"सत्यजित राय": अवतरणों में अंतर
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सत्यजीत राय का सिनेमा का प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फिल्मों के अध्यायन के रूप में हुआ- वास्तव में आज़ादी से पूर्व वे ये ही फिल्में देख सकते थे। जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा- उन्होंने फिल्म निर्माण मुख्यत: अमरीकी फिल्मों को बार-बार देखकर सीखा। तार्किक और (कम से कम सतह पर) यथार्थवादी वर्णन की हॉलीवुड शैली ने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा। | सत्यजीत राय का सिनेमा का प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फिल्मों के अध्यायन के रूप में हुआ- वास्तव में आज़ादी से पूर्व वे ये ही फिल्में देख सकते थे। जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा- उन्होंने फिल्म निर्माण मुख्यत: अमरीकी फिल्मों को बार-बार देखकर सीखा। तार्किक और (कम से कम सतह पर) यथार्थवादी वर्णन की हॉलीवुड शैली ने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा। | ||
;पाथेर पांचाली की सफलता; | |||
पाथेर पांचाली की निर्विवाद सफलता के बाद ही हुआ कि सत्यजीत राय ने, जिन्हें फिल्म निर्माण के दौरान कुछ महीनों की छुट्टी सवेतन प्रदान की गई थी, अंतत: डी.जे. केमर एवं कंपनी की अपनी नौकरी छोड़ दी। विज्ञापन में उनकी रुचि पूरी तरह कभी भी समाप्त नहीं हुई, अपनी प्राथमिक फिल्मों के लिए प्रचार सामग्री खुद ही तैयार करने के अलावा वे कई वर्षों तक क्लेरियन एडवरटाइजिंग सर्विसेज (डी.जे. केमर के उत्तराधिकारी, और कर्मचारियों के स्वामित्व वाली) के एक निदेशक के रूप में कार्य करते रहे। यहाँ उनके कई पुराने साथी अभी कार्य करते हैं। | पाथेर पांचाली की निर्विवाद सफलता के बाद ही हुआ कि सत्यजीत राय ने, जिन्हें फिल्म निर्माण के दौरान कुछ महीनों की छुट्टी सवेतन प्रदान की गई थी, अंतत: डी.जे. केमर एवं कंपनी की अपनी नौकरी छोड़ दी। विज्ञापन में उनकी रुचि पूरी तरह कभी भी समाप्त नहीं हुई, अपनी प्राथमिक फिल्मों के लिए प्रचार सामग्री खुद ही तैयार करने के अलावा वे कई वर्षों तक क्लेरियन एडवरटाइजिंग सर्विसेज (डी.जे. केमर के उत्तराधिकारी, और कर्मचारियों के स्वामित्व वाली) के एक निदेशक के रूप में कार्य करते रहे। यहाँ उनके कई पुराने साथी अभी कार्य करते हैं। | ||
;त्रयी | |||
'''पाथेर पांचाली''' के बाद राय अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने फिल्म निर्माण फिल्में देखकर सीखा। जो बातें फिल्में नहीं सिखा पाईं वे उन्होंने काम के दौरान सीखीं। यद्यपि 'पाथेर पांचाली' को सन 1956 में केन्स में एक पुरस्कार दिया गया था, पर वास्तव में सन 1957 में 'वेनिस महोत्सव' में 'अपराजितो' को मिला ग्रांड प्राइस पुरस्कार ही था जो पाथेर पांचाली को अंतर्राष्ट्रीय आलोक में लाया। न्यूयार्क में पाथेर पांचाली सितंम्बर सन [[1958]] से पहले रिलीज नहीं हो पाई। | |||
;अपराजितो (1956) | |||
