"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट नवम्बर 2013": अवतरणों में अंतर
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मैंने कहा "सन्यास ही एकमात्र ऐसा 'पलायन' है जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है।" | |||
कुछ पाठकों ने शंका की और कुछ ने मुझे शिक्षित-दीक्षित करने की कृपा भी की... | |||
सन्यास पर मेरा विचार- | |||
जो व्यक्ति, सन्यासी के रूप में, समाज में अपनी पहचान या प्रतिष्ठा चाहता है, तो उसका सन्यास उसी क्षण अर्थहीन हाे जाता है। सन्यास एक मन:स्थिति है न कि जीवनशैली, एक दृष्टिकोण है न कि विचारधारा, एक अंतरचेतना है न कि बाह्य इंद्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान। | |||
यह मन:स्थिति मूल रूप से 'सहजता' है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि मनुष्य यदि सहजता को प्राप्त हो जाता है तो वह सन्यासी होता है। ध्यान रहे कि स्वयं सिद्ध सहजता, सन्यास नहीं वरना तो सब जानवर सन्यासी होते... यह वह सहजता है जो कोई व्यक्ति अपने विचार, विवेक और ज्ञान के अनुभवों के बाद धारण करता है लेकिन ऐसा होने की संभावना बहुत कम ही होती है। | |||
पलायन पर मेरा विचार- | |||
अपनी-अपनी समझ से, हम मनुष्य के निर्माण के लिए उत्तरदायी प्रकृति को माने या ईश्वर को लेकिन निश्चित रूप से मनुष्य का निर्माण अपनी ज़िम्मेदारियों से भागने के लिए नहीं हुआ। न ही ईश्वर किसी पलायनवादी से प्रसन्न हो सकता है। | |||
भारत को आवश्यकता है स्वामी विवेकानंद जी द्वारा प्रचारित प्रसिद्ध मंत्र 'उत्तिष्ठ जाग्रत' या 'उत्तिष्ठ भारत' की न कि किसी छद्म त्याग की। ऐसे सन्यासी का क्या अर्थ जो अपने पड़ोस में रोते बच्चे की आवाज़ को अनसुना करके अपने अपने ज्ञान-ध्यान में व्यस्त हो... | |||
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| 25 नवम्बर, 2013 | |||
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| 24 नवम्बर, 2013 | |||
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| 21 नवम्बर, 2013 | |||
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कोई मर जाए | |||
सहर होने पर | |||
दूर कहीं | |||
ऐसा तो | |||
ज़माने का | |||
दस्तूर नहीं | |||
एक मौक़ा | |||
उन्हें भी | |||
दो यारो | |||
जिनको जरा | |||
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| 16 नवम्बर, 2013 | |||
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| 16 नवम्बर, 2013 | |||
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पैसे से ज़िंदगी गुज़ारी जा सकती है | |||
लेकिन ज़िंदगी जीने के लिए तो | |||
प्रेम ही चाहिये | |||
जो कि निश्चित ही | |||
पैसे से नहीं ख़रीदा जा सकता | |||
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| 14 नवम्बर, 2013 | |||
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| 14 नवम्बर, 2013 | |||
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राजनीति का क्षेत्र, विचित्र है। यहाँ पूत के पाँव पालने में नहीं दिखते बल्कि तब दिखते हैं जब वह कुर्सी पर विराजमान होकर वहाँ से न हटने के लिए हाथ-पैर पटकता है। सत्ता की अपनी एक भाषा और संस्कृति होती है। जो सत्ता में आता है इसे अपनाता है। यदि नहीं अपनाता है तो सत्ता में नहीं रह पाता। | |||
संघर्ष के चलते ही जो दिवंगत हो जाते हैं या जो सत्ता में नहीं पहुँच पाते या सत्ता प्राप्ति के बाद अल्प समय में ही दिवंगत हो जाते हैं, वे सदैव जनता के प्रिय नायक बने रहते हैं। सत्ता में रहकर जन प्रिय रहना बड़ा कठिन होता है, शायद असंभव। | |||
विपक्ष में रहकर, उदारता और समझौता विहीन स्वतंत्र निर्णयों की पूरी सुविधा होती है। जबकि सत्ता पक्ष का संकोची और समझौतावादी होना सत्ता को चलाने और सत्ता में बने रहने की मजबूरी है। | |||
जो सत्ता में नहीं रहे या यँू कहें कि भारत के प्रधानमंत्री नहीं बने वे सत्ता में रहने के बाद भी जनप्रिय रह पाते यह कहना कठिन है। | |||
क्यूबा (कुबा) में, चे ग्वेरा, फ़िदेल कास्त्रो से अधिक जनप्रिय नायक हैं। रूस में, स्टालिन, लेनिन से अधिक जनप्रिय माने गए थे। भारत में, पटेल, नेहरू से अधिक जनप्रिय नायक माने जाते हैं और भारत में ही सुभाष, गाँधी से अधिक जनप्रिय नायक माने जाते हैं। | |||
