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| {{सूचना बक्सा खिलाड़ी
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| |चित्र=Dola-Banerjee.jpg
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| |चित्र का नाम=डोला बनर्जी
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| |पूरा नाम=डोला बनर्जी
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| |अन्य नाम=
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| |जन्म=[[2 जून]], [[1980]]
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| |जन्म भूमि=[[झारखंड]]
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| |मृत्यु=
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| |मृत्यु स्थान=
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| |अभिभावक=
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| |पति/पत्नी=
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| |संतान=
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| |कर्म भूमि=[[भारत]]
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| |खेल-क्षेत्र=तीरंदाज़ी
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| |शिक्षा=
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| |विद्यालय=
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| |पुरस्कार-उपाधि='[[अर्जुन पुरस्कार]]', ([[2005]]), '18वां गोल्डन एरो ग्रैंड पिक्स टूर्नामेंट' ([[2005]]), 'सैफ खेल', ([[2006]])
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| |प्रसिद्धि=
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| |विशेष योगदान=
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| |नागरिकता=भारतीय
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| |संबंधित लेख=[[लिम्बा राम]], [[जयन्त तालुकदार]]
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| |शीर्षक 1=
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| |पाठ 1=
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| |शीर्षक 2=
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| |पाठ 2=
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| |अन्य जानकारी=तीरंदाज़ी में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने वाली प्रथम महिला खिलाड़ी होने का श्रेय डोला बनर्जी को जाता है। इन्हें वर्ष [[2005]] में '[[अर्जुन पुरस्कार]]' से सम्मानित किया गया हैं।
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| |बाहरी कड़ियाँ=
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| |अद्यतन=
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| '''डोला बनर्जी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Dola Banerjee'', जन्म- [[2 जून]], [[1980]], [[झारखंड]]), भारत की प्रथम तीरंदाज़ महिला खिलाड़ी हैं। जिन्हें [[ओलंपिक खेल|ओलंपिक]] के लिए क्वालीफाई किया गया था। उन्होंने 18वां ‘गोल्डन एरो ग्रैंड प्रिक्स टूर्नामेंट’ जीता। डोला को वर्ष [[2005]] में '[[अर्जुन पुरस्कार]]' से सम्मानित किया गया हैं।
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| ==परिचय==
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| डोला बनर्जी का जन्म [[2 जून]], [[1980]] को [[झारखंड]] में हुआ था। [[भारत]] की पहली महिला खिलाड़ी हैं, जिन्होंने तीरंदाज़ी में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने वाली प्रथम महिला खिलाड़ी होने का श्रेय डोला बनर्जी को जाता है। भारत में तीरंदाज़ी को मुख्य रूप से पुरुषों का खेल समझा जाता है, लेकिन डोला बनर्जी ने इस खेल में न सिर्फ भाग लिया, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सफलता भी अर्जित की।
