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श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 11-19

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एकादश स्कन्ध : एकविंशोऽध्यायः (21)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकविंशोऽध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद


शक्ति, अशक्ति, बुद्धि और वैभव के अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रता की व्यवस्था होती है। उसमें भी स्थान और उपयोग करने वाले की आयु का विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओं के व्यवहार का दोष ठीक तरह से आँका जाता है। (जैसे धनी-दरिद्र, बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान्-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्था के भेद से शुद्धि और अशुद्धि की व्यवस्था में अन्तर पड़ जाता है।) । अनाज, लकड़ी, हाथी दाँत आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेज, घी आदि रस, सोना-पारा आदि तैजस पदार्थ, चाम और घड़ा आदि मिट्टी के बने पदार्थ समय पर अपने-आप हवा लगने से, आग में जलाने से, मिट्टी लगाने से अथवा जल में धोने से शुद्ध हो जाते हैं। देश, काल और अवस्था के अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्री के संयोग से शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं-कहीं एक-एक से भी शुद्धि हो जाती है । यदि किसी वस्तु में कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलने से या मिट्टी आदि मलने से जब उस पदार्थ की गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूप में आ जाय, तब उसको शुद्ध समझना चाहिये । स्नान, दान, तपस्या, वय, सामर्थ्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है। इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य को विहित कर्मों का आचरण करना चाहिये । गुरुमुख से सुनकर भलीभाँति हृदयगम कर लेने से मन्त्र की और मुझे समर्पित कर देने से कर्म की शुद्धि होती है। उद्धवजी! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म—इन छहों के शुद्ध होने से धर्म और अशुद्ध होने से अधर्म होता है । कहीं-कहीं शास्त्रविधि से गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ब्राम्हण के लिये सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्र के लिये दोष हैं। और दूध आदि का व्यापार वैश्य के लिये विहित हैं; परन्तु ब्राम्हण के लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तु के विषय में किसी के लिये गुण और किसी के लिये दोष का विधान गुण और दोषों की वास्तविकता का खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोष का यह भेद कल्पित है । जो लोग पतित हैं, वे पतितों का-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, जब कि श्रेष्ठ पुरुषों के लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है। जैसे गृहस्थों के लिये स्वाभाविक होने के कारण अपनी पत्नी का संग पाप नहीं है; परन्तु संन्यासी के लिये घोर पाप है। उद्धवजी! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है, वह गिरेगा कहाँ ? वैसे ही जो पहले से ही पतित हैं, उनका अब और पतन क्या होगा ? जिन-जिन दोषों और गुणों से मनुष्य का चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओं के बन्धन से वह मुक्त हो जाता है। मनुष्यों के लिये यह निवृत्ति रूप धर्म ही परम कल्याण का साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भय को मिटाने वाला है । उद्धवजी! विषयों में कहीं भी गुणों का आरोप करने से उस वस्तु के प्रति आसक्ति हो जाती है। आसक्ति होने से उसे अपने पास रखने की कामना हो जाती है और इस कामना की पूर्ति में किसी प्रकार की बाधा पड़ने पर लोगों में परस्पर कलह होने लगता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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