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प्राचीनतम संकेत तैत्तिरीय संहिता<ref>तैत्तिरीय संहिता, 2.5.2.1</ref> में मिलता है-'निवीत शब्द मनुष्यों, प्राचीनावीत पितरों एवं उपवीत देवताओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त होता है; वह जो उपवीत ढंग से अर्थात् बायें कन्धे से लटकता है, अतः वह देवताओ के लिए संकेत करता है।'<ref>निवीतं मनुष्याणां प्राचीनावीतं पितृणामुपवीतं देवानाम्। उप व्ययते देवलक्ष्ममेव तत्कुरुते। तैत्तिरीय संहिता 2.5.11.1।</ref> [[तैत्तिरीय ब्राह्मण]]<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.6.8)</ref> में आया है-"प्राचीनतम ढंग से होकर वह दक्षिण की ओर आहुति देता है, क्योंकि पितरों के लिए कृत्य दक्षिण की ओर ही किए जाते हैं। इसके विपरीत उपवीत ढंग से उत्तर की ओर आहुति देनी चाहिए; देवता एवं पितर इसी प्रकार पूजित होते हैं।" निवीत, प्राचीनावीत एवं उपवीत शब्द गोभिलगृह्यसूत्र<ref>गोभिलगृह्यसूत्र (1.2.2-4)</ref> में समझाये गये हैं, यथा "दाहिने हाथ को उठाकर, सिर को (उपवीत के) बीच में डालकर वह सूत्र को बाँयें कंधे पर इस प्रकार लटकाता है कि वह दाहिनी और लटकता है; इस प्रकार वह यज्ञोपवीती हो जाता है। बाँये हाथ को निकालकर (उपवीत के) बीच में सिर को डालकर वह सूत्र को दाहिने कंधे पर इस प्रकार रखता है कि वह बाँयी ओर लटकता है, इस प्रकार वह प्राचीनावीती हो जाता है। जब पितरों को पिण्डदान किया जाता है, तभी प्राचीनावीती हुआ जाता है।" यही बात खादिर.<ref>खादिर. (1.1.8-9)</ref>, मनु<ref>मनु (2.63)</ref>, बौधायन–गृह्यपरि–भाषासूत्र<ref>बौधायन–गृह्यपरि–भाषासूत्र (2.2.7 एवं 10)</ref> तथा वैखानस<ref>वैखानस (1.5)</ref> में भी पायी जाती है। बौधायनगृह्यसूत्र<ref>बौधायनगृह्यसूत्र (2.2.3)</ref> का कहना है कि-'जब वह कंधों पर रखा जाता है, तो दोनों कंधे एवं छाती (ह्रदय के नीचे किन्तु नाभि के ऊपर) तक रहते हुए दोनों हाथों के अँगूठे से पकड़ा जाता है, इसे ही निवीत कहा जाता है। ऋषि–तर्पण में, सम्भोग में, बच्चों के संस्कारों के समय (किन्तु होम करते समय नहीं), मलमूत्र त्याग करते समय, शव ढोते समय, यानी केवल मनुष्यों के लिए किए जाने वाले कार्यों में निवीत का प्रयोग होता है। गर्दन में लटकने वाले को ही निवीत कहते हैं।' निवीत, प्राचीनावीत एवं उपवीत के विषय में शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथ ब्राह्मण, (2.4.2.1)</ref> भी अवलोकनीय है। यह बात जानने योग्य है कि उस समय इस ढंग से शरीर को परिधान से ढँका जाता था, यज्ञोपवीत या निवीत या प्राचीनावीत को (सूत्र) के रूप में पहनने के ढंग का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। इससे प्रकट होता है कि पुरुष लोग देवी की पूजा में परिधान धारण करते थे, न कि सूत्रों से बना हुआ कोई जनेऊ आदि पहनते थे। तैत्तिरीय ब्राह्मण<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.9)</ref> में आया है कि जब वाक् (वाणी) की देवी देवभाग गौतम के समक्ष उपस्थित हुई तो उन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया और '''नमो नमः''' शब्द के साथ देवी के समक्ष गिर पड़े, अर्थात् झुककर या दण्डवत गिरकर प्रणाम किया।<ref>एतावति ह गौतमो यज्ञोपवीतं कृत्वा अधो निपपात नमो नम इति। तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.10.9। [[सायण]] का कहना है—"स्वकीयेन वस्त्रेण यज्ञोपवीतं कृत्वा।"</ref>


