"दुश्मन का स्वार्थ": अवतरणों में अंतर
('{{पुनरीक्षण}} ;दुश्मन का स्वार्थ एक पर्वत के समीप बिल ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - " महान " to " महान् ") |
||
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
'''दुश्मन का स्वार्थ''' [[पंचतंत्र]] की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता [[विष्णु शर्मा|आचार्य विष्णु शर्मा]] हैं। | |||
==कहानी== | |||
<poem style="background:#fbf8df; padding:15px; font-size:16px; border:1px solid #003333; border-radius:5px"> | |||
एक पर्वत के समीप बिल में मंदविष नामक एक बूढा सांप रहता था। अपनी जवानी में वह बडा रौबीला सांप था। जब वह लहराकर चलता तो बिजली-सी कौंध जाती थी पर बुढापा तो बडे-बडों का तेज हर लेता हैं। बुढापे की मार से मंदविष का शरीर | एक [[पर्वत]] के समीप बिल में मंदविष नामक एक बूढा [[सांप]] रहता था। अपनी जवानी में वह बडा रौबीला सांप था। जब वह लहराकर चलता तो बिजली-सी कौंध जाती थी पर बुढापा तो बडे-बडों का तेज हर लेता हैं। बुढापे की मार से मंदविष का शरीर कमज़ोर पड गया था। उसके विषदंत हिलने लगे थे और फुफकारते हुए दम फूल जाता था। जो चूहे उसके साए से भी दूर भागते थे, वे अब उसके शरीर को फांदकर उसे चिढाते हुए निकल जाते। पेट भरने के लिए चूहों के भी लाले पड गए थे। मंदविष इसी उधेडबुन में लगा रहता कि किस प्रकार आराम से भोजन का स्थाई प्रबंध किया जाए। एक दिन उसे एक उपाय सूझा और उसे आजमाने के लिए वह दादुर सरोवर के किनारे जा पहुंचा। दादुर सरोवर में मेंढकों की भरमार थी। वहां उन्हीं का राज था। मंदविष वहां इधर-उधर घूमने लगा। तभी उसे एक पत्थर पर मेंढकों का राजा बैठा नजर आया। मंदविष ने उसे नमस्कार किया 'महाराज की जय हो।' | ||
मेंढकराज चौंका 'तुम! तुम तो हमारे बैरी हो। मेरी जय का नारा क्यों लगा रहे हो?' | |||
मंदविष विनम्र स्वर में बोला 'राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं आप मेंढकों की सेवा करके पापों को धोना चाहता हूं। श्राप से मुक्ति चाहता हूं। ऐसा ही मेरे नागगुरु का आदेश हैं।' | |||
मेंढकराज ने पूछा 'उन्होंने ऐसा विचित्र आदेश क्यों दिया?' | |||
मंदविष विनम्र स्वर में बोला 'राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं आप | मंदविष ने मनगढंत कहानी सुनाई 'राजन्, एक दिन मैं एक उद्यान में घूम रहा था। वहां कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। ग़लती से एक बच्चे का पैर मुझ पर पड गया और बचाव स्वाभववश मैंने उसे काटा और वह बच्चा मर गया। मुझे सपने में भगवान [[श्रीकृष्ण]] नजर आए और शाप दिया कि मैं [[वर्ष]] समाप्त होते ही पत्थर का हो जाऊंगा। मेरे गुरुदेव ने कहा कि बालक की मृत्यु का कारण बन मैंने कृष्णजी को रुष्ट कर दिया हैं, क्योंकि बालक कॄष्ण का ही रुप होते हैं। बहुत गिडगिडाने पर गुरुजी ने शाप मुक्ति का उपाय बताया। उपाय यह हैं कि मैं वर्ष के अंत तक मेंढकों को पीठ पर बैठाकर सैर कराऊं।' | ||
