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'''बसंत कुमार दास''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Basanta Kumar Das'', जन्म: [[2 नवम्बर]], [[1883]], सिलहट ज़िला; मृत्यु: [[1960]]) [[असम]] के प्रमुख राजनैतिक नेता तथा गृहमंत्री थे। ये अधिवक्ता भी थे परंतु ये अपनी वकालत छोड़ कर आंदोलन में सम्मिलित हो गयें। जिस कारण ये जेल भी गये।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=517|url=}}</ref>
'''बिशन नारायण दर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bishan Narayan Dar'', जन्म: [[1864]], [[बाराबंकी]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु: [[1916]]) [[भारत]] के राजनेता तथा जाने माने अधिवक्ता थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=545|url=}}</ref> इन पर पंडित आदित्य नाथ, कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह, [[सुरेन्द्र नाथ बनर्जी]] तथा [[इंग्लैंण्ड]] में मिले लाल मोहन घोष और चंद्रावरकर आदि के विचारों का प्रभाव पड़ा।
==परिचय==
==परिचय==
असम के प्रमुख राजनैतिक नेता बसंत कुमार दास का जन्म 2 नवम्बर,1883 ई. को सिलहट ज़िले के एक गरीब [[परिवार]] में हुआ था। इन्होंने अपने परिश्रम से वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की और सिलहट में वकालत करने लगे।
प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता पंडित बिशन नारायन दर का जन्म 1864 ई. में बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में एक संपन्न कश्मीरी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित किशन नारायन दर था जो एक सरकारी सेवा में मुंसिफ थे। इनकी आरंभिक शिक्षा [[उर्दू]] और [[फ़ारसी भाषा|फारसी]] में हुई। फिर [[लखनऊ]] से बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद इन्होंने [[इंग्लैंण्ड]] में कानून की शिक्षा पाई और [[1887]] . में भारत लौटने पर वकालत करने लगे। शीघ्र ही इनकी गणना अपने समय के प्रमुख अधिवक्ताओं में होने लगी।
==आंदोलन में भाग==
==राजनीतिक क्षेत्र==
बसंत कुमार दास ने अपनी वकालत छोड़ कर [[1921]] में [[कांग्रेस]] में सम्मिलित हो गये और [[असहयोग आंदोलन]] में भाग लिया। इसके बाद ये [[1923]] में [[पं. मोतीलाल नेहरू]] और सी. आर. दास की '[[स्वराज्य पार्टी]]' में सम्मिलित हो गए। स्वराज्य पार्टी के टिकट पर [[1926]] से [[1929]] तक असम कौंसिल के सदस्य रहें और फिर कांग्रेस के निश्चय पर त्यागपत्र दे दिया। [[1932]] में इन्हें गिफ्तार कर लिया गया और दो वर्ष की सजा हुई।
पंडित बिशन नारायण दर ने अपनी गतिविधियां केवल वकालत के द्वारा धन अर्जित करने तक सीमित नहीं रखीं। ये सार्वजनिक कार्यों में भी भाग लेने लगे। उनके ऊपर तत्कालीन नेताओं-पंडित आदित्य नाथ, कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी तथा इंग्लैंण्ड में मिले लाल मोहन घोष और चंद्रावरकर आदि के विचारों का प्रभाव पड़ा। [[1882]] में ये राजनीति के क्षेत्र में आए और फिर जीवन-भर उससे जुड़े रहे। इस वर्ष ये पहली बार [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए और फिर सदा इन अधिवेशनों में भाग लेते रहे। ये बड़े प्रभावशाली वक्ता थे और [[कांग्रेस]] में महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव प्रस्तुत करने का दायित्व निभाते थे। [[1911]] में पंडित बिशन नारायन दर ने कोलकाता कांग्रेस की अध्यक्षता की। इससे पूर्व ये केन्द्रीय कौंसिल के सदस्य भी रह चुके थे। इन्होंने सब जगह अपने भाषणों और लेखों में भारतवासियों की समस्याएं हल करने पर जोर दिया। उस समय के अन्य नेताओं की भांति बिशन नारायन दर भी सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अधिक स्थान देने की माँग करते हुए आई.सी.एस. की परीक्षाएं [[इंग्लैंण्ड]] और [[भारत]] में साथ-साथ करने पर जोर देते थे।
==राजनीतिक जीवन==
==व्यक्तित्व==
बसंत कुमार दास [[1937]] में असम असेम्बली के सदस्य चुने गए और कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में उसके स्पीकार बने। इस पद पर उन्होंने दलीय पक्षपात की बजाय संसदीय लोगतंत्र की परंपरा का निर्वाह किया। इसके लिए कुछ लोंगों ने इनकी आलोचना भी की थी। [[1946]] में ये [[असम]] के गृहमंत्री थे। उसी समय सिलहट में 'जनमत संग्रह' हुआ कि यह ज़िला [[भारत]] में बना रहेगा या [[पाकिस्तान]] में जाएगा। जब जनमत संग्रह का परिणाम पाकिस्तान के पक्ष में गया तो गृहमंत्री के रूप में फिर बसंत कुमार दास की आलोचना हुई। बाद में पता चला कि [[कांग्रेस]] का उच्च नेतृत्व पहले ही 'सिलहट' को भारत से अलग करने के लिए मन बना चुका था। असम के बहुत से नेता भी, असम में बंगालियों का प्रभाव कम करने के लिए 'सिलहट' के अलग होने के पक्ष में थे। विभाजन के बाद, अन्य नेताओं की भाँति, बसंत कुमार दास भारत नहीं आए। ये हिन्दू अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए पूर्वी पाकिस्तान में ही रहे। वहां की राजनीति में इन्होंने सक्रिय भाग लिया। ये ईस्ट पाकिस्तान नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और वहां की विधान सभा में कुछ समय तक विरोधी दल के नेता रहे। फिर वित्त मंत्री तथा शिक्षा और श्रम मंत्री बने। [[1958]] में ये अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघ के अध्यक्ष चुने गए। [[1960]] ई. में इनका देहांत हो गया।
बिशन नारायण दर विचारों में बड़े उदार और रूढ़िवादी परंपराओं का डट कर विरोध करते थे। एक बार कौंसिल में अल्पसंख्यकों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर विचार किया जा रहा था तो इसका इन्होंने जोरदार विरोध किया और कहा कि राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में केवल राष्ट्रीय महत्त्व के ऐसे प्रश्नों पर विचार होना चाहिए जिनका संबंध सभी भारतवासियों से हो न कि किसी छोटे वर्ग की बातों पर। इनके [[इंग्लैंण्ड]] से वापस आने पर कश्मीरी पंडित समाज ने उनसे प्रायश्चित करने के लिए कहा, पर बिशन नारायन ने साफ इंकार कर दिया। बाद में इनके विचारों की विजय हुई और यह प्रथा समाप्त हो गई। [[1916]] ई. में इनका देहांत हो गया।