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| डोला बनर्जी ने तीर से निशानेबाजी की शिक्षा टाटा आर्चरी अकादमी, [[जमशेदपुर]] से प्राप्त की। उन्होंने तीरंदाज़ी के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर एकमात्र सफल खिलाड़ी होने का नाम कमाया है। न्यूयार्क में हुई 42वीं ‘विश्व आउटडोर टार्गेट आर्चरी चैंपियनशिप’ में अपने कुशल प्रयास से वह सफल रहीं और डोला [[भारत]] की प्रथम तीरंदाज़ महिला बन गईं तथा [[ओलंपिक खेल|ओलंपिक खेलों]] में भाग लेने के लिए क्वालीफाई कर लिया।<ref>{{cite web |url=https://www.kaiseaurkya.com/dola-banerjee-biography-in-hindi-language/ |title=डोला बनर्जी का जीवन परिचय |accessmonthday=09 अक्टूबर |accessyear= 2016|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=कैसे और क्या |language=हिंदी }}</ref>
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| ==पुरस्कार==
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| उनकी उपलब्धियों को देखते हुए [[भारत सरकार]] ने उन्हें [[2005]] में ‘[[अर्जुन पुरस्कार]]’ देकर सम्मानित किया गया।
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| ;टूर्नामेंट
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| वर्ष [[2005]] में टर्की के अंतल्य में हुआ 18वां गोल्डन एरो ग्रैंड पिक्स टूर्नामेंट जीतकर डोला ने इतिहास रच डाला। वहाँ उन्होंने उक्रेनिया की तीसरी सीड खिलाड़ी तात्याना डोरोखोवा को हरा दिया।
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| [[2006]] में कोलंबो में हुए सैफ खेलों में डोला बनर्जी ने अपनी प्रतिद्वन्दी रीना कुमारी को हराकर महिला तीरंदाज़ी का स्वर्ण पदक जीत लिया।
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| ==उपलब्धियां==
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| #डोला बनर्जी [[भारत]] की ऐसी महिला तीरंदाज़ हैं, जिन्होंने ओलंपिक में भाग लेने के लिए क्वालीफाई किया था।
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| #वर्ष [[2005]] में उन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
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| #[[2006]] में टर्की के अंतल्य में हुए सैफ खेलों में डोला ने स्वर्ण पदक जीता।
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| #[[2006]] में कोलंबो में हुए सैफ खेलों में डोला बनर्जी ने अपनी प्रतिद्वन्दी रीना कुमारी को हराकर महिला तीरंदाज़ी का स्वर्ण पदक जीत लिया।
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| {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
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| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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| <references/>
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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| ==संबंधित लेख==
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| {{भारत के प्रसिद्ध खिलाड़ी}}
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| [[Category:खेलकूद कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]][[Category:महिला खिलाड़ी]]
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| '''नाथूराम शर्मा''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Nathuram Sharma'', जन्म- [[1859]], हंरदुआगंज, [[अलीगढ़]]; मृत्यु- [[1935]], हंरदुआगंज, [[अलीगढ़]]) बड़े साहित्यानुरागी थे। ये [[हिंदी]], [[उर्दू]], [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] तथा [[संस्कृत]] भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे और पद्यरचना में अत्यंत सिद्ध हस्त थे।
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| ==परिचय==
