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| |प्रसिद्धि=कवि
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| |विशेष योगदान=
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| |नागरिकता=भारतीय
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| |संबंधित लेख=[[पृथ्वीराजरासो]], [[रामचरितमानस]]' [[रामचन्द्र शुक्ल]], [[श्यामसुन्दर दास|श्यामसुन्दर दास]], [[मुहावरा|मुहावरों]], [[चौहान वंश|चौहानवंशीय]], [[छन्द|छन्दों]]
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| |अन्य जानकारी= जोधराज को काव्य-कला और ज्योतिष-शास्त्र का पूर्ण ज्ञान था।
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| |बाहरी कड़ियाँ=
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| |अद्यतन=
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| }}
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| '''जोधराज''' वीर-रस के उत्कृष्ट कोटि के कवि थे तथा इन्हें काव्य-कला और ज्योतिष-शास्त्र का पूर्ण ज्ञान था।। यह अत्रिगोत्रीय गौड़ वंशोत्पन्न ब्राह्मण थे। इनकी रचना पर पौराणिक आख्यानों , 'पृथ्वीराजरासो' तथा 'रामचरितमानस' का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।
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| === परिचय ===
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| जोधराज नीम राणा [[अलवर]], [[राजस्थान]] के [[चौहान वंश|चौहानवंशीय]] राजा चन्द्रभाण के आश्रित थे। इनके [[पिता]] के नाम बालकृष्ण था। इनका निवास स्थान बीजवार ग्राम था। यह अत्रिगोत्रीय गौड़ वंशोत्पन्न ब्राह्मण थे। जोधराज काव्य-कला और ज्योतिष-शास्त्र के पूर्ण पण्डित थे। इन्होंने अपने आश्रयदाता की आज्ञा से 'सम्मीररासो' लिखा था।<ref>'मम्मीररासो' छन्द 5-13</ref>
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| ==== रचनाएँ ====
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| जोधराज ने इसकी रचना-तिथि इस प्रकार दी है-
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| "चन्द्र नाग वसु पंचगिनि संवत माधव मास। शुल्क सुतृतीया जीव जुत ता दिन ग्रंथ प्रकास।"<ref>छन्द 168</ref> नाग को सात का पर्यायवाची मानने से 'हम्मीररासो' की रचना-तिथि संवत 1785 विक्रम, [[वैशाख]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ला]] 3, जीव (गुरुवार) ठहरती है। गणना करने पर ज्ञात होता है कि 1785 विक्रम में वैशाख शुक्ल तृतीय को [[गुरुवार]] नहीं पड़ा था। नाग का अर्थ आठ लेने से जोधराज कथित तिथि 1885 विक्रम वैशाख शुक्ल तृतीया वृहस्पतिवार आती है। यह तिथि गणना करने पर खरी उतरती है। अतएव जोधराज ने 'हम्मीररासो' की रचना संवत 1885 विक्रम, वैशाख शुक्ल 3, वृहस्पतिवार तदनुसार [[17 अप्रैल]], 1828 ई. को की थी। मिश्रबन्धओं, [[श्यामसुन्दर दास|श्यामसुन्दरदास]] आदि विद्वानों ने इसकी रचना-तिथि 1785 विक्रम (1728 ई.) तथा [[रामचन्द्र शुक्ल]] ने [[1875]] विक्रम (1818 ई.) मानी है पर ये मत भ्रामक हैं।
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| 'हम्मीररासो' में 969 [[छन्द]] हैं। ग्रंथ के आरम्भ में कवि ने [[गणेश]] और [[सरस्वती]] की स्तुति, आश्रयदाता तथा अपना परिचय देने के पश्चात सृष्टि-रचना, चन्द्र-सूर्य-वंश-उत्पत्ति, अग्नि-कुल-जन्म आदि का वर्णन किया है। तदनंतर [[रणथम्भौर]] के राव हम्मीर और अलाउद्दीन के युद्ध का विस्तारपूर्वक चित्रण किया गया है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश भाग-2|लेखक=डॉ. धीरेन्द्र वर्मा|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=222|url=}}</ref>
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| ==== भाषा शैली ====