अपराजितो में अपनी पूर्ववर्ती फिल्म के तात्विक गुण नहीं हैं, न इसकी संरचना इसे वैसी ही संतोषकारी पूर्ण कृति बना पाती है। यह फिल्म अपेक्षाकृत तीन भागों में बंट जाती है, संरचनात्मक रूप से अपराजितो मुख्यत: पाथेर पांचाली और 'अपुर संसार' के बीच पुल के रूप में अर्थपूर्ण है। स्वयं अपने आप में यह पर्याप्त संतुलित नहीं है, [[बनारस]] जीवंत हो उठता है अपनी दार्शनिक गहराई और भावनात्मक प्रत्यक्षता में अपराजितो राय की फिल्मों में असाधारण हे, खासतौर पर बनारस के दृश्यों में। | |||
;अपुर संसार (1959) | |||
सत्यजीत राय के संरचनात्मक दृढ़ता के गुण की ओर वापस मुड़ती है और अपराजितो की दृष्टिकोण की शुद्धता को जारी रखती है और उससे आगे भी पहुंचती हैं फिल्म एक ऐसे दृढ़ प्राकृतिक तर्क के साथ आगे बढ़ती है जो इसके काव्य को पूरी तरह औचित्यपूर्ण ठहराता है, स्वयं घटनाओं में से उभरता हुआ जैसा कि वह है न कि घटनाओं के ऊपर फिल्म निर्माता द्वारा थोपा हुआ। | |||
==प्रथम दस वर्षों में से शेष वर्ष== | |||
पाथेर पांचाली तीनों फिल्मों में से सर्वाधिक मुखर और सार्वभौम ‘प से आकर्षक है, लेकिन अपुर संसार अपनी अधिक निजी, रूमानी लेकिन नियंत्रित भावना, अपनी दोषरहित संरचना और कुशल शिल्प के कारण त्रयी के तीसरे खंड के निर्माण से पूर्व '''पारस पत्थर''' और '''जलसा घर''' नाम की दो फिल्में बनाईं, जिन्होंने उनके शिल्प को काफी निखारा था। अपनी पूरी कामेडी के साथ '''पारस पथर''' तत्कालीन शहरी जीवन में राज की पहली दखलंदाजी है। क्लर्क परेश बाबू की उनकी समझ इतनी पूर्ण और साहित्यिक रूढ़ चरित्रों में से इतनी पूर्णता के साथ बनी है जितनी कि त्रयी के चरित्रों के बारते में। | |||
;'जलसा घर (1958) | |||
वास्तविक मार्मिकता का खूबसूरत आह्वान। फिल्म दोनों ही काम करती है, उनकी क्षमताओं का विकास करती है और उन्हें उनकी पहली दो फिल्मों के नव यथार्थवादी दायरों से बाहर भी ले जाती है। जलसा घर यथार्थ परक मुख्यत: लोकेशन शाट वाली तथा गैर पेशेवरों द्वारा अभिनीत फिल्म है। जलसा घर में उन्होंने स्टूडियों के परिवेश को अधिक महत्व दिया और बंगाली सिनेमा की एक बड़ी हस्ती छवि विश्वास को निर्देशित किया। यहाँ वे विश्रांति और नव यथार्थवाद की मान्यताओं को छोड़कर वैयक्तिक चरित्र और परिस्थिति के प्रति उनके सम्मोहन के अधिक निकट आए। | |||
जलसा घर और पारस पत्थर दोनों में अपनी पहली दो फिल्मों के विपरीत राय अधिकाधिक संभावित भिन्न-भिन्न वस्तुओं को साधने की कोशिश करते हैं। वह निर्धनता के शोकाकुल नव यथार्थवादी इतिहासकार के रूप में स्वयं को रूढ़ करने से इंकार कर देते हैं। फिर भी जलसा घर उसी तरह से सामाजिक परिवर्तन की एक कहानी है जैसे कि त्रयी की पहली दो फिल्में हैं, और एक निर्धन व्यक्ति की तरह ही पारस पत्थर का क्लर्क भी हमारी सहानुभूति जीत लेता है। | |||
'''देवी''' ने रूढ़िवादियों में अपने प्रति कुछ विरोध पैदा किया और साथ ही उदारपंथियों को भी विचलित किया, पर यह फिल्म ‘प्रगति’ का पक्ष नहीं लेती। | |||
सन 1960 का वर्ष रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म शताब्दी वर्ष था। राय ने इसको एक फीचर फिल्म और एक दीर्घ वृत्तचित्र के साथ मनाया। यह उस व्यक्ति के पति एक श्रद्धांजलि थी जो भारतीयों, विशेष रूप से बंगालियों की कुछ पीढ़ियों का पथ-प्रदर्थक रहा था। बड़ी संख्या में लिखी गई टैगोर की कहानियों में से बहुत-सी कहानियां उत्कृष्ट शिल्पबद्ध हैं, फिर भी उनमें सहजता, मानवता है जो उन्हें एक विशाल पाठक वर्ग में लोकप्रिय बना देती है। | |||
