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| {{सूचना बक्सा प्रसिद्ध व्यक्तित्व
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| |चित्र=blankimage.jpg
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| |चित्र का नाम=
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| |पूरा नाम=बनादास
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| |अन्य नाम=
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| |जन्म=1821 ई.
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| |जन्म भूमि= [[गोंडा]], [[उत्तर प्रदेश]]
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| |मृत्यु=1892 ई.
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| |मृत्यु स्थान=[[अयोध्या]]
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| |अभिभावक=पिता- गुरुदत्तसिंह;
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| |पति/पत्नी=
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| |संतान=
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| |गुरु=
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| |कर्म भूमि=
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| |कर्म-क्षेत्र=
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| |मुख्य रचनाएँ=अर्जपत्रिका' (1851 ई.), 'नाम निरूपण' (1852 ई.), 'रामपंचाग' (1853 ई.), 'सुरसरि पंचरत्न', 'विवेक मुक्तावली', 'रामछटा', 'गरजपत्री', 'मोहिनी अष्टक'
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| |विषय=
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| |खोज=
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| |भाषा=
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| |शिक्षा=
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| |विद्यालय=
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| |पुरस्कार-उपाधि=
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| |प्रसिद्धि=
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| |विशेष योगदान=
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| |नागरिकता=भारतीय
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| |संबंधित लेख=
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| |शीर्षक 1=
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| |पाठ 1=
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| |शीर्षक 2=
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| |पाठ 2=
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| |शीर्षक 3=
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| |पाठ 3=
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| |शीर्षक 4=
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| |पाठ 4=
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| |शीर्षक 5=
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| |पाठ 5=
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| |अन्य जानकारी=बनादास जी ने 1851 ई. से 1892 ई. तक विस्तृत कविताकाल में 64 ग्रंथों की रचना की थी। इनकी रचनाओं में निर्गुणपंथी, सूफी तथा रीतिकालीन शैलियों का प्रयोग एक साथ ही मिलता है किंतु प्रतिपाद्य सबका रामभक्ति ही है।
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| |बाहरी कड़ियाँ=
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| '''बनादास''' (जन्म-1821 ई. [[गोंडा]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- 1892 ई. [[अयोध्या]]) कवि थे। इन्होंने 1851 ई. से 1892 ई. तक विस्तृत कविताकाल में 64 ग्रंथों की रचना की थी। इनकी रचनाओं में निर्गुणपंथी, सूफी तथा रीतिकालीन शैलियों का प्रयोग एक साथ ही मिलता है किंतु प्रतिपाद्य सबका रामभक्ति ही है।
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| ==== परिचय ====
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| बनादास का जन्म [[गोंडा]] ज़िले के अशोकपुर नामक गाँव में सन 1821 ई. में हुआ था। ये क्षत्रिय जाति के थे। इनके [[पिता]] का नाम गुरुदत्तसिंह था। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इन्होंने भिनगा राज्य ([[बहराइच |बहराइच]]) की सेना में नौकरी कर ली और लगभग सात वर्ष तक वहाँ रहे। इसके प्रश्चात घर लौट आये वहाँ रहते अधिक दिन नहीं बीते थे। कि इनके एकमात्र पुत्र का अकस्मात निधन हो गया। [[पुत्र]] के शव के साथ ही 1851 ई. की [[कार्तिक]] [[पूर्णिमा]] को ये [[अयोध्या]] चले गये और फिर वहीं के हो गये। आरम्भ में दो [[वर्ष]] देशाटन करके इन्होंने चौदह वर्षों तक रामघाट पर कुटी बनाकर घोर तप किया। साधना पूरी होने पर इन्हें आराध्य का साक्षात्कात हुआ। इसके अनंतर इन्होंने विक्टोरिया पार्क से संलग्न भूमि पर 'भवहरण कुंज' नामक आश्रम बनाया। इसी स्थान पर सन [[1892]] ई. को इनका साकेतवास हुआ।