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| जोधराज की रचना पर पौराणिक आख्यानों, '[[पृथ्वीराजरासो]]' तथा '[[रामचरितमानस]]' का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इन्होंने ऐतिहासिक तथ्यनिरूपण में असावधानी से काम लिया है। इस काव्य में [[वीर रस|वीर-रस]] का सफल चित्रण किया गया है। साथ ही इसमें [[श्रृंगार रस|श्रृंगार]], [[रौद्र रस|रौद्र]] और [[वीभत्स रस|वीभत्स]] आदि [[रस|रसों]] का भी अच्छा निर्वाह हुआ है और दोहरा, मोतीदाम, नाराच, कवित्त, छप्पन आदि विविध [[छन्द|छन्दों]] का प्रयोग किया गया है। हम्मीर के प्रतिद्वान्द्वी अलाउद्दीन के द्वारा आखूत (चूहा) को मरवाकर उसके चरित्र को उपहासास्पद बना दिया गया है। इसमें [[ब्रजभाषा]] के साहित्यिक रूप के दर्शन होते हैं, पर कहीं-कहीं पर उसने बोलचाल का रूप धारण कर लिया है। [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[अरबी भाषा|अरबी]] आदि के अद्भुत प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। [[मुहावरा|मुहावरों]] के प्रयोग द्वारा जोधराज ने अपनी [[भाषा]] को अधिक सवल, व्यापक और प्रौढ़ बनाया है। इस प्रकार जोधराज वीर-रस के उत्कृष्ट कोटि के कवि हैं।<ref>सहायक ग्रंथ- हि. वी; हि. सा. इ.; हि. सा. (भा. 2)।</ref>
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| {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
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| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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| <references/>
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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| ==संबंधित लेख==
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| {{साँचा:भारत के कवि}}
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| (हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2, पृ.सं, 222)
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| {{सूचना बक्सा प्रसिद्ध व्यक्तित्व
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| |चित्र=Blankimage.png
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| |चित्र का नाम=जीवाराम
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| |पूरा नाम=जीवाराम
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| |अन्य नाम=युगलप्रिया
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| |जन्म=
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| |जन्म भूमि= सारन, [[बिहार]]
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| |मृत्यु=
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| |मृत्यु स्थान=
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| |अभिभावक=पिता- पण्डित शंकरदास
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| |पति/पत्नी=
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| |संतान=
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| |गुरु=
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| |कर्म भूमि=
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| |कर्म-क्षेत्र=
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| |मुख्य रचनाएँ='रसिक प्रकाश भक्तमाल (1839 ई.)', 'पदावली' आदि।
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| |विषय=
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| |खोज=
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| |भाषा=
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| |शिक्षा=
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| |विद्यालय=
| |
| |पुरस्कार-उपाधि=
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| |प्रसिद्धि=कवि, आचार्य
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| |विशेष योगदान=
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| |नागरिकता=भारतीय
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| |संबंधित लेख=[[बिहार]], [[व्याकरण]], [[शैली]],
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| |शीर्षक 1=
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| |पाठ 1=
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| |शीर्षक 2=
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| |पाठ 2=
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| |शीर्षक 3=
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| |पाठ 3=
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| |शीर्षक 4=