11:40, 30 नवम्बर 2016 का अवतरण

कविता बघेल 2
बिशन नारायण दर
बिशन नारायण दर
पूरा नाम बिशन नारायण दर
जन्म 1864
जन्म भूमि बाराबंकी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 1916
अभिभावक पिता: पंडित किशन नारायन दर
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि राजनेता
शिक्षा बी.ए.
भाषा उर्दू और फ़ारसी
अन्य जानकारी बिशन नारायण दर विचारों में बड़े उदार और रूढ़िवादी परंपराओं का डट कर विरोध करते थे।

बिशन नारायण दर (अंग्रेज़ी: Bishan Narayan Dar, जन्म: 1864, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश; मृत्यु: 1916) भारत के राजनेता तथा जाने माने अधिवक्ता थे।[1] इन पर पंडित आदित्य नाथ, कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी तथा इंग्लैंण्ड में मिले लाल मोहन घोष और चंद्रावरकर आदि के विचारों का प्रभाव पड़ा।

परिचय

प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता पंडित बिशन नारायन दर का जन्म 1864 ई. में बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में एक संपन्न कश्मीरी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित किशन नारायन दर था जो एक सरकारी सेवा में मुंसिफ थे। इनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू और फारसी में हुई। फिर लखनऊ से बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद इन्होंने इंग्लैंण्ड में कानून की शिक्षा पाई और 1887 ई. में भारत लौटने पर वकालत करने लगे। शीघ्र ही इनकी गणना अपने समय के प्रमुख अधिवक्ताओं में होने लगी।

राजनीतिक क्षेत्र

पंडित बिशन नारायण दर ने अपनी गतिविधियां केवल वकालत के द्वारा धन अर्जित करने तक सीमित नहीं रखीं। ये सार्वजनिक कार्यों में भी भाग लेने लगे। उनके ऊपर तत्कालीन नेताओं-पंडित आदित्य नाथ, कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी तथा इंग्लैंण्ड में मिले लाल मोहन घोष और चंद्रावरकर आदि के विचारों का प्रभाव पड़ा। 1882 में ये राजनीति के क्षेत्र में आए और फिर जीवन-भर उससे जुड़े रहे। इस वर्ष ये पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए और फिर सदा इन अधिवेशनों में भाग लेते रहे। ये बड़े प्रभावशाली वक्ता थे और कांग्रेस में महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव प्रस्तुत करने का दायित्व निभाते थे। 1911 में पंडित बिशन नारायन दर ने कोलकाता कांग्रेस की अध्यक्षता की। इससे पूर्व ये केन्द्रीय कौंसिल के सदस्य भी रह चुके थे। इन्होंने सब जगह अपने भाषणों और लेखों में भारतवासियों की समस्याएं हल करने पर जोर दिया। उस समय के अन्य नेताओं की भांति बिशन नारायन दर भी सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अधिक स्थान देने की माँग करते हुए आई.सी.एस. की परीक्षाएं इंग्लैंण्ड और भारत में साथ-साथ करने पर जोर देते थे।

व्यक्तित्व

बिशन नारायण दर विचारों में बड़े उदार और रूढ़िवादी परंपराओं का डट कर विरोध करते थे। एक बार कौंसिल में अल्पसंख्यकों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर विचार किया जा रहा था तो इसका इन्होंने जोरदार विरोध किया और कहा कि राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में केवल राष्ट्रीय महत्त्व के ऐसे प्रश्नों पर विचार होना चाहिए जिनका संबंध सभी भारतवासियों से हो न कि किसी छोटे वर्ग की बातों पर। इनके इंग्लैंण्ड से वापस आने पर कश्मीरी पंडित समाज ने उनसे प्रायश्चित करने के लिए कहा, पर बिशन नारायन ने साफ इंकार कर दिया। बाद में इनके विचारों की विजय हुई और यह प्रथा समाप्त हो गई। 1916 ई. में इनका देहांत हो गया।

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 545 |