'''पोस्ट मास्टर''' में राय एक बार फिर अपने रूप में दिखाई देते हैं। चालीस मिनट की यह फिल्म अपने संक्षिप्त लेकिन कुशलता से शिल्पबद्ध किए गए अपने रूपाकार के भीतर मानवीय गरिमा से आप्लावित है। | |||
'''कंचनजंघा''' (1962) राय की पहली रंगीन फिल्म थी, जो उनकी अपनी कहानी पर आधारित थी और इस दृष्टि से भी पहली कि इसमें तत्कालीन समाज को साधा गया था। पारस पत्थर में कलकत्ता के जीवन की झलकियां हैं लेकिन यथार्थ और फैंटेसी का मिश्रण इसे किनारे कर देता है, और उसे तत्कालीन सामाजिक रीति-रीवाजों पर टिप्पणी के रूप में मुश्किल से ही व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन पारस पत्थर के कुछ दृश्यों की तरह कंचनजंघा में भी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की, भले ही यह सौम्य क्यों न हो, टकराहट को उजागर किया गया है। | |||
'''अभियान''' (1962) राय के कैरियर में एक ऐसे विचलन का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी व्याख्या इसी रूप में की जा सकती है कि राय जिस काम के लिए प्रशंसित होते हैं, कुछ समय बाद वे उस काम की सीमाओं को तोड़कर बाहर आना चाहते हैं और किसी नए और अहप्रचलित पर हाथ आजमाना चाहते हैं, टैक्सी ड्राइवरों, तस्करों और रखैल औरतों की दुनिया राय के मध्यवर्गीय अनुभव से उतनी ही दूर है जितनी कि कोई भी वस्तु हो सकती है। | |||
उनकी अगली तीन फिल्मों- '''महानगर''' (1963), '''चारुलता''' (1964) और लघु फीचर फिल्म '''कापुरुष''' (1965)- में औरत के प्रति एक नया बोध दिखाई देता है, पुरुष की परछाईं के रूप में नहीं बल्कि उसकी अपनी निजता के रूप में। महानगर में पहली बार ऐसा होता है कि हम ऐसी औरत को सामने पाते हैं जो अपनी स्वयं की जिंदगी की दिशा निर्धारित करने की संभावनाओं के प्रति जागरूक है। विशिष्टता यह है कि जागृति का यह स्पर्श पति की ओर से आता है, क्योंकि पारंपरिक रूप से पुरुष स्वतंत्र है ठीक उसी तरह जैसे कि वे स्त्रियों को गुलाम बनाए हुए हैं। | |||
राय का विश्लेषणात्मक तरीका और कम शब्दों तथा सटीकता के साथ मानसिक घटना को अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता चारुलता में अपने शिखर पर पहुंचती है। उनका तरीका इस कथन को उचित ठहराता है कि भारतीय परंपरा में सज्जा और अभिव्यक्ति दो अलग अलग वस्तुएं न होकरह एक हैं। उनका शिल्प विवरण की ऐसी उत्कृष्टता तक पहुंचता है जो कौशल को कला में, मात्रा को गुण में और सज्जा को भावनात्मक अभिव्यक्ति में बदल देता है। | |||