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| |पाठ 4=
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| |शीर्षक 5=
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| |पाठ 5=
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| |अन्य जानकारी=[[अयोध्या]] के प्रसिद्ध रसिक महात्मा युगलानन्यशारण जीवाराम के शिष्य थे।
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| |बाहरी कड़ियाँ=
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| |अद्यतन=
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| }}
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| '''जीवाराम''' एक प्रसिद्ध कवि तथा आचार्य थे।
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| *इनको युगलप्रिया के नाम से भी जाना भी जाना जाता है।
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| *जीवाराम जी को श्रृंगारी रामभक्ति शाखा में 'सुगलप्रिया' जी 'चन्द्रकलापरत्व' के प्रमुख आचार्य कहे जाते हैं।
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| *ये सारन [[बिहार]] के निवासी पण्डित शंकरदास के पुत्र थे। घर पर [[पिता]] से [[व्याकरण]] और ज्योतिष पढ़कर इन्होंने उसी जिले के खरोंद नामक [[गाँव]] में मंसाराम से अष्टांग योग सीखा था।
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| *जीवाराम अपने पिता की अनुमति से [[अयोध्या]] आये और रसिकाचार्य रामचरणदास का शिष्यत्व प्राप्त किया।
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| *जीवाराम जी की 'रसिक प्रकाश भक्तमाल' सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कृति है। रसिक परम्परा के [[संत|संतों]] का वृत्त इसमें भक्तमाल की [[शैली]] पर प्रस्तुत किया गया है। <ref>[सहायक ग्रंथ-पुरातत्त्व निबन्धवली: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन: हिन्दीकाव्य धारा: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन; नाथ सम्प्रदाय: डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी; नाथ सिद्धों की बानियाँ: डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी; योग प्रवाह: डा. पीताम्बदत्त बड़थ्वाल]</ref>
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| *[[अयोध्या]] के प्रसिद्ध रसिक महात्मा युगलानन्यशारण जीवाराम के शिष्य थे।
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| *युगलप्रिया चार कृतियाँ निम्न हैं-
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| # रसिक प्रकाश भक्तमाल (1839 ई.)
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| # पदावली
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| # शृंगार रसरहस्य
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| # अष्टयाम वार्तिक।<ref>[[सहायक ग्रंथ- रामशक्ति में रक्षिक सम्प्रदाय: भागवती प्रसाद सिंह; रामभक्ति साहित्य में मधुर उपासना: भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र 'माधव'।]]</ref>
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| {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
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| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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| ==संबंधित लेख==
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| {{साँचा:भारत के कवि}}
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| '''चर्यागीत''' सिद्ध और नाथ परम्परा में [[संगीत]] का प्रभाव बढ़ने पर जब गायन का प्रयोग साधना की अभिव्यक्ति के लिए होने लगा तो बोधिचित्त अर्थात चित्त की जाग्रत अवस्था के गानों को 'चर्यागीत' की संज्ञा दी गयी। गीतिशैली तथा प्रतीकात्मक भाषा के प्रयोग की दृष्टि से चर्यागीत [[हिन्दी]] के संत कवियों की रचना की पृष्ठभूमि का सुन्दर परिचय देते हैं।
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| === परिचय ===