इसी तरह कुछ और बहुत महत्वपूर्ण नाम भी हैं जैसे- डॉ. आम्बेडकर, राम मनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश... और भी कई नाम हैं जो लिए जा सकते हैं, जो प्रधानमंत्री बन सकते थे। | |||
हमें अपने नेताओं का मूल्याँकन करते समय प्रजातंत्र की सीमाओं में विचरण करने वाली राजनैतिक परिस्थितियों का मूल्याँकन भी करना चाहिए अन्यथा हमारा मूल्याँकन निष्पक्ष नहीं होगा। | |||
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| 14 नवम्बर, 2013 | |||
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| 11 नवम्बर, 2013 | | 11 नवम्बर, 2013 | ||
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दिल को समझाया, बहाने भर को | |||
आज ज़िंदा हैं, फ़साने भर को | |||
वो जो इक शाम जिससे यारी थी, | |||
आज हासिल है, ज़माने भर को | |||
बाद मुद्दत के हसरतों ने कहा | |||
तुमसे मिलते हैं, सताने भर को | |||
तेरी ख़ुशी से हम हैं आज ख़ुश कितने | |||
तुझसे मिलना है, बताने भर को | |||
कौन कहता है बेवफ़ा तुझको | |||
तूने चाहा था दिखाने भर को | |||
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| 9 नवम्बर, 2013 | |||
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| 5 नवम्बर, 2013 | | 5 नवम्बर, 2013 | ||
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मेरे मित्र श्री अजय सिंह ने मुझसे पूछा है कि सुख क्या है? अजय जी एक सफल, वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और मुझसे बहुत ही स्नेह रखते हैं। मैं उनके इस कठिन प्रश्न का उत्तर देने योग्य न होते हुए भी उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ। | |||
मनुष्य की इच्छाओं में 'परम' इच्छा है, महत्त्वपूर्ण बनने की इच्छा, इस इच्छा की पूर्ति के उपक्रम को ही सुख कहते हैं। यह सुख, सुखों में सर्वोच्च सुख है। यही है, परम सुख, जिसे न्यूनाधिक रूप से कभी-कभी, आनंद के समकक्ष होने की सुविधा भी प्राप्त है। इस सुख को प्राप्त करने के लिए मनुष्य त्याग की प्रत्येक सीमा का उल्लंघन करने को तत्पर रहता है एवं अन्य सुखों को त्यागना अपना सौभाग्य समझता है। महत्त्वपूर्ण बनने की इच्छा की पूर्ति का प्रयास करना, एक ऐसा सुख है जिस सुख के लिए मनुष्य भोग-विलास, मनोरंजन, सुविधा, परिवार आदि सब कुछ त्याग देता है। | |||
इससे भी, सुख की परिभाषा अस्तित्व में नहीं आती। जब तक यह न कहा जाए कि सुख प्रकृति प्रदत्त एक ऐसी अनुभूति है जिसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वभाव और परिस्थितियों के वैविध्य के कारण भिन्न है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुख की परिभाषा उसके अपने अनुभव पर निर्भर करती है। सुख में भिन्न भिन्न लोगों के साथ- हँसने, रोने, मुग्ध होने, उत्साहित होने आदि जैसे अनेक क्रिया-कलाप होते हैं। | |||
कुछ अलग तरह से सुख को परिभाषित करने का प्रयास करें तो यूँ भी कह सकते हैं कि सुख प्राप्ति के लिए प्रयास और संघर्ष में जो अनुभूति होती है उसे 'सुख' कहते हैं। समाज द्वारा परिभाषित सुखों में से किसी एक अथवा एक से अधिक सुखों की प्राप्ति के लिए जो प्रयास और संघर्ष होता है उस समय होने वाली अनुभूति ही सुख है क्योंकि जिस सुख की प्राप्ति के प्रयास में हम लगे रहते हैं, वह प्राप्त होते ही, उसी क्षण समाप्त हो जाता है। लक्ष्य प्राप्ति हेतु किये जाने वाले संघर्ष में होने वाली अनुभूति ही 'सुख' है। लक्ष्य प्राप्ति का उपक्रम ही 'सुख' है लेकिन इसे 'आनंद' मानकर भ्रमित न हों, आनंद बिल्कुल अलग अनुभूति है। | |||
सुख के लिए अनेक लोकप्रचलित बातें भी कही जाती हैं जिनमें से दो मुझे पसंद आती है। एक तो यह कि 'स्वाधीनता से बड़ा सुख और पराधीनता से बड़ा दु:ख कोई नहीं' और दूसरा यह कि 'युवावस्था से बड़ा सुख और वृद्धावस्था से बड़ा दु:ख कोई नहीं' | |||
सुखी जीवन के कुछ सुख इस तरह भी गिनाए जाते रहे हैं- पहला सुख, निर्मल हो काया / दूजा सुख, घर में हो माया / तीजा सुख, सुलक्षण नारी / चौथा सुख, सुत आज्ञाकारी / पंचम सुख स्वदेश का वासा / छठा सुख, राज हो पासा / सातवाँ सुख, संतोषी हो मन / इन्ही सुखों से बनता जीवन | |||
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| 1 नवम्बर, 2013 | |||
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