तैत्तिरीय आरण्यक<ref>तैत्तिरीय आरण्यक, (2.1)</ref> से पता चलता है कि प्राचीन काल में उपवीत के लिए काले हरिण का चर्म या वस्त्र उपयोग में लाया जाता था। ऐसा आया है- 'जो यज्ञोपवीत धारण करके [[यज्ञ]] करता है, उसका यज्ञ फलता है, जो यज्ञोपवीत नहीं धारण करता, उसका यज्ञ ऐसा नहीं होता है। यज्ञोपवीत धारण करके, ब्राह्मण जो कुछ भी पढ़ता है, वह यज्ञ है। अतः अध्ययन, यज्ञ या आचार्य–कार्य करते समय यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। मृगचर्म या वस्त्र दाहिनी ओर धारण कर दाहिना हाथ उठाकर तथा बाँयाँ गिराकर ही यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। जब यह ढंग उलट दिया जाता है तो इसे प्राचीनावीत कहते हैं और संवीत स्थिति मनुष्यों के लिए ही होती है।' स्पष्ट है कि यहाँ पर उपवीत के लिए कोई सूत्र नहीं है, 'प्रत्युत मृगचर्म या वस्त्र है'। पराशरमाधवीय<ref>पराशरमाधवीय, (भाग 1, पृ0 173)</ref> ने उपर्युक्त कथन का एक भाग उदधृत करते हुए लिखा है कि तैत्तिरीयारण्यक के अनुसार मृगचर्म या रुई के वस्त्र में से कोई एक धारण करने पर कोई उपवीती बन सकता है। कुछ सूत्रकारों एवं टीकाकारों से संकेत मिलता है कि उपवीत में वस्त्र का प्रयोग होता था। [[आपस्तम्ब धर्मसूत्र]]<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.22-23)</ref> का कहना है कि गृहस्थ को उत्तरीय धारण करना चाहिए, किन्तु वस्त्र के अभाव में सूत्र भी उपयोग में लाए जा सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि मौलिक रूप में उपवीत का तात्पर्य था ऊपरी, न की केवल सूत्रों की डोरी। एक स्थान पर<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.8.19.12)</ref> इसी सूत्र ने यह भी लिखा है–'(जो श्राद्ध का भोजन खाये) उसे बाँयें कंधे पर उत्तरीय डालकर उसे दाहिनी ओर लटकाकर खाना चाहिए।' हरदत्त ने इसकी व्याख्या दो प्रकार से की है-
#श्राद्ध–भोजन करते समय यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए अर्थात् उसे उत्तरीय बाँय कंधे पर तथा दाहिने हाथ के नीचे लटकता हुआ रखना चाहिए; इसका यह तात्पर्य हुआ कि ब्राह्मण को आपस्तम्ब धर्मसूत्र<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.23)</ref> पर विश्वास करके श्राद्ध–भोजन के समय पवित्र सूत्र धारण नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उसे उसी रूप में वस्त्र धारण करना चाहिए और सूत्र का त्याग कर देना चाहिए।
#दूसरा मत यह है कि उसे उपवीत ढंग से पवित्र सूत्र एवं वस्त्र दोनों धारण करने चाहिए। आपस्तम्ब धर्मसूत्र<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (1.5.15.1)</ref> ने व्यवस्था दी है कि एक व्यक्ति को गुरुजनों, श्रद्धास्पदों की प्रतीक्षा करते समय या उनकी पूजा करते समय, होम के समय, जप करते हुए, भोजन, आचमन एवं वैदिक अध्ययन के समय यज्ञोपवीत होना चाहिए। इस पर हरदत्त ने यों व्याख्या की है- 'यज्ञोपवीत का अर्थ है एक विशिष्ट ढंग से उत्तरीय धारण करना, यदि किसी के पास उत्तरीय (ऊपरी अंग के लिए) न हो तो उसे आपस्तम्ब धर्मसूत्र<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.23)</ref> में वर्णित ढंग से काम करना चाहिए; अन्य समयों में यज्ञोपवीत की आवश्यकता नहीं है।<ref>नित्यमुत्तरं वासः कार्यम्। अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्थे। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 2.2.4.22-23; सोत्तराच्छादनश्चैव यज्ञोपवीती भुञ्जीत। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 2.8.19.12; हरदत्त ने व्याख्या की है- 'उत्तराच्छादनमुपरिवासः, तेन यज्ञोपवीतेन यज्ञोपवीतं कृत्वा भुञ्जीत। नास्य भोजने 'अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्ये' इत्ययं कल्पो भवतीत्ययेके। समुच्चय इत्यन्ये'; यज्ञोपवीती द्विवस्त्रः। अधोनिवीतस्त्वेकवस्त्रः। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1.2.6.18-19; उपासने गुरुणां वृद्धानाम–तिथिनां होमे जप्यकर्मणि भोजने आचमने स्वाध्याये च यज्ञोपवीती स्यात्। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1.5.15.1, हरदत्त ने लिखा है-
<poem>'वासोविन्यासविशेषो यज्ञोपवीतम्।
दक्षिणं बाहुमृद्धरत इति ब्राह्मणविहितम्।
वाससोऽसंभवेऽनुकल्पं वक्ष्यति-अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्थ इति।
एषु विधानात् कालान्तरे नावश्यंभावः।'</poem> देखिए औशनसस्मृति-
<poem>'अग्न्यगारे गवां गोष्ठे होमे जप्ये तथैव च।
स्वाध्याये भोजने नित्यं ब्राह्मणानां च संनिधौ।
उपासने गुरुणां च संध्ययोरुभयोरपि।
उपवीती भवेन्नित्यं विधिरेष सनातनः।।'</ref></poem>
गोभिल गृह्यसूत्र<ref>गोभिल गृह्यसूत्र, (1.2.1)</ref> में आया है कि विद्यार्थी यज्ञोपवीत के रूप में सूत्रों की डोरी, वस्त्र या कुश की रस्सी धारण करता है।<ref>यज्ञोपवीतं कुरुते वस्त्रं वापि वा कुशरज्जुमेव। गोभिल गृह्यसूत्र, (1.2.1);
<poem>सूत्रमपि वस्त्राभावाद्धेदितव्यभिति।
अपि वाससा यज्ञोपवीतार्थान् कुर्यात्तदभावे त्रिवृता सूत्रेणेति ऋष्यशृंगस्मरणात्।</poem>
स्मृतिचन्द्रिका, जिल्द 1, पृ0 32।</ref> इससे स्पष्ट है कि गोभिल के काल में जनेऊ का रूप प्रचलित था और वह यज्ञोपवीत का उचित रूप माना जाने लगा था, किन्तु वही अन्तिम रूप नहीं था, उसके स्थान पर वस्त्र भी धारण किया जा सकता था। बहुत–से गृहसूत्रों में सूत्र रूप में यज्ञोपवीत का वर्णन नहीं मिलता और न उसे पहनते समय किसी वैदिक मन्त्र की आवश्यकता ही समझी गयी।<ref>(जबकि [[उपनयन]]–सम्बन्धी अन्य कृत्यों के लिए वैदिक मन्त्रों की भरमार पायी जाती है)</ref> अतः ऐसी कल्पना करना उचित ही है कि बहुत प्राचीन काल में सूत्र धारण नहीं किया जाता था। आरम्भ में उत्तरीय ही धारण किया जाता था। आगे चलकर सूत्र भी, जिसे हम जनेऊ कहते हैं, प्रयोग में आने लगा। '''यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम्''' वाला मन्त्र केवल बौधायन गृह्यसूत्र<ref>बौधायन गृह्यसूत्र, 2.5.7-8</ref> एवं वैखानस<ref>वैखानस, 2.|5</ref> में मिलता है। यह प्राचीनतम धर्मशास्त्र ग्रन्थों में नहीं पाया जाता। मनु<ref>मनु, (2.44)</ref> ने भी उपवीत के विषय में चर्चा चलायी है।
यज्ञोपवीत के विषय में कई नियम बने हैं।<ref>देखिए स्मृत्यर्थसार, पृ0 4 एवं संस्कारप्रकाश, पृ0 416-418, जहाँ उपवीत के निर्माण एवं निर्माता के विषय में चर्चा की गयी है। सौभाग्यवती नारी के द्वारा निर्मित उपवीत विधवा द्वारा निर्मित उपवीत से अच्छा माना जाता था। आचाररत्न में उद्धृत मदनरत्न ने मनु, (2.44) के ऊर्ध्ववृत को इस प्रकार समझाया है- 'करेण दक्षिणेनोर्ध्वगतेन त्रिगुणीकृतम्। वलितं मानवे शास्त्रे सूत्रभूर्ध्ववृतं स्मृतम्।।' (पृ0 2)।</ref> यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं, जिनमें प्रत्येक सूत्र में नौ धागे (तन्तु) होते हैं, जो भली भाँति बँटे एवं माँजे हुए रहते हैं।<ref>कौशं सूत्रं वा त्रिस्त्रिवृद्यज्ञोपवीतम्। आ नाभेः। [[बौधायन धर्मसूत्र]] 1.5.5; उक्तं देवलेन-यज्ञोपवीतं कुर्वीत सूत्रेण नवतन्तुकम्-इति। स्मृतिचन्द्रिका, भाग 1, पृष्ठ 31।</ref> देवल ने नौ तन्तुओं (धागों) के नौ देवताओं के नाम लिखे हैं, यथा ओंकार, [[अग्नि देव|अग्नि]], नाग, सोम, पितर, प्रजापति, वायु, सूर्य एवं विश्वेदेव।<poem><ref>अत्र प्रतितन्तु देवताभेदमाह देवलः।