इस फिल्म में जो पूरी दोषरहित है, कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण दृश्य भी हैं जिनका उल्लेख किया जाना चाहिए। चारु के अकेलेपन को दर्शाने वाला प्रारंभिक दृश्य शब्दरहित चरित्र चित्रण का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसकी तुलना जलसा घर के दृश्य से की जा सकती है। यहां इस दृश्य को एक दूरबीन (ओपेरा ग्लास) की विकसित तकनीक द्वारा संपन्न किया गया है। फिल्म का झूले का दृश्य फिल्म का सर्वाधिक प्रभावशाली दृश्य है और रेनेवां जैसे प्रकाश छाया चित्रण से रोशन है, इस दृश्य को सूक्ष्मता से तराशा गया है जहां हर बार क्षणांश के लिए चारु का पैर जमीन का स्पर्श करता है ताकि झूले की गति को अतिरिक्त बल दिया जा सके। फिर वह क्षण है जब चारु झूले की गति को धीमा करती है अपनी दूरबीन अमल पर स्थिर करती है और, स्याह होते चेहरे के साथ, अनव करती है कि वह उससे प्रेम करने लगी है। राय की शब्दरहित संप्रेषण की शैली में यह एक बड़ी उपलब्धि है, बचपन के दिनों को उसके स्मृत करने के लंबे दृश्यों में, जिसमें एक खूबसूरत लय है जिसे झूले के मंददोलन के साथ उस नाव के दोलन को मिलाकर गढ़ा गया है जिसका पाल कुशलता से तैयार किया गया है और जिसमें उसका चेहरा धीरे से विलीन हो जाता है। यह एक लयात्मक स्थानांतरण है जो हमें चारु की उस मन:स्थिति के समांतर खड़ा कर देता है जिसमें वह अतीत की ललक से भरी हुई है और जिस बारे में वह लिखना चाहती है। वर्णन का यह श्रेष्ठ गुण ही राय की फिल्म को साधरण रूप रेखा के साथ कही गई कहानी से सौंदर्य की दृष्टि से ऊपर उठा देता है। | |||
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08:43, 24 जनवरी 2011 का अवतरण
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सत्यजीत रे
- विश्व में भारतीय फिल्मों को नई पहचान दिलाने वाले सत्यजीत राय (जन्म- 2 मई, 1921 कलकत्ता - मृत्यु- 23 अप्रॅल, 1992 कोलकाता) 20वीं सदी की विश्व की महानतम फिल्मी हस्तियों में एक थे, जिन्होंने यथार्थवादी धारा की फिल्मों को नई दिशा देने के अलावा साहित्य, चित्रकला जैसी अन्य विधाओं में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।
- सत्यजित राय प्रमुख रूप से फ़िल्मों में निर्देशक के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन लेखक और साहित्यकार के रूप में भी उन्होंने फ़िल्मों और साहित्य में ख्याति अर्जित की है।
- कोलकाता के एक जाने-माने बंगाली परिवार में 2 मई, 1921 को जन्मे सत्यजीत राय फिल्म निर्माण से संबंधित कई काम खुद ही करते थे। इनमें निर्देशन, छायांकन, पटकथा, पार्श्व संगीत, कला निर्देशन, संपादन आदि शामिल हैं।
- फिल्मकार के अलावा वह कहानीकार, चित्रकार, फिल्म आलोचक भी थे। सत्यजीत राय कथानक लिखने को निर्देशन का अभिन्न अंग मानते थे।
जीवन परिचय
अपने माता-पिता की इकलौती संतान सत्यजीत राय के पिता सुकुमार राय की मृत्यु सन 1923 में हुई जब सत्यजीत राय मुश्किल से दो वर्ष के थे। उनका पालन-पोषण उनकी माँ सुप्रभा राय ने अपने भाई के घर में ममेरे भाई-बहनों, मामा-मामियों वाले एक भरे-पूरे और फैले हुए कुनबे के बीच किया। उनकी मां जो लंबे सधे व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं, रवीन्द्र संगीत की मंजी हुई गायिका थीं और उनकी आवाज़ काफी दमदार थी। उनके द्वारा निर्मित बुद्ध और बोधिसत्व की मिट्टी की मूर्तियों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इनके दादाजी उपेन्द्रकिशोर राय एक लेखक एवं चित्रकार थे और इनके पिताजी भी बांग्ला में बच्चों के लिए रोचक कविताएँ लिखते थे और वह एक चित्रकार भी थे। यह परिवार अपरिहार्य रूप से टैगोर घराने के नजदीक था। प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता से स्नातक होने के बाद राय पेंटिंग के अध्ययन के लिए जिसमें वे प्रारंभिक अवस्था में ही अपनी योग्यता प्रदर्शित कर चुके थे, रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन चले गए।
