्शन प्रसारण पर भी कहीं से कमजोर नहीं दिखी और जैसा कि हम जानते हैं, राय की कृतियों के संदर्भ में यह एक अजूबी बात थी। स्पष्ट ही, गणशत्रु की तुलना में यह फिल्म बहुत ज्यादा विकसित है, रंगमंचीय दृष्टि से सशक्त है, इसकी रचना में कसाव है और इसमें ऐसे सिनेमाई क्षण हैं जिनकी अपेक्षा हम केवल महान फिल्म निर्माताओं से ही कर सकते हैं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