ओंकारः प्रथमस्तन्तुर्द्धियीयोऽग्निस्तथैवच।
तृतीयो नागदैववत्यश्चतुर्थो सोमदेववतः।
पञ्चमः पितृदैवत्यः षष्ठश्चैव प्रजापतिः।
सप्तमी वायुदैवत्यः सूर्यश्चाष्टम एव च।।
नवमः सर्वदैवत्य इत्येते नज तन्तवः।।
स्मृतिच0, भाग 1, पृ0 31।</ref></poem> यज्ञोपवीत केवल नाभि तक, उसके आगे नहीं और न छाती के ऊपर तक होना चाहिए।<poem><ref>कात्यायनस्तु परिमाणान्तमाह।
पृष्ठवंशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम।
तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम्.....देवल।
स्तनादूर्ध्वमधो नाभेर्न कर्तव्यं कथंचन।
स्मृतिचन्द्रिका, वही पृ0 31।</ref></poem> मनु<ref>मनु, (2|44)</ref> एवं विष्णुधर्मसूत्र (27|19) के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रीय एवं वैश्य के लिए यज्ञोपवीत क्रम से रुई, शण (सन) एवं ऊन का होना चाहिए। बौधायनधर्मसूत्र (1|5|5) एवं गोभिलगृह्यसूत्र (1|2|1) के अनुसार यज्ञोपवीत रुई या कुश का होना चाहिए; किन्तु देवल के अनुसार सभी द्विजातियों का यज्ञोपवीत कपास (रुई), क्षुमा (अलसी या तीसी), गाय की पूँछ के बाल, पटसन वृक्ष की छाल या कुश का होना चाहिएं इनमें से जो भी सुविधा से प्राप्त हो सके उसका यज्ञोपवीत बन सकता है।<ref>कार्पासक्षौमगोबालशणवल्कतृणोद्भवम्। सदा सम्भवतः कार्यमुपवीतं द्विजातिभिः।। पराशरमाधवीय (1|2) एवं वृद्ध हारीत (7|47-48) में यही बात पायी जाती है।</ref>
यज्ञोपवीत की संख्या में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन पाया जाता है। ब्रह्मचारी केवल एक यज्ञोपवीत धारण करता था और संन्यासी, यदि वह पहने तो, केवल एक ही धारण कर सकता था। स्नातक (जो ब्रह्मचर्य के पश्चात् गुरुगेह से अपने माता–पिता के घर चला जाता था) एवं गृहस्थ दो यज्ञोपवीत तथा जो दीर्ष जीवन चाहे वह दो से अधिक यज्ञोपवीत पहन सकता था।<ref>स्नातकानां तु नित्यं स्यादन्तर्वासस्तथोत्तरम।यज्ञोपवीते द्वे यष्टिःसोदकश्च कमण्डलुः।। वसिष्ठ 12|14; विष्णुधर्मसूत्र 71|13-15 में भी यही बात है। मिताक्षरा ने याज्ञवल्क्य (1|133) की व्याख्या में वसिष्ठ को उद्धृत किया है। मिलाइए मनु 4-36; एकैकमुपवीतं तु यतीनां ब्रह्मचारिणाम्। गृहिणां च वनस्थानामुपवीतद्वयं स्मृतम्।। सोत्तरीयं त्रयं वापि विभृयाच्छुभतन्तु वा। वृद्ध हारीत 8|44-45। देखिए देवल (स्मृतिच0 में उद्धृत, भाग 1, पृ0 32) श्रीणि चत्वारि पञ्चाष्ट गृहिणः स्युर्दशापि वा। सर्वेर्वा शुत्तिभिर्धार्यमु पवीतं द्विजातिभिः।। संस्कारमयूख में उद्धृत कश्यप। </ref> जिस प्रकार से आज हम यज्ञोपवीत धारण करते हैं, वैसा प्राचीनकाल में नियम था ही नहीं, स्पष्ट रूप से कह नहीं सकते, किन्तु ईसा के बहुत पहले यह ब्राह्मणों के लिए अपरिहार्य नियम था कि वे कोई कृत्य करते समय यज्ञोपवीत को धारण करें, अपनी शिखा को बाँधे रखें, क्योंकि बिना इसके किया हुआ कर्म मान्य नहीं हो सकता। वसिष्ठ (8|9) एवं बौधायनधर्मसूत्र (2|2|1) के अनुसार पुरुष को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। उद्योगवर्व (महाभारत) का 40|25 भी पठनीय है।<ref>नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नितयस्वाध्यायी पतितान्नवर्जी। ऋतो च गच्छन् विधिवच्च जुह्वन्न ब्राह्मण–श्च्चवते ब्रह्मलोकात्।। वसिष्ठ</ref> ref></ref>
==Tikaa tipani==
<references/>

05:43, 26 जून 2011 के समय का अवतरण