"सदस्य वार्ता:दिनेश सिंह": अवतरणों में अंतर
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न धर्मो के बंधन होते | न धर्मो के बंधन होते | ||
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क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - | क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - | ||
इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर | इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर | ||
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== प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको | ==प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -दिनेश सिंह== | ||
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प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको - | प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको - | ||
था ऋतू बसंत फूलों का उपवन - | था ऋतू बसंत फूलों का उपवन - | ||
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आँखों के सम्मुख रहो सदा जो - | आँखों के सम्मुख रहो सदा जो - | ||
औ प्रीति रहे उर में चिरमय | औ प्रीति रहे उर में चिरमय | ||
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== एक सलोने से सपने में कोई | ==एक सलोने से सपने में कोई -दिनेश सिंह== | ||
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एक सलोने से सपने में कोई - | एक सलोने से सपने में कोई - | ||
नीदों में दस्तक दे जाती है - | नीदों में दस्तक दे जाती है - | ||
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जैसे नभ में छायी बदली- | जैसे नभ में छायी बदली- | ||
पवन के झोंके उड़ा चली | पवन के झोंके उड़ा चली | ||
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[[Category:सदस्य वार्ता]] |
09:52, 21 अक्टूबर 2013 का अवतरण
फिर लिखने लगा खीच खीचकर -
कल्पित जीवन की रेखा -
वही कल्पना खग_पुष्पों की -
वही व्यथा मन रोदन की
जब नहीं शब्द ज्ञान मुझे -
तो क्यों फैलाता शब्द जाल -
बिन उपमा बिन अलंकार -
फिर कौन कहेगा काव्यकार
कुछ रस तो लावो तुम -
अपनी ललित कलित कविताओं में -
कुछ काव्य सुगन्धित फैलावो -
इन बहती काव्य हवाओं में
कुछ काव्य लिखो सु-मधुर सु-राग -
छवि प्रतिबिम्बित हो उत्तम सन्देश -
ले बहे समीरण उस दिशि में -
हो जहाँ जहाँ वर्जित प्रदेश
जरा नजर काव्य की घुमाँ वहां -
जो विचरण करता अन्धकार में -
जो ढूंढ़ रहा है एक कण प्रकाश -
जो भटक रहा निर्जन बन में
नहीं जिनको सुख दुःख का विषाद -
दुःख ही बना गया हर्षोउल्लाश -
रोये अन्तःकरण भीगि पलक -
क्या ऋतू वर्षा क्या ऋतू तुषार
हर नई भोर बस एक सवाल -
क्या भूंख मीटेगी फिर एक बार -
फिर उड़ा परिंदा दाने को -
औ बच्चे करते इन्तजार
स्वाभिमान से जीना उनको -
कठिन हो गया अब जग में -
बंद मुट्ठियाँ साहूकार की -
चित्त हथेली याचक की
जिनके जीवन का सूनापन -
कभी एक पल कम न हुवा -
वही कार्य प्रणाली आदिकाल की -
दयनीय बनी हुई जीवन शैली
मन की व्यथा -दिनेश सिंह=
कितना सुंदर होता की हम
एक सिर्फ इन्सां होते
न जाती पाती के लिए जगह
न धर्मो के बंधन होते
शोर मचा है धर्म धर्म का -
कौम कौम का लगता नारा -
इस चलती कौमी बयारी में -
उन्मय उन्मय जन मानस सारा
जो घूम रहा था शहर शहर -
पहुँच रहा अब गाँव गाँव में -
वो कौम बयारी जहर घोलते -
महकती स्वच्छ हवाओं में
क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी -
क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी -
क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी -
इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -दिनेश सिंह
प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -
था ऋतू बसंत फूलों का उपवन -
छुई मुई के तरु सी लज्जित -
नयनो का वो मौन मिलन
कम्पित अधरों से वो कहना -
नख से धरा कुदॆर रही थी -
आँखों मे मादकता चितवन -
साँसों का मिलता स्पंदन
भटक रहा था एकाकी पथ पर -
पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा -
ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन -
खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा .
ह्रदय के गहरे अन्धकार में -
मन डूबा था विरह व्यथा में -
छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से -
फैलाया उर में प्रकाश यौवन
कितने सुख दुःख जीवन में हो -
नहीं मृत्यु से किंचित भय -
आँखों के सम्मुख रहो सदा जो -
औ प्रीति रहे उर में चिरमय
एक सलोने से सपने में कोई -दिनेश सिंह
एक सलोने से सपने में कोई -
नीदों में दस्तक दे जाती है -
इन्द्रधनुष सा शतरंगी -
स्वप्न को रंगीत कर जाती है
अद्रशित सी कोई डोर -
खीच रही है अपनी ओर -
खीचा जाऊं हो आत्मविभोर -
रूपसी कौन कौन चित चोर -
अधरों में मुस्कान लिए -
मुख पर शशी की जोत्स्रना -
द्रगो में लाज-मुग्ध-यौवन विद्यमान -
तेज रवि सा मुख-छबि-में रुचिमान
आखों का फैलाये तिछर्ण जाल -
फंसाकर मेरा खग अनजान चली -
जैसे नभ में छायी बदली-
पवन के झोंके उड़ा चली