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| नाथूराम शर्मा का जन्म [[1859]] को हंरदुआगंज, [[अलीगढ़]] में हुआ था। इनका अन्य नाम शंकर भी है। ये [[हिंदी]], [[उर्दू]] एवं [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे तथा बाद में [[संस्कृत]] भाषा में भी पूरी तरह योग्यता अर्जित कर ली थी। नक्शानवीसी और पैमाइस का काम सीखकर वे [[कानपुर]] में नहर विभाग में नौकरी करने लगे। अपने कार्य में तो वे दक्ष थे ही दफ्तर के अंग्रेज अफसरों को हिंदी भी सिखाते थे। लगभग साढ़े सात साल वर्ष के कानपुर में इस पद पर काम करते रहे, फिर अचानक ही एक दिन स्वाभिमानी नाथूराम शर्मा ने अपने सम्मान के प्रश्न पर नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और जन्म-स्थान को लौट गये। जीविका के लिये उन्होंने नये सिरे से [[आयुर्वेद]] का अध्ययन किया और शीघ्र ही पीयूषपाणि वैद्य के रूप में विख्यात हो गये।
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| रचना का स्त्रोत उनमें प्रारम्भ से ही विद्यमान था। कहते हैं कि तेरह वर्ष की आयु में ही अपने एक साथी पर उन्होंने दोहा लिखा था। वह उर्दू-फारसी का जमाना था। मुशायरो का जोर था। बालक नाथूराम की सृजनशक्ति पहले से इस उर्दू माध्यम की ओर ही आकृष्ट हुई और वे हरदुआगंज के मुशायरों में शीघ्र ही अपना 'कलाम' पढने के लिये आमंत्रित होने लगे। परंतु इस समय तक आर्य समाज की हवा बहने लगी थी- बालक नाथूराम पर उसका भी प्रभाव पड़ा एवं कानपुर आने पर वह प्रभाव ही गहरा नहीं हुआ, भारतेंदु मण्डल के अन्यतम नक्षत्र पं. प्रतापनारायण मिश्र और उनके '[[ब्राह्मण]]' के सम्पर्क में आये। उनकी प्रतिभा 'हिंदी' के माध्यम से यही से फूटी।
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| स्वतन्त्रता काव्य-रचना के अतिरिक्त उर्दू-फारसी और [[संस्कृत]] की कविताओं एवं सूक्तियों के वे उत्तम अनुवादक भी थे। पद्मसिंह शर्मा उनसे बहुधा ऐसे अनुवाद कराया करते थे। [[कानपुर]] प्रवास में उन्होंने प्रताप नारायण मिश्र के 'ब्राह्मण' के सम्पादन में भी अपना बहुमूल्य सहयोग दिया था। फिर वे केवल कोरे साहित्यिक ही नहीं थे, राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्राम एवं आर्यसमाज के आंदोलनों में उन्होंने खुलकर निर्भयतापूर्वक काम किया था।
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| खड़ीबोली के काव्य के प्रथम निर्णायकों में नाथूराम शर्मा अग्रणी हैं एवं कविता को समाज के साथ सम्बंधित करने का ऐतिहासिक दायित्व उन्होंने निभाया है। खड़ीबोली को उन्होंने काव्यशैली एवं छंदों के साँचे ही नहीं दिये, अभिव्यंजनागत सामर्थ्य भी प्रदान की। उनके इसी ऐतिहासिक महत्त्व को ध्यान में रखते हुए ही प्रेमचंदजी ने दिल्ली प्रांतीय हिंदी साहित्य के सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में कहा था- "शायद कोई जमाना आये कि हरदुआगंज ('शंकर' की जन्मभूमि) हमारा तीर्थस्थान बन जाए।" [[काव्य]] में जिसे 'रेटासिक' तत्त्व कहते हैं, वह हमें उनके काव्य में प्रभृत मात्रा में उपलब्ध होता है, बल्कि कहना यों चाहिए कि हिंदी-काव्य में उनकी परम्पराओं में ही यह तत्त्व आज भी अप्रमुख नहीं हो सका है।
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| ==रचना==
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| 'अनुराग रत्न', 'शंकर सरोज', 'गर्मरण्डा-रहस्य', नामक ग्रंथ आपके जीवनकाल में ही प्रकाशित हो गये थे। सन [[1951]] ई. में उनकी मुक्तक कविताओं के पाँच संग्रह (गीतावली, कविता कुंज, दोहा, समस्या पूर्तियाँ, विविध रचनाएँ) 'शंकर सर्वस्व' नामक संग्रह में एक साथ संगृहीत होकर प्रकाशित हो गये हैं। इनके अतिरिक्त 'कलित कलेवर' नामक नख-सिख वर्णन सम्बन्धित रीतिकालीन परम्परा का काव्यग्रंथ और उन्होंने लिखा था, पर समसामयिक जीवन और प्रकृतियों के प्रति जागरूक शंकर जी ने उसे अपने ही हाथों नष्ट कर दिया। 'शंकर सतसई' नामक उनका एक अन्य ग्रंथ जल कर नष्ट हो गया था।