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| ==== रचनाएँ ====
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| बनादास ने 1851 ई. से 1892 ई. तक विस्तृत कविताकाल में 64 ग्रंथों की रचना की थी। इन पंक्तियों के लेखक को उनमें से 61 प्राप्त हो चुके हैं। उनकी तालिका इस प्रकार है- अर्जपत्रिका' (1851 ई.), 'नाम निरूपण' (1852 ई.), 'रामपंचाग' (1853 ई.), 'सुरसरि पंचरत्न', 'विवेक मुक्तावली', 'रामछटा', 'गरजपत्री', 'मोहिनी अष्टक', 'अनुराग विवर्धक रामायण', 'पहाड़ा', 'मात्रा मुक्तावली', 'ककहरा अरिल्ल', 'ककहरा झूलना', 'ककहरा कुण्डलिया', 'ककहरा चौपाई', 'खण्डनखंग', 'विक्षेप विनास', 'आत्मबोध', 'नाम मुक्तावली', 'अनुराग रत्नावली', 'ब्रह्म संगम', 'विज्ञान मुक्तावली', 'तत्त्वप्रकाश वेदांत', 'सिद्धांतबोध वेदांत', 'शब्दातीत वेदांत', 'अनिर्वाच्य वेदांत', 'स्वरूपानन्द वेदांत', 'अक्षरातीत वेदांत', ' अनुभावानन्द वेदांत', 'वेदांत पंचाग ब्रह्मायन द्वार' (1872 ई.), 'ब्रह्मातन तत्त्व निरूपण', 'ब्रह्मायन ज्ञान मुक्तावली', 'ब्रह्मायन विज्ञान छत्तीसा', 'ब्रह्मायन शांति सुषुप्ति', 'ब्रह्मायन परमात्म बोध', 'ब्रह्मायन पराभक्ति परत्तु', 'शुद्धबोध वेदांत ब्रह्मायनसार', 'रकारादि सहस्त्रनाम' (1874 ई.), 'मकारादि सहस्रनाम' (1874 ई.), 'बजरंग विजय' (1874 ई), 'उभय प्रबोधक रामयण' (1874 ई.). 'विस्मरण सम्हार' (1874 ई.), 'सारशब्दावली' (1874 ई.), 'नाम परत्तु' (1875 ई.), 'नाम परत्तु संग्रह' (1876 ई.), 'बीजक' (1877 ई.), 'मुक्त मुक्तावली' (1877 ई.), 'गुरु माहात्म्य' (1877 ई.), 'संत समिरनी' (1882 ई.), 'समस्याबली' (1882 ई.), 'समस्याविनोद' (1882 ई.), 'झूलन पचीसी', 'शिवसुमिरनी', 'हनुमंत विजय' (1883 ई.), 'रोग पराजय' (1884 ई.), 'गजेन्द्र पंचदशी', 'प्रह्लाद पंचदशी', 'द्रौपदीपंचदशी', 'दाम दुलाई', 'अर्जपत्री', 'मोक्ष मंजरी', 'सुगन बोधक' और 'बीजक राम गायत्री'।
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| [[गोस्वामी तुलसीदास]] के बाद रचना शैलियों को विविधता, प्रबन्ध पटुता और काव्य-सौष्ठव के विचार से ये रामभक्ति शाखा के अन्यतम [[कवि]] ठहरते है। इनकी रचनाओं में निर्गुणपंथी, सूफी तथा रीतिकालीन शैलियों का प्रयोग एक साथ ही मिलता है किंतु प्रतिपाद्य सबका [[राम]]-[[भक्ति]] ही है। अब तक इनके लिखे [[ग्रंथ|ग्रंथों]] में से केवल 'उभय प्रबोधक रामायण' और 'विस्मरणसम्हार' मुद्रित हुए हैं।<ref>सहायक ग्रंथ-रामभक्ति में रसिक सम्प्रदाय: भगवती प्रसाद सिंघ</ref><ref>[सहायक ग्रंथ-पुरातत्त्व निबन्धवली: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन: हिन्दीकाव्य धारा: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन; नाथ सम्प्रदाय: डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी; नाथ सिद्धों की बानियाँ: डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी; योग प्रवाह: डा. पीताम्बदत्त बड़थ्वाल]</ref><ref>(हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2, पृ.सं, 368)</ref>
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| === निधन ===
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| बनादास का निधन सन [[1892]] ई. को हुआ।
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| {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
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| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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| ==संबंधित लेख==
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| {{भारत के कवि}}
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| '''चर्यागीत''' [[बौद्ध साहित्य]] में चर्या का अर्थ चरित या दैनन्दिन कार्यक्रम का व्यावहारिक रूप है। बुद्धचर्या, जिसका वर्णन [[राहुल सांकृत्यायन]] ने आपने इसी नाम के [[ग्रंथ]] में किया है, [[बौद्ध|बौद्धों]] की चर्या का आदर्श बन गयी और उसी का प्रयोग दैनन्दिन कार्यक्रम में बोधिचित्त के लिए होने लगा। गीतिशैली तथा प्रतीकात्मक भाषा के प्रयोग की दृष्टि से चर्यागीत [[हिन्दी]] के संत कवियों की रचना की पृष्ठभूमि का सुन्दर परिचय देते हैं।
