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| '''लॉर्ड विलियम बैंटिक''', जिनका पूरा नाम 'विलियम कैवेडिंश बैंटिक' था, को [[भारत]] का प्रथम [[गवर्नर-जनरल]] का पद सुशोभित करने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने जुलाई, 1828 ई, में [[बंगाल]] के गवर्नर-जनरल का कार्यभार संभाला। 'मिल' तथा 'बेंथम' के विचारों से प्रभावित लॉर्ड विलियम बैंटिक कट्टर 'ह्विग' (उदारवादी) प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। भारत के गवर्नर-जनरल के पद पर आसीन होने से पूर्व 1803 ई. में वह [[मद्रास]] का गवर्नर रह चुके थे। इन्हीं के कार्यकाल 1806 ई. में माथे पर जातीय चिन्ह लगाने तथा कानों में बालियाँ पहनने से मना करने पर [[वेल्लोर]] के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था।
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| ==समाज सुधार के कार्य==
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| लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारतीय समाज की अनेक बुराईयों को जड़ से समाप्त कर दिया था। उन्हें भारतीय समाज का एक बेहतरीन समाज-सुधारक- कहना ज़्यादा उचित होगा। उनके द्वारा किये गये कुछ सुधार कार्य इस प्रकार हैं-
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| ====सती प्रथा का अन्त====
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| लॉर्ड विलियम बैंटिक के ‘सामाजिक सुधारों’ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं- [[सती प्रथा]] का अंत। इससे पूर्व के गवर्नर-जनरलों में से किसी ने भी इस क्रूर प्रथा को छोड़ने या समाप्त करने का प्रयास नहीं किया था। [[राजा राममोहन राय]] जैसे प्रगतिशील विचारक भी इस प्रथा के होने से दुःखी थे। विलियम बैंटिक ने इस प्रथा के ख़िलाफ़ क़ानून बनाकर दिसम्बर, 1829 ई. में धारा 17 द्वारा विधवाओं के सती होने को अवैध घोषित किया। अपने प्रारम्भिक क्षणों में यह क़ानून मात्र 'बंगाल प्रेसीडेन्सी' में लागू किया गया, पर 1830 ई. तक इसे [[बम्बई]] तथा 'मद्रास प्रेसीडेंसी' में भी लागू कर दिया गया। 'राधाकान्त देव' जैसे रूढ़िवादी ने सती प्रथा पर प्रतिबन्ध का विरोध किया, जबकि राजा राममोहन राय तथा [[देवेन्द्रनाथ टैगोर]] जैसे प्रगतिशील लोगों ने विलियम बैंटिक के प्रति आभार प्रकट किया और [[अंग्रेज़]] सम्राट को पत्र लिखा।
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| ====शिशु हत्या व ठगी का अन्त====
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| इसी प्रकार देवी-देवताओं के सम्मुख नर-बलि को लॉर्ड विलियम बैंटिक ने बन्द करवा दिया, तथा [[राजपूत|राजपूतों]] में लड़कियों की शिशु हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया। विलियम बैंटिक के समय में 'ठगी प्रथा' का प्रचलन भी जोरों पर था। चोरों, डाकुओं व हत्यारों के समूह को 'ठग' कहा जाता था, जो प्रायः निर्दोष तथा आरक्षित व्यक्तियों को लूटा करते थे। ठगी के कार्यों में लिप्त ये लोग [[अवध]] से [[हैदराबाद]], [[राजपूताना]] तथा [[बुन्देलखण्ड]] तक सक्रिय थे। विलियम बैंटिक ने 'कर्नल स्लीमन' तथा स्थानीय रियासतों की मदद से 1830 ई. में ठगी को समाप्त करने हेतु अभियान छेड़ा। परिणामस्वरूप 1837 ई. के पश्चात् संगठित रूप से ठगों का अन्त हो गया।
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| ====समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता====
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| लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सरकारी सेवाओं में भेद-भावपूर्ण व्यवहार को ख़त्म करने के लिए 1833 ई. के एक्ट की धारा 87 के अनुसार जाति या [[रंग]] के स्थान पर योग्यता को ही सेवा का आधार माना। विलियम बैंटिक ने समाचार-पत्रों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए उनकी स्वतन्त्रता की वकालत की। वह इसे ‘असन्तोष से रक्षा का अभिद्वार’ मानते थे। उन्होंने मद्रास के सैनिक विद्रोह का उल्लेख करते हुए बताया कि, [[कलकत्ता]] (वर्तमान कोलकाता) और मद्रास दोनों जगह स्थिति एक जैसी थी, किन्तु [[मद्रास]] में विद्रोह इसलिए था, क्योंकि वहाँ समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता नहीं थी। इस प्रकार विलियम बैंटिक भारतीय समाचार-पत्रों को मुक्त करना चाहते थे। किन्तु 1835 ई.में ख़राब स्वास्थ्य के आधार पर विलियम बैंटिक द्वारा इस्तीफ़ा देने के कारण समाचार-पत्रों से प्रतिबन्ध हटा लेने का श्रेय उसके परवर्ती [[गवर्नर-जनरल]] [[चार्ल्स मेटकॉफ़]] को मिला।