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| शंकर जी का रचनाकाल भारतेन्दु-युग से लेकर द्विवेदी युग तक प्रसरित है। वे वास्तव में एक प्रकार से संक्रांति युग के [[कवि]] थे। उनका रचनाकाल का सबसे अधिक उर्वत समय वह था, जब [[आर्य समाज]] एवं [[भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन]] जोर पकड़ रहे थे। [[भारतेंदु युग|भारतेंदु-युग]] की परिणति [[द्विवेदी युग]] में हो रही थी। [[साहित्य]] के विषय ही नहीं, भाषा भी बदल गयी थी। उस समय पुराने के प्रति मोह भी था, विवेक के आलोक में नये को ग्रहण करने की चेष्टा भी की थी। महाकवि 'शंकर' में ये सभी प्रवृत्तियाँ बद्धमूल थीं।
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| 'शंकर' जी अपनी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार तथा युगीन रुचियों में दो पूर्ववर्ती परम्पराओं से सम्बंधित थे। एक परम्परा उर्दू-काव्य और उसके मुशायरों की थी तथा दूसरी रीतिकालीन [[ब्रजभाषा]] के कवित्त, [[सवैया]] एवं [[दोहा|दोहों]] की शृंगारी परम्परा थी। दोनों ही परम्पराएँ एवं वाकृ-कौशल पर बल देती थीं। दोनों में ही अभ्यास एवं लक्षणशास्त्र पर अत्यधिक बल दिया था। पदक, पुरस्कार उपहार एवं वाह-वाही कवि लिये नितान्त गौरव का विषय होते थे। 'शंकर' भी [[उर्दू]] और [[हिंदी]] में चमत्कारपूर्ण [[कविता|कविताएँ]] लिखते थे। समस्या पूर्तियों में तो वे निष्णात थे। जीवन में सैकड़ों समस्या पूर्तियाँ उन्होंने कीं और उनके आधार पर सम्मानित हुए। 'भारत प्रज्ञेंदु', 'साहित्य सुधाधर' आदि दर्जनों उपाधियाँ उन्हें अपनी इस सहज चमत्कारिणी कवित्व शक्ति के लिए प्राप्त हुई थी। उनकी अभिव्यंजना का यह वैदग्ध्य नवीन भाषा एवं काव्य के नवीन विषयों को अपनाने के बाद भी सुरक्षित रहा।
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| उनका वास्तविक महत्त्व उन चमत्कारपूर्ण व्यंजनाओं की अपेक्षा उस शक्ति में निहित है, जिसके कारण वे नये जीवन की समस्याओं को समझ सके थे। उस जीवन नें उन्हें आन्दोलित एवं प्रेरित किया था। यदि यह शक्ति उनमें न होती तो न तो [[रीतिकाल]] के रम-बोध में पगा उनका मन देश-भक्ति एवं समाज-सुधार की सैकड़ों कविताएँ एवं 'गर्भरण्डा रहस्य' जैसा प्रबंध-काव्य एक सामाजिक समस्या पर लिख पाते और न वे खड़ीबोली को [[काव्य]] के क्षेत्र में इतने सरस शक्तिपूर्ण ढंग से आत्मविश्वासपूर्वक प्रयुक्त कर पाते। [[महावीर प्रसाद द्विवेदी]] ने जब गद्य-पद्य की [[भाषा|भाषाओं]] को एक रूप करने के लिए 'सरस्वती' के माध्यम से प्रयास प्रारम्भ किया, तब खड़ीबोली की 'सरस्वती' में प्रकाशित कविताओं के बारे में अपनी राय लिखते हुए डा. ग्रिसर्सन ने उन्हें नीरस बताया था। द्विवेदी जी ने 'शंकर जी' से 'सरस्वती' की लाज रखने की प्रार्थना की। इस प्रार्थना के परिणामस्वरूप 'शंकर' की 'सरस्वती' में प्रकाशित कविताएँ पढ़कर ग्रियर्सन ने खड़ीबोली की कविताओं के सम्बंध में अपनी सम्मति को परिवर्तन करते हुए द्विवेदी जी को लिखा- "अब मैं निश्चय पूर्वक कह सकता हूँ कि खड़ीबोली में भी सुंदर और सरस कविताएँ हो सकती है।" खड़ीबोली में उनके लिखे कवित्त आज भी बेजोड़ माने जाते हैं। साहित्य के क्षेत्र में गतानुर्गातिकता और आडम्बर को छिंन्न-भिन्न करके सर्वथा नवीन प्रणालियों के प्रयोक्ताओं में से एक प्रमुख प्रयोक्त का गौरव उन्हें मिलना चाहिये। देश की आर्थिक दुरवस्था, किसानों की गरीबी और दरिद्रता का उन्होंने मर्मस्पर्शी चित्रण किया है- "कैसे पेट अकिंचन सोय रहे, बिन भोजन बालक रोय रहे, चिथड़े तक भी न रहे तन पै, धिक धूल पड़े इस जीवन पै।" सम्प्रदायवाद गुरुडम, धृर्तता को उन्होंने धिक्कारा है, [[भारत]] की शस्त्रहीनता पर क्षोभ प्रकट किया है। पराधीनता पर मर्मांतक वेदना का प्रकाशन किया है। रिश्वतखोर अफसरों एवं सूदखोर को डाँट पिलायी है। शिल्पकला की दुर्दशा पर आँसू बहाये हैं, कूपमण्डूकता का तिरस्कार किया है। धर्म के पाखण्डियों के पाखण्ड का निर्मम-भाव से उदघाटन किया है। अपने [[युग]] की समस्त नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक समस्याओं पर उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से विचार किया है।