मंदविष की बात सुनकर मेंढकराज चकित रह गया। सांप की पीठ पर सवारी करने का आज तक किस मेंढक को श्रेय प्राप्त हुआ? उसने सोचा कि यह तो एक अनोखा काम होगा। मेंढकराज सरोवर में कूद गया और सारे मेंढकों को इकट्ठा कर मंदविष की बात सुनाई। सभी मेंढक भौंचक्के रह गए। | |||
एक बूढा मेंढक बोला 'मेंढक एक सर्प की सवारे करें। यह एक अदभुत बात होगी। हम लोग संसार में सबसे श्रेष्ठ मेंढक माने जाएंगे।' | |||
एक सांप की पीठ पर बैठकर सैर करने के लालच ने सभी मेंढकों की अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। सभी ने ‘हां’ में ‘हां’ मिलाई। मेंढकराज ने बाहर आकर मंदविष से कहा 'सर्प, हम तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हैं।' | |||
मंदविष ने मनगढंत कहानी सुनाई 'राजन्, एक दिन मैं एक उद्यान में घूम रहा था। वहां कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। | बस फिर क्या था। आठ-दस मेंढक मंदविष की पीठ पर सवार हो गए और निकली सवारी। सबसे आगे राजा बैठा था। मंदविष ने इधर-उधर सैर कराकर उन्हे सरोवर तट पर उतार दिया। मेंढक मंदविष के कहने पर उसके सिर पर से होते हुए आगे उतरे। मंदविष सबसे पीछे वाले मेंढक को गप्प खा गया। अब तो रोज यही क्रम चलने लगा। रोज मंदविष की पीठ पर मेंढकों की सवारी निकलती और सबसे पीछे उतरने वाले को वह खा जाता। | ||
एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंदविष को मेंढकों को ढोते देख लिया। बाद में उसने मंदविष को बहुत धिक्कारा 'अरे! क्यों सर्प जाति की नाक कटवा रहा हैं?' | |||
मंदविष | |||
एक बूढा | |||
एक सांप की पीठ पर बैठकर सैर करने के लालच ने सभी | |||
बस फिर क्या था। आठ-दस | |||
एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंदविष को | |||
मंदविष ने उत्तर दिया 'समय पडने पर नीति से काम लेना पडता हैं। अच्छे-बुरे का मेरे सामने सवाल नहीं हैं। कहते हैं कि मुसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पडे तो बनाओ।' | मंदविष ने उत्तर दिया 'समय पडने पर नीति से काम लेना पडता हैं। अच्छे-बुरे का मेरे सामने सवाल नहीं हैं। कहते हैं कि मुसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पडे तो बनाओ।' | ||
मंदविष के दिन मजे से कटने लगे। वह पीछे वाले वाले मेंढक को इस सफाई से खा जाता कि किसी को पता न लगता। मेंढक अपनी गिनती करना तो जानते नहीं थे, जो गिनती द्वारा माजरा समझ लेते। | |||
मंदविष के दिन मजे से कटने लगे। वह पीछे वाले वाले | एक दिन मेंढकराज बोला 'मुझे ऐसा लग र्हा हैं कि सरोवर में मेंढक पहले से कम हो गए हैं। पता नहीं क्या बात हैं?' | ||
मंदविष ने कहा 'हे राजन, सर्प की सवारी करने वाले महान् मेंढक राजा के रुप में आपकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही हैं। यहां के बहुत से मेंढक आपका यश फैलाने दूसरे सरोवरों, तलों व झीलों में जा रहे हैं।' | |||