शांतिनिकेतन में शिक्षा
शांतिनिकेतन में सत्यजीत राय ने नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय जैसे सिद्धहस्त कलाकारों से शिक्षा प्राप्त की जिन पर बाद में उन्होंने ‘इनर आई’ फिल्म बनाई। उन दिनों शांतिनिकेतन साहित्य और कला की नयी भारतीय चेतना के केंद्र के रूप में न केवल देश में बल्कि विश्व भर में चर्चित था। टैगोर के प्रति आकर्षण समूचे भारत से छात्र और अध्यायकों को यहाँ खींच लाता था। अन्य देशों से भी छात्र यहाँ आते थे और इस तरह एक ऐसी नयी भारतीय संस्कृति के विकास की परिस्थितियां निर्मित हो रही थीं जो अपनी स्वयं की परंपराओं पर आधारित थीं लेकिन विश्व परंपराएं जिनमें टैगोर के व्यक्तित्व और कृतित्व का योगदान हो रहा था, से वह समृद्ध हो रही थीं।
प्रेस और प्रकाशन संस्थान
सन 1942 में मध्य भारत के कला स्मारकों के भ्रमण के बाद राय ने शांतिनिकेतन छोड़ दिया। शीघ्र ही उन्हें एक ब्रिटिश विज्ञापन एजेंसी 'डी .जे. केमर एंड कंपनी' में वाणिज्यिक कलाकार (कमर्शियल आर्टिस्ट) के रूप में रोजगार मिल गया जहाँ काम करते हुए उन्होंने पुस्तकों के आवरण पृष्ठों की डिजाइनिंग और रेखांकन कार्य पर्याप्त मात्रा में किया। यह काम उन्होंने भारतीय पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में नए मानक स्थापित करने वाले अग्रणी प्रकाशन संस्थान साइनेट प्रेस के लिए किया। जिन पुस्तकों का उन्होंने रेखांकन किया उनमें से एक 'विभूति भूषण बंद्योपाध्याय' की पाथेर पांचाली का संक्षिप्त संस्करण भी था।
सिनेमा में रुचि और प्रशिक्षण
इस समय तक, फिल्मों में उनकी रुचि पर्याप्त रूप से उजागर हो चुकी थी। सन 1947 में उन्होंने अन्य लोगों के साथ 'कलकत्ता फिल्म सोसायटी' की स्थापना की और भारतीय सिनेमा की समस्याओं तथा सिनेमा किस तरह का चाहिए, विषय पर लेख लिखे। कलकत्ता फिल्म सोसायटी ने बड़ी संख्या में सिने प्रेमियों को जुटाया जिनमें से कुछ प्रमुख फिल्म निर्माता बने। राय की पहल ने न केवल उन्हें फिल्म शिक्षण प्रदान किया बल्कि अन्य को भी फिल्मी शिक्षा प्रदान की, क्योंकि कलकत्ता फिल्म सोसायटी ने विश्व सिनेमा की बहुत सी ऐसी प्रमुख कृतियों का प्रदर्शन किया जो इससे पूर्व भारत में कभी नहीं दिखाई गई थीं।
विदेश में प्रशिक्षण
सन 1950 में उनके नियोक्ताओं ने उन्हें अग्रिम प्रशिक्षण के लिए लंदन भेजा। यह उनकी लिंड्से एंडर्सन और गाविन लम्बर्ट से मित्रता हुई और उन्होंने अपने साढ़े चार माह के प्रवास के दौरान लगभग सौ फिल्में देखीं जिनमें बाइसिकिल थीवस तथा अन्य इतालवी नव-यथार्थवादी फिल्में शामिल थीं, जिन्होंने सत्यजीत राय के ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा। जलयान द्वारा भारत वापस लौटते समय ही उन्होंने पाथेर पांचाली की पटकथा लिखना शुरू किया। सन 1952 में भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन हुआ जिसमें उन्होंने एक बार फिर इतालवी नव-यथार्थवादी फिल्मों से साक्षात्कार किया। साथ ही जापान सहित अन्य देशों की फिल्मों भी उन्होंने देखीं।