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| सुधार एवं संघर्ष-युग की प्रवृत्ति के अनुकूल यह जागरूकता यद्यपि प्रत्यक्ष एवं स्थूल रूप से प्रकट हुई है पर इससे उन प्रदेश के ऐतिहासिक महत्त्व में कमी नहीं आती, जो 'शंकर' की वाणी द्वारा हिंदी काव्य के विषय क्षेत्र एवं [[भाषा]] को प्राप्त हुआ है। उनके मन में काव्य एवं छंद की एकता गहरे रूप में विद्यमान थी- इसी कारण पुराने विषयों में ही नहीं, नयी शैली में भी छंद सम्बंधी त्रटियाँ उनमें अपवाद के लिये भी प्राप्त नहीं होती। [[छंद|छंदों]] के अनेक नये एवं सशक्त प्रयोग भी उन्होंने किये हैं। दो छंदों के मिश्रण से नये छंद भी उन्होंने बनाये हैं जैसे त्रोटकात्मक (मिलिंदपाद) तथा कजली गैसे लोकछंदों को भी उन्होंने अपनाया है। मात्रिक छंदों में भी समान वर्णों की योजना का दस्साध्य कार्य उन्होंने किया है। कवित्त छंद के तो वे पण्डित थे। 'सनेही' जी ने अपने प्रारम्भिक रचनाकाल में उनसे प्रशंसा पायी थी। वास्तव में 'सनेही' एवं 'रत्नाकर' की परम्परा के वे बीज थे। उनका ब्रजभाषा कवि का रूप रत्नाकर में निखरता है एवं खड़ीबोली की घनाक्षरी-सवैया की परम्परा 'सनेही स्कूल' में पष्पित-पल्लवित होती है।
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| अपने हास्य एवं व्यंग्य के लिए जिस सचोट भाषा का उन्होंने उपयोग किया है, उसके कारण 'शंकर जी' की भाषा के बारे में एक भ्रम फैल गया है कि वे पुरुष शब्दावली का प्रयोग करते हैं। यह बात सत्य नहीं है। उनके श्रृंगार, करुण एवं शांत रससम्बंधी छंदों की भाषा मृदुल एवं श्रृतिप्रिय है। अपने व्यंग्य-काव्य अवश्य उन्होंने मधुरता की ओर ध्यान नहीं दिया। पर यह विषय का तकाजा था। व्यंग्य-व्यय लिखने के लिए भाषा को अधिक समर्थ और शाक्तिशाली होना भी चाहिए। नाथूराम जी की भाषा में यह सत्य पूर्णिमा निर्हित है। 'गर्भरण्डा रहस्य' में विधवाओं की बुरी स्थिति एवं मन्दिरों में चलने वाले दुराचार की इसी करारी भाषा में बखिया उधेडन की गयी है। वास्तव में अनेक सामाजिक विषयों पर लिखे गये काव्य का मृलस्वर ओजपूर्ण है। [[पद्मसिंह शर्मा]] उनके [[काव्य]] में रस, [[अलंकार]], [[छंद]] आदि परम्परागत तत्त्वों पर मुग्ध थे और इसी कारण आधुनिक कवियों में उन्हें सर्वश्रेष्ठ एवं अनेक अंशों में प्राचीन [[कवि|कवियों]] से ही अच्छा समझते थे। इतिहासज्ञ काशीप्रसाद जायसवाल ने उन्हें नयी पद्य-रचना के मूल आचार्यों में से माना था एवं इस नवीनता से अभिभूत गणेश शंकर विद्यार्थी ने उनमें 'जबरदस्त मौलिकता' देखी थी।
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| ==मृत्यु==
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| नाथूराम शर्मा की मृत्यु हंरदुआगंज नामक कस्बे में सन [[1935]] ई. में हुआ थी।
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| {{प्रचार}}
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| {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}}
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| {{संदर्भ ग्रंथ}}
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| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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| ==संबंधित लेख==
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| {{साहित्यकार}}
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| [[Category:साहित्यकार]]
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| [[Category:साहित्य कोश]]
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| [[Category:लेखक]][[Category:आधुनिक लेखक]]
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| [[Category:आधुनिक साहित्यकार]]
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