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| चर्यागीत सिद्ध और नाथ परम्परा में [[संगीत]] का प्रभाव बढ़ने पर जब गायन का प्रयोग साधना की अभिव्यक्ति के लिए होने लगा तो बोधिचित्त अर्थात चित्त की जाग्रत अवस्था के गानों को 'चर्यागीत' की संज्ञा दी गयी चर्यागीत सिद्धों के वे [[गीत]] [[पद]] हैं, जिनमें सिद्धों की मन:स्थिति प्रतीकों द्वारा व्यक्त की गयी है। [[बौद्ध साहित्य]] में चर्या का अर्थ चरित या दैनन्दिन कार्यक्रम का व्यावहारिक रूप है।
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| === ग्रंथ में वर्णन ===
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| बुद्धचर्या, जिसका वर्णन [[राहुल सांकृत्यायन]] ने आपने इसी नाम के ग्रंथ में किया है, बौद्धों की चर्या का आदर्श बन गयी और उसी का प्रयोग दैनन्दिन कार्यक्रम में बोधिचित्त के लिए होने लगा। इनमें योगिनियों के सम्मिलन, साधक की मानसिक अवस्थाओं में क्रमश: राग और आनन्द के प्रस्फुटन तथा बोधिचित्त की विभिन्न स्थितियों के सरस वर्णन किये गये हैं। इनमें प्राय: श्रृंगार, वीभत्स और उत्साह की मार्मिक व्यंजनाएँ मिलती हैं। आलम्बन के रूप में मुख्यत: स्वयं साधक आता है। नायिकाओं में प्राय: निम्न कुल से सम्बन्धित डोमनी, चाण्डाली, शबरी आदि मिलती हैं।
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| === लेखन शैली ===
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| चर्यागीत के शैली में संघाभाषा का प्रयोग हुआ है। अत: इन [[गीत|गीतों]] में प्रयुक्त नायिकाओं का प्रतीकात्मक अर्थ ही निकाला जा सकता है। कापालिक साधन के विविध उपकरणों तथा योगसाधना, तंत्राचार आदि का चमत्कारपूर्ण वर्णन भी इन गीतों में प्राप्त होता है। इनमें गीतिकाव्य के अनेक तत्त्व देखे जा सकते हैं। कदाचित सिद्धों ने जनसाधारण को आकृष्ट करने के लिए ही गीति-शैली का प्रयोग किया है। गीतिशैली तथा प्रतीकात्मक [[भाषा]] के प्रयोग की दृष्टि से चर्यागीत [[हिन्दी]] के संत कवियों की रचना की पृष्ठभूमि का सुन्दर परिचय देते हैं। [[संत|संतों]] की उलटवासियाँ चर्यागीतों की संघाभाषा की ही परम्पता में आती हैं। इन [[गीत|गीतों]] में अनेक राग-रागिनियों का प्रयोग हुआ है। वीणपा आदि की रेखाकृतियों तथा गोपीचन्द्र द्वारा निर्मित गोपीयंत्र (सारंगी) आदि से प्रमाणिक होता है कि इन गीतों का प्रयोग विभिन्न राग-रागिनोयों के अनुसार गाकर किया जाता था। सरहपा के विषय में प्रसिद्ध है कि वे कई रागों के जन्मदाता थे। महामहोपाध्याय पण्डित हरप्रसाद [[शास्त्र|शास्त्री]] ने चर्यागीतों के 18 रागों का उल्लेख किया है। [[गीत|गीतों]] में प्रयुक्त [[छन्द|छन्दों]] के सम्बन्ध में [[सुनीति कुमार चटर्जी|डा. सुनीति कुमार चटर्जी]] ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि उनमें पयार छन्द का प्रयोग हुआ है। पयार चन्द वास्तव में [[संस्कृत]] का पादाकुलक छन्द ही है।
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| === भाषा शैली ===
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| पर नहीं समझना चाहिए कि सिद्धों का सम्पूर्ण गीति-साहित्य चर्यागीत ही है। उनके साधना सम्बन्धी गीत 'वज्रगीत' के एक भिन्न नाम से अभिहित हैं। सिद्धों ने वज्रगीत और चर्यागीय की भिन्नता का बराबर संकेत किया है। चर्यागीत की भाषा आधुनिक आर्य भाषाओं के पूर्व की अपभ्रंश भाषा है परंतु हिन्दी के संत-साहित्य की भाषा, छन्द-विधान, शैली, प्रतीक, रागतत्त्व आदि के अध्ययन के लिए इन गीतों का परिचय आवश्यक है।<ref>[सहायक ग्रंथ-पुरातत्त्व निबन्धवली: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन: हिन्दीकाव्य धारा: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन; नाथ सम्प्रदाय: डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी; नाथ सिद्धों की बानियाँ: डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी; योग प्रवाह: डा. पीताम्बदत्त बड़थ्वाल]</ref><ref>(हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2, पृ.सं,183)</ref>
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| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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| ==संबंधित लेख==
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| {{बौद्ध धर्म}}
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