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| === परिचय ===
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| चर्यागीत सिद्ध और नाथ परम्परा में [[संगीत]] का प्रभाव बढ़ने पर जब गायन का प्रयोग साधना की अभिव्यक्ति के लिए होने लगा तो बोधिचित्त अर्थात चित्त की जाग्रत अवस्था के गानों को 'चर्यागीत' की संज्ञा दी गयी चर्यागीत सिद्धों के वे [[गीत]] [[पद]] हैं, जिनमें सिद्धों की मन:स्थिति प्रतीकों द्वारा व्यक्त की गयी है। [[बौद्ध साहित्य]] में चर्या का अर्थ चरित या दैनन्दिन कार्यक्रम का व्यावहारिक रूप है।
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| === ग्रंथ में वर्णन ===
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| बुद्धचर्या, जिसका वर्णन [[राहुल सांकृत्यायन]] ने आपने इसी नाम के ग्रंथ में किया है, बौद्धों की चर्या का आदर्श बन गयी और उसी का प्रयोग दैनन्दिन कार्यक्रम में बोधिचित्त के लिए होने लगा। इनमें योगिनियों के सम्मिलन, साधक की मानसिक अवस्थाओं में क्रमश: राग और आनन्द के प्रस्फुटन तथा बोधिचित्त की विभिन्न स्थितियों के सरस वर्णन किये गये हैं। इनमें प्राय: श्रृंगार, वीभत्स और उत्साह की मार्मिक व्यंजनाएँ मिलती हैं। आलम्बन के रूप में मुख्यत: स्वयं साधक आता है। नायिकाओं में प्राय: निम्न कुल से सम्बन्धित डोमनी, चाण्डाली, शबरी आदि मिलती हैं।
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| === लेखन शैली ===
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| चर्यागीत के शैली में संघाभाषा का प्रयोग हुआ है। अत: इन [[गीत|गीतों]] में प्रयुक्त नायिकाओं का प्रतीकात्मक अर्थ ही निकाला जा सकता है। कापालिक साधन के विविध उपकरणों तथा योगसाधना, तंत्राचार आदि का चमत्कारपूर्ण वर्णन भी इन गीतों में प्राप्त होता है। इनमें गीतिकाव्य के अनेक तत्त्व देखे जा सकते हैं। कदाचित सिद्धों ने जनसाधारण को आकृष्ट करने के लिए ही गीति-शैली का प्रयोग किया है। गीतिशैली तथा प्रतीकात्मक [[भाषा]] के प्रयोग की दृष्टि से चर्यागीत [[हिन्दी]] के संत कवियों की रचना की पृष्ठभूमि का सुन्दर परिचय देते हैं। संतों की उलटवासियाँ चर्यागीतों की संघाभाषा की ही परम्पता में आती हैं। इन गीतों में अनेक राग-रागिनियों का प्रयोग हुआ है। वीणपा आदि की रेखाकृतियों तथा गोपीचन्द्र द्वारा निर्मित गोपीयंत्र (सारंगी) आदि से प्रमाणिक होता है कि इन गीतों का प्रयोग विभिन्न राग-रागिनोयों के अनुसार गाकर किया जाता था। सरहपा के विषय में प्रसिद्ध है कि वे कई रागों के जन्मदाता थे। महामहोपाध्याय पण्डित हरप्रसाद शास्त्री ने चर्यागीतों के 18 रागों का उल्लेख किया है। [[गीत|गीतों]] में प्रयुक्त [[छन्द|छन्दों]] के सम्बन्ध में [[सुनीति कुमार चटर्जी|डा. सुनीति कुमार चटर्जी]] ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि उनमें पयार छन्द का प्रयोग हुआ है। पयार चन्द वास्तव में [[संस्कृत]] का पादाकुलक छन्द ही है।
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| === भाषा शैली ===
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| पर नहीं समझना चाहिए कि सिद्धों का सम्पूर्ण गीति-साहित्य चर्यागीत ही है। उनके साधना सम्बन्धी गीत 'वज्रगीत' के एक भिन्न नाम से अभिहित हैं। सिद्धों ने वज्रगीत और चर्यागीय की भिन्नता का बराबर संकेत किया है। चर्यागीत की भाषा आधुनिक आर्य भाषाओं के पूर्व की अपभ्रंश भाषा है परंतु हिन्दी के संत-साहित्य की भाषा, छन्द-विधान, शैली, प्रतीक, रागतत्त्व आदि के अध्ययन के लिए इन गीतों का परिचय आवश्यक है।<ref>[सहायक ग्रंथ-पुरातत्त्व निबन्धवली: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन: हिन्दीकाव्य धारा: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन; नाथ सम्प्रदाय: डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी; नाथ सिद्धों की बानियाँ: डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी; योग प्रवाह: डा. पीताम्बदत्त बड़थ्वाल]</ref><ref>(हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2, पृ.सं,183)</ref>
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| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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| ==संबंधित लेख==
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| {{बौद्ध धर्म}}
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