प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फिल्मों से
सत्यजीत राय का सिनेमा का प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फिल्मों के अध्यायन के रूप में हुआ- वास्तव में आज़ादी से पूर्व वे ये ही फिल्में देख सकते थे। जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा- उन्होंने फिल्म निर्माण मुख्यत: अमरीकी फिल्मों को बार-बार देखकर सीखा। तार्किक और (कम से कम सतह पर) यथार्थवादी वर्णन की हॉलीवुड शैली ने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा।
- पाथेर पांचाली की सफलता;
पाथेर पांचाली की निर्विवाद सफलता के बाद ही हुआ कि सत्यजीत राय ने, जिन्हें फिल्म निर्माण के दौरान कुछ महीनों की छुट्टी सवेतन प्रदान की गई थी, अंतत: डी.जे. केमर एवं कंपनी की अपनी नौकरी छोड़ दी। विज्ञापन में उनकी रुचि पूरी तरह कभी भी समाप्त नहीं हुई, अपनी प्राथमिक फिल्मों के लिए प्रचार सामग्री खुद ही तैयार करने के अलावा वे कई वर्षों तक क्लेरियन एडवरटाइजिंग सर्विसेज (डी.जे. केमर के उत्तराधिकारी, और कर्मचारियों के स्वामित्व वाली) के एक निदेशक के रूप में कार्य करते रहे। यहाँ उनके कई पुराने साथी अभी कार्य करते हैं।
- त्रयी
पाथेर पांचाली के बाद राय अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने फिल्म निर्माण फिल्में देखकर सीखा। जो बातें फिल्में नहीं सिखा पाईं वे उन्होंने काम के दौरान सीखीं। यद्यपि 'पाथेर पांचाली' को सन 1956 में केन्स में एक पुरस्कार दिया गया था, पर वास्तव में सन 1957 में 'वेनिस महोत्सव' में 'अपराजितो' को मिला ग्रांड प्राइस पुरस्कार ही था जो पाथेर पांचाली को अंतर्राष्ट्रीय आलोक में लाया। न्यूयार्क में पाथेर पांचाली सितंम्बर सन 1958 से पहले रिलीज नहीं हो पाई।
- अपराजितो (1956)
अपराजितो में अपनी पूर्ववर्ती फिल्म के तात्विक गुण नहीं हैं, न इसकी संरचना इसे वैसी ही संतोषकारी पूर्ण कृति बना पाती है। यह फिल्म अपेक्षाकृत तीन भागों में बंट जाती है, संरचनात्मक रूप से अपराजितो मुख्यत: पाथेर पांचाली और 'अपुर संसार' के बीच पुल के रूप में अर्थपूर्ण है। स्वयं अपने आप में यह पर्याप्त संतुलित नहीं है, बनारस जीवंत हो उठता है अपनी दार्शनिक गहराई और भावनात्मक प्रत्यक्षता में अपराजितो राय की फिल्मों में असाधारण हे, खासतौर पर बनारस के दृश्यों में।
- अपुर संसार (1959)
सत्यजीत राय के संरचनात्मक दृढ़ता के गुण की ओर वापस मुड़ती है और अपराजितो की दृष्टिकोण की शुद्धता को जारी रखती है और उससे आगे भी पहुंचती हैं फिल्म एक ऐसे दृढ़ प्राकृतिक तर्क के साथ आगे बढ़ती है जो इसके काव्य को पूरी तरह औचित्यपूर्ण ठहराता है, स्वयं घटनाओं में से उभरता हुआ जैसा कि वह है न कि घटनाओं के ऊपर फिल्म निर्माता द्वारा थोपा हुआ।
प्रथम दस वर्षों में से शेष वर्ष
