हिंदी साहित्य का पुनरालोकन -विद्यानिवास मिश्र

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हिंदी साहित्य का पुनरालोकन -विद्यानिवास मिश्र
'हिंदी साहित्य का पुनरालोकन' का आवरण पृष्ठ
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक हिंदी साहित्य का पुनरालोकन
प्रकाशक प्रभात प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2000
ISBN 81-7315-307-8
देश भारत
पृष्ठ: 128
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

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हिंदी साहित्य का पुनरालोकन हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

हिंदी साहित्य के पुनरालोकन की आवश्यकता कई कारणों से है। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में यह तर्क दिया जा रहा है कि खड़ी बोली का साहित्य ही इतना विशाल है कि छात्रों पर व्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी समृद्ध साहित्य परंपराओं से परिचय कराना अनावश्यक बोझ है। विद्यापति, मीरा, सूर, तुलसी, देव, बिहारी, पद्माकर, ठाकुर ये सभी हटा दिए जाएँ। एक तो भाषा की कठिनाई, दूसरे इन कवियों की भावभूमि भी छात्र के लिए अप्रासंगिक है। हिंदी के बाहर के विश्वविद्यालयों के ठूँठे अध्यापक का भी मान रखना है, बस हिंदी साहित्य का आरंभ नई रोशनी जब से हिंदुस्तान में आई, अर्थात् उन्नीसवीं सदी के आरंभ से माना जाये। इसके विपरीत देश के बाहर के विश्वविद्यालयों के साहित्य मर्मज्ञ कहते हैं कि हमें तो इस साहित्य की गहराई में ले चलिए, जो हमारे लिए स्पृहणीय है। केवल आधुनिक साहित्य हमारे यहाँ पढ़ाएँगें, यह तो ढेरों हमारे पास भी है। हमारे यहाँ अध्यापक के साथ कुछ रचनाकार भी जुड़ गए हैं, कुछ स्वयंभू आलोचक भी जुड़ गए हैं और आधुनिकता के नाम पर केवल बॉब-कट से संतोष नहीं।

पुस्तक के कुछ अंश

हिंदी क्षेत्र में बीस-इक्कीस लोक भाषाओं के उपक्षेत्र सन्निविष्ट हैं। इनमें से प्रत्येक की अपनी एक उपमानक हिंदी है, जो स्थानीय रंग के कारण सार्वदेशिक मान्यता प्राप्त नहीं है; परंतु इन सभी उपमानकों के बीच संप्रेषणीयता का मानक रूप बनता रहता है। उसी का नाम हिंदी है। वह रूप लोगों के मन में बराबर नियंत्रक रूप में रहता है। व्यापक समुदाय तक पहुँचने की इच्छा हिंदी को संकीर्ण नहीं होने देती, न वह उसे थोड़े से शिष्ट लोगों की जुबान बनने का अभिमान पालने देती है। भाषा स्तर पर जो ऊपर बात कही गई वही भाव स्तर पर भी लागू है। हिंदी का आंचलिक साहित्य भी परिवेश चाहे निजी रखे, पर उसे छोटे से परिवेश के माध्यम से बड़े देश की बात करता है। प्रेमचंद हों। वृन्दावन लाल वर्मा हों, फणीश्वरनाथ रेणु हों। इन सभी में उस बड़े देश की चिंता रेखांकित है। बरसों पहले राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की सन्निधि में रहने का भाग्य मिला था। कुछ ढीठ हो गया था। एक दिन उनसे बातचीत हो रही थी प्रेमचंद के बारे में। मेरे मुँह से निकला ‘बाबूजी, प्रेमचंद बड़े ठस्स लगने लगते हैं। शरत चंद्र की तरह छूते नहीं’। बाबू जी ने बड़ी मुलायमित से समझाया-‘तुम तो पारंपरिक परिवार के हो, जानते हो न कि संयुक्त परिवार में एक कर्ता होता है। वह सब परिवार जनों का हित सोचता है। उसके लिए सभी बच्चे अपने होते हैं। उसी प्रकार घर में एक पुरखिन होती है, जो सबकी माँ होती है।
यह कर्ता, यह पुरखिन घर के हर व्यक्ति का दुःख अपने ऊपर ले लेते हैं। वे कभी रोते नहीं, कभी भावोच्छवासित नहीं होते। दूसरे सदस्य रो लेंगे, कोस लेंगे, लड़ लेंगे, पर कर्ता को। पुरखिन को, इसकी अनुमति नहीं है। हिंदी की भूमिका कर्ता की है। हिंदी उपन्यास की नायिका भी रोएगी नहीं, पति के मरने पर भी संयम बनाए रहेगी, बनी रहेगी। हिंदी साहित्य का महत्त्व इस दृष्टि से फिर से समझने की कोशिश करो। मैं आज भी उनकी बात याद करता हूँ तो लगता है, साहित्य की समझदारी विश्वविद्यालयों से नहीं आती, वह देश की प्रकृति की सही समझ से आती है, साहित्य के गहरे अनुशीलन से आती है। जो लोग एकांगी भाव से तुलसी को छोड़कर कबीर की बात करते हैं वे ज़माने के क़रीब हैं, वे सर्वहारा हैं। वे क्या जानेंगे, किस भूख की ज्वाला ने तुलसी को तपाया है। वे कभी कवितावली पढ़ेंगे। वे कभी यह मार्मिक पंक्ति पढ़ेंगे-‘नहिं दरिद्रसम दु:ख जग माहीं।’ वे कबीर में आक्रोश तो देखेंगे, पर हरि को बिलोने वाली उमंग नहीं देख पाएँगे। वे विद्यापति का उत्तान श्रृंगार देखेंगे, पर ‘माधव अपरूब तोहर सिनेह। अपने बिरह अपन तनु जरजर जिवइत भेल संदेह’ की अपार व्याकुलता नहीं देख पाते। -विद्यानिवास मिश्र[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिंदी साहित्य का पुनरालोकन (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 9 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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