एक दिन | मेंढकराज की गर्व से छाती फूल गई। अब उसे सरोवर में मेंढकों के कम होने का भी ग़म नहीं था। जितने मेंढक कम होते जाते, वह यह सोचकर उतना ही प्रसन्न होता कि सारे संसार में उसका झंडा गड रहा हैं। | ||
आखिर वह दिन भी आया, जब सारे मेंढक समाप्त हो गए। केवल मेंढकराज अकेला रह गया। उसने स्वयं को अकेले मंदविष की पीठ पर बैठा पाया तो उसने मंदविष से पूछा 'लगता हैं सरोवर में मैं अकेला रह गया हूं। मैं अकेला कैसे रहूंगा?' | |||
मंदविष ने कहा 'हे राजन, सर्प की सवारी करने वाले | |||
आखिर वह दिन भी आया, जब सारे | |||
मंदविष मुस्कुराया 'राजन, आप चिन्ता न करें। मैं आपका अकेलापन भी दूर कर दूंगा।' | मंदविष मुस्कुराया 'राजन, आप चिन्ता न करें। मैं आपका अकेलापन भी दूर कर दूंगा।' | ||
ऐसा कहते हुए मंदविष ने मेंढकराज को भी गप्प से निगल लिया और वहीं भेजा जहां सरोवर के सारे मेंढक पहुंचा दिए गए थे। | |||
;सीख- शत्रु की बातों पर विश्वास करना अपनी मौत को दावत देना है। | |||
</poem> | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{पंचतंत्र की कहानियाँ}} | |||
[[Category: | [[Category:कथा साहित्य]][[Category:पंचतंत्र की कहानियाँ]][[Category:कहानी]][[Category:साहित्य कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
14:12, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
दुश्मन का स्वार्थ पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।
कहानी
एक पर्वत के समीप बिल में मंदविष नामक एक बूढा सांप रहता था। अपनी जवानी में वह बडा रौबीला सांप था। जब वह लहराकर चलता तो बिजली-सी कौंध जाती थी पर बुढापा तो बडे-बडों का तेज हर लेता हैं। बुढापे की मार से मंदविष का शरीर कमज़ोर पड गया था। उसके विषदंत हिलने लगे थे और फुफकारते हुए दम फूल जाता था। जो चूहे उसके साए से भी दूर भागते थे, वे अब उसके शरीर को फांदकर उसे चिढाते हुए निकल जाते। पेट भरने के लिए चूहों के भी लाले पड गए थे। मंदविष इसी उधेडबुन में लगा रहता कि किस प्रकार आराम से भोजन का स्थाई प्रबंध किया जाए। एक दिन उसे एक उपाय सूझा और उसे आजमाने के लिए वह दादुर सरोवर के किनारे जा पहुंचा। दादुर सरोवर में मेंढकों की भरमार थी। वहां उन्हीं का राज था। मंदविष वहां इधर-उधर घूमने लगा। तभी उसे एक पत्थर पर मेंढकों का राजा बैठा नजर आया। मंदविष ने उसे नमस्कार किया 'महाराज की जय हो।'
मेंढकराज चौंका 'तुम! तुम तो हमारे बैरी हो। मेरी जय का नारा क्यों लगा रहे हो?'
मंदविष विनम्र स्वर में बोला 'राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं आप मेंढकों की सेवा करके पापों को धोना चाहता हूं। श्राप से मुक्ति चाहता हूं। ऐसा ही मेरे नागगुरु का आदेश हैं।'
मेंढकराज ने पूछा 'उन्होंने ऐसा विचित्र आदेश क्यों दिया?'