पाथेर पांचाली तीनों फिल्मों में से सर्वाधिक मुखर और सार्वभौम ‘प से आकर्षक है, लेकिन अपुर संसार अपनी अधिक निजी, रूमानी लेकिन नियंत्रित भावना, अपनी दोषरहित संरचना और कुशल शिल्प के कारण त्रयी के तीसरे खंड के निर्माण से पूर्व पारस पत्थर और जलसा घर नाम की दो फिल्में बनाईं, जिन्होंने उनके शिल्प को काफी निखारा था। अपनी पूरी कामेडी के साथ पारस पथर तत्कालीन शहरी जीवन में राज की पहली दखलंदाजी है। क्लर्क परेश बाबू की उनकी समझ इतनी पूर्ण और साहित्यिक रूढ़ चरित्रों में से इतनी पूर्णता के साथ बनी है जितनी कि त्रयी के चरित्रों के बारते में।
- 'जलसा घर (1958)
वास्तविक मार्मिकता का खूबसूरत आह्वान। फिल्म दोनों ही काम करती है, उनकी क्षमताओं का विकास करती है और उन्हें उनकी पहली दो फिल्मों के नव यथार्थवादी दायरों से बाहर भी ले जाती है। जलसा घर यथार्थ परक मुख्यत: लोकेशन शाट वाली तथा गैर पेशेवरों द्वारा अभिनीत फिल्म है। जलसा घर में उन्होंने स्टूडियों के परिवेश को अधिक महत्व दिया और बंगाली सिनेमा की एक बड़ी हस्ती छवि विश्वास को निर्देशित किया। यहाँ वे विश्रांति और नव यथार्थवाद की मान्यताओं को छोड़कर वैयक्तिक चरित्र और परिस्थिति के प्रति उनके सम्मोहन के अधिक निकट आए।
जलसा घर और पारस पत्थर दोनों में अपनी पहली दो फिल्मों के विपरीत राय अधिकाधिक संभावित भिन्न-भिन्न वस्तुओं को साधने की कोशिश करते हैं। वह निर्धनता के शोकाकुल नव यथार्थवादी इतिहासकार के रूप में स्वयं को रूढ़ करने से इंकार कर देते हैं। फिर भी जलसा घर उसी तरह से सामाजिक परिवर्तन की एक कहानी है जैसे कि त्रयी की पहली दो फिल्में हैं, और एक निर्धन व्यक्ति की तरह ही पारस पत्थर का क्लर्क भी हमारी सहानुभूति जीत लेता है।
देवी ने रूढ़िवादियों में अपने प्रति कुछ विरोध पैदा किया और साथ ही उदारपंथियों को भी विचलित किया, पर यह फिल्म ‘प्रगति’ का पक्ष नहीं लेती।
सन 1960 का वर्ष रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म शताब्दी वर्ष था। राय ने इसको एक फीचर फिल्म और एक दीर्घ वृत्तचित्र के साथ मनाया। यह उस व्यक्ति के पति एक श्रद्धांजलि थी जो भारतीयों, विशेष रूप से बंगालियों की कुछ पीढ़ियों का पथ-प्रदर्थक रहा था। बड़ी संख्या में लिखी गई टैगोर की कहानियों में से बहुत-सी कहानियां उत्कृष्ट शिल्पबद्ध हैं, फिर भी उनमें सहजता, मानवता है जो उन्हें एक विशाल पाठक वर्ग में लोकप्रिय बना देती है।
पोस्ट मास्टर में राय एक बार फिर अपने रूप में दिखाई देते हैं। चालीस मिनट की यह फिल्म अपने संक्षिप्त लेकिन कुशलता से शिल्पबद्ध किए गए अपने रूपाकार के भीतर मानवीय गरिमा से आप्लावित है।
कंचनजंघा (1962) राय की पहली रंगीन फिल्म थी, जो उनकी अपनी कहानी पर आधारित थी और इस दृष्टि से भी पहली कि इसमें तत्कालीन समाज को साधा गया था। पारस पत्थर में कलकत्ता के जीवन की झलकियां हैं लेकिन यथार्थ और फैंटेसी का मिश्रण इसे किनारे कर देता है, और उसे तत्कालीन सामाजिक रीति-रीवाजों पर टिप्पणी के रूप में मुश्किल से ही व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन पारस पत्थर के कुछ दृश्यों की तरह कंचनजंघा में भी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की, भले ही यह सौम्य क्यों न हो, टकराहट को उजागर किया गया है।