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| ====शैक्षिक सुधार====
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| शिक्षा के क्षेत्र में विलियम बैंटिक ने महत्वपूर्ण सुधार किये। उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य एवं माध्यम, दोनों पर पर गहरा अध्ययन किया। शिक्षा के लिए अनुदान का प्रयोग कैसे किया जाय, यह विचारणीय विषय रहा। विवाद फँसा था कि, अनुदान का प्रयोग प्राच्य साहित्य के विकास के लिए किया जाय या फिर पाश्चात्य साहित्य के विकास के लिए। प्राच्य शिक्षा के समर्थकों का नेतृत्व 'विल्सन' व 'प्रिंसेप' ने किया तथा पाश्चात्य विद्या के समर्थकों का नेतृत्व ‘ट्रेवलियन’ ने, जिसको [[राजा राममोहन राय]] का भी समर्थन प्राप्त था। अन्ततः इस विवाद के निपटारे के लिए [[लॉर्ड मैकाले]] की अध्यक्षता में एक समिति बनी, जिसने पाश्चात्य विद्या के समर्थन में अपना निर्णय दिया। उसने अपने विचारों को [[2 फ़रवरी]], 1835 ई. के सुप्रसिद्ध स्मरण पत्र में प्रतिपादित किया। अपने प्रस्तावों में लॉर्ड मैकाले की योजना थी कि, "एक ऐसा वर्ग बनाया जाय, जो [[रंग]] तथा रक्त से तो भारतीय हो, परन्तु प्रवृति, विचार, नैतिकता तथा बुद्धि से [[अंग्रेज़]] हो।' मैकाले के विचार [[7 मार्च]], 1835 ई. को एक प्रस्ताव द्वारा अनुमोदि कर दिए गए, जिससे यह निश्चित हुआ कि, उच्च स्तरीय प्रशासन की [[भाषा]] [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] होगी। 1835 ई. में ही लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कलकत्ता में ‘कलकत्ता मेडिकल कॉलेज’ की नींव रखी।
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| ==कम्पनी के राजस्व में वृद्धि==
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| वित्तीय सुधारों के अन्तर्गत विलियम बैंटिक ने सैनिकों को दी जाने वाली भत्ते की राशि को कम कर दिया। अब कलकत्ता के 400 मील की परिधि में नियुक्त होने पर भत्ता आधा कर दिया गया। [[बंगाल]] में भू-राजस्व को एकत्र करने के क्षेत्र में प्रभावकारी प्रयास किये गये। 'राबर्ट माटिन्स बर्ड' के निरीक्षण में 'पश्चिमोत्तर प्रांत' में (आधुनिक [[उत्तर प्रदेश]]) ऐसी भू-कर व्यवस्था की गई, जिससे अधिक कर एकत्र होने लगा। अफीम के व्यापार को नियमित करते हुए इसे केवल [[बम्बई]] बंदरगाह से निर्यात की सुविधा दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] को निर्यात कर का भी भाग मिलने लगा, जिससे उसके राजस्व में बड़ी ज़बर्दस्त वृद्धि हुई।
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| ====न्यालय की भाषा====
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| लॉर्ड विलियम बैंटिक ने [[लॉर्ड कॉर्नवॉलिस]] द्वारा स्थापित प्रान्तीय, अपीलीय तथा सर्किट न्यायालयों को बन्द करवाकर, इसका कार्य मजिस्ट्रेट तथा कलेक्टरों में बांट दिया। न्यायलयों की भाषा [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के स्थान पर विकल्प के रूप में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति दी गई। ऊंचे स्तर के न्यायलयों में अंग्रेज़ी का प्रयोग होता था।
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| ==बैंटिक की नीति==
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| लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारतीय रियासतों के प्रति तटस्थ बने रहने की नीति का पालन किया। [[हैदराबाद]], [[बूँदी राजस्थान|बूंदी]], [[जोधपुर]], [[कोटा]] तथा [[भोपाल]] में विलियम बैंटिक ने अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया। 1831 ई. में [[मैसूर]] और 1834 में कुर्ग एवं कछाड़ को [[अंग्रेज़]] साम्राज्य में शामिल कर, विलियम बैंटिक ने हस्तक्षेप की नीति का पालन किया। उन्होंने [[रणजीत सिंह]] से मित्रता की तथा सन्धि के अमीरों से एक व्यापारिक सन्धि की। उन्होंने [[काबुल]] के सिंहासन के लिए [[शाहशुजा]] का पक्ष लिया।
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| ==प्रथम भारतीय गवर्नर-जनरल==
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| 1833 ई. के [[चार्टर एक्ट]] द्वारा [[बंगाल]] के [[गवर्नर-जनरल]] को [[भारत]] का [[गवर्नर-जनरल]] बना दिया गया। इस प्रकार भारत का पहला गवर्नर-जनरल "लॉर्ड विलियम बैंटिक" को ही बनाया गया।
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