मंदविष ने मनगढंत कहानी सुनाई 'राजन्, एक दिन मैं एक उद्यान में घूम रहा था। वहां कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। ग़लती से एक बच्चे का पैर मुझ पर पड गया और बचाव स्वाभववश मैंने उसे काटा और वह बच्चा मर गया। मुझे सपने में भगवान श्रीकृष्ण नजर आए और शाप दिया कि मैं वर्ष समाप्त होते ही पत्थर का हो जाऊंगा। मेरे गुरुदेव ने कहा कि बालक की मृत्यु का कारण बन मैंने कृष्णजी को रुष्ट कर दिया हैं, क्योंकि बालक कॄष्ण का ही रुप होते हैं। बहुत गिडगिडाने पर गुरुजी ने शाप मुक्ति का उपाय बताया। उपाय यह हैं कि मैं वर्ष के अंत तक मेंढकों को पीठ पर बैठाकर सैर कराऊं।'
मंदविष की बात सुनकर मेंढकराज चकित रह गया। सांप की पीठ पर सवारी करने का आज तक किस मेंढक को श्रेय प्राप्त हुआ? उसने सोचा कि यह तो एक अनोखा काम होगा। मेंढकराज सरोवर में कूद गया और सारे मेंढकों को इकट्ठा कर मंदविष की बात सुनाई। सभी मेंढक भौंचक्के रह गए।
एक बूढा मेंढक बोला 'मेंढक एक सर्प की सवारे करें। यह एक अदभुत बात होगी। हम लोग संसार में सबसे श्रेष्ठ मेंढक माने जाएंगे।'
एक सांप की पीठ पर बैठकर सैर करने के लालच ने सभी मेंढकों की अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। सभी ने ‘हां’ में ‘हां’ मिलाई। मेंढकराज ने बाहर आकर मंदविष से कहा 'सर्प, हम तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हैं।'
बस फिर क्या था। आठ-दस मेंढक मंदविष की पीठ पर सवार हो गए और निकली सवारी। सबसे आगे राजा बैठा था। मंदविष ने इधर-उधर सैर कराकर उन्हे सरोवर तट पर उतार दिया। मेंढक मंदविष के कहने पर उसके सिर पर से होते हुए आगे उतरे। मंदविष सबसे पीछे वाले मेंढक को गप्प खा गया। अब तो रोज यही क्रम चलने लगा। रोज मंदविष की पीठ पर मेंढकों की सवारी निकलती और सबसे पीछे उतरने वाले को वह खा जाता।
एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंदविष को मेंढकों को ढोते देख लिया। बाद में उसने मंदविष को बहुत धिक्कारा 'अरे! क्यों सर्प जाति की नाक कटवा रहा हैं?'
मंदविष ने उत्तर दिया 'समय पडने पर नीति से काम लेना पडता हैं। अच्छे-बुरे का मेरे सामने सवाल नहीं हैं। कहते हैं कि मुसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पडे तो बनाओ।'
मंदविष के दिन मजे से कटने लगे। वह पीछे वाले वाले मेंढक को इस सफाई से खा जाता कि किसी को पता न लगता। मेंढक अपनी गिनती करना तो जानते नहीं थे, जो गिनती द्वारा माजरा समझ लेते।
एक दिन मेंढकराज बोला 'मुझे ऐसा लग र्हा हैं कि सरोवर में मेंढक पहले से कम हो गए हैं। पता नहीं क्या बात हैं?'
मंदविष ने कहा 'हे राजन, सर्प की सवारी करने वाले महान् मेंढक राजा के रुप में आपकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही हैं। यहां के बहुत से मेंढक आपका यश फैलाने दूसरे सरोवरों, तलों व झीलों में जा रहे हैं।'
मेंढकराज की गर्व से छाती फूल गई। अब उसे सरोवर में मेंढकों के कम होने का भी ग़म नहीं था। जितने मेंढक कम होते जाते, वह यह सोचकर उतना ही प्रसन्न होता कि सारे संसार में उसका झंडा गड रहा हैं।
आखिर वह दिन भी आया, जब सारे मेंढक समाप्त हो गए। केवल मेंढकराज अकेला रह गया। उसने स्वयं को अकेले मंदविष की पीठ पर बैठा पाया तो उसने मंदविष से पूछा 'लगता हैं सरोवर में मैं अकेला रह गया हूं। मैं अकेला कैसे रहूंगा?'
मंदविष मुस्कुराया 'राजन, आप चिन्ता न करें। मैं आपका अकेलापन भी दूर कर दूंगा।'
ऐसा कहते हुए मंदविष ने मेंढकराज को भी गप्प से निगल लिया और वहीं भेजा जहां सरोवर के सारे मेंढक पहुंचा दिए गए थे।
- सीख- शत्रु की बातों पर विश्वास करना अपनी मौत को दावत देना है।