अभियान (1962) राय के कैरियर में एक ऐसे विचलन का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी व्याख्या इसी रूप में की जा सकती है कि राय जिस काम के लिए प्रशंसित होते हैं, कुछ समय बाद वे उस काम की सीमाओं को तोड़कर बाहर आना चाहते हैं और किसी नए और अहप्रचलित पर हाथ आजमाना चाहते हैं, टैक्सी ड्राइवरों, तस्करों और रखैल औरतों की दुनिया राय के मध्यवर्गीय अनुभव से उतनी ही दूर है जितनी कि कोई भी वस्तु हो सकती है।
उनकी अगली तीन फिल्मों- महानगर (1963), चारुलता (1964) और लघु फीचर फिल्म कापुरुष (1965)- में औरत के प्रति एक नया बोध दिखाई देता है, पुरुष की परछाईं के रूप में नहीं बल्कि उसकी अपनी निजता के रूप में। महानगर में पहली बार ऐसा होता है कि हम ऐसी औरत को सामने पाते हैं जो अपनी स्वयं की जिंदगी की दिशा निर्धारित करने की संभावनाओं के प्रति जागरूक है। विशिष्टता यह है कि जागृति का यह स्पर्श पति की ओर से आता है, क्योंकि पारंपरिक रूप से पुरुष स्वतंत्र है ठीक उसी तरह जैसे कि वे स्त्रियों को गुलाम बनाए हुए हैं। राय का विश्लेषणात्मक तरीका और कम शब्दों तथा सटीकता के साथ मानसिक घटना को अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता चारुलता में अपने शिखर पर पहुंचती है। उनका तरीका इस कथन को उचित ठहराता है कि भारतीय परंपरा में सज्जा और अभिव्यक्ति दो अलग अलग वस्तुएं न होकरह एक हैं। उनका शिल्प विवरण की ऐसी उत्कृष्टता तक पहुंचता है जो कौशल को कला में, मात्रा को गुण में और सज्जा को भावनात्मक अभिव्यक्ति में बदल देता है।
इस फिल्म में जो पूरी दोषरहित है, कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण दृश्य भी हैं जिनका उल्लेख किया जाना चाहिए। चारु के अकेलेपन को दर्शाने वाला प्रारंभिक दृश्य शब्दरहित चरित्र चित्रण का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसकी तुलना जलसा घर के दृश्य से की जा सकती है। यहां इस दृश्य को एक दूरबीन (ओपेरा ग्लास) की विकसित तकनीक द्वारा संपन्न किया गया है। फिल्म का झूले का दृश्य फिल्म का सर्वाधिक प्रभावशाली दृश्य है और रेनेवां जैसे प्रकाश छाया चित्रण से रोशन है, इस दृश्य को सूक्ष्मता से तराशा गया है जहां हर बार क्षणांश के लिए चारु का पैर जमीन का स्पर्श करता है ताकि झूले की गति को अतिरिक्त बल दिया जा सके। फिर वह क्षण है जब चारु झूले की गति को धीमा करती है अपनी दूरबीन अमल पर स्थिर करती है और, स्याह होते चेहरे के साथ, अनव करती है कि वह उससे प्रेम करने लगी है। राय की शब्दरहित संप्रेषण की शैली में यह एक बड़ी उपलब्धि है, बचपन के दिनों को उसके स्मृत करने के लंबे दृश्यों में, जिसमें एक खूबसूरत लय है जिसे झूले के मंददोलन के साथ उस नाव के दोलन को मिलाकर गढ़ा गया है जिसका पाल कुशलता से तैयार किया गया है और जिसमें उसका चेहरा धीरे से विलीन हो जाता है। यह एक लयात्मक स्थानांतरण है जो हमें चारु की उस मन:स्थिति के समांतर खड़ा कर देता है जिसमें वह अतीत की ललक से भरी हुई है और जिस बारे में वह लिखना चाहती है। वर्णन का यह श्रेष्ठ गुण ही राय की फिल्म को साधरण रूप रेखा के साथ कही गई कहानी से सौंदर्य की दृष्टि से ऊपर उठा देता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