श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-8

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एकादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (10)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद


लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव! साधक को चाहिये कि सब तरह से मेरी शरण में रहकर (गीता-पञ्चरात्र आदि में) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मों का सावधानी से पालन करें। साथ ही जहाँ तक उनसे विरोध न हो वहाँ तक निष्काम भाव से अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार भी अनुष्ठान करे । निष्काम होने का उपाय यह है कि स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए अपने चित्त में यह विचार करे कि जगत् के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयों को सत्य समझकर उनकी प्राप्ति के लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख , इसके सम्बन्ध में ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्नावस्था में और मनोरथ करते समय जाग्रत्-अवस्था में भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकार के विषयों का अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तु शून्य होने के कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा होने वाली भेद बुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तु विषयक होने के कारण पूर्ववत् असत्य ही है । जो पुरुष मीर शरण में है, उसे अन्तर्मुख करने वाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मों का बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये जो बहिर्मुख बनाने वाले अथवा सकाम हों। जब आत्माज्ञान की उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानों का भी आदर नहीं करना चाहिये । अहिंसा आदि यमों का तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमों का पालन शक्ति के अनुसार और आत्मज्ञान के विरोधी न होने पर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुष के लिये यम और नियमों के पालन से भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरु की, जो मेरे स्वरूप को जानने वाले और शान्त हों, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करें । शिष्य को अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसी से डाह न करे—किसी का बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्य में कुशल हो—उसे आलस्य छू न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरु के चरणों में दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानी से पूरा करे। सदा परमार्थ के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा बनाये रखे। किसी के गुणों में दोष न निकाले और व्यर्थ की बात न करे । जिज्ञासु का परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थों में एक सम आत्मा को देखे और किसी में कुछ विशेषता का आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे । उद्धव! जैसे जलने वाली लकड़ी से उसे जलाने और प्रकाशित करने वाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करने पर जान पड़ता है कि पञ्चभूतों का बना स्थूल शरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्वों का बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड़ हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करने वाला आत्मा साक्षी एवं स्वयं प्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड़ हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देह की अपेक्षा आत्मा में महान् विलक्षणता है। अतएव देह से आत्मा भिन्न है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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